कुतुब मीनार को बदरपुर से जोड़ने वाली महरौली-बदरपुर रोड के उत्तरी हिस्से में, जहां बहुमंजिली इमारतें और बड़े-बड़े शोरूम बन चुके हैं, के बीच कहीं पर एक बावड़ी होनी चाहिए थी। अब से करीब 100 साल पहले किए गए मौलवी जफर हसन के सर्वेक्षण के अनुसार, यह बावड़ी महरौली-बदरपुर रोड के उत्तर में ‘कुतुब साहब की हवेली कही जाने वाली इमारत के आस-पास थी। इस बावड़ी को बनवाने वाले के बारे में जानकारी देने वाला एक पत्थर लगा मिला था। सलेटी रंग के इस पत्थर पर लिखे ब्योरे पढ़े जाने लायक तो नहीं थे। इस पत्थर को सुरक्षित रखे जाने के लिए दिल्ली म्यूजियम में ले जाने के प्रमाण मिलते हैं। वसंत बिहार दिल्ली की ऐसी बस्ती है, जहां अनेक ऐसे लोग रहते हैं जिन्होंने देश-विदेश में अपनी योग्यता और क्षमता के चलते अपना नाम कमाया है। देश के विकास की नीतियों के निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, लेकिन चिराग तले अंधेरा का मुहावरा यहीं पर चरितार्थ होता दिखाई देता है। इस बावड़ी के आस-पास रहने वालों में से अधिकतर को पीने के पानी की आपूर्ति कोई समस्या नहीं है, क्योंकि वे पीने के पानी के लिए मिनरल वाटर पर निर्भर करते हैं। लेकिन बावड़ी का रख-रखाव उन्हें आकर्षित करने के लिए पर्याप्त नहीं है। बस्ती के बीच बने पार्कों में जहां-तहां रेन वॉटर हार्वेस्टिंग की गई है: लेकिन वह कितनी प्रभावकार साबित हो रही है, इसका परिणाम सामने नहीं आता। यह सारा इलाक़ा बहुत समय से पानी की कमी का सामना करता रहा है, लेकिन नगर नियोजकों ने इस पहलू को पूरी तरह अनदेखा करके वसंत विहार और वसंत कुंज के बीच नेल्सन मंडेला रोड के पश्चिमी किनारे पर आलीशान शॉपिंग मॉल, होटल और बहुमंजिली इमारतों वाले दफ्तरों के समूह विकसित किए जाने की इजाज़त दे दी। इसकी पथरीली ज़मीन और अरावली की पहाड़ियों को काटकर विकसित किए गए इस समूह के विकास के बाद इस इलाके में पानी एक बड़ी समस्या खड़ी हो गई है और आने वाले समय में इसके और भी विकराल रूप धारण कर लेने की है। अब इस समूह को पानी की आपूर्ति करने के लिए दूर-दराज से पानी लाकर उसका भंडारण करने और उसकी आपूर्ति की व्यवस्था करने पर जल बोर्ड मोटी रकम खर्च कर रहा है।
दिल्ली के रईसों और नेताओं के फार्महाउसों की बस्ती सुल्तानपुर में एक बावड़ी होने के प्रमाण हैं। अब यह सारा इलाक़ा फार्महाउसों से भरा हुआ है जिनकी ऊंची दीवारों, सुरक्षा कर्मचारियों और खूंखार कुत्तों से बचकर बिना मालिक की मर्जी के उनके अंदर जा पाना संभव ही नहीं है। इसलिए यह पता लगा पाना संभव नहीं हो पाया कि यह बावड़ी अब किस हाल में है। सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार – जहां पर यह बावड़ी होनी चाहिए, वहां पर अब केंद्र सरकार के एक मंत्री का फार्म हाउस है। यह बावड़ी सुल्तानपुर गांव के दक्षिण में करीब आधे मील की दूरी पर बनी हुई थी। सरकारी दस्तावेज़ यह बावड़ी ‘शामिलात ज़मीन’ पर बनी बताते हैं। ‘शामिलात ज़मीन’ उस ज़मीन को कहा जाता है, जो किसी की निजी संपत्ति नहीं होती। वह ज़मीन पूरे गांव के साझे इस्तेमाल के लिए होती है। यह ज़मीन किस तरह से किसी की निजी संपत्ति बन गई होगी, इसके लिए तो एक अलग अध्ययन की आवश्यकता होगी, क्योंकि दिल्ली में सरकारी ज़मीन का ही हिसाब-किताब नहीं हो पाता तो गांव की ‘शामिलात ज़मीन’ किस तरह किसी मंत्री के घर की जमीन बनी होगी, इसके अध्ययन के लिए तो सी.बी.आई. और जे.पी.सी. जैसी कोई व्यवस्था करनी होगी। वैसे भी यह विषय किसी तरह से इस किताब के दायरे में लाया जा सकना तो संभव नहीं कहा जा सकता। हाँ खबरिया चैनलों के लिए यह काम का विषय हो सकता है। लेकिन पानी के प्रति उनकी संवेदनशीलता और टी.आर.पी. की दौड़ में इस विषय को कितना महत्व दिया जा सकता है, यह फैसला तो वहां के निर्णायक ही कर सकेंगे।
मैं इसे यहीं पर छोड़ना चाहूंगा और सुल्तानपुर की इस बावड़ी की ओर आपका ध्यान लाना चाहूंगा। यह बावड़ी पत्थरों से बनाई गई थी। यह 100 फीट लंबी और 18 फीट चौड़ी थी। इसके चारों ओर दीवार थी। इस बावड़ी की पश्चिमी छोर पर एक दालान बनी हुई थी। बावड़ी की दीवार के दोनों ओर 3.6 फीट से अधिक चौड़ाई की गैलरी बनी हुई थी। इसके उत्तर-पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम कोनों से नीचे की ओर जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई थीं। दालान के पश्चिमी छोर के निकट एक कुआं था, जिसकी गोलाई करीब 12 फीट की थी। इस बावड़ी के पास आठ कोनों वाली एक छतरी थी, जिसकी छत गोलाकार थी। इस छतरी में सलेटी रंग के आठ खंभे लगे थे। ऐसा लगता था कि वे किसी पुराने मंदिर से हटाकर यहां लाए गए थे। कुतुबमीनार बनाए जाते समय आस-पास के इलाके के मंदिरों को तोड़कर उसके पत्थरों और अन्य साजो-सामान का उपयोग किया गया था। कुतुब मीनार जिस मस्जिद की मीनार है, उसे उस समय के विजेताओं ने ‘कूव्वत ए इस्लाम’ का नाम दिया था। इस बावड़ी के खंभे किस मंदिर से लाए गए, वह मंदिर कहां कब और किसने बनवाया था और किन परिस्थितियों में अतीत के गर्भ में समा गया, इसके बारे में कोई जानकारी फिलहाल नहीं मिल पाती है। इसके साथ ही राजधानी के अतीत का एक हिस्सा हमेशा के लिए ग़ायब हो गया। दिल्ली का अतीत मिटते जाना दिल्ली वालों के लिए कोई खास बात नहीं है। ऐसा करने वाले यदि नीति-निर्धारक और राजनेता या ऊपर तक पहुंच रखने वाले हों तो वह और भी आसान हो जाता है।
कुतुब मीनार को बदरपुर से जोड़ने वाली महरौली-बदरपुर रोड के उत्तरी हिस्से में, जहां बहुमंजिली इमारतें और बड़े-बड़े शोरूम बन चुके हैं, के बीच कहीं पर एक बावड़ी होनी चाहिए थी। अब से करीब 100 साल पहले किए गए मौलवी जफर हसन के सर्वेक्षण के अनुसार, यह बावड़ी महरौली-बदरपुर रोड के उत्तर में ‘कुतुब साहब की हवेली कही जाने वाली इमारत के आस-पास थी। इस बावड़ी को बनवाने वाले के बारे में जानकारी देने वाला एक पत्थर लगा मिला था। सलेटी रंग के इस पत्थर पर लिखे ब्योरे पढ़े जाने लायक तो नहीं थे। इस पत्थर को सुरक्षित रखे जाने के लिए दिल्ली म्यूजियम में ले जाने के प्रमाण मिलते हैं। म्यूजियम के कैटलॉग नंबर सी 7 में इसका उल्लेख है। इस बावड़ी के कुएँ का दायरा 33 फीट आंका गया था। इस बावड़ी के प्रमाण दक्षिणी दिल्ली में पत्रकारों की बस्ती प्रेस एन्क्लेव के दक्षिण में साकेत स्पोर्ट्स कॉम्पलेक्स के सामने दिखाई देते हैं। बनाए जाते समय शायद यह एक बड़ी इमारत रही होगी। इस कुएँ के पानी तक जाने के लिए दक्षिण की ओर से सीढ़ियां बनी हुई थीं। अब इसकी कुछ ही सीढ़ियां और पूर्व और पश्चिम की ओर की दीवारों के कुछ हिस्से ही नजर आते हैं। इस बावड़ी के अब इस इलाके में विकसित किए जा रहे डिस्ट्रिक सेंटर में बन रहे आलीशान होटलों और मॉल्स के बीच कहीं खोकर रह जाने की आशंका उत्पन्न हो गई है। पिछले एक दशक में इस इलाके में भारी बदलाव आ चुका है। यहां पर बड़े-बड़े अस्पताल और व्यावसायिक इमारतें बन गई हैं। इन निर्माणों के कारण इस इलाके में पानी की मांग लगातार बढ़ रही है। जल संरक्षण के लिए आवश्यक व्यवस्थाएं प्रभावकारी तरीके से नहीं लागू की जा सकी है। किसी इलाके के इस प्रकार के गहन विकास के साथ ऐसा किया जाना आवश्यक भी था और संभव भी; लेकिन अपेक्षाकृत परिणाम देखने को नहीं मिलते।
यह बावड़ी एक सराय के परिसर में बनी हुई थी। इसलिए इसे ‘सराय बावड़ी’ के नाम से भी पहचाना जाता है। यह बावड़ी ओखला गांव के दक्षिणी में करीब 1 मील की दूरी पर बनी हुई थी। जिस ज़मीन पर यह बावड़ी बनी हुई थी उसे सरकारी रिकॉर्ड में शामिलात ज़मीन के रूप में दर्ज किया गया था। यह बावड़ी पठानों के शासन काल के दौरान बनाई गई मानी जाती है। इस बावड़ी के बारे में अब अधिक जानकारी नहीं मिलती, लेकिन सराय के ब्योरे उपलब्ध हैं। यह सराय दिल्ली की जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के आस-पास कहीं पर होनी चाहिए। सराय जुलियाना अब एक बस्ती है। यह इलाक़ा ओखला गांव के पश्चिम में ‘जोगाबाई’ के नाम से जाना जाता है। सरकारी रिकॉर्ड में यह ‘सराय भगोला’ गांव के दक्षिण में करीब 1 मील की दूरी पर बनी हुई बताई गई है। शायद ओखला का कभी नाम ‘भगोला’ रहा हो। भगोला गांव का मूल नाम खिजाबाद माना जाता है। खिजाबाद को दिल्ली के एक शहर के रूप में बसाया गया था। इस शहर को बसाने वाले का नाम था खिज्र खान।
खिज्र खान दिल्ली पर शासन करने वाले सैयद वंश के संस्थापक थे। इस शहर की स्थापना करीब सन् 1418 में की गई थी। इस शहर के होने के अब अधिक प्रमाण नहीं मिलते। ओखला गांव के अंदर अभी एक महल रही इमारत के खंडहर देखे जा सकते हैं। संभवतः यह महल उस शहर का हिस्सा रहा हो। इसके आस-पास बड़े पैमाने पर इमारतें बनाई जा चुकी हैं, इसलिए इनकी तलाश कर पाने में खासी दिक्कत होती है। कुछ दशक पहले तक यहां पर ‘खिज्र खां की गुम्टी’ नाम की एक इमारत हुआ करती थी। अब उसको पहचानने वाले या उसके बारे में जानकारी देने वाले तलाश करने पर भी नहीं मिल पाते। ओखला वाटर वर्क्स बनाए जाते समय उसे हटा दिए जाने का उल्लेख मिलता है। संभवतः इसे फिर से किसी दूसरी जगह पर बनाया गया। आज भी इस इलाके के लोग खिज्र खां की दरगाह में इबादत करने जाते हैं। तो क्या ओखला कभी भोगला हुआ करता था? बस्ती हजरत निजामुद्दीन के पास बनी बस्ती भोगल से इसका कोई संबंध तो नहीं। पता नहीं। ओखला तो अब एक बड़ी औद्योगिक बस्ती के रूप में अपनी पहचान रखती है। इस इलाके में कल-कारख़ानों और राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के आलीशान कार्यालय और इमारतें हैं; लेकिन इन्हें मुनाफ़ा कमाने के बीच इतना समय कहां मिलता कि कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सबिलिटी में इस पहलू को शामिल करें। यमुना के किनारे होर्डिंग लगाकर अपने प्रोडक्ट बेचने का प्रयास तो वे करते दिखाई देते हैं। इनकी पानी की खपत तो बहुत ज्यादा है, लेकिन यमुना या पानी के संरक्षण की ओर ध्यान दे पाने में उनकी कोई खास रुचि के प्रमाण दिखाई नहीं देते हैं।
उत्तरी दिल्ली में दिल्ली नगर निगम द्वारा संचालित हिंदूराव अस्पताल परिसर के पास बनी एक बावड़ी अभी भी दखी जा सकती है। यह बावड़ी सिविल लाइंस क्षेत्र में हिंदूराव मार्ग पर अस्पताल के पश्चिमी दरवाजे के पास है। नॉर्दर्न रिज पर ‘पीर गायब’ के दक्षिण-पश्चिम में करीब 50 गज की दूरी पर बनी यह बावड़ी फिरोजशाह तुगलक के कार्यकाल में बनाई गई थी। यह बावड़ी सरकारी जमीन पर बनी संरक्षित इमारत के रूप में दर्ज की गई है। दिल्ली में बनी सबसे बड़ी बावड़ियों में से एक इस बावड़ी के चारों ओर बहुत से कमरे बनाए जाने के प्रमाण हैं। टूट-फूट जाने के कारण अब पूरी इमारत देख पाना संभव नहीं रह गया है। इस बावड़ी के उत्तरी दीवार के पास से एक सुरंग में जाने का भी रास्ता था। अबुल फजल ने ‘आइन-ए-अकबरी’ में लिखा है कि इस सुरंग से होकर फिरोजाबाद, यानी आज के फिरोजशाह कोटला से जहाज नुमा यानी उत्तरी रिज पर बनी इस इमारत की ओर-आया-जाया जा सकता था।
यहां पर सुरंग बने होने के तो प्रमाण आज भी हैं। अब यह उतनी लंबी-चौड़ी तो नहीं दिखती जितनी कि अबुल फजल की किताब में बताई गई है। वक्त के साथ रख-रखाव के अभाव में यह हमेशा के लिए बर्बाद हो गई । इस बावड़ी के कुएं के साथ ही दक्षिण-पश्चिम की ओर पानी भरने के लिए तालाब बनाए जाने के प्रमाण हैं। इस तालाब से पानी ले जाने के लिए नालियां बनाई गई थी। ऐसा लगता है कि इस तालाब से पास ही में बनाए गए किले या महल में पानी ले जाए जाने की व्यवस्था की गई थी। इस बावड़ी से कुछ ही दूरी पर फिरोजशाह द्वारा एक महल बनवाया गया था। इस महल को जहाज नुमा या ‘कुशक ए शिखर’ के नाम से भी पहचाना जाता है। इस महल को जहाज नुमा कहे जाने का कारण यह बताया जाता है कि वह देखने में जहाज जैसा लगता था। इसे ‘कुशक ए शिखर’ कहे जाने का कारण शायद पहाड़ी की चोटी पर बना होना हो सकता है। फिरोजशाह इस इमारत का इस्तेमाल शिकारगाह के रूप में भी करता था। तब यहां पर जंगली जानवरों की बहुतायत हुआ करती थी। यानी यहां पर इतना पानी था, जो कि इस जंगल और यहां रहने वाले जंगली जानवरों की पानी की ज़रूरतों को पूरा कर पाने में सक्षम था। आदमी के बाहुल्य के कारण वहां अब न जानवर रहे, न प्राकृतिक जंगल, अब इस बावड़ी का बहुत थोड़ा हिस्सा ही देखा जा सकता है। जल संरक्षण के अन्य स्रोत लापता हो गए हैं। इस इलाके को हराःभरा बनाए रखने के लिए पानी दूर-दराज के इलाकों से यहां लाया जाता है। लेकिन स्थानीय स्तर पर जिस प्रकार से इस पानी को संरक्षित किया जाता था और जा सकता है, वैसा कर पाने में 21वीं सदी के दिल्ली वाले कोई खास योगदान नहीं कर पा रहे हैं।
नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पहाड़गंज की ओर से कुछ ही दूरी पर उत्तर की ओर ‘किला कदम शरीफ’ के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। ‘किला कदम शरीफ’ सन् 1375 के आस-पास बनाया गया था। फिरोजशाह तुगलक के शहर फिरोजाबाद की सीमा के ठीक बाहर बनाया गया था। यह शहर आज की पुरानी दिल्ली कही जाने वाली शाहजहां की दिल्ली से बहुत पहले बसाया गया था। इस इमारत को दिल्ली की संरक्षित इमारतों की सूची तक में शामिल करने की आवश्यकता नहीं महसूस की गई। इससे इस इमारत के बचे-खुचे अवशेष ही खास तलाश करने पर ही दिखाई देते हैं। नबी करीम के पास बने एक किले की तरह बनाए गए इस परिसर में कभी एक बावड़ी हुआ करती थी। अब उसके अवशेष तलाश कर पाना भी संभव नहीं रह गया है। यह बावड़ी फिरोजशाह तुगलक के शासन काल के दौरान बनाई गई मानी जाती है। एक समय में इस बावड़ी की दीवार लगे लाल रंग के एक पत्थर पर कुछ लिखा पाया गया था, जिससे इस बावड़ी के बनाए जाने और बनवाए जाने के बारे में कुछ जानकारियाँ मिल सकती थीं। वह लिखावट इतनी खराब हो चुकी थी कि उसे पढ़ा जाना संभव नहीं हो पाया। यह पत्थर इस बावड़ी के कुएँ की पूर्वी दीवार पर लगा हुआ था। इस बावड़ी को संरक्षित रखे जाने की सिफारिश की गई थी। ऐसा किया नहीं गया। ऐसा क्यों हुआ, अब इस पर चर्चा करने का भी कोई मतलब नहीं रह गया है। इस बावड़ी की इमारत दुमंजिली थी। हर मंजिल पर दो-दो कमरे बने हुए थे, जिनमें तीन-तीन मेहराबें थीं। यह बावड़ी पत्थरों से बनाई थी। इस बावड़ी में बने हुए कुएँ की गोलाई 7.9 फीट आंकी गई थी। यह कुआं इस बावड़ी के पूर्वी छोर पर बना हुआ था। इस किले के परिसर में हौज बनाए जाने का भी उल्लेख मिलता है।
फिरोजशाह के शासन के इतिहासकारों की माने तो इस परिसर में ‘कदम शरीफ’ नाम की यहां पर एक दरगाह हुआ करती थी। इसे फिरोजाबाद शहर की पश्चिमी सीमा के पास ही बनाया गया था। ‘कदम शरीफ’ नाम की यह इमारत सन् 1375 में यानी आज से करीब 633 साल पहले बनाई गई थी। इस इमारत में पिरोजशाह के बड़े बेटे फतह खान को दफन किया गया था। उसकी कब्र पर लगाए गए पत्थर पर मुहम्मद साहब के पैरों के पवित्र निशान थे। ‘कदम शरीफ’ का अर्थ है – पैरों के पवित्र निशान। इसी से इस बावड़ी का नाम भी ‘ बावड़ी कदम शरीफ’ रखा गया। यह पत्थर बगदाद के खलीफा की ओर से सुल् तान फिरोजशाह तुगलक को भेजा गया था। इस पत्थर को इतना पवित्र माना गया था कि इसे फतेह खान की कब्र पर उस जगह पर लगाया गया था जहां कि दफनाए गए व्यक्ति का सीना होता है। फिरोजशाह के शासन के समय के इतिहासकारों ने लिखा है कि पत्थर को हजरत मख्दूद मक्का से अपने सिर पर रखकर दिल्ली लाए थे। इस दरगाह के पास एक हौज बनाए जाने का भी उल्लेख मिलता है। ‘तहरीके फिरोजशाही’ में लिखा है कि इस शहर को बनाए जाने के दौरान ही मंदाती और सिरमौर से यहां पानी लाने के लिए नहर भी बनाई गई थी। खग्गर से सरसुती के किले से होकर फिरोजाबाद के लिए एक और नहर बनाई गई थी। यमुना से निकालकर एक और नहर का पानी शहर में बनाए गए तालाबों तक पहुंचाने की व्यवस्था की गई थी। शहर के अंदर इन नहरों का रास्ता क्या होगा, अब इसको तलाश कर पाना मुश्किल है। माना यह जाता है कि आज का ‘फैज बाजार’ फिरोजशाह के समय में नहर के किनारे रहा होगा।
इतिहास की किताबों में पालम की बावड़ी का उल्लेख मिलता है। इस बावड़ी का अब पता लगा पाना संभव नहीं हो पा रहा है, क्योंकि अब वहां पर बस्ती बसाई जा चुकी है। यदि ज़मीन के पुराने सरकारी रिकॉर्ड से मिलान किया जाए तो लगता है कि यह बावड़ी लगभग वहीं कहीं रही होगी, जहां अब सर छोटूराम पब्लिक स्कूल बना हुआ है। यह बावड़ी पालम गांव के दक्षिण में करीब 200 गज की दूरी पर बनी हुई थी। पत्थरों से बनी बावड़ी तीन मंजिला थी। जैसे-जैसे इसमें नीचे की ओर उतरा जाता था, यह संकरी होती चली जाती थी। यह करीब 52.3 फीट लंबी और 18.6 फीट चौड़ी थी। इसमें उतरने के लिए उत्तर की ओर से 40 सीढ़ियां बनी हुई थीं। इनसे होकर पानी तक पहुंचा जा सकता था। हर मंजिल पर एक पवेलियन बना हुआ था, जिसके खंभे हिंदू कारीगरों द्वारा बनाए गए लगते थे। ये खंभे तराशे हुए पत्थरों से बनाए गए थे।
इन खंभों को देखकर ऐसा लगता था कि इन्हें कहीं और से लाकर यहां पर लगाया गया है। इस पवेलियन में जाने के लिए गैलरी बनी हुई थी। सबसे ऊपरी मंजिल पर बने पवेलियन की छत नहीं थी। मौलवी जफर हसन के अनुसार, यह बावड़ी पठानों के शासन काल के दौरान बनाई गई बावड़ियों जैसी लगती थी। ‘इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट’ और ‘एयरोसिटी’ हजारों लोग रोज़ाना आए-जाएंगे और रहेंगे, वैसे विकास के बाद यह इलाक़ा पानी की आपूर्ति के लिए एक बड़ी चुनौती बनने जा रहा है। इस गहन विकास के लिए पानी कहां से आएगा और उसकी आपूर्ति कैसे सुनिश्चित की जाएगी? इसमें पानी की रिसाइक्लिंग और ज़मीन के अंदर के पानी का इस्तेमाल बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हैं। इस पूरे क्षेत्र में ज़मीन के अंदर पानी की उपलब्धता और उसकी किस्म एक बड़ी चुनौती है। उसका समाधान कब और कैसे निकाला जाएगा, फिलहाल तो दिल्लीवालों के लिए उपलब्ध पानी से ही इस विकास के लिए पानी उपल्बध कराए जाने का प्रावधान किया जा रहा है। इस अतिरिक्त आवश्यकता की पूर्ति कब और कैसे की जाएगी, इस ओर भी ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।
सरकारी दस्तावेज़ों के अनुसार, द्वारका फेस 1 के सैक्टर 20 में एक बावड़ी होनी चाहिए थी। आज की दिल्ली के नगर नियोजकों से शायद इसके बचाने की उम्मीद कर पाना बेमानी है। इसे ‘तेघनपुर की बावड़ी’ या ‘पोचनपुर की बावड़ी’ के नाम से दर्ज किया गया है। यह बावड़ी और उसके साथ बनी इमारत को पठानों के शासन के महत्वपूर्ण योगदान के रूप में भी जाना जा सकता था। यह बावड़ी उस समय बसे ‘अंबराही गांव’ के उत्तर में करीब पौन मील की दूरी पर बनी हुई थी। ‘अंबराही’ तो ‘आमों के बगीचों’ को कहा जाता है। तो क्या यहां पर आमों का कोई बगीचा था? या उस बगीचे के आस-पास कोई गांव बसा हुआ था? 1857 में हुए स्वतंत्रता के पहले संग्राम में इस क्षेत्र में सैकड़ों भारतीय हताहत हुए थे। उनकी याद तो हम जैसे भूला ही चुके हैं। यह सब तो गुज़रे कल की बात हो गई। अब तो यह बस द्वारका है, जहां बस अतीत से जुड़ा हुआ केवल नाम ही रह गया है। अतीत के प्रमाणों के संरक्षण को महत्व नहीं दिए जाने के कारण यह बावड़ी भी कहीं बिला गई। यह बावड़ी पूर्व से पश्चिम की ओर 60 फीट और उत्तर से दक्षिण की ओर 20 फीट की थी। इसमें 13.3 फीट का कुआं था। पानी तक पहुंचने के लिए सीढ़ियां दिखाई देती थीं। अब इस बावड़ी का कोई प्रमाण दिखाई नहीं देता है। इस बावड़ी को कब, किसने और क्यों बनवाया था, इसके बारे में अधिक जानकारी अब नहीं मिल पाती है। द्वारका के विकास के समय डी.डी.ए. द्वारा तैयार किए गए संर्वेक्षणों में इसका उल्लेख होना चाहिए। फाइलों को अस्त-व्यस्त रखने और खो जाने के लिए अपनी अलग पहचान रखने वाले डी.डी.ए के पास अब वे दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं बताए गए हैं। यह संभव है कि फाइलों की तलाश की जो व्यवस्था डी.डी.ए. के कार्यालय में है, उस व्यवस्था के रास्ते नहीं जाने के कारण ये दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं बताए गए हों। आवश्यकता इस बात की है कि इनकी तलाश की जाए। द्वारका की बावड़ियों का पता लगाकर उन्हें जल स्रोतों के लापता हो जाने और उसके पानी की उपलब्धता की ओर इस उपनगर के निवासियों को संवेदनशील बनाने के लिए इनका इस्तेमाल किया जाए। ज़मीन से जुड़े नेताओं और दिल्ली के विकास में उनके योगदान को देखते हुए इस प्रकार की योजनाओं की सफलता की संभावनाएं सीमित ही है, लेकिन ऐसा किया जाना जरूरी है।
यह बावड़ी द्वारका फेस 1 के सेक्टर 12 में बनाए गए डी.डी.ए. फ्लैटों के बीच कहीं पर होनी चाहिए थी। अब तो इसके अवशेष भी नहीं दिखाई देते। पुराने दस्तावेज़ बताते हैं कि यह बावड़ी मटियाला गांव के दक्षिण में करीब 1 मील की दूरी पर ऐसी ज़मीन पर बनी हुई थी, जिसे ‘शामिलात’ कहते हैं। यानी ऐसी ज़मीन जिस पर किसी खास व्यक्ति का मालिकाना हक नहीं था। इस बावड़ी को पठानों के शासन काल के दौरान बनाए जाने के प्रमाण थे। ईंट-पत्थरों से बनी यह बावड़ी उत्तर से दक्षिण की ओर 52 फीट लंबी और पूर्व से पश्चिम की ओर 16.6 फीट चौड़ी थी। इस बावड़ी के साथ बने कुएं की गोलाई 8.6 फीट थी। इस कुएँ से पानी लेने के लिए आने-जाने के लिए 22 सीढ़ियां बनी हुई थीं। इस बावड़ी का इस्तेमाल इस गांव के रहने वालों द्वारा किया जाता था। मौलवी जफर हसन ने अपने सर्वेक्षण के दौरान इस बावड़ी की स्थिति को अच्छी करार दिया था। उन्हें इस इमारत के बनाए जाने आदि के बारे में जनकारी देने वाला कोई पत्थर आदि नहीं मिला था। उस समय की सरकार द्वारा इस सर्वेक्षण के लिए किसी इमारत को दर्जा देने के लिए निर्धारित नियमों के तहत इस इमारत को तृतीय श्रेणी का करार दिया गया था। तीसरे दर्जे की इमारत उसे माना गया था, जिसकी हालत ऐसी हो कि उसके संरक्षण पर सरकारी पैसा खर्च करने की जरूरत नहीं मानी गई हो। अंग्रेजी शासन के दौरान ऐसा किया जा सकता था, लेकिन विदेशी शासकों ने इसकी आवश्यकता महसूस नहीं की। आज़ादी के बाद भी इसे जरूरी महत्व नहीं मिल सका। दिल्ली के विकास के लिए बनाए गए डी.डी.ए. को इसे संरक्षित रखने के लिए कदम उठाने चाहिए थे। ऐसा नहीं किया गया। आज़ाद भारत के हुक्मरानों ने भी ऐसा नहीं किया और यह जल स्रोत हमसे हमेशा के लिए छिन गया। ऐसा तब हुआ जबकि तेजी से फैल रही दिल्ली में पानी की आपूर्ति की समस्या गंभीर रूप ले चुकी थी और पानी के संरक्षण व उसके बेहतर इस्तेमाल किए जाने पर चर्चा की जा रही थी। इस सिलसिले को वातानुकूलित कमरों से निकालकर वास्विकता के धरातल पर ले जाए जाने की आवश्यकता है। ऐसा कब होगा? कहा नहीं जा सका। ऐसा किया जाना आज और अभी जरूरी है।
सुल्तानपुर की बावड़ी
दिल्ली के रईसों और नेताओं के फार्महाउसों की बस्ती सुल्तानपुर में एक बावड़ी होने के प्रमाण हैं। अब यह सारा इलाक़ा फार्महाउसों से भरा हुआ है जिनकी ऊंची दीवारों, सुरक्षा कर्मचारियों और खूंखार कुत्तों से बचकर बिना मालिक की मर्जी के उनके अंदर जा पाना संभव ही नहीं है। इसलिए यह पता लगा पाना संभव नहीं हो पाया कि यह बावड़ी अब किस हाल में है। सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार – जहां पर यह बावड़ी होनी चाहिए, वहां पर अब केंद्र सरकार के एक मंत्री का फार्म हाउस है। यह बावड़ी सुल्तानपुर गांव के दक्षिण में करीब आधे मील की दूरी पर बनी हुई थी। सरकारी दस्तावेज़ यह बावड़ी ‘शामिलात ज़मीन’ पर बनी बताते हैं। ‘शामिलात ज़मीन’ उस ज़मीन को कहा जाता है, जो किसी की निजी संपत्ति नहीं होती। वह ज़मीन पूरे गांव के साझे इस्तेमाल के लिए होती है। यह ज़मीन किस तरह से किसी की निजी संपत्ति बन गई होगी, इसके लिए तो एक अलग अध्ययन की आवश्यकता होगी, क्योंकि दिल्ली में सरकारी ज़मीन का ही हिसाब-किताब नहीं हो पाता तो गांव की ‘शामिलात ज़मीन’ किस तरह किसी मंत्री के घर की जमीन बनी होगी, इसके अध्ययन के लिए तो सी.बी.आई. और जे.पी.सी. जैसी कोई व्यवस्था करनी होगी। वैसे भी यह विषय किसी तरह से इस किताब के दायरे में लाया जा सकना तो संभव नहीं कहा जा सकता। हाँ खबरिया चैनलों के लिए यह काम का विषय हो सकता है। लेकिन पानी के प्रति उनकी संवेदनशीलता और टी.आर.पी. की दौड़ में इस विषय को कितना महत्व दिया जा सकता है, यह फैसला तो वहां के निर्णायक ही कर सकेंगे।
क्या यहां कोई मंदिर भी था?
मैं इसे यहीं पर छोड़ना चाहूंगा और सुल्तानपुर की इस बावड़ी की ओर आपका ध्यान लाना चाहूंगा। यह बावड़ी पत्थरों से बनाई गई थी। यह 100 फीट लंबी और 18 फीट चौड़ी थी। इसके चारों ओर दीवार थी। इस बावड़ी की पश्चिमी छोर पर एक दालान बनी हुई थी। बावड़ी की दीवार के दोनों ओर 3.6 फीट से अधिक चौड़ाई की गैलरी बनी हुई थी। इसके उत्तर-पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम कोनों से नीचे की ओर जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई थीं। दालान के पश्चिमी छोर के निकट एक कुआं था, जिसकी गोलाई करीब 12 फीट की थी। इस बावड़ी के पास आठ कोनों वाली एक छतरी थी, जिसकी छत गोलाकार थी। इस छतरी में सलेटी रंग के आठ खंभे लगे थे। ऐसा लगता था कि वे किसी पुराने मंदिर से हटाकर यहां लाए गए थे। कुतुबमीनार बनाए जाते समय आस-पास के इलाके के मंदिरों को तोड़कर उसके पत्थरों और अन्य साजो-सामान का उपयोग किया गया था। कुतुब मीनार जिस मस्जिद की मीनार है, उसे उस समय के विजेताओं ने ‘कूव्वत ए इस्लाम’ का नाम दिया था। इस बावड़ी के खंभे किस मंदिर से लाए गए, वह मंदिर कहां कब और किसने बनवाया था और किन परिस्थितियों में अतीत के गर्भ में समा गया, इसके बारे में कोई जानकारी फिलहाल नहीं मिल पाती है। इसके साथ ही राजधानी के अतीत का एक हिस्सा हमेशा के लिए ग़ायब हो गया। दिल्ली का अतीत मिटते जाना दिल्ली वालों के लिए कोई खास बात नहीं है। ऐसा करने वाले यदि नीति-निर्धारक और राजनेता या ऊपर तक पहुंच रखने वाले हों तो वह और भी आसान हो जाता है।
लाडो सराय की बावड़ी
कुतुब मीनार को बदरपुर से जोड़ने वाली महरौली-बदरपुर रोड के उत्तरी हिस्से में, जहां बहुमंजिली इमारतें और बड़े-बड़े शोरूम बन चुके हैं, के बीच कहीं पर एक बावड़ी होनी चाहिए थी। अब से करीब 100 साल पहले किए गए मौलवी जफर हसन के सर्वेक्षण के अनुसार, यह बावड़ी महरौली-बदरपुर रोड के उत्तर में ‘कुतुब साहब की हवेली कही जाने वाली इमारत के आस-पास थी। इस बावड़ी को बनवाने वाले के बारे में जानकारी देने वाला एक पत्थर लगा मिला था। सलेटी रंग के इस पत्थर पर लिखे ब्योरे पढ़े जाने लायक तो नहीं थे। इस पत्थर को सुरक्षित रखे जाने के लिए दिल्ली म्यूजियम में ले जाने के प्रमाण मिलते हैं। म्यूजियम के कैटलॉग नंबर सी 7 में इसका उल्लेख है। इस बावड़ी के कुएँ का दायरा 33 फीट आंका गया था। इस बावड़ी के प्रमाण दक्षिणी दिल्ली में पत्रकारों की बस्ती प्रेस एन्क्लेव के दक्षिण में साकेत स्पोर्ट्स कॉम्पलेक्स के सामने दिखाई देते हैं। बनाए जाते समय शायद यह एक बड़ी इमारत रही होगी। इस कुएँ के पानी तक जाने के लिए दक्षिण की ओर से सीढ़ियां बनी हुई थीं। अब इसकी कुछ ही सीढ़ियां और पूर्व और पश्चिम की ओर की दीवारों के कुछ हिस्से ही नजर आते हैं। इस बावड़ी के अब इस इलाके में विकसित किए जा रहे डिस्ट्रिक सेंटर में बन रहे आलीशान होटलों और मॉल्स के बीच कहीं खोकर रह जाने की आशंका उत्पन्न हो गई है। पिछले एक दशक में इस इलाके में भारी बदलाव आ चुका है। यहां पर बड़े-बड़े अस्पताल और व्यावसायिक इमारतें बन गई हैं। इन निर्माणों के कारण इस इलाके में पानी की मांग लगातार बढ़ रही है। जल संरक्षण के लिए आवश्यक व्यवस्थाएं प्रभावकारी तरीके से नहीं लागू की जा सकी है। किसी इलाके के इस प्रकार के गहन विकास के साथ ऐसा किया जाना आवश्यक भी था और संभव भी; लेकिन अपेक्षाकृत परिणाम देखने को नहीं मिलते।
भगोला की बावड़ी
यह बावड़ी एक सराय के परिसर में बनी हुई थी। इसलिए इसे ‘सराय बावड़ी’ के नाम से भी पहचाना जाता है। यह बावड़ी ओखला गांव के दक्षिणी में करीब 1 मील की दूरी पर बनी हुई थी। जिस ज़मीन पर यह बावड़ी बनी हुई थी उसे सरकारी रिकॉर्ड में शामिलात ज़मीन के रूप में दर्ज किया गया था। यह बावड़ी पठानों के शासन काल के दौरान बनाई गई मानी जाती है। इस बावड़ी के बारे में अब अधिक जानकारी नहीं मिलती, लेकिन सराय के ब्योरे उपलब्ध हैं। यह सराय दिल्ली की जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के आस-पास कहीं पर होनी चाहिए। सराय जुलियाना अब एक बस्ती है। यह इलाक़ा ओखला गांव के पश्चिम में ‘जोगाबाई’ के नाम से जाना जाता है। सरकारी रिकॉर्ड में यह ‘सराय भगोला’ गांव के दक्षिण में करीब 1 मील की दूरी पर बनी हुई बताई गई है। शायद ओखला का कभी नाम ‘भगोला’ रहा हो। भगोला गांव का मूल नाम खिजाबाद माना जाता है। खिजाबाद को दिल्ली के एक शहर के रूप में बसाया गया था। इस शहर को बसाने वाले का नाम था खिज्र खान।
खिज्र खान दिल्ली पर शासन करने वाले सैयद वंश के संस्थापक थे। इस शहर की स्थापना करीब सन् 1418 में की गई थी। इस शहर के होने के अब अधिक प्रमाण नहीं मिलते। ओखला गांव के अंदर अभी एक महल रही इमारत के खंडहर देखे जा सकते हैं। संभवतः यह महल उस शहर का हिस्सा रहा हो। इसके आस-पास बड़े पैमाने पर इमारतें बनाई जा चुकी हैं, इसलिए इनकी तलाश कर पाने में खासी दिक्कत होती है। कुछ दशक पहले तक यहां पर ‘खिज्र खां की गुम्टी’ नाम की एक इमारत हुआ करती थी। अब उसको पहचानने वाले या उसके बारे में जानकारी देने वाले तलाश करने पर भी नहीं मिल पाते। ओखला वाटर वर्क्स बनाए जाते समय उसे हटा दिए जाने का उल्लेख मिलता है। संभवतः इसे फिर से किसी दूसरी जगह पर बनाया गया। आज भी इस इलाके के लोग खिज्र खां की दरगाह में इबादत करने जाते हैं। तो क्या ओखला कभी भोगला हुआ करता था? बस्ती हजरत निजामुद्दीन के पास बनी बस्ती भोगल से इसका कोई संबंध तो नहीं। पता नहीं। ओखला तो अब एक बड़ी औद्योगिक बस्ती के रूप में अपनी पहचान रखती है। इस इलाके में कल-कारख़ानों और राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के आलीशान कार्यालय और इमारतें हैं; लेकिन इन्हें मुनाफ़ा कमाने के बीच इतना समय कहां मिलता कि कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सबिलिटी में इस पहलू को शामिल करें। यमुना के किनारे होर्डिंग लगाकर अपने प्रोडक्ट बेचने का प्रयास तो वे करते दिखाई देते हैं। इनकी पानी की खपत तो बहुत ज्यादा है, लेकिन यमुना या पानी के संरक्षण की ओर ध्यान दे पाने में उनकी कोई खास रुचि के प्रमाण दिखाई नहीं देते हैं।
हिंदुराव की बावड़ी
उत्तरी दिल्ली में दिल्ली नगर निगम द्वारा संचालित हिंदूराव अस्पताल परिसर के पास बनी एक बावड़ी अभी भी दखी जा सकती है। यह बावड़ी सिविल लाइंस क्षेत्र में हिंदूराव मार्ग पर अस्पताल के पश्चिमी दरवाजे के पास है। नॉर्दर्न रिज पर ‘पीर गायब’ के दक्षिण-पश्चिम में करीब 50 गज की दूरी पर बनी यह बावड़ी फिरोजशाह तुगलक के कार्यकाल में बनाई गई थी। यह बावड़ी सरकारी जमीन पर बनी संरक्षित इमारत के रूप में दर्ज की गई है। दिल्ली में बनी सबसे बड़ी बावड़ियों में से एक इस बावड़ी के चारों ओर बहुत से कमरे बनाए जाने के प्रमाण हैं। टूट-फूट जाने के कारण अब पूरी इमारत देख पाना संभव नहीं रह गया है। इस बावड़ी के उत्तरी दीवार के पास से एक सुरंग में जाने का भी रास्ता था। अबुल फजल ने ‘आइन-ए-अकबरी’ में लिखा है कि इस सुरंग से होकर फिरोजाबाद, यानी आज के फिरोजशाह कोटला से जहाज नुमा यानी उत्तरी रिज पर बनी इस इमारत की ओर-आया-जाया जा सकता था।
यहां पर सुरंग बने होने के तो प्रमाण आज भी हैं। अब यह उतनी लंबी-चौड़ी तो नहीं दिखती जितनी कि अबुल फजल की किताब में बताई गई है। वक्त के साथ रख-रखाव के अभाव में यह हमेशा के लिए बर्बाद हो गई । इस बावड़ी के कुएं के साथ ही दक्षिण-पश्चिम की ओर पानी भरने के लिए तालाब बनाए जाने के प्रमाण हैं। इस तालाब से पानी ले जाने के लिए नालियां बनाई गई थी। ऐसा लगता है कि इस तालाब से पास ही में बनाए गए किले या महल में पानी ले जाए जाने की व्यवस्था की गई थी। इस बावड़ी से कुछ ही दूरी पर फिरोजशाह द्वारा एक महल बनवाया गया था। इस महल को जहाज नुमा या ‘कुशक ए शिखर’ के नाम से भी पहचाना जाता है। इस महल को जहाज नुमा कहे जाने का कारण यह बताया जाता है कि वह देखने में जहाज जैसा लगता था। इसे ‘कुशक ए शिखर’ कहे जाने का कारण शायद पहाड़ी की चोटी पर बना होना हो सकता है। फिरोजशाह इस इमारत का इस्तेमाल शिकारगाह के रूप में भी करता था। तब यहां पर जंगली जानवरों की बहुतायत हुआ करती थी। यानी यहां पर इतना पानी था, जो कि इस जंगल और यहां रहने वाले जंगली जानवरों की पानी की ज़रूरतों को पूरा कर पाने में सक्षम था। आदमी के बाहुल्य के कारण वहां अब न जानवर रहे, न प्राकृतिक जंगल, अब इस बावड़ी का बहुत थोड़ा हिस्सा ही देखा जा सकता है। जल संरक्षण के अन्य स्रोत लापता हो गए हैं। इस इलाके को हराःभरा बनाए रखने के लिए पानी दूर-दराज के इलाकों से यहां लाया जाता है। लेकिन स्थानीय स्तर पर जिस प्रकार से इस पानी को संरक्षित किया जाता था और जा सकता है, वैसा कर पाने में 21वीं सदी के दिल्ली वाले कोई खास योगदान नहीं कर पा रहे हैं।
बावड़ी कदम शरीफ
नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पहाड़गंज की ओर से कुछ ही दूरी पर उत्तर की ओर ‘किला कदम शरीफ’ के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। ‘किला कदम शरीफ’ सन् 1375 के आस-पास बनाया गया था। फिरोजशाह तुगलक के शहर फिरोजाबाद की सीमा के ठीक बाहर बनाया गया था। यह शहर आज की पुरानी दिल्ली कही जाने वाली शाहजहां की दिल्ली से बहुत पहले बसाया गया था। इस इमारत को दिल्ली की संरक्षित इमारतों की सूची तक में शामिल करने की आवश्यकता नहीं महसूस की गई। इससे इस इमारत के बचे-खुचे अवशेष ही खास तलाश करने पर ही दिखाई देते हैं। नबी करीम के पास बने एक किले की तरह बनाए गए इस परिसर में कभी एक बावड़ी हुआ करती थी। अब उसके अवशेष तलाश कर पाना भी संभव नहीं रह गया है। यह बावड़ी फिरोजशाह तुगलक के शासन काल के दौरान बनाई गई मानी जाती है। एक समय में इस बावड़ी की दीवार लगे लाल रंग के एक पत्थर पर कुछ लिखा पाया गया था, जिससे इस बावड़ी के बनाए जाने और बनवाए जाने के बारे में कुछ जानकारियाँ मिल सकती थीं। वह लिखावट इतनी खराब हो चुकी थी कि उसे पढ़ा जाना संभव नहीं हो पाया। यह पत्थर इस बावड़ी के कुएँ की पूर्वी दीवार पर लगा हुआ था। इस बावड़ी को संरक्षित रखे जाने की सिफारिश की गई थी। ऐसा किया नहीं गया। ऐसा क्यों हुआ, अब इस पर चर्चा करने का भी कोई मतलब नहीं रह गया है। इस बावड़ी की इमारत दुमंजिली थी। हर मंजिल पर दो-दो कमरे बने हुए थे, जिनमें तीन-तीन मेहराबें थीं। यह बावड़ी पत्थरों से बनाई थी। इस बावड़ी में बने हुए कुएँ की गोलाई 7.9 फीट आंकी गई थी। यह कुआं इस बावड़ी के पूर्वी छोर पर बना हुआ था। इस किले के परिसर में हौज बनाए जाने का भी उल्लेख मिलता है।
क्या कहते हैं फिरोजशाह तुगलक के इतिहासकार
फिरोजशाह के शासन के इतिहासकारों की माने तो इस परिसर में ‘कदम शरीफ’ नाम की यहां पर एक दरगाह हुआ करती थी। इसे फिरोजाबाद शहर की पश्चिमी सीमा के पास ही बनाया गया था। ‘कदम शरीफ’ नाम की यह इमारत सन् 1375 में यानी आज से करीब 633 साल पहले बनाई गई थी। इस इमारत में पिरोजशाह के बड़े बेटे फतह खान को दफन किया गया था। उसकी कब्र पर लगाए गए पत्थर पर मुहम्मद साहब के पैरों के पवित्र निशान थे। ‘कदम शरीफ’ का अर्थ है – पैरों के पवित्र निशान। इसी से इस बावड़ी का नाम भी ‘ बावड़ी कदम शरीफ’ रखा गया। यह पत्थर बगदाद के खलीफा की ओर से सुल् तान फिरोजशाह तुगलक को भेजा गया था। इस पत्थर को इतना पवित्र माना गया था कि इसे फतेह खान की कब्र पर उस जगह पर लगाया गया था जहां कि दफनाए गए व्यक्ति का सीना होता है। फिरोजशाह के शासन के समय के इतिहासकारों ने लिखा है कि पत्थर को हजरत मख्दूद मक्का से अपने सिर पर रखकर दिल्ली लाए थे। इस दरगाह के पास एक हौज बनाए जाने का भी उल्लेख मिलता है। ‘तहरीके फिरोजशाही’ में लिखा है कि इस शहर को बनाए जाने के दौरान ही मंदाती और सिरमौर से यहां पानी लाने के लिए नहर भी बनाई गई थी। खग्गर से सरसुती के किले से होकर फिरोजाबाद के लिए एक और नहर बनाई गई थी। यमुना से निकालकर एक और नहर का पानी शहर में बनाए गए तालाबों तक पहुंचाने की व्यवस्था की गई थी। शहर के अंदर इन नहरों का रास्ता क्या होगा, अब इसको तलाश कर पाना मुश्किल है। माना यह जाता है कि आज का ‘फैज बाजार’ फिरोजशाह के समय में नहर के किनारे रहा होगा।
पालम की बावड़ी
इतिहास की किताबों में पालम की बावड़ी का उल्लेख मिलता है। इस बावड़ी का अब पता लगा पाना संभव नहीं हो पा रहा है, क्योंकि अब वहां पर बस्ती बसाई जा चुकी है। यदि ज़मीन के पुराने सरकारी रिकॉर्ड से मिलान किया जाए तो लगता है कि यह बावड़ी लगभग वहीं कहीं रही होगी, जहां अब सर छोटूराम पब्लिक स्कूल बना हुआ है। यह बावड़ी पालम गांव के दक्षिण में करीब 200 गज की दूरी पर बनी हुई थी। पत्थरों से बनी बावड़ी तीन मंजिला थी। जैसे-जैसे इसमें नीचे की ओर उतरा जाता था, यह संकरी होती चली जाती थी। यह करीब 52.3 फीट लंबी और 18.6 फीट चौड़ी थी। इसमें उतरने के लिए उत्तर की ओर से 40 सीढ़ियां बनी हुई थीं। इनसे होकर पानी तक पहुंचा जा सकता था। हर मंजिल पर एक पवेलियन बना हुआ था, जिसके खंभे हिंदू कारीगरों द्वारा बनाए गए लगते थे। ये खंभे तराशे हुए पत्थरों से बनाए गए थे।
इन खंभों को देखकर ऐसा लगता था कि इन्हें कहीं और से लाकर यहां पर लगाया गया है। इस पवेलियन में जाने के लिए गैलरी बनी हुई थी। सबसे ऊपरी मंजिल पर बने पवेलियन की छत नहीं थी। मौलवी जफर हसन के अनुसार, यह बावड़ी पठानों के शासन काल के दौरान बनाई गई बावड़ियों जैसी लगती थी। ‘इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट’ और ‘एयरोसिटी’ हजारों लोग रोज़ाना आए-जाएंगे और रहेंगे, वैसे विकास के बाद यह इलाक़ा पानी की आपूर्ति के लिए एक बड़ी चुनौती बनने जा रहा है। इस गहन विकास के लिए पानी कहां से आएगा और उसकी आपूर्ति कैसे सुनिश्चित की जाएगी? इसमें पानी की रिसाइक्लिंग और ज़मीन के अंदर के पानी का इस्तेमाल बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हैं। इस पूरे क्षेत्र में ज़मीन के अंदर पानी की उपलब्धता और उसकी किस्म एक बड़ी चुनौती है। उसका समाधान कब और कैसे निकाला जाएगा, फिलहाल तो दिल्लीवालों के लिए उपलब्ध पानी से ही इस विकास के लिए पानी उपल्बध कराए जाने का प्रावधान किया जा रहा है। इस अतिरिक्त आवश्यकता की पूर्ति कब और कैसे की जाएगी, इस ओर भी ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।
तेघनपुर की बावड़ी
सरकारी दस्तावेज़ों के अनुसार, द्वारका फेस 1 के सैक्टर 20 में एक बावड़ी होनी चाहिए थी। आज की दिल्ली के नगर नियोजकों से शायद इसके बचाने की उम्मीद कर पाना बेमानी है। इसे ‘तेघनपुर की बावड़ी’ या ‘पोचनपुर की बावड़ी’ के नाम से दर्ज किया गया है। यह बावड़ी और उसके साथ बनी इमारत को पठानों के शासन के महत्वपूर्ण योगदान के रूप में भी जाना जा सकता था। यह बावड़ी उस समय बसे ‘अंबराही गांव’ के उत्तर में करीब पौन मील की दूरी पर बनी हुई थी। ‘अंबराही’ तो ‘आमों के बगीचों’ को कहा जाता है। तो क्या यहां पर आमों का कोई बगीचा था? या उस बगीचे के आस-पास कोई गांव बसा हुआ था? 1857 में हुए स्वतंत्रता के पहले संग्राम में इस क्षेत्र में सैकड़ों भारतीय हताहत हुए थे। उनकी याद तो हम जैसे भूला ही चुके हैं। यह सब तो गुज़रे कल की बात हो गई। अब तो यह बस द्वारका है, जहां बस अतीत से जुड़ा हुआ केवल नाम ही रह गया है। अतीत के प्रमाणों के संरक्षण को महत्व नहीं दिए जाने के कारण यह बावड़ी भी कहीं बिला गई। यह बावड़ी पूर्व से पश्चिम की ओर 60 फीट और उत्तर से दक्षिण की ओर 20 फीट की थी। इसमें 13.3 फीट का कुआं था। पानी तक पहुंचने के लिए सीढ़ियां दिखाई देती थीं। अब इस बावड़ी का कोई प्रमाण दिखाई नहीं देता है। इस बावड़ी को कब, किसने और क्यों बनवाया था, इसके बारे में अधिक जानकारी अब नहीं मिल पाती है। द्वारका के विकास के समय डी.डी.ए. द्वारा तैयार किए गए संर्वेक्षणों में इसका उल्लेख होना चाहिए। फाइलों को अस्त-व्यस्त रखने और खो जाने के लिए अपनी अलग पहचान रखने वाले डी.डी.ए के पास अब वे दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं बताए गए हैं। यह संभव है कि फाइलों की तलाश की जो व्यवस्था डी.डी.ए. के कार्यालय में है, उस व्यवस्था के रास्ते नहीं जाने के कारण ये दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं बताए गए हों। आवश्यकता इस बात की है कि इनकी तलाश की जाए। द्वारका की बावड़ियों का पता लगाकर उन्हें जल स्रोतों के लापता हो जाने और उसके पानी की उपलब्धता की ओर इस उपनगर के निवासियों को संवेदनशील बनाने के लिए इनका इस्तेमाल किया जाए। ज़मीन से जुड़े नेताओं और दिल्ली के विकास में उनके योगदान को देखते हुए इस प्रकार की योजनाओं की सफलता की संभावनाएं सीमित ही है, लेकिन ऐसा किया जाना जरूरी है।
लोहहेड़ी की बावड़ी
यह बावड़ी द्वारका फेस 1 के सेक्टर 12 में बनाए गए डी.डी.ए. फ्लैटों के बीच कहीं पर होनी चाहिए थी। अब तो इसके अवशेष भी नहीं दिखाई देते। पुराने दस्तावेज़ बताते हैं कि यह बावड़ी मटियाला गांव के दक्षिण में करीब 1 मील की दूरी पर ऐसी ज़मीन पर बनी हुई थी, जिसे ‘शामिलात’ कहते हैं। यानी ऐसी ज़मीन जिस पर किसी खास व्यक्ति का मालिकाना हक नहीं था। इस बावड़ी को पठानों के शासन काल के दौरान बनाए जाने के प्रमाण थे। ईंट-पत्थरों से बनी यह बावड़ी उत्तर से दक्षिण की ओर 52 फीट लंबी और पूर्व से पश्चिम की ओर 16.6 फीट चौड़ी थी। इस बावड़ी के साथ बने कुएं की गोलाई 8.6 फीट थी। इस कुएँ से पानी लेने के लिए आने-जाने के लिए 22 सीढ़ियां बनी हुई थीं। इस बावड़ी का इस्तेमाल इस गांव के रहने वालों द्वारा किया जाता था। मौलवी जफर हसन ने अपने सर्वेक्षण के दौरान इस बावड़ी की स्थिति को अच्छी करार दिया था। उन्हें इस इमारत के बनाए जाने आदि के बारे में जनकारी देने वाला कोई पत्थर आदि नहीं मिला था। उस समय की सरकार द्वारा इस सर्वेक्षण के लिए किसी इमारत को दर्जा देने के लिए निर्धारित नियमों के तहत इस इमारत को तृतीय श्रेणी का करार दिया गया था। तीसरे दर्जे की इमारत उसे माना गया था, जिसकी हालत ऐसी हो कि उसके संरक्षण पर सरकारी पैसा खर्च करने की जरूरत नहीं मानी गई हो। अंग्रेजी शासन के दौरान ऐसा किया जा सकता था, लेकिन विदेशी शासकों ने इसकी आवश्यकता महसूस नहीं की। आज़ादी के बाद भी इसे जरूरी महत्व नहीं मिल सका। दिल्ली के विकास के लिए बनाए गए डी.डी.ए. को इसे संरक्षित रखने के लिए कदम उठाने चाहिए थे। ऐसा नहीं किया गया। आज़ाद भारत के हुक्मरानों ने भी ऐसा नहीं किया और यह जल स्रोत हमसे हमेशा के लिए छिन गया। ऐसा तब हुआ जबकि तेजी से फैल रही दिल्ली में पानी की आपूर्ति की समस्या गंभीर रूप ले चुकी थी और पानी के संरक्षण व उसके बेहतर इस्तेमाल किए जाने पर चर्चा की जा रही थी। इस सिलसिले को वातानुकूलित कमरों से निकालकर वास्विकता के धरातल पर ले जाए जाने की आवश्यकता है। ऐसा कब होगा? कहा नहीं जा सका। ऐसा किया जाना आज और अभी जरूरी है।
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