Posted on 13 Sep, 2013 12:34 PMनाव चल रही है चढ़ान पर, डाँड़ चलाता चला जा रहा है मल्लाह। नाव भारी है, बैठे हैं विदेश के यात्री, तैयारी है, कई कुर्सियाँ पड़ी हुई हैं। एक घुमाता है अपना कैमरा-किनारे ताने छाता धूप बचाती हुई एक ही तो नारी है, स्वस्थ, सलोने, आकर्षक सब हैं, प्यारी है काशी की छवि। इन्हें ध्यान भी क्या कुछ आता
Posted on 13 Sep, 2013 12:11 PMदेख रहा हूँ गंगा के उस पार धूल की धारा बहती चली जा रही है, चढ़-चढ़कर वायु-तरंगो पर, अपने बल से बढ़-चढ़कर धूसर करती हुई क्षितिज को, वृक्ष-मूल की शोभा हरित सस्य की निखरी,विषम कूल की अखिल शून्यता हरती है छवि से मढ़-मढ़कर मानव-आकृतियाँ निःस्वन गति से पढ़-पढ़कर जीवन-मंत्र कहानी देतीं शूल-फूल की।
Posted on 13 Sep, 2013 11:56 AMदशाश्वमेध घाट पर गंगा की धारा है तट पर जल के ऊपर ऊँचे भवन खड़े हैं विपुल गुहा-कक्षी ज्यों क्षुद्र पहाड़ गड़े हैं। बिजली जली ज्योति से भग्न तिमिर कारा है। तोड़ मारते जल-प्रवाह का स्वर न्यारा है। जल पर पीपल की शाखा के छत्र पड़े हैं दल-दल के तम से बिजली के स्रोत लड़े हैं तम्साच्छन्न क्षितिज-तरुश्रेणी, नभ सारा है।
Posted on 13 Sep, 2013 11:45 AMतुम्हे याद है अँजोरिया? हम तुम दोनों नहीं सो सके, रहे घूमते नदी किनारे मुग्ध देखते प्यार-भरी आँखों से प्यारे भूमि-गगन के रूप-रंग को। यों तो टोनों
पर विश्वास नहीं मेरा, पर टोने ही सा कुछ प्रभाव हम दोनों पर था। कभी ताकते भरा चाँद, फिर लहरों को, फिर कभी नापते अंतर का आनंद डगों से, जो यात्री-सा
Posted on 10 Sep, 2013 01:46 PMदिल्ली के विभिन्न इलाकों में बनी बावड़ियों में से कई तो ऐसी हैं, जिन्हें बनवाए हुए 600 से 800 साल या उससे भी अधिक का समय गुजर चुका है। इनमें से कुछ तो अभी भी बची हुई हैं। हां, जिस संरक्षण और संवर्धन के इरादे से इनका निर्माण किया गया था, अब उनमें पानी नहीं रह गया है। उनका पानी आस-पास के विकास की बलि चढ़ गया। हालांकि इस विकास के बाद उनके आस-पास रहने आने वालों के लिए पानी उतना ही जरूरी है जितना कि सैकड़ों साल पहले यहां रहने वालों के लिए था। हां, तब उन्हें बोतलबंद मिनरल वाटर नहीं मिलता था, भले ही इन मिनरल वाटर की बोतलों में मिनरल के अलावा सब कुछ हो।दिल्ली के ज्ञात इतिहास में बावड़ी बनाने का काम इल्तुतमिश के शासन काल के दौरान शुरू किए जाने के ही प्रमाण हैं। दिल्ली में बावड़ी के विकास पर एक नजर डाली जाए तो कम-से-कम दो दर्जन बावड़ियों का पता चलता है। इनका इस्तेमाल गुज़रे कल की दिल्ली और दिल्लीवालों ने अपने जीवन की सबसे प्रमुख जरूरत पानी की आवश्यकता को पूरा करने के लिए किया। ये बावड़ियां उस समय की दिल्ली के लगभग सभी हिस्सों में बनाई गई थीं। यहां यह याद रखना जरूरी है कि जब ये बावड़ियां बनाई जा रही थीं तब की दिल्ली मुख्य रूप से यमुना के पश्चिमी किनारे और रिज की पहाड़ियों के बीच ही हुआ करती थी। इस पुस्तक में शामिल की गई बावड़ियों की सूची को अंतिम नहीं कहा जा सकता। हो सकता है कि 1,000 साल से पुराने शहर में और भी बावड़ियां रही हों। शायद जो हों भी, वे भी विकास की भेंट चढ़ गई हों, अभी भी कूड़े-कचरे, मिट्टी से ढकी कहीं हों। उनके बारे में जानकारी आमतौर पर उपलब्ध नहीं है। इनका पता लगाकर उन्हें फिर बहाल किए जाने की आवश्यकता है। ऐसा किया जा पाना तकनीकी दृष्टि से संभव है और ऐसा भी किया जाना चाहिए।