समागम नई और पुरानी दिल्ली का, भाग -2

कनॉट प्लेस और आस-पास के इलाके में बरसाती पानी को इकट्ठा करके यहां के जल स्तर को और गिरने से रोकने के लिए बरसाती पानी को स्टॉर्म वाटर ड्रेन के रास्ते बाहर निकाल दिए जाने और बर्बाद किए जाने की बजाए ज़मीन के अंदर ले जाए जाने की आवश्यकता है। इस इमारत के आस-पास रहने वालों से इस प्रकार की असंवेदनशीलता की उम्मीद नहीं कर सकते हैं; क्योंकि पानी की कमी से तो उन्हें भी निपटना पड़ रहा होगा। उन्हें आवश्यकता का पानी उपलब्ध कराकर इस विरासत को बचाने में भागीदार बनने के लिए राजी किया जा सकता है।

यहां आकर आप आधुनिक और प्राचीन दिल्ली के इस अनोखे समागम का आनंद ले सकते हैं। इसे ‘उग्रसेन’ या ‘अग्रसेन की बावड़ी’ तो कहा जाता है, अभी तक निश्चित तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि इस बावड़ी के निर्माता कौन थे? उन्होंने कब और क्यों यह बावड़ी बनवाई थी? कुछ लोग इस बावड़ी को ‘अग्रवाल समाज के संस्थापक महाराज अग्रसेन द्वारा बनवाई मानते हैं। अग्रसेन के शासन संभालने और बावड़ी के विकास के ऐतिहासिक प्रमाणों के बीच एक लंबा अंतराल मिलता है। इसलिए इस बात की पुष्टि नहीं हो पाती है। कुछ लोग इस बावड़ी के निर्माण को मथुरा के शासक और भगवान श्रीकृष्ण के पूर्वज उग्रसेन द्वारा बनवाई गई मानते हैं। इतिहास और निर्माण कला के आधार पर इसमें तारतम्य बिठा पाना संभव नहीं हो पाता। इतिहासकारों का एक वर्ग मानता है कि पुराना किला अनंगपाल के शासन के दौरान बनवाया गया था। अनंगपाल के पिता का नाम अग्रसेन या उग्रसेन बताया गया है। क्या इन्हीं उग्रसेन ने या उनके नाम पर यह बावड़ी बनवाई गई? निश्चित तौर पर यह कह पाना खासा मुश्किल है। सिकंदर लोदी के शासन के पहले आगरा में राजा अग्रसेन के शासन का इतिहास की किताबों में उल्लेख मिलता है। लेकिन उग्रसेन की बावड़ी से उनका स्पष्ट संबंध होने का कोई उल्लेख नहीं मिल पाता। इतिहासकारों का मानना है कि यह बावड़ी दिल्ली में लोदी वंश का शासन आने के पहले की बनी हुई लगती है। इस प्रकार अब इसे 600 से 700 साल पहले का बना हुआ तो कहा ही जा सकता है।

यह बावड़ी कभी आस-पास की सबसे ऊंची इमारत थी


बावड़ी क्या होती है, कैसी होती है, कितनी बड़ी होती है-इस तरह के सवालों के जवाब और अनुमान इस बावड़ी को देखकर लगाया जा सकता है। उग्रसेन की बावड़ी कितनी बड़ी है, इस पर एक नजर डालिए। बहुमंजिली इमारतों का विकास होने के पहले यह शायद कनॉट प्लेस की किसी भी इमारत से भव्य और विशाल निश्चित ही रही होगी। आस-पास बहुमंजिली इमारतें बनने से इस इलाके में किस प्रकार का बदलाव आ गया है, इसका अनुमान आप इस बात से लगा सकते हैं कि नई दिल्ली बनाने के लिए ज़मीन का चुनाव करने से पहले इस इलाके को देखने के लिए आने वाले अधिकारियों ने जंतर-मंतर की सीढ़ियों पर चढ़कर आस-पास के इलाके को देखा था। जंतर-मंतर के आस-पास बहुमंजिली इमारतें बनाए जाने की इजाज़त दिए जाने के बाद गुज़रे कल की यह बावड़ी बौनी लगने लग गई है।

यह बावड़ी तो जंतर-मंतर बनने के भी बहुत पहले बनाई जा चुकी थी। उग्रसेन की बावड़ी ज़मीन के स्तर पर 192 फीट लंबी और 45 फीट चौड़ी है। पानी के स्तर तक उतरने के बाद चौड़ाई घटकर 129 फीट लंबी और साढ़े 24 फीट चौड़ी रह जाती है। उत्तरी छोर पर इस बावड़ी पर साढ़े 33 फीट चौड़ी छत बनी हुई है। इसका इस्तेमाल बैठने के लिए किया जा सकता है। इस बावड़ी और कुएं को बनाने के लिए चूना मिट्टी और पत्थरों का इस्तेमाल किया गया है। इस बावड़ी की सीढ़ियों से उतरकर एक बार पानी तक पहुंचने की कोशिश कीजिए। पानी तो शायद ज्यादा नहीं दिखे, लेकिन नीचे से ऊपर की ओर देखने के बाद इसकी निर्माण कला से प्रभावित हुए बिना आप नहीं रह पाएंगे। इस इमारत की सीढ़ियों से एक बार नीचे से ऊपर तक आ-जाकर देखिए। उस दिन आपको वर्कआउट के लिए जिम जाने की जरूरत नहीं रह जाएगी। सोचिए इन सीढ़ियों के रास्ते पानी से भरी बालटी या मशक लेकर आने-जाने वालों की क्षमता क्या रही होगी? काश, इस बावड़ी में किसी प्रकार पानी भरा जा सके।

क्यों सूख गई


इस बावड़ी के पानी सूखने का एक बड़ा कारण आस-पास की इमारतों में बूस्टर पंप लगाकर ज़मीन के अंदर के पानी का निकाला जाना माना जाता है। इसके अलावा आस-पास इन इमारतों के बन जाने से इस बावड़ी के अंदर बरसात के दिनों में भी पानी आ पाने के रास्ते बंद हो गए हैं। इस बावड़ी को फिर से रिवाइव किए जाने की पर्याप्त संभावनाएं हैं। इसे रंग-बिरंगी रोशनी से सजाया-संवारा जा सकता है। इसे हरा-भरा बनाया जा सकता है। इसके आस-पास से बरसाती पानी इकट्ठा करने के लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग का रास्ता अपनाया जा सकता है। कनॉट प्लेस और आस-पास के इलाके में बरसाती पानी को इकट्ठा करके यहां के जल स्तर को और गिरने से रोकने के लिए बरसाती पानी को स्टॉर्म वाटर ड्रेन के रास्ते बाहर निकाल दिए जाने और बर्बाद किए जाने की बजाए ज़मीन के अंदर ले जाए जाने की आवश्यकता है।

इस इमारत के आस-पास रहने वालों से इस प्रकार की असंवेदनशीलता की उम्मीद नहीं कर सकते हैं; क्योंकि पानी की कमी से तो उन्हें भी निपटना पड़ रहा होगा। उन्हें आवश्यकता का पानी उपलब्ध कराकर इस विरासत को बचाने में भागीदार बनने के लिए राजी किया जा सकता है। सेंटर बिजनेस डिस्ट्रिक के बीचों-बीच बनी होने के बावजूद यह इमारत आपको आज के शोर-शराबे से कहीं दूर, बहुत दूर ले जा सकती है। यहां बैठकर गुजरे कल की दिल्ली और उनके निर्माताओं की दूरदृष्टि पर एक नजर डाली जा सकती है। आज और कल पानी को लेकर उठने वाले सवालों पर विचार कर सकते हैं और फिर आंख बंद करके कुछ देर के लिए सुस्ता ही सकते हैं। आप अपने काम-काज के बीच एक ब्रेक लेकर कभी भी आसानी से यहां आ सकते हैं।

लाल किले की बावड़ी


लाल किला अब एक वर्ल्ड हैरिटेज साइट घोषित किया जा चुका है। भारत के इतिहास और विकास का तो यह मूक साक्षी है ही। इस किले के अंदर एक बावड़ी आज भी देखी जा सकती है। यों तो यह बावड़ी लाल किले के बनाए जाने के साथ बनाई गई लगती है, लेकिन जिस तरीके से यह बनाई गई है, उसके आधार पर इसमें अफगान शासकों के शासन के अंतिम दौर में अपनाए जाने वाले तरीकों का भी संकेत मिलता है। तो क्या यह बावड़ी तुगलकों के शासन काल में बनाई गई थी? तुगलक और विशेषकर फिरोजशाह तुगलक के शासन काल में राजधानी में बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य कराए गए थे। संभव है, लाल किले के अंदर बनाई गई यह बावड़ी भी उसी दौरान बनाई गई हो। यानी लाल किला बनाए जाने के पहले यहां पर बावड़ी के अलावा और इमारतें भी बनी हो सकती हैं।

शाहजहां काल के इतिहासकारों के लेखन से इस बात की पुष्टि नहीं हो पाती, क्योंकि उनके लेखन में कहा गया है कि लाल किले के निर्माण के लिए यमुना के किनारे एक खाली जगह का चुनाव किया गया था। लेकिन यह ज़मीन फिरोजाबाद के इतने पास थी कि इस ज़मीन का पूरी तरह खाली हो पाना संभव नहीं है। इसलिए यह संभव है कि किले की ज़मीन के बीच में यहां पर पहले बावड़ी रही हो और लाल किला बनाए जाते समय इसका पुनर्विकास किया गया हो। इस आधार को ठीक माना जाए तो यह बावड़ी लाल किला बनाए जाने के पहले बनाई गई कही जा सकती है। कितना पहले? करीब 300 साल पहले। कुछ इतिहासकार इसे मुगलों के शासन के दौरान ही बनाई गई मानते हैं। शाहजहांनाबाद बसाए जाने का सिलसिला वर्ष 1640 के आस-पास शुरू हुआ, जबकि अफगानी शासन इसके पहले 1526 में समाप्त हो चुका था। शहजहांनाबाद बनाए जाते समय फिरोजाबाद और सीरी के पत्थरों व अन्य सामग्री का इस्तेमाल किए जाने के प्रमाण मिलते हैं। लाल किला बनाए जाने के लिए जिस ज़मीन का चयन किया गया था, वह इसके पहले फिरोजशाह तुगलक द्वारा बसाए गए शहर फिरोजाबाद के एक हिस्से में आती थी।

लाल किले के अंदर नहर भी बहती थी


आज की पुरानी दिल्ली बनाए और बसाए जाने के बहुत पहले की अनेक इमारतें शाहजहांनाबाद में आज भी देखी जा सकती हैं। इनमें प्रमुख हैं- रजिया बेगम की कब्र और इसके पास ही बनी कला मस्जिद। यह कब्र रजिया बेगम की है या नहीं, इस पर इतिहासकारों में विवाद रहे। लेकिन आप इसे देखने तो आइए। कभी यहां आपको पुरानी दिल्ली से भी सैकड़ों साल पुरानी इमारतें देखने को मिलेंगी। अब जब सारी दुनिया लाल किला देखने आ रही है तो आप भी क्यों नहीं एक दिन अपनी आजादी और विकास की गाथा के इस मूक साक्षी के साथ गुजारते। जब यह किला देखने जाएं तो ‘दीवान ए आम’, ‘दीवान ए खास’, ‘मोती मस्जिद’, ‘हम्माम’ और अन्य महत्वपूर्ण इमारतों में ही उलझकर नहीं रह जाएं। इस बावड़ी को आप किसी तरह मिस नहीं करें।

इस किले में रहने वाले लोगों ने सैकड़ों साल तक इस बावड़ी के पानी का इस्तेमाल किया है। किले में पानी की आपूर्ति करनेवाली ‘नहर ए बहिश्त’ मोती महल से ‘दीवान ए खास’ तक ‘बड़ी बैठक’ ‘रंगमहल’ से होकर किले के अनेक हिस्सों में बहा करती थी। इस नहर के साथ इस बावड़ी ने किले में रहने वालों के जीवन में बेहद उपयोगी भूमिका निभाई है। यह बावड़ी लाल किले के अंदर बने ‘हयात बख्श’ के बगीचे के पश्चिम में परेड ग्राउंड के साथ बनी हुई है। इस बगीचे के बीच में 60 फीट का एक वर्गाकार हौज था। इस हौज के किनारों पर चांदी के फव्वारे लगे हुए थे। वर्ष 1857 में मुगल वंश के अंतिम शासक बहादुरशाह जफर को ‘देश-निकाला’ दिए जाने के बाद लाल किला पहले ब्रिटिश सेना और देश की आज़ादी के बाद भारतीय सेना के नियंत्रण में रहा। तब से इस परेड ग्राउंड का इस्तेमाल सैनिक करते रहे। भारतीय सेना के लाल किले से हट जाने के बाद परेड ग्राउंड का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। किले के अंदर अंग्रेजों के शासन के दौरान बनाई गई बैरकों में अब म्यूजियम बनाया जा रहा है।

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