वर्षा-गान

कालिदास का एक श्लोक मुझे बहुत प्रिय हैं। उर्वशी के अतंर्धान होने पर वियोग-विह्वल राजा पुरुरवा वर्षा-ऋतु के प्रारंभ में आकाश की ओर देखता है। उसको भ्रांति हो जाती है कि एक राक्षस उर्वशी का अपहरण कर रहा है। कवि ने इस भ्रम का वर्णन नहीं किया; किन्तु वह भ्रम महज भ्रम ही है, इस बात को पहचानने के बाद, उस भ्रम की जड़ में असली स्थिति कौन सी थी, उसका वर्णन किया है। पुरूरवा कहता है- “आकाश में जो भीमकाय काला-कलूटा दिखाई देता है, वह कोई उन्मत्त राक्षस नहीं किन्तु वर्षा के पानी से लबालब भरा हुआ एक बादल ही है। और यह जो सामने दिखाई देता है वह उस राक्षस का धनुष नहीं, प्रकृति का इंद्र धनुष ही है। यह जो बौछार है, वह बाणों की वर्षा नहीं, अपितु जल की धाराएं हैं और बीच में यह जो अपने तेज से चमकती हुई नजर आती है, वह मेरी प्रिया उर्वशी नहीं, किन्तु कसौटी के पत्थर पर सोने की लकीर के समान विद्युल्लता है!!”

कल्पना की उड़ान के साथ आकाश में उड़ना तो कवियों का स्वभाव ही है किन्तु आकाश में स्वच्छन्द विहार करने के बाद पंछी जब नीचे अपने घोंसले में आकर इतमीनान के साथ बैठता है, तब उसकी उस अनुभूति की मधुरिमा कुछ और ही होती है। दुनियाभर के अनेकानेक प्रदेश घूमकर स्वदेश वापस लौटने के बाद मन को जो अनेक प्रकार का संतोष मिलता है, स्थैर्य का जो लाभ होता है और निश्चिन्तता का जो आनन्द मिलता है, वह एक चिर-प्रवासी ही बता सकता है। मुझे इस बात का भी संतोष है कि कल्पना की उड़ान के बाद जलधाराओं के समान नीचे उतरने का संतोष व्यक्त करने के लिए कालिदास ने वर्षा-ऋतु को ही पसन्द किया।

आजकल जैसे यात्रा के साधन जब नहीं थे और प्रकृति को परास्त करके उस पर विजय पाने का आनन्द भी मनुष्य नहीं मनाते थे, तब लोग जाड़े के आखिर में यात्रा को निकल पड़ते थे और देश-देशांतर की संस्कृतियों का निरीक्षण करके और सभी प्रकार के पुरुषार्थ साधकर वर्षा-ऋतु के पहले ही घर लौट आते थे।

उस युग में संस्कृति-समन्वय का ‘मिशन’ (जीवन-कार्य) अपने हृदय पर वहन करने वाले रास्ते अनेक खण्डों को एक-दूसरे से मिलाते थे। जीवन-प्रवाह को परास्त करने वाले पुलों की संख्या बहुत कम थी-जो थे, वे सेतु ही थे। उन सेतुओं का काम था, जीवन-प्रवाह को रोक लेना और मनुष्यों के लिए रास्ता कर देना। लेकिन जब जीवन को यह बंधन असह्य-सा मालूम होने लगता था, तब सेतुओं को तोड़ डालना और पानी के बहाव के लिए रास्ता मुक्त कर देना प्रवाह का काम होता था। यह था पुराना क्रम। यही कारण था कि नदी-नालों का बढ़ा हुआ पानी रास्तों और सेतुओं को तोड़े, उसके पहले ही मुसाफिर अपने-अपने घर लौट आते थे। इसीलिए वर्षा ऋतु को वर्ष की ‘महिमामयी ऋतु’ माना है।

असल में ‘वर्ष’ नाम ही वर्षा से पड़ा है। ‘हमने कुछ नहीं तो पचास बरसातें देखी हैं!’ इन शब्दों से ही हमारे बुजुर्ग प्रायः अपने अनुभवों का दम भरते हैं।

बचपन से ही वर्षा ऋतु के प्रति मुझे असाधारण आकर्षण रहा है। गर्मी के दिनों में ठण्डे-ठण्डे ओले बरसाने वाली वर्षा सबकों प्रिय होती है। लेकिन बादलों के ढेरों से लदी हुई हवाएं जब बहने लगती हैं, बिजलियां कड़कती हैं और यह महसूस होने लगता है कि अब आकाश तड़क कर नीचे गिर पड़ेगा, तबकी वर्षा की चढ़ाई मुझे बचपन से ही अत्यन्त प्रिय है। वर्षा के इस आनन्द से हृदय आकण्ठ भरा हुआ होने पर भी उसे वाणी के द्वारा व्यक्त नहीं कर पाऊंगा और व्यक्त करने जाऊंगा तो भी उसकी तरफ हमदर्दी से कोई ध्यान नहीं देगा, इस खयाल से मेरा दम घुटता था।

आसपास की टेकरियों पर से हनुमान के समान आकाश में दौड़ने वाले बादल जब आकाश को घेर लेते थे, तब उसे देखकर मेरा सीना मानो भार से दब जाता था। लेकिन सीने पर का यह बोझ भी सुखद मालूम होता था। देखते-देखते विशाल आकाश संकुचित हो गया, दिशाएं भी दौड़ती-दौड़ती पास आकर खड़ी हो गई और आसपास की सृष्टि ने एक छोटे से घोंसले का रूप-धारण किया। इस अनुभूति से मुझे वह खुशी होती थी जो पक्षी अपने घोंसले का आश्रय लेने पर अनुभव करता है।

लेकिन जब हम कारवार गये और पहली बार ही समुद्र-तट पर की वर्षा का मैंने अनुभव किया, तब के आनन्द की तुलना तो नयी सृष्टि में पहुंचने के आनन्द के साथ ही हो सकती है।

बरसात की बौछारों को जमीन को पीटते मैंने बचपन से देखा था लेकिन उसी वर्षा को मानों बेंत से समुद्र को पीटते देखकर और समुद्र पर उसके सांट उठे देखकर इतने बड़े समुद्र के बारे में भी मेरा दिल दया और सहानुभूति से भर जाता था। बादल और वर्षा की धाराएं जब भीड़ करके आकाश की हस्ती को मिटाना चाहती थीं तो उसका मुझे विशेष कुछ नहीं लगता था, क्योंकि बचपन से ही मैं इसका अनुभव करता आया था। लेकिन वर्षा की धाराएं और उनके सहायक बादल जब समुद्र को काटने लगते थे तब मैं बेचैन हो जाता था। रोना नहीं आता था, लेकिन जो कुछ अनुभव करता था। उसे व्यक्त करने के लिए ‘फूट-फूटकर’ यह शब्द काम में लेने की इच्छा होती है। वर्षा चाहे तो पहाड़ों पर धावा बोल सकती है, चाहें खेतों को तालाब और रास्तों को नाले बना सकती है; लेकिन समुद्र को अपनी दरी समेटने के लिए बाध्य करना मर्यादा का अतिक्रमण-सा मालूम होता था। अवज्ञा के इस दृश्य को देखने में भी मुझे कुछ अनुचित-सा प्रतीत होता था।

मेरी यह वेदना मैंने भूगोल-विज्ञान से दूर की। मैं समझने लगा कि सूर्यनारायण समुद्र से लगान लेते हैं और इसीलिए तप्त हवा में पानी की नमी छिपकर बैठती है। यही नमी भाप के रूप में ऊपर जाकर ठंडी हुई कि उसके बादल बनते हैं, और अन्त में इन्हीं बादलों से कृतज्ञता की धाराएं बहने लगती है, और समुद्र को फिर से मिलती है।

गीता में कहा गया है कि यह जीवन-चक्र प्रवर्तित है इसीलिए जीवसृष्टि भी कायम है। इसी जीवन-चक्र को गीता ने ‘यज्ञ’ कहा है। यह यज्ञ-चक्र यदि न होता तो सृष्टि का बोझ भगवान के लिए भी असह्य हो जाता। यश-चक्र के मानी ही है परस्परावलंबन द्वारा सधा हुआ स्वाश्रय। पहाड़ों पर से नदियों का बहना, उनके द्वारा समुद्र का भर जाना; फिर समुद्र के द्वारा हवा का आर्द्र होना; सूखी हवा के तृप्त होते ही उसका अपनी समृद्धि को बादलों के रूप में प्रवाहित करना और फिर उनका अपने जीवन का अवतार-कृत्य प्रारंभ करना-इस भव्य रचना का ज्ञान होने पर जो संतोष हुआ वह इस विशाल पृथ्वी से तनिक भी कम नहीं था।

तब से हर बारिश मेरे लिए जीवन-धर्म की पुनर्दीक्षा बन चुकी है।

वर्षा-ऋतु जिस तर सृष्टि का रूप बदल देती है, उसी तरह मेरे हृदय पर भी एक नया मुलम्मा चढ़ाती है। वर्षा के बाद मैं नया आदमी बनता हूं। दूसरों के हृदय पर बसन्त-ऋतु का जो असर होता है, वह असर मुझ पर वर्षा से होता है। (यह लिखते-लिखते स्मरण हुआ की साबरमती जेल में था तब वर्षा के अन्त में कोकिला को गाते हुए सुनकर ‘वर्षान्ते बसंत’ शीर्षक से एक लेख मैंने गुजराती में लिखा था।)

गर्मी की ऋतु भूमाता की तपस्या है। जमीन के फटने तक पृथ्वी गर्मी की तपस्या करती है और आकाश से जीवन-दान की प्रार्थना करती है। वैदिक ऋषिओं ने आकाश को ‘पिता’ और पृथ्वी को ‘माता’ कहा है। पृथ्वी की तपश्चर्या को देखकर आकाश-पिता का दिल पिघलता है। वह उसे कृतार्थ करता है। पृथ्वी बालतृणों से सिहर उठती है और लक्षावधि जीवसृष्टि चारों ओर कूदने-विचरने लगती है। पहले से ही सृष्टि के इस आविर्भाव के साथ मेरा हृदय एक रूप होता आया है। दीमक के पंख फूटते हैं और दूसरे सुबह होने से पहले ही सबकी-सब मर जाती हैं। उनके जमीन पर बिखरे हुए पंख देखकर मुझे कुरुक्षेत्र याद आता है। मखमल के कीड़े जमीन से पैदा होकर अपने लाल रंग की दोहरी शोभा दिखाकर लुप्त हुए कि मुझे उनकी जीवन-श्रद्धा का कौतुक होता है। फूलों की विविधता लजाने वाले तितलियों के परों को देखकर मैं प्रकृति से कला की दीक्षा लेता हूं। प्रेमल लतायें जमीन पर विचरने लगीं, पेड़ पर चढ़ने लगीं और कुएं की थाह लेने लगीं कि मेरा मन भी उनके जैसा ही कोमल और ‘लागूती’ (लगौहां) बन जाता है। इसीलिए बरसात में जिस तरह बाह्य-सृष्टि में जीवन-समृद्धि दिखाई देती है, उसी तरह की हृदय-समृद्धि मुझे भी मिलती है और बरिश शेष होकर आकाश के स्वच्छ होने तक मुझे एक प्रकार की हृदय-सिद्धि का भी लाभ होता है। यही कारण है कि मेरे लिए वर्षा-ऋतु सब ऋतुओं में उत्तम ऋतु है। इन चार महीनों में आकाश के देव भले ही सो जायं, मेरा हृदय तो सतर्क होकर जीता है, जागता है और इन चार महीनों के साथ मैं तन्मय हो जाता हूं।

‘मधुरेण समापयेत’ के न्याय से वसन्त-ऋतु का अन्त में वर्णन करने के लिए कालिदास ने ‘ऋतुसंहार’ का प्रारंभ ग्रीष्म-ऋतु से किया। मैं यदि ‘ऋतुभ्यः’ की दीक्षा लूं और अपनी जीवन-निष्ठा व्यक्त करने लगूं, तो वर्षा-ऋतु से एक प्रकार से प्रारंभ करके फिर और ढंग से वर्षा-ऋतु में ही समाप्ति करूंगा।

जुलाई, 1952

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