सबसे पुरानी महरौली की बावड़ियां: भाग -4

दिल्ली के इतिहास और ऐतिहासिक इमारतों के बारे में लिखी पुस्तक ‘दि ऑर्केलॉजी एंड मान्यूमेंटल रिमेंस ऑफ डेल्ही’ में कार स्टीफेन ने लिखा है कि इस बावड़ी का निर्माण उस समय की दिल्ली के बादशाह गियासुद्दीन तुगलक और निजामुद्दीन औलिया के बीच मतभेदों का कारण बना। स्टीफेन ने सन् 1876 में प्रकाशित अपनी इस पुस्तक में लिखा है कि जिस समय गियासुद्दीन तुगलक अपने शहर तुगलकाबाद का निर्माण करा रहा था, लगभग उसी समय इस बावड़ी का निर्माण किया जा रहा था। इस बावड़ी का निर्माण आस-पास के रहने वालों को पीने के पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करने के उद्देश्य से किया गया था। दिल्ली के सबसे पुराने शहर महरौली में बनी 'राजा की बेन' बावड़ी को राजधानी की सबसे पुरानी बावड़ियों में से एक माना जा सकता है। यह बावड़ी सिकंदर लोदी द्वारा बनवाई गई मानी जाती है। सिकंदर लोदी ने सन् 1489-1517 के बीच दिल्ली की गद्दी संभाली थी। लोदी वंश दिल्ली पर शासन करने वाला एक ऐसा वंश रहा, जिसने यहां पर अपने किसी शहर का निर्माण नहीं किया, लेकिन उनके निर्माण के नमूने आज भी शहर में दिखाई देते हैं। इनमें से एक है यह बावड़ी। तीन मंजिलों वाली इस बावड़ी का निर्माण अब से करीब 500 साल पहले 1506 में किया गया माना जाता है। माना जाता है कि इस बावड़ी के पानी का इस्तेमाल इस इलाके में रहने और निर्माण कार्यों में लगे राज और मिस्त्रियों द्वारा किया जाता था। इसलिए इसका नाम ‘राजो की बेन’ पड़ा। इसका उल्लेख ‘राजो की बाव’ के नाम से भी मिलता है। यह बावड़ी महरौली में आदम खां के मकबरे के दक्षिण में करीब 500 गज की दूरी पर बनी हुई है। इस बावड़ी को इस तरह से बनाया गया था कि इसकी सीढ़ियों से उतरकर साथ बनी मस्जिद में भी आया-जाया जा सके।

मस्जिद के सामने बनी छतरी पर लगे हुए एक पत्थर पर लिखी गई इबारत से इस बावड़ी के 1506 ई. में बनाए जाने की पुष्टि होती है। इस इमारत को बेहतर संरक्षित और प्रचारित करके इसके अधिक उपयोगी बनाए जाने की संभावनाएं हैं। यह इमारत चार मंजिला है। इसके चारों ओर कमरे बने हुए हैं, जिनका उपयोग किया जा सकता है। इतिहासकार परसीवल स्पीयर ने अपनी पुस्तक ‘दिल्ली : इट्स मान्यूमेंट एंड हिस्ट्री’ में लिखा है कि “एक समय में इस बावड़ी को ‘सूखी बावड़ी’ भी कहा जाता था, क्योंकि इसमें पानी नहीं रह गया था।” इस बावड़ी के साथ ही एक मस्जिद भी बनी हुई है। यह बावड़ी डी.डी.ए. द्वारा महरौली क्षेत्र में विकसित किए गए आर्केलॉजिकल पार्क में स्थित है। जमाली कमाली से करीब आधा किलोमीटर उत्तर-पश्चिम की ओर चलने पर यह बावड़ी मिलती है।

गंधक की बावड़ी


कुछ इतिहासकार कुतुबमीनार के पास बने अनंग ताल को दिल्ली की सबसे पुरानी बावड़ी कहते हैं। यह बावड़ी राजपूत तोमर शासकों के समय की बनी बताई जाती है। इस बावड़ी में बरसाती पानी को इकट्ठा करके पूरे साल उपयोग में लाया जाता था। महरौली में बनी ‘गंधक की बावड़ी’ इल्तुतमिश के शासन काल 1211-1236 के दौरान बनाई गई मानी जाती है। इसे ‘गंधक की बावड़ी’ कहे जाने का कारण इसके पानी से निकलने वाली गंधक की महक बताया जाता है। यह बावड़ी आदम खान के मकबरे से करीब 100 मीटर दक्षिण में बनी हुई है। कुछ दशक पहले तक तो इस बावड़ी के कुएँ में छलांग लगाकर यहां आने वालों के मनोरंजन की व्यवस्था थी। इस काम को करने वालों के लिए यह नियमित आय का साधन था। इस बावड़ी की इमारत पांच मंजिली है।

जैसे-जैसे इसके अंदर उतरते जाते हैं, हर मंजिल संकरी होती जाती है। हर मंजिल में गैलरियां बनी हुई हैं। इनसे होकर पानी के नज़दीक जाया जा सकता है। ये गैलरियां पूर्व और पश्चिम की दिशा में बनी हुई हैं। यह बावड़ी उत्तर से दक्षिण की ओर 133 फीट लंबी और करीब 35 फीट चौड़ी है। इस इमारत में पानी तक पहुंचने के लिए 105 सीढ़ियां हैं। बावड़ी के ऊपरी हिस्से में सजावटी पत्थर लगे हुए हैं। माना जाता है कि ‘मस्जिद कवत ए इस्लाम’ और कुतुबमीनार के निर्माण के समय इस बावड़ी के पानी का इस्तेमाल किया गया था। इस बावड़ी में अभी भी पानी दिखाई देता है। सरकारी दस्तावेज़ बताते हैं कि इस बावड़ी के तहत करीब 2,200 वर्गमीटर का क्षेत्र आता है। अब यह क्षेत्र कितना बचा है, यह तो इसे देखने वाले ही जान-समझ सकते हैं। दिल्ली को दुनिया में पहचान देने वाली कुतुबमीनार के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान करने वाला यह जलस्रोत अब स्वयं पानी मांग रहा है। क्या हम ऐसा कर पाएंगे?

कुतुब साहब की बावड़ी


यह बावड़ी कुतुब साहब की दरगाह परिसर में बनी हुई है। इस पवित्र दरगाह को ‘ख्वाजा बख्त्यार काकी’ की दरगाह के नाम से भी जाना जाता है। इस दरगाह को मजलिस खाना के ठीक उत्तर में बनाया गया था। इतिहासकार स्टीफेन ने अपनी पुस्तक में इस बावड़ी के बारे में जानकारी देते हुए कहा कि कुतुब साहब की दरगाह से करीब 25 गज पूर्व में एक बावड़ी है। इस बावड़ी का निर्माण 1846 ई. में किया गया। यानी यह बावड़ी अब 160 साल से भी अधिक पुरानी हो चुकी है। इस बावड़ी को बनवाने वाले का नाम था हाफ़िज़ मुहम्मद दाऊद। दाऊद को बहादुर शाह का निकट सहयोगी माना जाता है। इस बावड़ी के पानी का इस्तेमाल दरगाह की देखभाल के लिए तौनात कर्मचारियों द्वारा किया जाता था। यह बावड़ी 96 फीट लंबी, 42 फीट चौड़ी और 75 फीट गहरी बताई जाती है। इस बावड़ी में 40 फीट या उससे भी अधिक गहरा पानी हुआ करता था। इस बावड़ी के दक्षिण और पश्चिमी दिशा से पानी तक जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई थीं।

तीन मंजिली इस बावड़ी में पश्चिमी छोर से प्रवेश किया जा सकता है। तीन मंजिलों वाली इस बावड़ी में विभिन्न आकार के कमरे बने हुए हैं। इसमें पानी तक उतरने के लिए 74 सीढ़ियां बनी हुई हैं। इस बावड़ी को निजामुद्दीन और दौलत खान की बावड़ी की तर्ज पर बनाया गया था। अब इस बावड़ी की देखभाल का काम दिल्ली सरकार द्वारा राजधानी की हैरिटेज को सुरक्षित रखने के लिए गठित कंपनी ‘शाहजहांनाबाद रिडेवलपमेंट कॉरपोरेशन’ के हवाले कर दिया गया है। अब तक यह ज़िम्मेदारी डी.डी.ए. और दिल्ली वक्फ बोर्ड के बीच विवादों के दायरे में थी। इसका परिणाम यह हुआ कि इस बावड़ी में कूड़ा-करकट भरता चला गया। इसमें से पानी धीरे-धीरे करके गायब हो गया। सुप्रसिद्ध इतिहासकार स्टीफेन की पुस्तक में एक बावड़ी का उल्लेख मिलता है। इसे ‘दौलत खान की बावड़ी’ कहा गया है। यह बावड़ी कहां पर थी? कैसी थी? उसका निर्माण कब और किसने किया? उसका पानी कैसा था? किस उपयोग में आता था? यह दौलत खान कौन था? यह बावड़ी उसने क्यों बनवाई थी? – इस तरह के सवालों का जवाब अब नहीं मिलता है और न ही इस बावड़ी के बारे में अब और कोई प्रमाण ही मिलता है। इस बावड़ी की तलाश किए जाने की आवश्यकता है। उसे रिवाइव किए जाने की संभावना पर विचार किया जाना चाहिए।

औरंगजेब की बावड़ी


यह बावड़ी बाहदुरशाह द्वितीय के महल के पश्चिम में करीब 36 फीट की दूरी पर बनी हुई थी। यह बावड़ी जिस ज़मीन पर बनाई गई, उसे सरकारी ज़मीन के रूप में दर्ज किया गया था। इस बावड़ी को औरंगजेब की बावड़ी का नाम देने का कारण यह बताया गया कि उसके औरंगजेब के शासन काल के दौरान बनाए जाने के प्रमाण मिले हैं। औरंगजेब ने सन् 1658 से 1707 के बीच दिल्ली की गद्दी संभाली थी। इस बावड़ी को संरक्षित रखने की सिफारिश की गई थी। यह बावड़ी 130 फीट लंबी और 36 फीट चौड़ी थी। इस बावड़ी में पानी तक उतरने के लिए 74 सीढ़ियां बनाई गई थीं। इस बावड़ी का कुआं ऊपर से आठ कोणोंवाला है। जैसे-जैसे यह कुआं नीचे की ओर जाता था, यह गोलाकार होता जाता दिखता था। यह इमारत तिमंजली कही जा सकती थी। यह बावड़ी इसी इलाके में बनी ‘गंधक की बावड़ी’ और राजों की बेन की तर्ज पर बनाई गई लगती थी।

अब इस बावड़ी के प्रमाण नहीं मिलते हैं। पता नहीं यह कब, कहां और कैसे खो गई? इसकी तलाश किए जाने की आवश्यकता है। औरंगजेब रोड पर रहने वालों की इस बावड़ी की तलाश और पुनर्विकास में महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है और होनी भी चाहिए, क्योंकि इस सड़क पर रहना उन्हें दिल्ली और देश में ही नहीं विदेशों में भी एक खास सम्मान देता है। लेकिन वे शायद यह नहीं जानते कि वे जितना पानी अपने लॉन को हरा-भरा रखने और वाहनों के धोने पर बर्बाद कर देते हैं, उतने में हजारों परिवार अपनी दैनिक जरूरतें पूरी कर सकते हैं।

निजामुद्दीन की बावड़ी


निजामुद्दीन औलिया की दरगाह के निकट बनी इस बावड़ी के पानी को बहुत ही पवित्र माना जाता है। इस बावड़ी का निर्माण 1321 में किया गया था। इस बावड़ी को बने हुए 690 साल होने वाले हैं। इससे यह भी पता चलता है कि ‘हजरत निजामुद्दीन’ कहे जाने वाले इलाके में पिछले करीब 700 सालों से लोग रहते आ रहे हैं। पहले इस इलाके को ‘गियासपुर’ के नास में जाना जाता था। ‘निजामुद्दीन की बावड़ी’ को कुछ समय पहले ही फिर से साफ किया गया है। यह बावड़ी करीब 180 फीट लंबी और 120 फिट चौड़ी है। इस बावड़ी के दक्षिण-पूर्व और पश्चिम की ओर दीवारें बनी हुई हैं। इसमें उतरकर जाने के लिए उत्तर की ओर से सीढ़ियां बनाई गई हैं। पिछले कुछ वर्षों में इस बावड़ी को साफ-सुथरा करके फिर से बहाल करने का प्रयास किया गया है। सफाई के बाद अब इस बावड़ी में पानी दिखाई देने लगा है। हालांकि इसे अब तक अपने प्राचीन रूप में तो नहीं लाया जा सका है और लाया जा सकना भी शायद संभव नहीं रह गया है, लेकिन इसे एक प्रयास के रूप में सराहा गया है और सराहा जाना चाहिए।

निजामुद्दीन औलिया और गियासुद्दीन तुगलक


दिल्ली के इतिहास और ऐतिहासिक इमारतों के बारे लिखी पुस्तक ‘दि ऑर्केलॉजी एंड मान्यूमेंटल रिमेंस ऑफ डेल्ही’ में कार स्टीफेन ने लिखा है कि इस बावड़ी का निर्माण उस समय की दिल्ली के बादशाह गियासुद्दीन तुगलक और निजामुद्दीन औलिया के बीच मतभेदों का कारण बना। स्टीफेन ने सन् 1876 में प्रकाशित अपनी इस पुस्तक में लिखा है कि जिस समय गियासुद्दीन तुगलक अपने शहर तुगलकाबाद का निर्माण करा रहा था, लगभग उसी समय इस बावड़ी का निर्माण किया जा रहा था। इस बावड़ी का निर्माण आस-पास के रहने वालों को पीने के पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करने के उद्देश्य से किया गया था।

तुगलक अपने किले का निर्माण जल्दी से जल्दी पूरा कर लेना चाहता था। इसलिए उसने एक सरकारी आदेश जारी करके सभी मज़दूरों को दिन में कहीं और काम करने पर रोक लगा दी थी। इसलिए इस बावड़ी के निर्माण का काम रात में किया जाता था। उस समय दिल्ली की आबादी इतनी अधिक तो थी नहीं कि इतनी बड़ी संख्या में मज़दूर मिल सकें। इसलिए ये मज़दूर दिन में तुगलकाबाद के किले को बनाने का काम करते थे और रात में बावड़ी के निर्माण में भागीदार बनते थे। इस पर बादशाह ने निजामुद्दीन को तेल की बिक्री पर रोक लगा दी, जिससे कि रात में निर्माण कार्य नहीं किया जा सके। निजामुद्दीन की दुआ के बाद मजदूरों ने तेल की जगह पानी का इस्तेमाल किया। निजामुद्दीन परिसर में बनी इमारतों में से यह बावड़ी एक ऐसा निर्माण है, जिसे हजरत निजामुद्दीन ने स्वयं कराया था। बाकी इमारतों का निर्माण उनके मुरीदों ने करवाया।

अरब की सराय की बावड़ी


अरब की सराय की बावड़ी का अस्तित्व अब नाममात्र का ही रह गया है। इस बावड़ी में अब पानी नहीं रह गया है। अब यह बता पाना भी संभव नहीं है कि यह कब से सूखी हुई है। विशेषज्ञों का मानना है कि इसे फिर से काम करने लायक बनाया जा सकता है। इसको फिर से विकसित किए जाने की एक योजना पर काम किया जा रहा है। ‘अरब की सराय’ की इमारत हुमायूं के मकबरे के दक्षिण-पश्चिम में कुछ ही दूरी पर बनी हुई है। इस सराय का निर्माण अकबर की मां हमीदा बानू बेगम ने सन् 1560 में करवाया था। इस सराय को ‘अरब की सराय’ कहने का कारण कुछ इस तरह से बताया गया है-हुमायूं की बेगम हमीदा बानू हज यात्रा पर मक्का गई थीं। वापसी में वे अपने साथ अरब के 300 निवासियों को अपने साथ लाई थीं। यह सराय उनके ठहरने के लिए बनाई गई थी। अरब से आए इन निवासियों को दस्तकार माना जाता है। हुमायूं के मकबरे के निर्माण में इन दस्तकारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

इस मकबरे को बनाने का काम एक ईरानी कलाविद् मिरक मिर्जी गियास को सौंपा गया था। गुंबज बनाने की ईरानी परंपरा का भारत में यह पहला उदाहरण है। इस सराय का इस्तेमाल दिल्ली और आगरा की राजधानियों के बीच आने-जाने वाले यात्रियों द्वारा नियमित रूप से किया जाता था। ‘हुमायूं का मकबरा’ आगरा के ताजमहल का प्रोटोटाइप माना जाता है। तो दुनिया की सबसे खूबसूरत इमारतों में से एक ताजमहल के विकास में इस प्रोटोटाइप की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका रही? वर्ष 2010 की सर्दियों में जब अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा और उनकी पत्नी मिशेल ओबामा दिल्ली आए थे तो उन्होंने एक पूरी शाम इस इमारत में बिताई थी। ओबामा दंपती इस शाम को ख़ासी यादगार बनाकर यहां से गए थे और तभी से वे फिर भारत आने की इच्छा व्यक्त करते रहे हैं।

रायपुर खुर्द की बावड़ी


सरकारी दस्तावेज़ों में ‘रायपुर खुर्द’ कहे जाने वाले इलाके में एक बावड़ी होने का हवाला मिलता है। अब यह कहां खो गई, फिलहाल इसका पता लगा पाना संभव नहीं हो पा रहा है। इतिहास की किताबों में इसे ‘बस्ती बावड़ी’ के नाम से जाना जाता है। सैयद अहमत खान के अनुसार, यह बावड़ी वर्ष 1488 में बनाई गई थी-यानी अब से करीब 525 साल पहले। यह बावड़ी दिल्ली पर लोदी शासन के दौरान बनाई गई एक महत्वपूर्ण इमारत मानी जा सकती है। दिल्ली की ऐतिहासिक इमारतों के सर्वेक्षक मौलवी जफर हसन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि यह बावड़ी ‘फूटा गुबंद’ कही जाने वाली इमारत के 250 गज दक्षिण में बनी हुई थी। इस इमारत को ‘फूटा गुंबद’ का नाम इसलिए दिया जा चुका था, क्योंकि यह खासी टूटी हालत में था। यह इमारत सरकारी ज़मीन पर बनी हुई थी। इस इमारत को संरक्षित रखने की सिफारिश की गई थी। सर्वेक्षण के दौरान इस इमारत पर ऐसा कोई पत्थर लगा या लिखा हुआ नहीं मिला, जिससे पता चलता कि इसे कब और किसने बनवाया। यह बावड़ी 96 फीट लंबी और 26.3 फीट चौड़ाई में बनी हुई थी।

इस बावड़ी का पता इसमें बनी पांच मेहराबों वाली दालानों से चलता था। ये दालानें 37 फीट लंबी और 11.3 फीट चौड़ाई की थी। इन्हें बावड़ी के उत्तरी और दक्षिणी छोर पर बनाया गया था। इनके किनारों पर पवेलियन बने हुए थे। बावड़ी के साथ मस्जिद और मकबरा भी बना हुआ था। इस परिसर के चारों ओर दीवार भी थी। इस परिसर में जाने के लिए पश्चिम की ओर एक गोलाई वाला दरवाज़ा भी बना हुआ था। यह बस्ती सिकंदर लोदी के कार्यकाल के दौरान ख्वाजा सारा द्वारा बसाई गई मानी जाती है। इतिहासकार कार स्टीफेन ने लिखा है कि ख्वाजा सारा बस्ती खान सिकंदर लोदी के शासन काल के दौरान महत्वपूर्ण पदों पर रहे थे। स्टीफेन कार इस बावड़ी को निजामुद्दीन गांव की ज़मीन पर बनाए गए एक परिसर के अंदर बनाई गई बताते हैं। अब इसके प्रमाण नहीं मिलते। अब जबकि दिल्ली को ‘हैरिटेज सिटी’ का दर्जा देने के लिए निजामुद्दीन जैसे इलाकों के पुनर्विकास की योजना पर काम किया जा रहा है, तो इस बावड़ी को तलाश कर उसका विकास करने की ओर भी ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।

खैरपुर की बावड़ी


खैरपुर की बावड़ी नाम सुनकर ही चौंक गए न। अरे नहीं, यह दिल्ली के किसी दूर-दराज के गांव में नहीं है। यह बावड़ी लोदी गार्डन में बनी हुई है। लोदी गार्डन को यह नाम तो मिले अभी बहुत दिन नहीं गुज़रे हैं। लोदी गर्डन बनने के पहले यहां पर ‘खैरपुर’ नाम का एक गांव हुआ करता था। नई दिल्ली बनाए जाते समय जब इस पार्क का विकास किया गया तो यहां के निवासियों को हटाकर कहीं और बसा दिया गया। इस पार्क को सन् 1936 में बनाया गया था। बनाए जाते समय इसे ‘लेडी विलिंग्डन पार्क’ के नाम से जाना जाता था। इस पार्क को लोदी गार्डन का नाम देश की आज़ादी के बाद दिया गया। तब इसे जापानी विशेषज्ञों द्वारा फिर से विकसित किया गया।

इस पार्क में बने आधा दर्जन गुंब्दोंवाली इमारतें और मस्जिद जैसे गुजरे कल की कथा सुनाती दिखाई देती हैं। इस पार्क के अंदर बनी यह बावड़ी ‘शीश गुंबद’ के नाम से पहचाने जाने वाले मकबरे के उत्तर-पश्चिम में एक चारदीवारी के साथ बनी हुई है। इस चारदीवारी के अंदर एक बगीचा और इसके साथ ही एक मस्जिद बनाए जाने के प्रमाण हैं। यह बावड़ी मुगल काल में बनाई गई मानी जाती है। बावड़ी इस परिसर में प्रवेश करने के रास्ते पर बनी हुई है, लेकिन यह परिसर के अंदर नहीं बनाई गई लगती है। लोदी गार्डन इस वर्ष अपनी स्थापना के 75 वर्ष पूरे कर रहा है। इस अवसर पर इस पार्क को फिर से विकसित करने के लिए अनेक योजनाएं लागू की जा रही हैं। आवश्यकता इस बात की है कि इस बावड़ी को फिर से उसके परंपरागत स्वरूप में विकसित किया जाए और उसमें पानी भरने के लिए परंपरागत तरीके को पुनर्जीवित किया जाए।

कोटला मुबारकपुर की बावड़ी


मुबारकशाह के मकबरे के पश्चिमी दरवाज़े के उत्तर-पश्चिम में 50 गज की दूरी पर एक बावड़ी थी। दिल्ली सरकार द्वारा संरक्षित ऐतिहासिक इमारतों की सूची में इस बावड़ी का होना दर्ज है। इस इमारत को मकबरे के साथ ही संरक्षित किया जाना था। यह बावड़ी ‘शामिलात ज़मीन’ पर बनी हुई थी। इसे लोदी शासकों के कार्यकाल के दौरान बनाया गया था। ईंट और पत्थरों से बनाई गई यह बावड़ी पूर्व से पश्चिम की ओर 90 फीट लंबाई और उत्तर से दक्षिण की ओर 38 फीट चौड़ाई में बनी हुई थी। इस बावड़ी की इमारत पांच मंजिली थी। जैसे-जैसे इसमें नीचे उतरा जाता था, यह संकरी होती जाती थी। सबसे निचले स्तर पर इसकी लंबाई-चौड़ाई घटकर 30 फीट बाई 19 फीट रह जाती थी। इस इमारत के दक्षिणी छोर पर कुआं बना हुआ था, जिसकी गोलाई 13 फीट थी।

इस कुएं से पानी लाने के लिए उत्तर की ओर से सीढ़ियां बनी हुई थी। इस इमारत की हर मंजिल पर पूर्व, पश्चिम और दक्षिण की ओर एक गैलरी बनी हुई थी। इनसे होकर भी पानी तक जाया जा सकता था। इस बावड़ी में जाने का रास्ता बावड़ी के तीन ओर बनी मेहराबवाली दालानों से होकर जाता है। इस बावड़ी के आस-पास भारी संख्या में इमारतें बन गई हैं। इससे इस बावड़ी को ठीक से देख पाना तक संभव नहीं है। पुरातत्व महत्व की इमारतों के 100 गज के इर्द-गिर्द किसी भी प्रकार का निर्माण करना गैर-कानूनी है। इसके बावजूद यहां पर निर्माण किया जा चुका है। इस कारण अब इस बावड़ी की दक्षिणी दीवार और कुएँ की ही पहचान कर पाना संभव हो पाता है। घनी बसी आबादी और कारोबार के लिए वैध व अवैध तरीकों से विकसित होते जा रहे कोटला मुबारकपुर की बावड़ी की बात तो कौन करे, दिल्ली का कभी ऐतिहासिक शहर रहा मुबारकाबाद ही विकास के दौर में अपनी पहचान खो चुका है।

मुनीरका की बावड़ी


दिल्ली में सरकारी कर्मचारियों की सबसे बड़ी रिहायशी कॉलोनी रामकृष्ण पुरम के सेक्टर 5 के बीच में पुरातत्व महत्व की बेहद महत्वपूर्ण इमारतों के बीच यह बावड़ी बनी हुई है। ऐतिहासिक सरकारी दस्तावेज़ इसे ‘वजीरपुर की बावड़ी’ कहते हैं। अब यह पता नहीं चलता कि इस इलाके का नाम किस वजीर के नाम पर वजीरपुर पड़ा था। उत्तरी दिल्ली में वजीरपुर नाम का एक इलाक़ा आज भी है। क्या इन दोनों वजीरपुरों में कभी कोई संबंध रहा? इसका पता नहीं चला। कभी मुनीरका गांव के तहत आने वाली इस ज़मीन पर बनी होने के कारण इसे ‘मुनीरका की बावड़ी’ भी कहा जाता है।

यह बावड़ी अफगान शासकों के कार्यकाल के दौरान बनाई गई मानी जाती है। यह बावड़ी 100 फीट लंबी और 38 फीट चौड़ी है। इसे चूने व पत्थरों से बनाया गया था। इसके दक्षिणी छोर पर कुआं बना हुआ है, जिसकी गोलाई 14 फीट है। इसके दोनों छोरों पर गोलाकार छतरियां बनी हुई हैं। इस बावड़ी में पानी तक जाने के लिए संकरी सीढ़ियां बनी हुई हैं। बावड़ी में अब पानी नहीं है। इस बावड़ी के आस-पास अनेक मकबरे बने हुए हैं। ये मकबरे लोदी वंश के शासन के दौरान बनाए गए माने जाते हैं। लोदी वंश के शासकों ने दिल्ली पर वर्ष 1451 से 1526 के बीच करीब 75 साल तक राज्य किया। दिल्ली पर शासन करने वाला यह एक ऐसा वंश रहा, जिसने कभी यहां कोई शहर नहीं बसाया। उस समय दिल्ली में बनाई गई दर्जनों इमारतें आज भी देखी जा सकती है। इन इमारतों की पहचान मुख्य रूप से इनके गुंबदों से की जा सकती है। नई दिल्ली और दक्षिणी दिल्ली के विभिन्न इलाकों में ये इमारतें दिखाई देती है।

मुरादाबाद पहाड़ी की बावड़ी


इस बावड़ी के अवशेष वसंत विहार के डी ब्लॉक के निकट की पहाड़ियों में अभी भी देखे जा सकते हैं। दक्षिण-पश्चिमी रिज कहे जाने वाले हिस्से में आने वाली मुरादाबाद की पहाड़ियों के इलाके में एक बावड़ी होने का उल्लेख मिलता है। यह बावड़ी पठानों के शासन के दौरान बनाई गई लगती थी। मौलवी जफर हसन के सर्वेक्षण में इस बावड़ी और इसके आस-पास बनी इमारतों की मरम्मत करके उन्हें संरक्षित रखे जाने की सिफारिश की गई थी। चूने और पत्थर से बनी इस बावड़ी की लंबाई उत्तर से दक्षिण की ओर 183 फीट और पूर्व से पश्चिम की ओर इसकी चौड़ाई 67 फीट थी। उस समय इस बावड़ी में कूड़ा और मिट्टी भरी पाई गई थी।

इस बावड़ी में पानी तक जाने के लिए दक्षिण की ओर से सीढ़ियां बनी हुई दिखाई देती थीं। इसके उत्तरी छोर पर तीन मंजिली इमारत बनी हुई थी। इस बावड़ी के कुएं की गोलाई करीब 10.3 फीट थी और उसमें उस समय पानी नहीं था। इसके पास में बनी एक इमारत के अवशेषों को ‘कसाई वाला गुंबद’ कहा जाता था। इसको जिस तरह से बनाया गया था, उससे लगता था कि इसे तुगलकों के शासन के कार्यकाल के दौरान बनाया गया। यह मकबरा पहाड़ी की चोटी पर बना हुआ था। इस मकबरे के पूर्व में करीब 500 गज की दूरी पर एक और मकबरा भी दिखाई देता था। इस मकबरे को ‘बाजरे का गुंबद’ का नाम दिया गया था। ‘बाजरे का गुबंद’ पठानों के शासन काल के दौरान बनाई गई इमारतों की तर्ज पर बनाया लगता था। इनमें से अधिकतर इमारतें अब दिखाई नहीं देती हैं। अब यह भी पता नहीं चलता है कि इन्हें ये नाम क्यों दिए गए थे? इस बावड़ी पर आस-पास के लोगों ने कब्ज़ा कर लिया है। आवश्यकता इसको खाली कराकर इसको पुनर्जीवित करके इसे पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित करने की है। इस बावड़ी को मुरादाबाद की पहाड़ी पर बने होने के कारण ‘मुरादाबाद, पहाड़ी की बावड़ी’ कहा जाता है।

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