तुगलकाबाद के किले और शहर में चार स्थानों पर बावड़ी बनाए जाने का उल्लेख मिलता है, लेकिन अब इसके अधिक प्रमाण नहीं दिखाई देते। इस शहर और किले में बनाई गई बावड़ियों में से एक करीब 8.50 वर्गमीटर में फैली हुई थी, जबकि दूसरी करीब 425 वर्गमीटर में फैली हुई थी। ये बावड़ियां हमेशा के लिए समाप्त हो गई है। अब इनमें पानी नहीं रह गया है। विशेषज्ञों का मानना है कि इनमें अब फिर से पानी लाए जाने की संभावना नहीं रह गई है; क्योंकि इसके अंदर पानी के ऐसे स्रोत नहीं रह गए हैं, जिससे कि इसके साथ बने कुएँ में स्थायी तौर पर पानी भरा रखा जा सके। राजधानी की दूसरी बावड़ियों की तुलना में लाल किले की बावड़ी थोड़ी अलग तरह से बनी हुई है। इस बावड़ी में बने कुएँ के साथ ही एक हौज भी बना हुआ है। बावड़ी के कुएँ से इस हौज में पानी लाए जाने की व्यवस्था है। बादशाह के रिहायशी इलाके में बनी बावड़ी के इस हौज का इस्तेमाल संभवतः किले में रहने वाले लोग नहाने के लिए करते रहे होंगे। यह हौज वर्गाकार है। इसकी लंबाई-चौड़ाई 20 फीट है। कुएँ में 27.5 फीट की गहराई पर बने एक मेहराब में बनाए गए छेद से इस हौज में पानी ले जाने की व्यवस्था की गई थी। यह व्यवस्था इस प्रकार की थी कि हौज में लगे एक निशान तक ही पानी भर सकता था। संभवतः ऐसा हौज का इस्तेमाल करने वालों की सुरक्षा को ध्यान में रखकर किया गया होगा। हौज के उत्तरी और पश्चिमी किनारे पर बनी सीढ़ियों से होकर दोनों ओर बने मेहराबों वाले कमरों में जाया जा सकता है। बावड़ी का कुआं ऊपर से देखने में आठ कोनों वाला लगता है। इसका घेरा कुल 21.25 फीट का है। यह कुआं करीब 47 फीट गहरा है। इस कुएँ और हौज के पानी को ढककर रखने की व्यवस्था की गई है।
अंग्रेजी शासन के दौरान इस बावड़ी को जेल के रूप में इस्तेमाल किए जाने के प्रमाण हैं। नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा गठित ‘इंडियन नेशनल आर्मी’ के सैनिकों को इसी बावड़ी में बंद रखे जाने के प्रमाण हैं। औरंगजेब के शासन काल में उसके भाई दारा शिकोह को भी संभवतः इसी बावड़ी में बंद करके रखा गया था। शाहजहां के किले के अलावा उसके शहर में एक और बावड़ी होने के प्रमाण आज भी मिलते हैं –वह है खारी बावड़ी। विकास के दौर में यह बावड़ी कहीं खो गई हो सकता है, वह किसी बाजार, दुकान और मकान के अंदर पहुंच गई हो। इसका यह नाम शायद इसलिए पड़ा होगा कि उससे मिलने वाला पानी खारा रहा हो। इस बावड़ी के प्रमाण तो अब नहीं दिखाई देते, लेकिन इस बावड़ी के नाम पर एक पूरा थोक बाजार ज़रूर है। इस थोक बाजार में अब रसायन, मसाले, अचार आदि का कारोबार होता है। यह बावड़ी कब और किसने बनाई थी, इस बारे में न तो सरकारी दस्तावेज़ कुछ बता पाने की स्थिति में हैं और न ही इस बाजार में रहने और कारोबार करने वाले लोग। उनके लिए यह बावड़ी तो अब बस नाम ही है एक बाजार का।
देश और दुनिया में अब फिरोजशाह कोटला को एक क्रिकेट स्टेडियम के रूप में जाना जाता है। यह स्टेडियम दिल्ली पर शासन करने वाले तुगलक वंश के तीसरे बादशाह फिरोजशाह तुगलक द्वारा बसाए गए ‘फिरोजाबाद शहर’ का एक हिस्सा रही ज़मीन पर बना हुआ है। फिरोजशाह और उसके शहर की चर्चा तो अब केवल इतिहास की किताबों में ही मिलती है। फिरोजशाह तुगलक को एक ऐसे सुल्तान के रूप में जाना जाता है, जिसके कार्यकाल 1351-1385 ई. के दौरान न केवल दिल्ली में, बल्कि देश के अनेक शहरों में बड़े पैमाने पर इमारतों का निर्माण किया गया। उसकी गिनती अपने समय के दुनिया के सबसे बड़े निर्माताओं में होती है। फिरोजशाह की विशेषता यह थी कि उसने सार्वजनिक हित की इमारतों के निर्माण और पहले से बनी इमारतों के संरक्षण को उच्च प्राथमिकता दी। काश! आज के नीति निर्धारक और निर्माता फिरोजशाह तुगलक से कुछ सीख पाते, प्रेरणा ले पाते।
फिरोजशाह कोटला स्टेडियम के साथ दिखाई देने वाले किले के अवशेष तो अब भी गुज़रे कल की कथा कहते लगते हैं। फिरोजशाह को निर्माण कराना इतना पसंद था कि सत्ता संभालने के बाद उसने अपने रहने के लिए यमुना के किनारे एक नया महल बनवाया। उस महल के तीन ओर एक शहर बसाया गया। हालांकि उसके पहले उसके ही पूर्वजों ने तुगलकाबाद और आदिलाबाद के किले बनवा दिए थे। इसके अलावा महरौली में लाल कोट और किला राय पिथौरा का भी वह इस्तेमाल कर सकता था, लेकिन उसने अपने नाम पर एक शहर और एक किला बनाने का फैसला किया। इस किले में पानी लाने के लिए उसने नहरें बनवाई। पुरानी नहरों का पुनर्निर्माण और विकास करवाया। इस किले के अंदर रहने वालों की सुविधा के लिए बनवाई गई बावड़ी आज भी देखी जा सकती है।
हालांकि उसकी खूबसूरती के तो अब अवशेष ही दिखाई देते हैं। कुछ समय पहले तक यह बावड़ी गुंबदनुमा छत से ढकी थी। अब इस छत का निशान भी नहीं मिलता। इस बावड़ी में यमुना से पानी जाने की व्यवस्था थी। इस पानी को किले के अंदर बने तहखानों को ठंडा रखने के लिए काम में लाया जाता था। दिल्ली प्रवास के दौरान सुलतान स्वयं गर्मी के दिनों में इस बावड़ी के साथ बनाए गए कमरों और बरामदों का उपयोग करता था। फिरोजशाह कोटला की छत पर आज भी ‘अशोक की लाट’ दिखाई देती है। यह दिल्ली की सबसे पुरानी ऐतिहासिक धरोहरों में से एक है। यह अब से 2,000 साल से भी अधिक पुरानी है। इस लाट से कुछ ही दूरी पर बनी इस बावड़ी में आज भी पानी देखा जा सकता है। इस पानी का इस्तेमाल इस इमारत के आस-पास के क्षेत्र को हरा-भरा बनाए रखने के लिए किया जाता है।
पुराने किले के अंदर आज भी बावड़ी बनी हुई है, जो काम में लाई जा सकती है। यह बावड़ी इस किले के अंदर बनाई गई मस्जिद ‘किला ए कुहना’ के दक्षिण-पश्चिम की ओर बनी हुई है। इस मस्जिद को पठानों की निर्माण कला के अंतिम दौर और मुगल निर्माण कला के शुरुआती दौर का संगम माना जाता है। यह बावड़ी इसी मस्जिद से कुछ ही दूरी पर बनी हुई है। नई दिल्ली बनाए जाने की शुरुआत के समय पुराने किले के अंदर और आस-पास के इलाकों में रहने वालों को यहां से हटाकर शहर के अन्य इलाकों के अलावा रोहतक, बुलंदशहर और गुड़गांव में बसाया गया था। जब इस किले के अंदर लोग रहते थे तो यह बावड़ी काम के लायक नहीं रह गई थी। इसमें कूड़ा और मिट्टी आदि भर गया था। बाद में इसे साफ किया गया। अब यह बावड़ी देखने लायक बन गई है यह बावड़ी दिल्ली पर शेरशाह सूरी के शासन के दौरान करीब 1540 ई. में बनाई गई मानी जाती है। इस बावड़ी के उत्तर-पूर्वी छोर की ओर कुआं बना हुआ है। इस कुएँ के पानी तक पहुंचने के लिए 89 सीढ़ियां बनी हुई हैं। इसकी दीवारें और मेहराबें पत्थरों से बनाई गई हैं। यह बावड़ी इस तरह से बनी हुई है कि इसके अंदर बने कुएँ में ज़मीन के अंदर के प्राकृतिक स्रोतों के अलावा बरसात के दौरान किले में एकत्र होने वाला पानी भी आ सकता है। इस बावड़ी का इस्तेमाल दिल्ली के दो शहरों की स्थापना करने वाले बादशाहों के कार्यकाल के दौरान किया गया।
पुराना किला दिल्ली के दो पुराने और ऐतिहासिक शहरों –‘दीन पनाह’ और ‘शेरगढ़’ का केंद्र रहा है। यह भी माना जाता है कि यह किला उसी जगह पर बना माना जाता है, जहां महाभारत काल में इंद्रप्रस्थ का किला हुआ करता था। इस किले में अफगान शेरशाह सूरी और मुगल शासक हुमायूं द्वारा कराए गए निर्माण आज भी देखे जा सकते हैं। 13 साल की उम्र में ही बादशाह बनने वाला अकबर इसी किले में रहा करता था। इसी किले के बाहर उसकी हत्या करने की भी कोशिश हुई थी। शेरशाह ने हुमायूं को हराकर अफगानों की सत्ता वापस छीन ली थी।
बाबर ने पानीपत के मैदान में अफगानों को हराकर भारत में मुगल शासन की नींव डाली थी। हुमायूं को भागकर वापस ईरान जाना पड़ा था। हुमायूं ने उससे फिर से अपनी सत्ता को पाने के लिए लगातार प्रयास किया। हुमायूं ने शेरशाह को हराकर अपना साम्राज्य वापस छीन लिया था। इसी किले में बने पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिर जाने के कारण हुमायूं की मौत हो गई थी। बावड़ी से कुछ ही दूरी पर बनी यह इमारत आज भी देखी जा सकती है। जिस मकबरे में हुमायूं को दफनाया गया, उसे अब ‘हुमायूं के मकबरे’ के नाम से जाना जाता है। यह मकबरा ताजमहल के प्रोटोटाइप के रूप में देखा जाता है। इसी मकबरे से मुगल स्थापत्य कला की दिल्ली में शुरुआत हुई, जो आगरा में ताजमहल बनाए जाने के साथ अपने शिखर पर पहुंची। ‘हुमायूं के मकबरे’ से मुगल स्थापत्य कला के शिखर की ओर बढ़ने का काम शुरू हुआ। इस मकबरे के सामने से शुरू होने वाले लोदी रोड के दूसरे छोर पर बने सफदरजंग के मकबरे से मुगल स्थापत्य कला के पतन का दौर शुरू हुआ माना जाता है।
इनमें से एक था मुगल बादशाह हुमायूं और दूसरा अफगान बादशाह शेरशाह। आगरा के पास ‘फतेहपुर सीकरी’ के नाम से अपनी नई राजधानी बनाने वाला और भारतीय इतिहास के पन्नों में ‘अकबर महान’ के नाम से पुकारा जाने वाला अकबर अपने बाल्यकाल में इसी किले में रहता था। क्या उसने कभी इस बावड़ी के पानी का इस्तेमाल किया होगा, इस बारे में कहा नहीं जा सकता। लेकिन फतेहपुर सीकरी में बावड़ी बनाए जाने का प्रमाण आज भी मिलते हैं। अकबर मन में फतेहपुर सीकरी में बावड़ी बनवाने का विचार शायद पुराने किले की बावड़ी से ही आया होगा।
लाल पत्थरों से बने फतेहपुर सीकरी के शाही महल को ठंडा रखने के लिए पानी के इस्तेमाल के लिए अनेक रोचक तरीके अपनाए गए थे। इनमें से अधिकतर बरसाती पानी को रोककर उसको इस्तेमाल करने के तरीके पर ही निर्भर हैं। अकबर ने बड़े मन से अपने इस शहर को बनवाया और बसाया था, लेकिन अंत में उसे अपनी यह राजधानी छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। फतेहपुर सीकरी को बनाकर छोड़ दिए जाने का एक कारण वहां पानी की कमी माना जाता है। फतेहपुर सीकरी देखने के लिए आने वाले पर्यटकों के लिए जहां किले की दीवार की ऊंचाई से कुएं में छलांग लगाते देखना एक खास आकर्षण है; वहीं यह शहर पानी के महत्व की ओर भी संकेत करता है। यह हमें यह भी याद दिलाता है कि छोड़े गए शहर को यह नाम मिलन के पीछे एक कारण पानी भी रहा। हम इससे कोई सबक लेते हैं कि नहीं, इसके लिए किसी अध्ययन की आवश्यकता नहीं है।
तुगलकाबाद के किले और शहर में चार स्थानों पर बावड़ी बनाए जाने का उल्लेख मिलता है, लेकिन अब इसके अधिक प्रमाण नहीं दिखाई देते। इस शहर और किले में बनाई गई बावड़ियों में से एक करीब 8.50 वर्गमीटर में फैली हुई थी, जबकि दूसरी करीब 425 वर्गमीटर में फैली हुई थी। ये बावड़ियां हमेशा के लिए समाप्त हो गई है। अब इनमें पानी नहीं रह गया है। विशेषज्ञों का मानना है कि इनमें अब फिर से पानी लाए जाने की संभावना नहीं रह गई है; क्योंकि इसके अंदर पानी के ऐसे स्रोत नहीं रह गए हैं, जिससे कि इसके साथ बने कुएँ में स्थायी तौर पर पानी भरा रखा जा सके। कुछ अन्य विशेषज्ञों का मानना है कि पानी के गहरे स्रोतों का पता लगाने के लिए अब कहीं अधिक आधुनिक तकनीक उपलब्ध है। इसके लिए देशी-विदेशी विशेषज्ञों और तकनीक का इस्तेमाल करके ऐसा किया जा सकता है। यह काम मुश्किल ज़रूर कहा जा सकता है, लेकिन असंभव नहीं है। निश्चय ही अधिक गहराई पर पानी के स्रोत हो सकते हैं। उनका पता लगाने का प्रयास किया जाना चाहिए। इस समय इन बावड़ियों में आस-पास के इलाके का गंदा पानी भर रहा है।
ये बावड़ियां इस तरह से बनी हुई है कि वे निचाई वाले इलाके में केंद्रित हैं। इन बावड़ियों को बनाने वालों ने ऐसा इसलिए किया होगा कि बरसाती पानी इनमें इकट्ठा किया जा सके। लेकिन अब इन बावड़ियों में तुगलकाबाद गांव और उसके आस-पास बस गई बस्तियों का गंदा पानी इन बावड़ियों में जाकर भरता रहता है। इसलिए इनमें हमेशा गंदगी भरी रहती है। इस पानी को निकालकर इन बावड़ियों को साफ किए जाने की संभावना है। इसके लिए दिल्ली जल बोर्ड और दिल्ली नगर निगम को मिलकर काम करना होगा। जरूरी होगा कि इन बावड़ियों के आस-पास की आबादी के लिए सीवेज और गंदे पानी की निकासी की उचित व्यवस्था की जाए। प्रशासनिक संगठनों की पानी के इन परंपरागत साधनों के प्रति बढ़ती असंवेदनशीलता के चलते ऐसा नहीं हो पा रहा है। इससे इन बावड़ियों के हमेशा के लिए समाप्त हो जाने की आशंका उत्पन्न हो गई है। ऐसा तब किया जा रहा है, जबकि यह इलाक़ा पानी की कमी से जूझ रहा है।
अंग्रेजी शासन के दौरान इस बावड़ी को जेल के रूप में इस्तेमाल किए जाने के प्रमाण हैं। नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा गठित ‘इंडियन नेशनल आर्मी’ के सैनिकों को इसी बावड़ी में बंद रखे जाने के प्रमाण हैं। औरंगजेब के शासन काल में उसके भाई दारा शिकोह को भी संभवतः इसी बावड़ी में बंद करके रखा गया था। शाहजहां के किले के अलावा उसके शहर में एक और बावड़ी होने के प्रमाण आज भी मिलते हैं –वह है खारी बावड़ी। विकास के दौर में यह बावड़ी कहीं खो गई हो सकता है, वह किसी बाजार, दुकान और मकान के अंदर पहुंच गई हो। इसका यह नाम शायद इसलिए पड़ा होगा कि उससे मिलने वाला पानी खारा रहा हो। इस बावड़ी के प्रमाण तो अब नहीं दिखाई देते, लेकिन इस बावड़ी के नाम पर एक पूरा थोक बाजार ज़रूर है। इस थोक बाजार में अब रसायन, मसाले, अचार आदि का कारोबार होता है। यह बावड़ी कब और किसने बनाई थी, इस बारे में न तो सरकारी दस्तावेज़ कुछ बता पाने की स्थिति में हैं और न ही इस बाजार में रहने और कारोबार करने वाले लोग। उनके लिए यह बावड़ी तो अब बस नाम ही है एक बाजार का।
फिरोजशाह कोटला की बावड़ी
देश और दुनिया में अब फिरोजशाह कोटला को एक क्रिकेट स्टेडियम के रूप में जाना जाता है। यह स्टेडियम दिल्ली पर शासन करने वाले तुगलक वंश के तीसरे बादशाह फिरोजशाह तुगलक द्वारा बसाए गए ‘फिरोजाबाद शहर’ का एक हिस्सा रही ज़मीन पर बना हुआ है। फिरोजशाह और उसके शहर की चर्चा तो अब केवल इतिहास की किताबों में ही मिलती है। फिरोजशाह तुगलक को एक ऐसे सुल्तान के रूप में जाना जाता है, जिसके कार्यकाल 1351-1385 ई. के दौरान न केवल दिल्ली में, बल्कि देश के अनेक शहरों में बड़े पैमाने पर इमारतों का निर्माण किया गया। उसकी गिनती अपने समय के दुनिया के सबसे बड़े निर्माताओं में होती है। फिरोजशाह की विशेषता यह थी कि उसने सार्वजनिक हित की इमारतों के निर्माण और पहले से बनी इमारतों के संरक्षण को उच्च प्राथमिकता दी। काश! आज के नीति निर्धारक और निर्माता फिरोजशाह तुगलक से कुछ सीख पाते, प्रेरणा ले पाते।
यमुना से पानी आता था इस बावड़ी में
फिरोजशाह कोटला स्टेडियम के साथ दिखाई देने वाले किले के अवशेष तो अब भी गुज़रे कल की कथा कहते लगते हैं। फिरोजशाह को निर्माण कराना इतना पसंद था कि सत्ता संभालने के बाद उसने अपने रहने के लिए यमुना के किनारे एक नया महल बनवाया। उस महल के तीन ओर एक शहर बसाया गया। हालांकि उसके पहले उसके ही पूर्वजों ने तुगलकाबाद और आदिलाबाद के किले बनवा दिए थे। इसके अलावा महरौली में लाल कोट और किला राय पिथौरा का भी वह इस्तेमाल कर सकता था, लेकिन उसने अपने नाम पर एक शहर और एक किला बनाने का फैसला किया। इस किले में पानी लाने के लिए उसने नहरें बनवाई। पुरानी नहरों का पुनर्निर्माण और विकास करवाया। इस किले के अंदर रहने वालों की सुविधा के लिए बनवाई गई बावड़ी आज भी देखी जा सकती है।
हालांकि उसकी खूबसूरती के तो अब अवशेष ही दिखाई देते हैं। कुछ समय पहले तक यह बावड़ी गुंबदनुमा छत से ढकी थी। अब इस छत का निशान भी नहीं मिलता। इस बावड़ी में यमुना से पानी जाने की व्यवस्था थी। इस पानी को किले के अंदर बने तहखानों को ठंडा रखने के लिए काम में लाया जाता था। दिल्ली प्रवास के दौरान सुलतान स्वयं गर्मी के दिनों में इस बावड़ी के साथ बनाए गए कमरों और बरामदों का उपयोग करता था। फिरोजशाह कोटला की छत पर आज भी ‘अशोक की लाट’ दिखाई देती है। यह दिल्ली की सबसे पुरानी ऐतिहासिक धरोहरों में से एक है। यह अब से 2,000 साल से भी अधिक पुरानी है। इस लाट से कुछ ही दूरी पर बनी इस बावड़ी में आज भी पानी देखा जा सकता है। इस पानी का इस्तेमाल इस इमारत के आस-पास के क्षेत्र को हरा-भरा बनाए रखने के लिए किया जाता है।
पुराने किले की बावड़ी
पुराने किले के अंदर आज भी बावड़ी बनी हुई है, जो काम में लाई जा सकती है। यह बावड़ी इस किले के अंदर बनाई गई मस्जिद ‘किला ए कुहना’ के दक्षिण-पश्चिम की ओर बनी हुई है। इस मस्जिद को पठानों की निर्माण कला के अंतिम दौर और मुगल निर्माण कला के शुरुआती दौर का संगम माना जाता है। यह बावड़ी इसी मस्जिद से कुछ ही दूरी पर बनी हुई है। नई दिल्ली बनाए जाने की शुरुआत के समय पुराने किले के अंदर और आस-पास के इलाकों में रहने वालों को यहां से हटाकर शहर के अन्य इलाकों के अलावा रोहतक, बुलंदशहर और गुड़गांव में बसाया गया था। जब इस किले के अंदर लोग रहते थे तो यह बावड़ी काम के लायक नहीं रह गई थी। इसमें कूड़ा और मिट्टी आदि भर गया था। बाद में इसे साफ किया गया। अब यह बावड़ी देखने लायक बन गई है यह बावड़ी दिल्ली पर शेरशाह सूरी के शासन के दौरान करीब 1540 ई. में बनाई गई मानी जाती है। इस बावड़ी के उत्तर-पूर्वी छोर की ओर कुआं बना हुआ है। इस कुएँ के पानी तक पहुंचने के लिए 89 सीढ़ियां बनी हुई हैं। इसकी दीवारें और मेहराबें पत्थरों से बनाई गई हैं। यह बावड़ी इस तरह से बनी हुई है कि इसके अंदर बने कुएँ में ज़मीन के अंदर के प्राकृतिक स्रोतों के अलावा बरसात के दौरान किले में एकत्र होने वाला पानी भी आ सकता है। इस बावड़ी का इस्तेमाल दिल्ली के दो शहरों की स्थापना करने वाले बादशाहों के कार्यकाल के दौरान किया गया।
दीन पनाह और शेरगढ़
पुराना किला दिल्ली के दो पुराने और ऐतिहासिक शहरों –‘दीन पनाह’ और ‘शेरगढ़’ का केंद्र रहा है। यह भी माना जाता है कि यह किला उसी जगह पर बना माना जाता है, जहां महाभारत काल में इंद्रप्रस्थ का किला हुआ करता था। इस किले में अफगान शेरशाह सूरी और मुगल शासक हुमायूं द्वारा कराए गए निर्माण आज भी देखे जा सकते हैं। 13 साल की उम्र में ही बादशाह बनने वाला अकबर इसी किले में रहा करता था। इसी किले के बाहर उसकी हत्या करने की भी कोशिश हुई थी। शेरशाह ने हुमायूं को हराकर अफगानों की सत्ता वापस छीन ली थी।
बाबर ने पानीपत के मैदान में अफगानों को हराकर भारत में मुगल शासन की नींव डाली थी। हुमायूं को भागकर वापस ईरान जाना पड़ा था। हुमायूं ने उससे फिर से अपनी सत्ता को पाने के लिए लगातार प्रयास किया। हुमायूं ने शेरशाह को हराकर अपना साम्राज्य वापस छीन लिया था। इसी किले में बने पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिर जाने के कारण हुमायूं की मौत हो गई थी। बावड़ी से कुछ ही दूरी पर बनी यह इमारत आज भी देखी जा सकती है। जिस मकबरे में हुमायूं को दफनाया गया, उसे अब ‘हुमायूं के मकबरे’ के नाम से जाना जाता है। यह मकबरा ताजमहल के प्रोटोटाइप के रूप में देखा जाता है। इसी मकबरे से मुगल स्थापत्य कला की दिल्ली में शुरुआत हुई, जो आगरा में ताजमहल बनाए जाने के साथ अपने शिखर पर पहुंची। ‘हुमायूं के मकबरे’ से मुगल स्थापत्य कला के शिखर की ओर बढ़ने का काम शुरू हुआ। इस मकबरे के सामने से शुरू होने वाले लोदी रोड के दूसरे छोर पर बने सफदरजंग के मकबरे से मुगल स्थापत्य कला के पतन का दौर शुरू हुआ माना जाता है।
पानी के बिना फतेहपुर सीकरी उजड़ गई
इनमें से एक था मुगल बादशाह हुमायूं और दूसरा अफगान बादशाह शेरशाह। आगरा के पास ‘फतेहपुर सीकरी’ के नाम से अपनी नई राजधानी बनाने वाला और भारतीय इतिहास के पन्नों में ‘अकबर महान’ के नाम से पुकारा जाने वाला अकबर अपने बाल्यकाल में इसी किले में रहता था। क्या उसने कभी इस बावड़ी के पानी का इस्तेमाल किया होगा, इस बारे में कहा नहीं जा सकता। लेकिन फतेहपुर सीकरी में बावड़ी बनाए जाने का प्रमाण आज भी मिलते हैं। अकबर मन में फतेहपुर सीकरी में बावड़ी बनवाने का विचार शायद पुराने किले की बावड़ी से ही आया होगा।
लाल पत्थरों से बने फतेहपुर सीकरी के शाही महल को ठंडा रखने के लिए पानी के इस्तेमाल के लिए अनेक रोचक तरीके अपनाए गए थे। इनमें से अधिकतर बरसाती पानी को रोककर उसको इस्तेमाल करने के तरीके पर ही निर्भर हैं। अकबर ने बड़े मन से अपने इस शहर को बनवाया और बसाया था, लेकिन अंत में उसे अपनी यह राजधानी छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। फतेहपुर सीकरी को बनाकर छोड़ दिए जाने का एक कारण वहां पानी की कमी माना जाता है। फतेहपुर सीकरी देखने के लिए आने वाले पर्यटकों के लिए जहां किले की दीवार की ऊंचाई से कुएं में छलांग लगाते देखना एक खास आकर्षण है; वहीं यह शहर पानी के महत्व की ओर भी संकेत करता है। यह हमें यह भी याद दिलाता है कि छोड़े गए शहर को यह नाम मिलन के पीछे एक कारण पानी भी रहा। हम इससे कोई सबक लेते हैं कि नहीं, इसके लिए किसी अध्ययन की आवश्यकता नहीं है।
तुगलकाबाद के किले और शहर की बावड़ियां
तुगलकाबाद के किले और शहर में चार स्थानों पर बावड़ी बनाए जाने का उल्लेख मिलता है, लेकिन अब इसके अधिक प्रमाण नहीं दिखाई देते। इस शहर और किले में बनाई गई बावड़ियों में से एक करीब 8.50 वर्गमीटर में फैली हुई थी, जबकि दूसरी करीब 425 वर्गमीटर में फैली हुई थी। ये बावड़ियां हमेशा के लिए समाप्त हो गई है। अब इनमें पानी नहीं रह गया है। विशेषज्ञों का मानना है कि इनमें अब फिर से पानी लाए जाने की संभावना नहीं रह गई है; क्योंकि इसके अंदर पानी के ऐसे स्रोत नहीं रह गए हैं, जिससे कि इसके साथ बने कुएँ में स्थायी तौर पर पानी भरा रखा जा सके। कुछ अन्य विशेषज्ञों का मानना है कि पानी के गहरे स्रोतों का पता लगाने के लिए अब कहीं अधिक आधुनिक तकनीक उपलब्ध है। इसके लिए देशी-विदेशी विशेषज्ञों और तकनीक का इस्तेमाल करके ऐसा किया जा सकता है। यह काम मुश्किल ज़रूर कहा जा सकता है, लेकिन असंभव नहीं है। निश्चय ही अधिक गहराई पर पानी के स्रोत हो सकते हैं। उनका पता लगाने का प्रयास किया जाना चाहिए। इस समय इन बावड़ियों में आस-पास के इलाके का गंदा पानी भर रहा है।
ये बावड़ियां इस तरह से बनी हुई है कि वे निचाई वाले इलाके में केंद्रित हैं। इन बावड़ियों को बनाने वालों ने ऐसा इसलिए किया होगा कि बरसाती पानी इनमें इकट्ठा किया जा सके। लेकिन अब इन बावड़ियों में तुगलकाबाद गांव और उसके आस-पास बस गई बस्तियों का गंदा पानी इन बावड़ियों में जाकर भरता रहता है। इसलिए इनमें हमेशा गंदगी भरी रहती है। इस पानी को निकालकर इन बावड़ियों को साफ किए जाने की संभावना है। इसके लिए दिल्ली जल बोर्ड और दिल्ली नगर निगम को मिलकर काम करना होगा। जरूरी होगा कि इन बावड़ियों के आस-पास की आबादी के लिए सीवेज और गंदे पानी की निकासी की उचित व्यवस्था की जाए। प्रशासनिक संगठनों की पानी के इन परंपरागत साधनों के प्रति बढ़ती असंवेदनशीलता के चलते ऐसा नहीं हो पा रहा है। इससे इन बावड़ियों के हमेशा के लिए समाप्त हो जाने की आशंका उत्पन्न हो गई है। ऐसा तब किया जा रहा है, जबकि यह इलाक़ा पानी की कमी से जूझ रहा है।
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