चांदीपुर

मुझे डर था कि पिछली बार चांदीपुर में जो दृश्य मैनें देखा था वह अबकी बार देखने को नहीं मिलेगा। अतः मन को समझाकर कि विशेष आशा नहीं रखनी चाहिये, चांदीपुर के लिए हम चल पड़े। फिर भी चांदीपुर तो चांदीपुर ही है! उसकी सामान्य शोभा भी असामान्य मानी जायेगी।

कलकत्ता-कटक के रास्ते पर बालासोर या बालेश्वर नाम का एक कस्बा है। चांदीपुर वहां से आठ मील पूर्व की ओर समुद्र-किनारे बसा हुआ है। सरकार के फौजी विभाग ने इस स्थान का कुछ उपयोग किया है। मगर इससे उसका महत्त्व बढ़ा नहीं है। यहां से तीन मील की दूरी पर जहां बूढ़ी-बलंग नदी समुद्र से मिलती है, वहां सुन्दर बंदरगाह बनाया जा सकता है। हवा खाने का सुन्दर स्थान भी वह बन सकता है। मगर अभी तक वैसा बन नहीं पाया है। आज चांदीपुर का महत्त्व उसकी सनातन प्राकृतिक शोभा के कारण ही है। इसीलिए मैंने उसे पूर्व दिशा की बोरडी का नाम दिया है।

दौड़ते-दौड़ते हमने डिब्बियों के जैसी छोटी-बड़ी सींपें देखीं उनके ऊपर की आकृतियां देखकर मुझे विश्वास हो गया कि इनके आकार देखकर ही यहां के मंदिरों के कलश तैयार किए गये होंगे। सुपारी के आकार की अपेक्षा यह आकार कला की दृष्टि से कहीं ज्यादा सुन्दर है।बम्बई के उत्तर में चोलवड़ स्टेशन से डेढ़ मील पर बोरडी नामक जो स्थान है, वहां का समुद्र जब भाटे के समय पीछे हटता है, तब डेढ़-दो मील का पट खुला छोड़ देता है और उसका पानी लगभग क्षितिज के पास पहुंच जाता है। सारा समुद्र-तट मानो देवताओं का या दानवों का भीगा हुआ टेनिस-कोर्ट हो, इतना सीधा और समतल मालूम होता है। और जब ज्वार के समय पानी बढ़ने लगता है तब देखते-ही-देखते सारा तट पानी से भरकर सरोवर की तरह छलकने लगता है। मुहूर्त में गीला मरूस्थल और मुहूर्त में छिछला सरोवर, ऐसी यह प्रकृति की लीला देखकर मुझे विस्मय हुआ था। उसका वर्णन जब मैंने लिखा तब स्वप्न में भी यह ख्याल नहीं हुआ कि ठीक इसी प्रकार के एक स्थान का सर्जन प्रकृति ने पूर्व की ओर भी कर रखा है।

राष्ट्रभाषा-प्रचार के सिलसिले में जब मैं इसके पहले कलकत्ता के उत्कल आया था, तब बालासोर का काम पूरा करके चांदीपुर देखने के लिए खास तौर पर यहां आया था। रास्ते में जगह-जगह पानी के गड्ढों में उगे हुए नील-कमल देखकर मेरे हर्ष का पार नहीं रहा था। कमल यानी प्रसन्नता का प्रतीक। सुन्दरता, कोमलता, ताजगी और पवित्रता जब एकत्र हुई तब उन्होंने कमल का रूप धारण किया। कमल जब सफेद होता है। तब वह तपस्विनी महाश्वेता का स्मरण कराता है। वही कमल जब लाल होता है तब गंधर्व-नगरी पर राज्य करने वाली कादंबरी की शोभा दिखलाता है। किन्तु नील-कमल तो प्रत्यक्ष कुंजबिहारी श्री कृष्ण की ही भूमिका अदा करता मालूम होता है। संभव है हमारे देश में नील-कमल अधिक देखने को नहीं मिलते, इसलिए मुझे ऐसा लगा हो मगर इस मार्ग पर नील-कमलों को देखकर मुझे अपार आनंद हुआ इसमें कोई संदेह नहीं।

बालासोर से चांदीपुर का रास्ता लगभग सीधा है। किनारे के डाक-बंगले के दरवाजे तक पहुंच जाते हैं तब तक भी समुद्र का दर्शन नहीं होता। मगर जब होता है तब वह अपनी विशालता से चित्त को हर लेता है। पिछली बार जब हम गये थे तब ज्वार धीरे-धीरे बढ़ रहा था, और नाजुक लहरें क्षितिज के साथ समानान्तर रेखा बनाकर धीमे-धीमे आगे बढ़ रही थीं। क्षितिज के किनारे तक आते समय लहरें इतनी सीधी और समानांतर आती थीं, मानों कोई दो-तीन मील लम्बी तनी हुई रस्सी को खींचकर आगे ला रहा हो। मेरे साथ यदि कोई विद्यार्थी होता तो मैं उसे समझा देता कि नोटबुक में जो रेखाएं खींचते हैं, वे इसी तरह सुन्दर और समानान्तर खींचनी चाहिये। जमीन जब सब ओर से समतल होती है तब अंग्रेज लेखक उसे टेनिस-कोर्ट की उपमा देते हैं। मगर कहां टेनिस-कोर्ट और कहां मीलों तक फैली हुई लम्बी और चौड़ी सिकता-स्थली।

यह सारा दृश्य जी भरकर देखा, मन तृप्त होने पर भी देखा। सामने से देखा, बाजू से देखा। हम कितने पुण्यशाली हैं, इस धन्यता के भान के साथ देखा और फिर मन में विचार आयाः अब इसका क्या करना चाहिये? उसके बारे में लिखना तो था ही। राजा को जब रत्न मिलता है तब वह उसे अपने खजाने में पहुंचा ही देता है। रमणियों के हाथ में जब फूल आते हैं तब वे उन्हें अपने जूड़े में जब तक लगा नहीं लेती तब तक उन्हें संतोष नहीं होता। प्रकृति के उपासक लेखक को जब कोई दृश्य पान करने के लिए मिलता है, तब वह जब तक उसे लेख-बद्ध या कविता-बद्ध नहीं करता तब तक उसे चैन नहीं पड़ता। मगर यह तो घर जाने के बाद ही हो सकता है। अभी यहां क्या करना चाहिये? प्रकृति का विस्तार चौड़ा हो या ऊंचा, उसका आस्वाद केवल आंखों से नहीं लिया जा सकता। पांवों को भी उनका हिस्सा देना ही पड़ता है।

हम डाक-बंगले की ऊंचाई से खिसकती और हंसती हुई बालू पर दौड़ते हुए नीचे उतरे। इतने में इधर-उधर दौड़ते और पृथ्वी के उदर में लुप्त होते हुए बड़े-बड़े माणिक हमने देखे। कैसा सुन्दर उनका लाल चमकीला तरल रंग था! मखमल में जैसी फीकी और गहरी लाली होती है, वैसी ही छटा प्रकाश के कारण माणिक में भी दिखाई देती है। यही लावण्य हमने इन दौड़ने वाले रत्नों में देखा। ये केकड़े जितने आकर्षक थे, उतने ही भयावने भी थे। डर लगता था कि आकर कहीं काट लेंगे तो उनके जैसा ही लाल खून पांवों में से निकलने लगेगा। मगर वे जितने डरावने थे उतने ही डरपोक भी थे मनुष्यों को देखकर झट अपने घरों को देखकर झट अपने घरों में छिप जाते थे। हम उनके पीछे दौड़े और उनकी दौड़धूप देखने का आनंद प्राप्त किया।

दौड़ते-दौड़ते हमने डिब्बियों के जैसी छोटी-बड़ी सींपें देखीं उनके ऊपर की आकृतियां देखकर मुझे विश्वास हो गया कि इनके आकार देखकर ही यहां के मंदिरों के कलश तैयार किए गये होंगे। सुपारी के आकार की अपेक्षा यह आकार कला की दृष्टि से कहीं ज्यादा सुन्दर है।

चि. मदालसा ने ऐसी कई डिब्बियां चुन लीं। उनके आर-पार सुराख होने से उनकी माला बनाने की कल्पना सहज सूझ सकती थी।

समुद्र का तट, उसकी लहरें, लाल केकड़े और ये सींपें इन सबकी बातें करते-करते हम वापस लौटें कुछ नील-कमल भी हमने साथ ले लिए और भारत वर्ष के दर्शन में एक और कीमती वृद्धि हुई ऐसे संतोष के साथ घर लौटे।

अबकी जब फिर से बालासोर आये, तब इस सारे दृश्य का प्रत्यक्ष स्मरण हो आया और उसे श्रद्धा की अंजलि अर्पण करने के लिए फिर चांदीपुर जाने का कार्यक्रम हमने तय किया।

आकाश में बादल घिरे हुए थे। फिर भी हमने यह आशा रखी थी कि चांदीपुर पहुंचने पर पानी में से निकलते हुए सूर्य के दर्शन करेंगे। अतः साढ़े तीन बजे उठकर नित्यविधि पूरी की; चार बजे डां. भुवनचंद्र जी की मोटर मंगवाई और मोटर-वेग से आठ मील का अंतर तय किया। रास्ते में न तो खड्डे थे, न श्रीकृष्ण की आंखों से होड़ करने वाले नील-कमल थे। मुझे लगभग यही विश्वास था कि वे लहरें भी हमें देखने को नहीं मिलेंगी। अष्टमी का चांद आकाश में फीका चमक रहा था। अतः मैंने माना था कि यहां सिर्फ छलकता हुआ शांत सरोवर ही दिखाई देगा। हम अपने परिचित डाक-बंगले के आंगन में आये और मैंने देखा कि पानी तो कब का वापस लौट चुका है। दूर मटियाला पानी बालू के ढेर के समान मालूम होता था। सिर्फ बालू का पट अधिकाधिक खुलता जा रहा था। यदि हम चार छः मिनट ही पहले पहुंचे होते, तो सूर्य को पानी में पांव रखते हुए देख पाते। आसमान में बादल थे, पर सूर्य के पास का क्षितिज स्वच्छ और सुन्दर था। बादलों के धब्बे सूर्य की शोभा-को बढ़ा रहे थे। सूर्य को देखकर अपना हमेशा का श्लोक भी बोलना मुझे नहीं सूझा मैंने केवल अंजलि बनाकर अर्घ्य अर्पण किया और दूर समुद्र से निकले हुए सूर्य-नारायण का उपस्थान किया। मन में मनु का श्लोक प्रकट हुआः

आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नर-सूनवः
ता यदस्य अयनं जातम् इति नारायण स्मृतः।।


इतने में चि. अमृतलाल ने गीता गायाः

‘प्रथम प्रभात उदित तब गगने।’

नीचे बालू पर पहुंचते हमें देर न लगी। शर्मीले केकड़ों ने अपने-अपने बिलों में घुसकर हमारा स्वागत किया।

समुद्र के लौटने वाले पानी दूर से ही हमें इशारे से पूछाः ‘यहां तक आना है?’ पानी के निमंत्रण का इनकार भला कैसे किया जाय?

हम आगे बढ़े। बीच-बीच में दो-चार अंगुल पर गहरा पानी देखकर पैर छप-छपाते हुए चलने लगे। कभी सूर्य को देखने का मन हो जाता, तो कभी पीछे मुड़कर किनारे की ओर देखने का जी हो जाता। थोड़े सरो के पेड़, एक-दो कुटिया और जकात विभाग का झंडा चढा़ने का ऊंचा स्तंभ-इनसे अधिक आकर्षक वहां कुछ नहीं था। इससे तो पांव तले के पानी के प्रतिबिंबित बादलों की शोभा ही अधिक आनंद देती थी। पीछे हटने वाले पानी की मोहिनी के पीछे-पीछे हम कितने ही दूर चले जाते। किन्तु हम यह बात भूले नहीं थे कि हमारे सामने दूसरा कार्यक्रम है, और समय के बजट के बाहर यहां अधिक मौज नहीं की जा सकती। किनारे कितनी दूर आ गये,इसका हिसाब लगाने के लिए कदम गिनते-गिनते हम वापस लौटे। दो-दो फुट के कदम भरते हुए हमने एक हजार कदम गिने और दौड़ते हुए माणिकों की रत्नभूमि तक पहुंचे। ऊपर चढ़कर देखते हैं तो नटखट पानी धीरे-धीरे हमारे पीछे आ रहा है। और पानी को आता हुआ देखकर कुछ मछुए बालू के पट में अपना जाल खंभों के सहारे फैला रहे हैं!

पुरानी कहानियां समाप्त हैं, ‘खाया, पिया और राज किया’ वाक्य से। हमारे वर्णन ज्यादातर पूरे होते हैं। इन शब्दों के साथः ‘प्रार्थना की और बाद में नाश्ता किया।’ एक भाई ने बताया कि आज कल यहां जब फौजी आदमी तोपें छोड़ते हैं तब भूकंप की तरह सारी बस्ती कांप उठती हैं। तैयार हुआ जानलेवा माल अच्छी तरह उतर गया है या नहीं, यह जांचने का स्थान यहीं है। आवाज चाहे जितनी बड़ी हो, क्रांति के बाद जिस प्रकार शांति की स्थापना होती है, उसी प्रकार आवाज आकाश में विलीन हो जाती हैं और अंत में नीरवता ही बाकी रहती है।

ऊँ शांतिः शांतिः शांतिः।

मई, 1941

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