दिल्ली के विभिन्न इलाकों में बनी बावड़ियों में से कई तो ऐसी हैं, जिन्हें बनवाए हुए 600 से 800 साल या उससे भी अधिक का समय गुजर चुका है। इनमें से कुछ तो अभी भी बची हुई हैं। हां, जिस संरक्षण और संवर्धन के इरादे से इनका निर्माण किया गया था, अब उनमें पानी नहीं रह गया है। उनका पानी आस-पास के विकास की बलि चढ़ गया। हालांकि इस विकास के बाद उनके आस-पास रहने आने वालों के लिए पानी उतना ही जरूरी है जितना कि सैकड़ों साल पहले यहां रहने वालों के लिए था। हां, तब उन्हें बोतलबंद मिनरल वाटर नहीं मिलता था, भले ही इन मिनरल वाटर की बोतलों में मिनरल के अलावा सब कुछ हो।दिल्ली के ज्ञात इतिहास में बावड़ी बनाने का काम इल्तुतमिश के शासन काल के दौरान शुरू किए जाने के ही प्रमाण हैं। दिल्ली में बावड़ी के विकास पर एक नजर डाली जाए तो कम-से-कम दो दर्जन बावड़ियों का पता चलता है। इनका इस्तेमाल गुज़रे कल की दिल्ली और दिल्लीवालों ने अपने जीवन की सबसे प्रमुख जरूरत पानी की आवश्यकता को पूरा करने के लिए किया। ये बावड़ियां उस समय की दिल्ली के लगभग सभी हिस्सों में बनाई गई थीं। यहां यह याद रखना जरूरी है कि जब ये बावड़ियां बनाई जा रही थीं तब की दिल्ली मुख्य रूप से यमुना के पश्चिमी किनारे और रिज की पहाड़ियों के बीच ही हुआ करती थी। इस पुस्तक में शामिल की गई बावड़ियों की सूची को अंतिम नहीं कहा जा सकता। हो सकता है कि 1,000 साल से पुराने शहर में और भी बावड़ियां रही हों। शायद जो हों भी, वे भी विकास की भेंट चढ़ गई हों, अभी भी कूड़े-कचरे, मिट्टी से ढकी कहीं हों। उनके बारे में जानकारी आमतौर पर उपलब्ध नहीं है। इनका पता लगाकर उन्हें फिर बहाल किए जाने की आवश्यकता है। ऐसा किया जा पाना तकनीकी दृष्टि से संभव है और ऐसा भी किया जाना चाहिए।ऐसा किया जाना दिल्ली और दिल्लीवालों दोनों के लिए लाभकारी हो सकता है।
दिल्ली एक ऐसा शहर है, जिसमें करीब डेढ़ दर्जन किले या उनके अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। इनमें से कुछ किलों और शहरों का तो पहले उल्लेख किया जा चुका है और कुछ की जानकारी आगे मिलेगी। किलों और शहरों की विस्तृत चर्चा करना इस पुस्तक के दायरे में नहीं लाया गया है। राजधानी के सभी प्रमुख किलों के अंदर बावड़ियां बनाए जाने के प्रमाण हैं। दिल्ली के चार प्रमुख शहरों के केंद्र के रूप में बने किलों और महलों में एक-एक बावड़ी होने का पता चलता है। ये बावड़ियां लाल किला, फिरोजशाह कोटला, पुराना किला और तुगलकाबाद में हैं। पहले तीन किलों की बावड़ियां तो अभी भी काम कर पाने की स्थिति में हैं। तुगलकाबाद के किले और तुगलकाबाद गांव में चार बावड़ियां होने के प्रमाण हैं। इस किले के अंदर बनी बावड़ियों में अब पानी नहीं रह गया है, क्योंकि उनमें बने पानी के प्राकृतिक स्रोत सूख गए हैं। महरौली को तो ‘बावड़ियों का शहर’ ही कहा जा सकता है। राजधानी के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण हिस्से महरौली और उसके आस-पास ही चार बावड़ियां देखी जा सकती हैं। दिल्ली के विभिन्न इलाकों में बनी बावड़ियों में से कई तो ऐसी हैं, जिन्हें बनवाए हुए 600 से 800 साल या उससे भी अधिक का समय गुजर चुका है। इनमें से कुछ तो अभी भी बची हुई हैं। हां, जिस संरक्षण और संवर्धन के इरादे से इनका निर्माण किया गया था, अब उनमें पानी नहीं रह गया है। उनका पानी आस-पास के विकास की बलि चढ़ गया।
हालांकि इस विकास के बाद उनके आस-पास रहने आने वालों के लिए पानी उतना ही जरूरी है जितना कि सैकड़ों साल पहले यहां रहने वालों के लिए था। हां, तब उन्हें बोतलबंद मिनरल वाटर नहीं मिलता था, भले ही इन मिनरल वाटर की बोतलों में मिनरल के अलावा सब कुछ हो। कुछ कूड़ा-मिट्टी भर जाने और उन पर इमारतें आदि बना दिए जाने के कारण हमेशा के लिए मिट गईं। कुछ को अभी भी पुनर्विकसित और संरक्षित किया जा सकता है। कुछ तो केवल कागज़ों पर ही तलाशी जा सकती हैं। अब उनके बारे में यही कहा जा सकता है कि अमुक जगह पर कभी एक बावड़ी हुआ करती थी। खारी बावड़ी अब केवल एक प्रमुख थोक बाजार का नाम रह गया है। वह बावड़ी कहां गई, पता नहीं। यह बावड़ी इस इलाके में बने बाजारों और गोदामों के बीच कहीं दबी हुई है। उसकी तलाश कर पाना या अब उसको फिर से काम करने लायक बना पाना अब नामुमकिन ही लगता है। शाहजहानाबाद विकास बोर्ड इस दिशा में प्रयास कर पाने की स्थिति में है। आवश्यकता इसे प्राथमिकता दिए जाने की है। किताबों में रह गई बावड़ियों को पानी के प्रति हमारी असंवेदनशीलता के प्रतीक के रूप में रेखांकित किया जा सकता है।
जिन बावड़ियों के बारे में इस पुस्तक में चर्चा की जा रही है, उनमें से चार दिल्ली के सबसे पुराने शहर महरौली में हैं। इन्हें ‘राजों की बैन’, ‘गंधक की बावड़ी’, ‘कुतुबशाह की बावड़ी’ और ‘औरंगजेब की बावड़ी’ के नाम से जाना जाता है। उपलब्ध ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर महरौली में बनी ‘गंधक की बावड़ी’ को दिल्ली की सबसे पुरानी बावड़ी कहा जा सकता है। सबसे खूबसूरत और भव्य बावड़ी दिल्ली के दिल कहे जाने वाले कनॉट प्लेस के पास है। अब आप कनॉट प्लेस तो जाते ही रहते हैं, तो एक बार उग्रसेन की बावड़ी देख लीजिए। यदि आप पुरानी दिल्ली, सदर बाजार, करोल बाग या उसके आस-पास मध्य दिल्ली में रहते हैं तो नबी करीम के पास ‘कदम शरीफ की बावड़ी’ देखने जा सकते हैं। यह अलग बात है कि अब वहां बनाई गई बावड़ी की पुरानी भव्यता और खूबसूरती देखने को नहीं मिलेगी। उसके अस्तित्व के कुछ प्रमाण ही तलाश करने पर दिखाई दें। इससे आपको निराशा हो सकती है। उत्तरी दिल्ली के लोग नॉर्दन रिज पर हिंदू राव अस्पताल के पास बनी बावड़ी के बचे-खुचे अवशेषों को देखकर उसकी खूबसूरती और भव्यता का अनुमान लगा सकते हैं। इस बात पर भी विचार कर सकते हैं कि क्या इसे फिर से विकसित किया जा सकता है? तो कैसे? भारत की आजादी के पहले संग्राम में नॉर्दन रिज और उसके आस-पास की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही। दिल्ली विश्वविद्यालय और उसका परिवार इस क्षेत्र के संरक्षण और विकास में बहुत बड़ा योगदान कर पाने की स्थिति में है। डीयू में जानकारी, तकनीक और संसाधनों की कमी नहीं है, आवश्यकता उनके उपयोग की है। आवश्यकता अपने आस-पास के पर्यावरण के प्रति अधिक संवेदनशील होने की है। इन मामलों में कहीं ज्यादा सक्रिय और सक्षम युवा पीढ़ी को इस दिशा में प्रेरित करने की आवश्यकता है। वे अपने आस-पास के पर्यावरण के प्रति निश्चय ही हमसे ज्यादा संवेदनशील हैं। उनमें जोश और कुछ कर दिखाने की योग्यता व क्षमता भी है। उन्हें इस ओर प्रेरित किए जाने की आवश्यकता है।
नई दिल्ली और दक्षिणी दिल्ली में रहने वाले लोग साउथ एक्सटेंशन, पार्ट-वन के साथ बने कोटला मुबारकपुर की बावड़ी का पता और अनुमान लगाने का काम कर सकते हैं। उनके पास हजरत निजामुद्दीन की दरगाह के पास जाकर बावड़ी देख पाने का विकल्प भी है। लाडो सराय में फर्नीचर की शॉपिंग के बीच यदि समय मिल जाए तो यहां की कहीं खो गई बावड़ी का पता लगाने के लिए कुछ समय निकाल सकते हैं। दक्षिण-पश्चिम दिल्ली और द्वारका के निवासियों को तो अब तलाशने पर भी बवड़ियों के प्रमाण नहीं मिल पाएंगे। यह ज़रूर है कि उनके घर के पास कभी बावड़ियां हुआ करती थीं। इससे उनके लिए निराश होने की जरूरत नहीं है। वे पानी के इन परंपरागत संसाधनों का कोई विकल्प तलाशने पर विचार कर सकते हैं। वे कल, आज और आने वाले कल में भी अपनी जरूरत का पूरा पानी पा सकेंगे, इसकी फिलहाल उन्हें ज्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए। इसलिए इन इलाकों में रहने वालों के लिए और भी जरूरी है कि वे रेन वाटर हार्वेस्टिंग और वाटर रीसाइक्लिंग जैसी योजनाओं पर आज से विचार करने और उन्हें क्रियान्वित करने के लिए काम करना शुरू कर दें। आर.के.पुरम, मुनीरका और आस-पास के इलाकों में रहने वालों को आर-के-पुरम के सेक्टर 5 में बावड़ी देखने को मिल सकती है। वे इसके आस-पास लोदी शासकों के कार्यकाल में बनी ऐतिहासिक इमारतों के रख-रखाव में भागीदार बनकर बहुत कुछ कर सकते हैं। लाजपत नगर, भोगल, निजामुद्दीन और उसके आस-पास के लोग हजरत निजामुद्दीन की दरगाह और अरब की सराय में जाएं तो उन्हें आज भी बावड़ी देखने का अवसर है। सैकड़ों साल पहले विकसित किए गए इन संसाधनों के संरक्षण और पुनर्वास में आज की विकसित तकनीक व जानकारी का इस्तेमाल किए जाने की संभावनाओं पर तो विचार किया ही जा सकता है।
आइए, आपको दिल्ली में पानी के इस परंपरागत स्रोत की सैर पर ले चलते हैं। एक बार आप वहां आएं तो मुझे पूरा भरोसा है कि ये बावड़ियां आपको पसंद आएंगी। इनके माध्यम से आप अपने शहर के अतीत के एक और रूप से परिचित हो सकेंगे। हो सकता है कि इनसे प्रेरणा लेकर आप पानी बचाने, उसका बेहतर इस्तेमाल करने के बारे में कुछ और सोचने तथा शायद कुछ करने के लिए तैयार हो जाएं, ऐसा नहीं भी कर सकें तो इन्हें देख और जानकर आप अपने शहर को कुछ और अच्छे तरीके से जान सकेंगे और ‘दिल्लीवाला’ कहलाने पर और भी गर्व कर सकेंगे। दिल्ली की बावड़ियां इतनी भव्य और आकर्षक हैं कि देखने वालों का मन मोह लेती हैं। काश, इनमें हमेशा साफ पानी भरा रह पाता तो इनकी सुदंरता में चार चांद और लग जाते। इनकी मरम्मत कर दी जाए, इनमें पानी भर दिया जाए, इन्हें और इनके आस-पास के इलाके को हरा-भरा बना दिया जाए, रंग-बिरंगी रोशनी से सजा दिया जाए तो यह राजधानी के लिए एक अतिरिक्त आकर्षण बन सकती हैं। कभी आप भी इन बावड़ियों को देखने के लिए निकलिए। ये आपसे बहुत दूर भी नहीं हैं। आप अपने घर और काम-काज की जगहों से दूर होने के कारण इन बावड़ियों को देखने जाने से कतराएं मत। इनमें से तो अनेक घर के आस-पास ही हैं।
दिल्ली में बावड़ियों की यात्रा खासी रोचक हो सकती है। हर बावड़ी को देखने के लिए परिवार के साथ या फिर दोस्तों के साथ एक पिकनिक के रूप में या फिर अपने शहर को जानने के लिए अकेले भी जाया जा सकता है। राजधानी में इतनी सारी बावड़ियां हैं कि बावड़ियों की एक अलग ट्रिप भी बनाई जा सकती है। सारी बावड़ियां एक साथ देखना जरूरी नहीं है। यह भी जरूरी नहीं है कि सब देखी ही जाएं। ये इतनी दूरी पर बनी हुई हैं कि एक बार में सारी देख पाएंगे, ऐसा कर पाना संभव भी नहीं है। एक ही इलाके या आस-पास के इलाकों में बनी बावड़ियां एक साथ देख सकते हैं। आप अपनी सुविधा से ऐसा कर सकते हैं। आइए, हम आपको ले चलते हैं दिल्ली की बावड़ियों की यात्रा पर। शुरू करते हैं दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस से। आप कहेंगे कि कनॉट प्लेस में बावड़ी? कनॉट प्लेस और बावड़ी, भला इन दोनों में क्या संबंध हो सकता है। कनॉट प्लेस में बावड़ी कहां से आ गई? लेकिन सच मानिए, कनॉट प्लेस में बावड़ी है और बेहद ही भव्य व आकर्षक! बस, आप एक बार वहां जाइए तो मान जाएंगे कि इतने साल दिल्ली में रहने के बाद भी इसे आपने अब तक देखा क्यों नहीं!
कनॉट प्लेस के सेंट्रल पार्क से चंद मिनटों की दूरी पर एक बहुत ही भव्य ऐतिहासिक इमारत और बावड़ी है। वहां तक आप पैदल भी जा सकते हैं। इसे ‘उग्रसेन की बावड़ी’ के नाम से पहचाना जाता है। आधुनिक बहुमंजिली इमारतों के बीच कहीं खो गई इस बावड़ी को आप एक बार देखकर तो आएं! आप इसकी भव्यता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। इस बावड़ी में पानी नाम मात्र को ही रह गया है। कबूतरों व चमगादरों की आवाजें और उनके द्वारा फैलाई गई गंदगी की ओर आप ज्यादा ध्यान नहीं दे तो यह इमारत ऐसी है, जहां कि आप दुबारा आना ज़रूर पसंद करेंगे। इसकी निर्माण कला और जब इसे बनाया गया होगा, तब और आज के निर्माताओं को उपलब्ध तकनीकी जानकारी एवं संसाधनों से उस समय के निर्माताओं की तुलना करे। गुज़रे कल के लोगों के इस योगदान को सराहे बिना रह ही नहीं सकते। बाराखंबा रोड और कस्तूरबा गांधी मार्ग के बीच अतुलग्रोव रोड के साथ बनी यह बावड़ी दिल्ली की सर्वश्रेष्ठ बावड़ी कही जा सकती है। यह बावड़ी कस्तूरबा गांधी मार्ग, फिरोजशाह रोड और बाराखंभा रोड के त्रिकोण के बीच बनी रिहायशी और कॉमर्शियल बहुमंजिली इमारतों के बीच छिपी हुई है। टॉलस्टॉय मार्ग से होकर भी यहां तक पहुंचा जा सकता है। हेली रोड और हेली लेन से होकर भी आप वहां तक पहुंच सकते हैं। इस समय इस बावड़ी में थोड़ा पानी ही दिखाई देता है। इसको साफ किए जाने की जरूरत है। बावड़ी में पानी की कमी के मुख्य रूप से दो कारण हैं – एक, इसमें बरसाती पानी आने के सारे रास्ते बंद कर दिए गए हैं और दूसरा आस-पास की बहुमंजिली इमारतों में पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए ज़मीन के अंदर के पानी का लगातार इस्तेमाल किया जा रहा है। इस कारण से यह बावड़ी पानी के बिना सूनी है।
भू-जल का लगातार इस्तेमाल किए जाते रहने के कारण कनॉट प्लेस और उसके आस-पास के इलाके में जमीन के अंदर के पानी का स्तर बहुत अधिक गिर चुका है। इस हरी-भरी नई दिल्ली में भू-जल के गिरते स्तर को रोकने के लिए कोई प्रभावकारी प्रयास नहीं किया गया है और नहीं किया जा रहा है। दिल्ली के इस दिल में जमीन के अंदर के पानी को रीचार्ज करने की अपार संभावनाएं हैं। कनॉट प्लेस के सेंट्रल पार्क को फिर से विकसित किए जाते समय इसकी बेसमेंट पहले ही भरी हुई है। वहां वाटर बॉडी तो है, लेकिन उसमें पानी नहीं रहता। पानी की कमी के कारण फव्वारे कभी ही चलते दिखाई देते हैं। यह तो स्थिति है जबकि इसे बनाए हुए चंद साल ही हुए हैं। तो अब 600 से 700 साल पहले की बावड़ी के संरक्षण के बारे में अधिक नहीं कहना ही ठीक होगा। इस सबके बाद भी इस बावड़ी की पांच मंजिली इमारत की प्राचीन भव्यता आज भी बरकरार है। ये मंजिले जमीन के ऊपर नहीं, नीचे की ओर बनी हुई हैं।
इस बावड़ी के परिसर में बने बरामदों और कमरों में भीषण गर्मी में भी ठंडक का अहसास होता है। इनमें से तो कुछ रख-रखाव के अभाव में हमेशा के लिए खो गए हैं। इमारत के परिसर की आस-पास की जमीन हथिया ली गई है। इस इमारत का रास्ता बताने के लिए इक्का-दुक्का ही संकेत चिह्न लगे हैं, लेकिन उससे परेशान नहीं हों। इसकी तलाश में आपको कहीं दूर भी नहीं जाना होगा। निकलिए तो इसे तलाशने। यह दिल्ली की संरक्षित इमारतों में से एक है। इसकी देखभाल की जिम्मेदारी केंद्र सरकार के ‘आर्केलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया’ का है। यहां पर एक विभाग द्वारा लगाए गए बोर्ड में यह लिखा है कि ‘यह एक संरक्षित इमारत है। इसको नुकसान पहुंचानेवालों पर सजा और जुर्माना किया जा सकता है।’ यह क्या है? क्यों है? कैसे बनी? जैसे सवालों के जवाब देनेवाला बोर्ड बहुत सीमित जानकारी ही दे पाता है।
दिल्ली के किले और उनकी बावड़ियां
दिल्ली एक ऐसा शहर है, जिसमें करीब डेढ़ दर्जन किले या उनके अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। इनमें से कुछ किलों और शहरों का तो पहले उल्लेख किया जा चुका है और कुछ की जानकारी आगे मिलेगी। किलों और शहरों की विस्तृत चर्चा करना इस पुस्तक के दायरे में नहीं लाया गया है। राजधानी के सभी प्रमुख किलों के अंदर बावड़ियां बनाए जाने के प्रमाण हैं। दिल्ली के चार प्रमुख शहरों के केंद्र के रूप में बने किलों और महलों में एक-एक बावड़ी होने का पता चलता है। ये बावड़ियां लाल किला, फिरोजशाह कोटला, पुराना किला और तुगलकाबाद में हैं। पहले तीन किलों की बावड़ियां तो अभी भी काम कर पाने की स्थिति में हैं। तुगलकाबाद के किले और तुगलकाबाद गांव में चार बावड़ियां होने के प्रमाण हैं। इस किले के अंदर बनी बावड़ियों में अब पानी नहीं रह गया है, क्योंकि उनमें बने पानी के प्राकृतिक स्रोत सूख गए हैं। महरौली को तो ‘बावड़ियों का शहर’ ही कहा जा सकता है। राजधानी के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण हिस्से महरौली और उसके आस-पास ही चार बावड़ियां देखी जा सकती हैं। दिल्ली के विभिन्न इलाकों में बनी बावड़ियों में से कई तो ऐसी हैं, जिन्हें बनवाए हुए 600 से 800 साल या उससे भी अधिक का समय गुजर चुका है। इनमें से कुछ तो अभी भी बची हुई हैं। हां, जिस संरक्षण और संवर्धन के इरादे से इनका निर्माण किया गया था, अब उनमें पानी नहीं रह गया है। उनका पानी आस-पास के विकास की बलि चढ़ गया।
हालांकि इस विकास के बाद उनके आस-पास रहने आने वालों के लिए पानी उतना ही जरूरी है जितना कि सैकड़ों साल पहले यहां रहने वालों के लिए था। हां, तब उन्हें बोतलबंद मिनरल वाटर नहीं मिलता था, भले ही इन मिनरल वाटर की बोतलों में मिनरल के अलावा सब कुछ हो। कुछ कूड़ा-मिट्टी भर जाने और उन पर इमारतें आदि बना दिए जाने के कारण हमेशा के लिए मिट गईं। कुछ को अभी भी पुनर्विकसित और संरक्षित किया जा सकता है। कुछ तो केवल कागज़ों पर ही तलाशी जा सकती हैं। अब उनके बारे में यही कहा जा सकता है कि अमुक जगह पर कभी एक बावड़ी हुआ करती थी। खारी बावड़ी अब केवल एक प्रमुख थोक बाजार का नाम रह गया है। वह बावड़ी कहां गई, पता नहीं। यह बावड़ी इस इलाके में बने बाजारों और गोदामों के बीच कहीं दबी हुई है। उसकी तलाश कर पाना या अब उसको फिर से काम करने लायक बना पाना अब नामुमकिन ही लगता है। शाहजहानाबाद विकास बोर्ड इस दिशा में प्रयास कर पाने की स्थिति में है। आवश्यकता इसे प्राथमिकता दिए जाने की है। किताबों में रह गई बावड़ियों को पानी के प्रति हमारी असंवेदनशीलता के प्रतीक के रूप में रेखांकित किया जा सकता है।
महरौली बावड़ियों का शहर
जिन बावड़ियों के बारे में इस पुस्तक में चर्चा की जा रही है, उनमें से चार दिल्ली के सबसे पुराने शहर महरौली में हैं। इन्हें ‘राजों की बैन’, ‘गंधक की बावड़ी’, ‘कुतुबशाह की बावड़ी’ और ‘औरंगजेब की बावड़ी’ के नाम से जाना जाता है। उपलब्ध ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर महरौली में बनी ‘गंधक की बावड़ी’ को दिल्ली की सबसे पुरानी बावड़ी कहा जा सकता है। सबसे खूबसूरत और भव्य बावड़ी दिल्ली के दिल कहे जाने वाले कनॉट प्लेस के पास है। अब आप कनॉट प्लेस तो जाते ही रहते हैं, तो एक बार उग्रसेन की बावड़ी देख लीजिए। यदि आप पुरानी दिल्ली, सदर बाजार, करोल बाग या उसके आस-पास मध्य दिल्ली में रहते हैं तो नबी करीम के पास ‘कदम शरीफ की बावड़ी’ देखने जा सकते हैं। यह अलग बात है कि अब वहां बनाई गई बावड़ी की पुरानी भव्यता और खूबसूरती देखने को नहीं मिलेगी। उसके अस्तित्व के कुछ प्रमाण ही तलाश करने पर दिखाई दें। इससे आपको निराशा हो सकती है। उत्तरी दिल्ली के लोग नॉर्दन रिज पर हिंदू राव अस्पताल के पास बनी बावड़ी के बचे-खुचे अवशेषों को देखकर उसकी खूबसूरती और भव्यता का अनुमान लगा सकते हैं। इस बात पर भी विचार कर सकते हैं कि क्या इसे फिर से विकसित किया जा सकता है? तो कैसे? भारत की आजादी के पहले संग्राम में नॉर्दन रिज और उसके आस-पास की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही। दिल्ली विश्वविद्यालय और उसका परिवार इस क्षेत्र के संरक्षण और विकास में बहुत बड़ा योगदान कर पाने की स्थिति में है। डीयू में जानकारी, तकनीक और संसाधनों की कमी नहीं है, आवश्यकता उनके उपयोग की है। आवश्यकता अपने आस-पास के पर्यावरण के प्रति अधिक संवेदनशील होने की है। इन मामलों में कहीं ज्यादा सक्रिय और सक्षम युवा पीढ़ी को इस दिशा में प्रेरित करने की आवश्यकता है। वे अपने आस-पास के पर्यावरण के प्रति निश्चय ही हमसे ज्यादा संवेदनशील हैं। उनमें जोश और कुछ कर दिखाने की योग्यता व क्षमता भी है। उन्हें इस ओर प्रेरित किए जाने की आवश्यकता है।
आपके आस-पास बावड़ियां-ही-बावड़ियां
नई दिल्ली और दक्षिणी दिल्ली में रहने वाले लोग साउथ एक्सटेंशन, पार्ट-वन के साथ बने कोटला मुबारकपुर की बावड़ी का पता और अनुमान लगाने का काम कर सकते हैं। उनके पास हजरत निजामुद्दीन की दरगाह के पास जाकर बावड़ी देख पाने का विकल्प भी है। लाडो सराय में फर्नीचर की शॉपिंग के बीच यदि समय मिल जाए तो यहां की कहीं खो गई बावड़ी का पता लगाने के लिए कुछ समय निकाल सकते हैं। दक्षिण-पश्चिम दिल्ली और द्वारका के निवासियों को तो अब तलाशने पर भी बवड़ियों के प्रमाण नहीं मिल पाएंगे। यह ज़रूर है कि उनके घर के पास कभी बावड़ियां हुआ करती थीं। इससे उनके लिए निराश होने की जरूरत नहीं है। वे पानी के इन परंपरागत संसाधनों का कोई विकल्प तलाशने पर विचार कर सकते हैं। वे कल, आज और आने वाले कल में भी अपनी जरूरत का पूरा पानी पा सकेंगे, इसकी फिलहाल उन्हें ज्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए। इसलिए इन इलाकों में रहने वालों के लिए और भी जरूरी है कि वे रेन वाटर हार्वेस्टिंग और वाटर रीसाइक्लिंग जैसी योजनाओं पर आज से विचार करने और उन्हें क्रियान्वित करने के लिए काम करना शुरू कर दें। आर.के.पुरम, मुनीरका और आस-पास के इलाकों में रहने वालों को आर-के-पुरम के सेक्टर 5 में बावड़ी देखने को मिल सकती है। वे इसके आस-पास लोदी शासकों के कार्यकाल में बनी ऐतिहासिक इमारतों के रख-रखाव में भागीदार बनकर बहुत कुछ कर सकते हैं। लाजपत नगर, भोगल, निजामुद्दीन और उसके आस-पास के लोग हजरत निजामुद्दीन की दरगाह और अरब की सराय में जाएं तो उन्हें आज भी बावड़ी देखने का अवसर है। सैकड़ों साल पहले विकसित किए गए इन संसाधनों के संरक्षण और पुनर्वास में आज की विकसित तकनीक व जानकारी का इस्तेमाल किए जाने की संभावनाओं पर तो विचार किया ही जा सकता है।
आइए, चलें बावड़ियों की सैर पर
आइए, आपको दिल्ली में पानी के इस परंपरागत स्रोत की सैर पर ले चलते हैं। एक बार आप वहां आएं तो मुझे पूरा भरोसा है कि ये बावड़ियां आपको पसंद आएंगी। इनके माध्यम से आप अपने शहर के अतीत के एक और रूप से परिचित हो सकेंगे। हो सकता है कि इनसे प्रेरणा लेकर आप पानी बचाने, उसका बेहतर इस्तेमाल करने के बारे में कुछ और सोचने तथा शायद कुछ करने के लिए तैयार हो जाएं, ऐसा नहीं भी कर सकें तो इन्हें देख और जानकर आप अपने शहर को कुछ और अच्छे तरीके से जान सकेंगे और ‘दिल्लीवाला’ कहलाने पर और भी गर्व कर सकेंगे। दिल्ली की बावड़ियां इतनी भव्य और आकर्षक हैं कि देखने वालों का मन मोह लेती हैं। काश, इनमें हमेशा साफ पानी भरा रह पाता तो इनकी सुदंरता में चार चांद और लग जाते। इनकी मरम्मत कर दी जाए, इनमें पानी भर दिया जाए, इन्हें और इनके आस-पास के इलाके को हरा-भरा बना दिया जाए, रंग-बिरंगी रोशनी से सजा दिया जाए तो यह राजधानी के लिए एक अतिरिक्त आकर्षण बन सकती हैं। कभी आप भी इन बावड़ियों को देखने के लिए निकलिए। ये आपसे बहुत दूर भी नहीं हैं। आप अपने घर और काम-काज की जगहों से दूर होने के कारण इन बावड़ियों को देखने जाने से कतराएं मत। इनमें से तो अनेक घर के आस-पास ही हैं।
बावड़ियों का भ्रमण एक अलग अनुभव
दिल्ली में बावड़ियों की यात्रा खासी रोचक हो सकती है। हर बावड़ी को देखने के लिए परिवार के साथ या फिर दोस्तों के साथ एक पिकनिक के रूप में या फिर अपने शहर को जानने के लिए अकेले भी जाया जा सकता है। राजधानी में इतनी सारी बावड़ियां हैं कि बावड़ियों की एक अलग ट्रिप भी बनाई जा सकती है। सारी बावड़ियां एक साथ देखना जरूरी नहीं है। यह भी जरूरी नहीं है कि सब देखी ही जाएं। ये इतनी दूरी पर बनी हुई हैं कि एक बार में सारी देख पाएंगे, ऐसा कर पाना संभव भी नहीं है। एक ही इलाके या आस-पास के इलाकों में बनी बावड़ियां एक साथ देख सकते हैं। आप अपनी सुविधा से ऐसा कर सकते हैं। आइए, हम आपको ले चलते हैं दिल्ली की बावड़ियों की यात्रा पर। शुरू करते हैं दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस से। आप कहेंगे कि कनॉट प्लेस में बावड़ी? कनॉट प्लेस और बावड़ी, भला इन दोनों में क्या संबंध हो सकता है। कनॉट प्लेस में बावड़ी कहां से आ गई? लेकिन सच मानिए, कनॉट प्लेस में बावड़ी है और बेहद ही भव्य व आकर्षक! बस, आप एक बार वहां जाइए तो मान जाएंगे कि इतने साल दिल्ली में रहने के बाद भी इसे आपने अब तक देखा क्यों नहीं!
उग्रसेन की बावड़ी
कनॉट प्लेस के सेंट्रल पार्क से चंद मिनटों की दूरी पर एक बहुत ही भव्य ऐतिहासिक इमारत और बावड़ी है। वहां तक आप पैदल भी जा सकते हैं। इसे ‘उग्रसेन की बावड़ी’ के नाम से पहचाना जाता है। आधुनिक बहुमंजिली इमारतों के बीच कहीं खो गई इस बावड़ी को आप एक बार देखकर तो आएं! आप इसकी भव्यता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। इस बावड़ी में पानी नाम मात्र को ही रह गया है। कबूतरों व चमगादरों की आवाजें और उनके द्वारा फैलाई गई गंदगी की ओर आप ज्यादा ध्यान नहीं दे तो यह इमारत ऐसी है, जहां कि आप दुबारा आना ज़रूर पसंद करेंगे। इसकी निर्माण कला और जब इसे बनाया गया होगा, तब और आज के निर्माताओं को उपलब्ध तकनीकी जानकारी एवं संसाधनों से उस समय के निर्माताओं की तुलना करे। गुज़रे कल के लोगों के इस योगदान को सराहे बिना रह ही नहीं सकते। बाराखंबा रोड और कस्तूरबा गांधी मार्ग के बीच अतुलग्रोव रोड के साथ बनी यह बावड़ी दिल्ली की सर्वश्रेष्ठ बावड़ी कही जा सकती है। यह बावड़ी कस्तूरबा गांधी मार्ग, फिरोजशाह रोड और बाराखंभा रोड के त्रिकोण के बीच बनी रिहायशी और कॉमर्शियल बहुमंजिली इमारतों के बीच छिपी हुई है। टॉलस्टॉय मार्ग से होकर भी यहां तक पहुंचा जा सकता है। हेली रोड और हेली लेन से होकर भी आप वहां तक पहुंच सकते हैं। इस समय इस बावड़ी में थोड़ा पानी ही दिखाई देता है। इसको साफ किए जाने की जरूरत है। बावड़ी में पानी की कमी के मुख्य रूप से दो कारण हैं – एक, इसमें बरसाती पानी आने के सारे रास्ते बंद कर दिए गए हैं और दूसरा आस-पास की बहुमंजिली इमारतों में पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए ज़मीन के अंदर के पानी का लगातार इस्तेमाल किया जा रहा है। इस कारण से यह बावड़ी पानी के बिना सूनी है।
गिर रहा है कनॉट प्लेस में भू-जल का स्तर
भू-जल का लगातार इस्तेमाल किए जाते रहने के कारण कनॉट प्लेस और उसके आस-पास के इलाके में जमीन के अंदर के पानी का स्तर बहुत अधिक गिर चुका है। इस हरी-भरी नई दिल्ली में भू-जल के गिरते स्तर को रोकने के लिए कोई प्रभावकारी प्रयास नहीं किया गया है और नहीं किया जा रहा है। दिल्ली के इस दिल में जमीन के अंदर के पानी को रीचार्ज करने की अपार संभावनाएं हैं। कनॉट प्लेस के सेंट्रल पार्क को फिर से विकसित किए जाते समय इसकी बेसमेंट पहले ही भरी हुई है। वहां वाटर बॉडी तो है, लेकिन उसमें पानी नहीं रहता। पानी की कमी के कारण फव्वारे कभी ही चलते दिखाई देते हैं। यह तो स्थिति है जबकि इसे बनाए हुए चंद साल ही हुए हैं। तो अब 600 से 700 साल पहले की बावड़ी के संरक्षण के बारे में अधिक नहीं कहना ही ठीक होगा। इस सबके बाद भी इस बावड़ी की पांच मंजिली इमारत की प्राचीन भव्यता आज भी बरकरार है। ये मंजिले जमीन के ऊपर नहीं, नीचे की ओर बनी हुई हैं।
इस बावड़ी के परिसर में बने बरामदों और कमरों में भीषण गर्मी में भी ठंडक का अहसास होता है। इनमें से तो कुछ रख-रखाव के अभाव में हमेशा के लिए खो गए हैं। इमारत के परिसर की आस-पास की जमीन हथिया ली गई है। इस इमारत का रास्ता बताने के लिए इक्का-दुक्का ही संकेत चिह्न लगे हैं, लेकिन उससे परेशान नहीं हों। इसकी तलाश में आपको कहीं दूर भी नहीं जाना होगा। निकलिए तो इसे तलाशने। यह दिल्ली की संरक्षित इमारतों में से एक है। इसकी देखभाल की जिम्मेदारी केंद्र सरकार के ‘आर्केलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया’ का है। यहां पर एक विभाग द्वारा लगाए गए बोर्ड में यह लिखा है कि ‘यह एक संरक्षित इमारत है। इसको नुकसान पहुंचानेवालों पर सजा और जुर्माना किया जा सकता है।’ यह क्या है? क्यों है? कैसे बनी? जैसे सवालों के जवाब देनेवाला बोर्ड बहुत सीमित जानकारी ही दे पाता है।
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