दिल्ली

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एक नदी की व्यथा
Posted on 21 Sep, 2013 11:53 AM मुझ पर है सबका अधिकार
मैं किस पर अधिकार दिखाऊँ
अनचाहे अवसाद में डूबी
किसको अपनी व्यथा सुनाऊँ
ताप मिटाए पाप हटाए
सबको शीतलता दे जाऊँ
मेरा ताप कौन हरेगा
किससे मैं यह आस लगाऊं
जग की क्षुधा मिटाती आई
कैसे अपनी प्यास बुझाऊं
इतने गरल पिलाये मुझको
अब मैं सुधा कहाँ से लाऊं
अनगिन पातक आँचल धोये
अपना आँचल कैसे पाऊँ
चाहता मन
Posted on 19 Sep, 2013 04:22 PM गोमती तट
दूर पेंसिल-रेख-सा
वह बाँस झुरमुट
शरद दुपहर के कपोलों पर उड़ी वह
धूप की लट।
जल के नग्न ठंडे बदन पर का
झुका कुहरा
लहर पीना चाहता है।
सामने के शीत नभ में आइरन-ब्रिज की कमानी
बाँह मस्जिद की
बिछी है।
धोबियों की हाँक
वट की डालियाँ दुहरा रही हैं।
अभी उड़कर गया है वह
छतर-मंजिल का कबूतर झुंड।

तुम यहाँ
सूखी नदी का दुःख
Posted on 19 Sep, 2013 04:19 PM जलकांक्षिणी
Sयह नदी की दुःख रेखा
अभी भी सागरप्रिया।

सब बह गया कल
जो भी बना था जल
नदी के देह में।
रेत की ही साक्षियाँ
अब तप रही है
सूर्यS
एकांत में।

नदी वाग्दता है सिंधु की।
पहुंचना ही है-इसे
कल
इसी का तो दुःख है
नदी का दुःख-
जल नहीं
यात्रा है।

शतमुखी होS
कल जन्म लेगा जल
गंगा की बाढ़
Posted on 19 Sep, 2013 04:18 PM सरबस ही बहा ले गई गंगा मैया
बचा नहीं एक भी उपाय।
धान और बाजरा समेत
लहरों में समा गए खेत
टीले परनाव चले दैया रे दैया
पेड़ों पर नदी चढ़ी जाए।
डूब गए निचले खपरैल
रात बहे ‘बंसी’ के बैल
बँसवट पर अटक गई घाट की मड़ैया
डूब गई पंडित की गाय।
पिए गाँव-घर का एहसास
पानी को लगी हुई प्यास
खेतों में मार रहीं लहरें कलैया
लोग करें हाय, हाय,हाय!
कैसी तुम नदी हो!
Posted on 19 Sep, 2013 04:16 PM (पूरी-दर्शन की याद में)

सागर को सामने पाकर ठिठक गई
कैसी तुम नदी हो?

जिसके लिए निकली थीं एक युग पहले तुम
चट्टानें तोड़तीं
अनजाने बीहड़ वनों को झिंझोड़ती
बाधाएँ उपाटकर
अपनी अनोखी,क्षिप्र इठलाती गति से
कठिन जमीन को काटकर
जीवन-भर गाती हुई
सूखे मैदानों को रिझाती हुई
बाँहों से तटों के कगारों को काटकर
पगली!
पानी
Posted on 19 Sep, 2013 04:12 PM पानी कई-कई बार हमें अपनों से दूर ले गया
उसने हमारी कागज की नावें ही नहीं
सचमुच की नावें और जहाज डुबा दिये
हमारे खिलौने छीन लिये
बेशकीमती चीजें लूट लीं
और कहीं भीतर अपने तलघट में छिपा दिया
बेघरबार कर दिया हमारे बच्चों को
हमारे खेतों को तहस-नहस कर डाला
हमें भूख के हाथों बिलबिलाता हुआ छोड़ दिया
वह हमारी स्त्रियों और बच्चों को
चुरा कर ले गया
पानी-पानी
Posted on 19 Sep, 2013 04:04 PM पानी-पानी
बच्चा-बच्चा
हिंदुस्तानी
मांग रहा है पानी-पानी,
जिसको पानी नहीं मिला है
वह धरती आजाद नहीं
उस पर बसते हिंदुस्तानी
पर है वह आबाद नहीं
पानी-पानी
बच्चा-बच्चा
मांग रहा है हिंतुस्तानी।
जो पानी के मालिक हैं
भारत पर उनका कब्जा है
जहां न दे पानी वहां सूखा
जहां दे वहां सब्जा है
अपना पानी
मांग रहा है हिंदुस्तानी
मिट्टी में मिली मिट्टी पानी में मिला पानी
Posted on 19 Sep, 2013 12:34 PM जल ही जीवन हैआंखों में पड़े छाले, छालों से बहा पानी।
इस दौर के सहरा में ढूंढ़े न मिला पानी।

दुनिया ने कसौटी पर दिन-रात कसा पानी।
बनवास से लौटा तो शोलों पे चला पानी।
गतिविधियाँ
Posted on 17 Sep, 2013 03:48 PM

गतिविधि 1 : बढ़ते ताप के खतरे को काबू में रखना।


उद्देश्य : हमारे देश की ऊर्जा क्षमता को बेहतर करने के उपायों द्वारा वैश्विक तापवृद्धि को धीमा करना। जब तक हम कारों से निकली गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित नहीं करते, कोई भी तापवृद्धि संबंधी उपाय सफल नहीं हो सकते।
वैश्विक तापवृद्धि से भविष्य में स्वास्थ्य के लिए खतरे
Posted on 17 Sep, 2013 02:56 PM अगले 50 सालों में, वायुमंडल के समतापमंडल के मौजूद ओज़ोन के क्षरण के
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