काका कालेलकर

काका कालेलकर
छप्पन साल की भूख
Posted on 23 Feb, 2011 02:02 PM
सन् 1893 के करीब मैं पहली बार-कारवार गया था। मार्मागोवा बंदरगाह पर से जब मैंने पहली बार चमकता समुद्र देखा, तब मैं अवाक् हो गया था। रात को नौ बजे हम स्टीमर में बैठे। स्टीमर ने किराना छोड़कर समुद्र में चलना शुरु किया और मेरा दिमाग भी अपना हमेशा का किनारा छोड़कर कल्पना पर तैरने लगा। सुबह हुई और हम कारवार पहुंचे। स्टीमर से नाव में उतरना आसान न था। प्रत्येक नाव के साथ उलांडियां (outriggers) बंधी हुई थी
मरुस्थल या सरोवर
Posted on 23 Feb, 2011 11:46 AM
किसी घटना के नियमित हो जाने से क्या उसकी अद्भुतता मिट जाती है। छः घंटे पहले पानी कहीं भी नजर नहीं आता था। उत्तर से लेकर दक्षिण तक सीधा समुद्र तट फैला हुआ है। पश्चिम की ओर जहां आकाश नम्र होकर धरती को छूता है। वहां तक-क्षितिज तक-पानी का नामो-निशान नहीं है, एक भी लहर नहीं दिखती। यह स्थान पहली बार देखने वाले को लगेगा कि यह कोई मरुस्थल है। बारिश के कारण केवल भीग गया है। या यों लगेगा कि यह कोई दलदल है,
चांदीपुर
Posted on 23 Feb, 2011 11:40 AM
मुझे डर था कि पिछली बार चांदीपुर में जो दृश्य मैनें देखा था वह अबकी बार देखने को नहीं मिलेगा। अतः मन को समझाकर कि विशेष आशा नहीं रखनी चाहिये, चांदीपुर के लिए हम चल पड़े। फिर भी चांदीपुर तो चांदीपुर ही है! उसकी सामान्य शोभा भी असामान्य मानी जायेगी।
सार्वभौम ज्वार-भाटा
Posted on 23 Feb, 2011 11:38 AM
हरेक लहर किनारे तक आती है और वापस लौट जाती है। यह एक प्रकार का ज्वार-भाटा ही है। यह क्षणजीवी है। बड़ा ज्वार-भाटा बारह-बारह घंटों के अंतर से आता है। वह भी एक तरह की बड़ी लहर ही है। बारह घंटों का ज्वार भाटा जिसकी लहर है, वहा ज्वार-भाटा कौन सा है? अक्षय-तृतीया का ज्वार यदि वर्ष का सबसे बड़ा ज्वार हो, तो सबसे छोटा ज्वार कब आता है?
दक्षिण के छोर पर
Posted on 22 Feb, 2011 01:11 PM
धनुष्कोटी में मैं पहले-पहल आया उसको अब करीब बीस साल हो चुके हैं। जहां तक मुझे स्मरण है, श्री राजा जी ने मेरे साथ श्री वरदाचारी जी को भेजा था। वरदाचारी ठहरे रामायण के भक्त। रास्ते भर रामायण की ही रसिक बाते चलीं। हम धनुष्कोटि पहुंचे और वरदाचारी जी की सनातनी आत्मा श्राद्ध करने के लिए तड़पने लगी। एक योग्य ब्राह्मण का पता लगाकर वे इस विधि में मशगूल हो गये और हम लोग आमने-सामने गरजने वाले रत्नाकर और महोद
अर्णव का आमंत्रण
Posted on 22 Feb, 2011 01:05 PM
समुद्र या सागर जैसा परिचित शब्द छोड़कर मैंने अर्णव शब्द केवल आमंत्रण के साथ अनुप्रास के लोभ से ही नहीं पसन्द किया। अर्णव शब्द के पीछे ऊंची-ऊंची लहरों का अखंड तांडव सूचित है। तूफान, अस्वस्थता, अशांति, वेग, प्रवाह और हर तरह के बंधन के प्रति अमर्ष आदि सारे भाव अर्णव शब्दों में आ जाते हैं। अर्णव शब्द का धात्वर्थ और उसका उच्चारण, दोनों इन भावों में मदद करते हैं। इसीलिए वेदों में कई बार अर्णव शब्द का उप
वर्षा-गान
Posted on 19 Feb, 2011 04:48 PM
कालिदास का एक श्लोक मुझे बहुत प्रिय हैं। उर्वशी के अतंर्धान होने पर वियोग-विह्वल राजा पुरुरवा वर्षा-ऋतु के प्रारंभ में आकाश की ओर देखता है। उसको भ्रांति हो जाती है कि एक राक्षस उर्वशी का अपहरण कर रहा है। कवि ने इस भ्रम का वर्णन नहीं किया; किन्तु वह भ्रम महज भ्रम ही है, इस बात को पहचानने के बाद, उस भ्रम की जड़ में असली स्थिति कौन सी थी, उसका वर्णन किया है। पुरूरवा कहता है- “आकाश में जो भीमकाय काला-
समन्वय-साधिका सरस्वती
Posted on 19 Feb, 2011 04:46 PM
सरस्वती का नाम याद करते ही मन कुछ ऐसा विषष्ण होता है। भारत की केवल तीन ही नदियों का नाम लेना हो तो गंगा, यमुना के साथ सरस्वती आयेगी ही। अगर सात नदियों को पूजा में मदद के लिए बुलाना है तो उनके बीच बराबर मध्य में सरस्वती को याद करना ही पड़ता हैः

गंगे! च यमुने! चैव गोदावरी! सरस्वति!
नर्मदे! सिन्धु! कावेरि! जलेSस्मिन् सन्निधिं कुरु।।

भारत का सबसे बड़ा नद ब्रह्मपुत्र
Posted on 19 Feb, 2011 04:18 PM

और तो सब नदियां हैं, केवल सिंधु और ब्रह्मपुत्र ये दो नद-ऐसा भेद हम भारतीयों ने कबका तय किया है। ये दोनों है हीं ऐसे। विशालकाय और दीर्घवाही जलप्रवाह, जो कैलाश मानस-सरोवर के एक ही प्रदेश में जन्म लेकर परस्पर भिन्न दिशा में बहते नगाधिराज हिमालय की प्रदक्षिणा करके पश्चिम और पूर्व भारत की सेवा करते-करते, हिंद महासागर के दो विभागों को अपने विशाल जल का अर्घ्य अर्पण करते हैं। सिंधु को तो पंजाब की सब
सह्याद्रि को श्रद्धांजलि
Posted on 19 Feb, 2011 04:11 PM

जिस तरह कृष्णा के किनारे महाराष्ट्र की राजधानी सतारा में जन्म होने के कारण मैं अपने को कृष्णा पुत्र कहलाता हूं उसी तरह सह्याद्रि की गोंद में पला हुआ होने के कारण मैं अपने को सह्यपुत्र भी कहलाता हूं। औरंगंजेब ने हमारे शिवाजी के प्रति अपना तिरस्कार बताने के लिए भले ही उसे ‘पहाड़ का चूहा’ कहा हो, मैं हमारे सह्याद्रि का चूहा होने पर भी गौरव अनुभव करता हूं। सह्याद्रि तो भारत भूमि की पश्चिम की रीढ
×