धनुष्कोटी में मैं पहले-पहल आया उसको अब करीब बीस साल हो चुके हैं। जहां तक मुझे स्मरण है, श्री राजा जी ने मेरे साथ श्री वरदाचारी जी को भेजा था। वरदाचारी ठहरे रामायण के भक्त। रास्ते भर रामायण की ही रसिक बाते चलीं। हम धनुष्कोटि पहुंचे और वरदाचारी जी की सनातनी आत्मा श्राद्ध करने के लिए तड़पने लगी। एक योग्य ब्राह्मण का पता लगाकर वे इस विधि में मशगूल हो गये और हम लोग आमने-सामने गरजने वाले रत्नाकर और महोद्धिकी भव्य शोभा दखने के लिए स्वतंत्र हो गये।
किन्तु जब कोई नदी सागर से मिलती है तब यह सागर-सरिता-संगम का उन्माद शिव-पार्वती के मिलन के समान अद्भुत-रम्य होता है। इसका वर्णन भक्त वृत्ति से या संतान की भाषा में हो ही नहीं सकता। मनुष्य को यह भूल कर कि वह मनुष्य है, और अपनी शक्ति से भी अधिक ऊंचे उड़कर सागर-सरिता के इस असमान संगम का वर्णन करना होगा।दो नदियों का संगम या प्रयाग अनेक स्थानों पर देखने को मिलता है। संगम का काव्य आर्यों के हृदय या मस्तिष्क तक पहुंचा कि तुरन्त उन्हें वहां यज्ञ-याग करने की सूझी ही है। यज्ञ-याग के लिए ऐसे प्रकृष्ट या प्रशस्त स्थान को वे प्र-याग कहते हैं।
जब दो नदियां मिलती हैं तब अधिकतर अंग्रेजी Y के जैसी आकृति बनती है। महाराष्ट्र में कह्लाड़ के पास दो नदियां आमने-सामने आकर मिलती हैं और बाद को समकोण में एक ओर बहती हैं। उनकी अंग्रेजी के T जैसी पांच किनारों की आकृति बनती हैं। दो नदियां आमने-सामने आकर एक-दूसरे को गले लगाती हैं, इसलिए उसे प्रिति-संगम कहते हैं।
गंगा से जहां यमुना मिलती हैं वहां पर भी लगभग T के जैसी ही आकृति बनती है। सिर्फ उसमें गंगा सीधी जाती है और यमुना किसी आग्रह के बिना और कुछ संभ्रम (घुमाव) के सात गंगा से मिलती है।
यमुना प्रथम तो ‘आत्मनि अप्रत्यय’ दिखाई देती है। किन्तु गंगा से मिलते ही दोनों बहनें उल्लास के उन्माद में आ जाती हैं; और इस डर से कि यदि एक-दूसरे में झट ओतप्रोत हो गई तो मिलने का आनंद मिट जायेगा, दूर-दूर तक दोनों कम-ज्यादा मिला ही करती हैं। धर्मकवियों ने इस स्थान को ‘प्रयाग-राज’ जैसा गौरव भरा नाम यों ही नहीं दिया है।
किन्तु जब कोई नदी सागर से मिलती है तब यह सागर-सरिता-संगम का उन्माद शिव-पार्वती के मिलन के समान अद्भुत-रम्य होता है। इसका वर्णन भक्त वृत्ति से या संतान की भाषा में हो ही नहीं सकता। मनुष्य को यह भूल कर कि वह मनुष्य है, और अपनी शक्ति से भी अधिक ऊंचे उड़कर सागर-सरिता के इस असमान संगम का वर्णन करना होगा।
मगर धनुष्कोटि में तो विष्णु और महादेव के मिलन के समान दो समुद्रों का सागर-संगम है। रत्नाकर मानार (manar) की ओर से आता है। महोदधि पाल्क (palk) की सामुद्रधुनी का प्रतिनिधि है। इन दोनों को झट कैसे मिलने दिया जाय? पृथ्वी ने मानों राम-धनुष की कमानदार कोटि बीच में आड़ी डालकर एक कोष तक इन दोनों को मिलने से रोका है। इधर रत्नाकर उछलता है तो उधर महोदधि गरजता है और पवन की सूचना के अनुसार वे अपने-अपने प्रवाह को दौड़ाते हैं।
और इन दोनों का सलाह–मशविरा कैसा अनोखा होता है! महोदधि यदि हरा रंग धारण करता है तो रत्नाकर पूरा नीला हो जाता है; और जब रत्नाकर पर हरा रंग चढ़ता है तो महोदधि आकाश को भी दीक्षा दे सके ऐसा गहरा नीला रंग बहाने लगता है।
जब तक उन्हें लगता है कि मिलने की इच्छा होने पर भी मिला नहीं जा सकता, तब तक दोनों क्रोध से तमतमाते रहते हैं क्षण-क्षण में नया क्रोध जताते हैं। और एक बार मिलने की छूट मिली की ऐसी शांति और सहजता चेहरे पर दिखा कर दोनों मिलते हैं, मानों मिलने की दोनों को कोई उत्सुकता ही नहीं थी। मिलना था इसलिए मिल लिये! व्याकुलता को मानों दूर ही छोड़ दिया। जहां दोनों का प्रत्यक्ष मिलन होता है, वहां तो सरोवर की शांति ही फैली रहती है और इसमें आश्चर्य क्या है? अद्वैत में आनंद की परिसीमा ही हो सकती है, उन्माद को स्थान कैसे हो सकता है?
धनुष्कोटि के छोर पर खड़े-खड़े एक बार गोल चक्कर लगाकर देख लेना चाहिये। जहां से चलकर आते हैं उतनी जमीन की जीभ को छोड़ दें तो सब ओर महासागर की विशाल जलराशि का क्षितिज के साथ बनता वलय ही देखने को मिलता है।
रंगून या कराची जाते समय बीच समुद्र में चारों ओर समुद्र वलय और क्षितिज वलय मिलकर एक हो जाते हैं, उसकी मस्ती कुछ कम नहीं होती। मन में यह कल्पना आये बिना नही रहती कि पानी के इस क्षितिज-विस्तार पर आकाश का उतना ही बड़ा किन्तु अनंत गुना ऊंचा ढक्कन रखा हुआ है, और इस बड़े डिब्बेश्वर में एक छोटे जहाज पर बैठे हुए ‘कोटश्च कीटायते’-हम मोतियों की तरह संगृहीत किए गये हैं। ज्यों-ज्यों इस परिस्थिति पर हम अधिक सोचते हैं, त्यों-त्यों मन में अपनी तुच्छता का अधिकाधिक भान हमें होने लगता है।
धनुष्कोटि की बात इससे अलग है। पृथ्वी के साथ हम अनुब्ध हैं, पैर तले मजबूत जमीन है और यह जमीन धीरे-धीरे फैलकर एक विशाल देश और खंड की ओर ले जा सकती है- यह ख्याल हमें न सिर्फ आश्वासन देता है, बल्कि प्रचंड आत्म विश्वास का अधिकारी बनाता है। धनुष्कोटि के छोर पर मैं जितनी बार पहुंचा हूं, उतनी बार मुझे मनुष्य के आत्म-गौरव का भान विशेष रूप से हुआ है। इसीलिए वहां अपनी ‘भूमिका’ पर स्थिर रहकर मैं सागर की उपासन कर सका हूं।
जब-जब मैं मंडपम् छोड़कर पुल पर से पामबन गया हूं, तब-तब इस प्रदेश का ‘रघुवंश’ में लिखा हुआ कालिदास का वर्णन मुझे याद आया है। कालिदास की वर्णन शक्ति मुझमें भले न हो, किन्तु इस बारे में मेरे मन में तनिक भी संदेह नहीं कि मैं उनका समान-धर्मा हूं। मैं ‘कवियशः प्रार्थी’ थोड़े ही हूं कि कालिदास के साथ अपना नाम देने में संकोच करूं? मुझ पर हंसने वाले टीकाकारों को मैं एक टीकाकार कवि का ही वचन सुना दूंगाः ‘पर्वते परमाणौ च पदार्थत्वं प्रतिष्ठितम्।’
मगर मैं जब धनुष्कोटि के पास आता हूं, तब कालिदास को भूल जाता हूं और लंका में किस तरह पहुंचा जाय इस उधेड़बुन में पड़े हुए हनुमान की दृष्टि से दक्षिण की ओर देखने लगता हूं। जिन-जिन वानर-यूथ-मुख्यों नें सेतु की कल्पना की और उसे कार्य रूप में परिणत किया, उनकी दृष्टि से तलाईमानार की दिशा में देखने लगता हूं। और इस प्रकार कल्पना को दौड़ाते-दौड़ाते जब थक जाता हूं, तब चारों धाम की यात्रा पूरी करके रामेश्वर पहुंचे हुए वृद्ध यात्रियों का हृदय धारण करके कल्पना करता हूं: “एक पूर्ण जीवन लगभग पूरा करके मैंने भारतवर्ष के जितने ही विशाल जीवन-प्रदेश की यात्रा कर ली। अब वापस लौटकर क्या करना है? इहलोक का काम ज्यों-त्यों पूरा कर लिया। सफलता मिली हो या विफलता, वही जीवन फिर से नहीं बिताना है। अब तो यह सारा जीवन पीठ के पीछे रहे यही अच्छा है। मुड़कर उसकी ओर देखने का स्मरण-रस भी अब नहीं रहा है। अब तो साम्पराय का परजीवन का परमार्थ की दृष्टि से विचार करने में ही श्रेय है।” जब इस प्रकार की विचार-परंपरा मन में उठती है, तब मन एक प्रकार से बेचैन हो उठता है, और दूसरे प्रकार से परम शांति का अनुभव करता है।
अबकी बार जब मैं धनुष्कोटि आया, तो परंपरा के अनुसार मैंने महोदधि में स्नान किया। महासागर से क्षमा भी मांगी। किन्तु मन में तो एक ही विचार आया कि यहां अब फिर से नहीं आना होगा। सीलोन कभी जाना है। मगर धनुष्कोटि के जो दर्शन किये, वे अंतिम है। यह विचार मन में क्यों आया, कहना मुश्किल है। किन्तु इसमें संदेह नहीं कि मन में तृप्ति का विचार इसी बार उत्पन्न हुआ।
रामेश्वर-धनुष्कोटि के बाद कन्याकुमारी। एक स्थान यदि भव्य है तो दूसरा भव्यतर है। यहां दो नहीं बल्कि तीन सागरों का संगम है। संगम का यह वायुमंडल अभेद –भक्ति के आनंद के समान है। ‘यहां हिन्द महासागर पूरा होता है,’ ‘यहां बम्बई का यानी पश्चिम समुद्र शुरू होता है,’ और ‘यहां बंगाल का पूर्व समुद्र शुरू होता है’- यो न तो यहां कह सकते हैं न मान सकते हैं। यहां भारतवर्ष का दक्षिण का छोर है और तीनो सागर उसको तीनों ओर से लिपटे हुए पड़े हैं। संगम तो हम कहते हैं। सागरों के लिए यहां संगम के जैसा कुछ भी नहीं है। संगम की कल्पना हमारी है। सागरों से यदि पूछेंगे तो वे कहेंगे कि जिस भेद का अस्तित्त्व ही नहीं है, उसके मिट जाने की बात भी भला कैसे करें? ‘सं-गम’ की कल्पना ही बिलकुल गलत है। कहना ही हो तो उसको ‘सं-भवन’ कहिये। यहां पूर्ण एकता है वहां किसी भी हिस्से को चाहे जो नाम दे सकते हैं। नाम और रूप का द्वैत यहां फीका पड़ जाता है, धुल जाता है, और फिर शुद्ध अद्वैत ही अपनी अखंड मस्ती में गर्जना करता है।
कन्याकुमारी में मैंने जिस भव्यता का अनुभव किया है, वैसी भव्यता हिमालय को छोड़कर और गांधीजी के जीवन को छोड़कर अन्यत्र कहीं भी अनुभव नहीं की है।
कन्याकुमारी का महत्त्व मैंने पहले-पहल गांधी जी के ही मुंह से सुना था। वे शायद ही किसी दृश्य का वर्णन करते हैं। किन्तु कन्याकुमारी से आश्रम में लौटने के बाद उन्होंने मेरे सामने इस स्थान का उत्साहपूर्वक वर्णन किया था।
सन् 1927 में जब मैंने उनके साथ दक्षिण हिन्दुस्तान की यात्रा की थी, तब नागर-कोविल पहुंचते ही उन्होंने अपने मेजबान से खास तौर पर सिफारिश की कि ‘काका को कन्याकुमारी जाना है; मोटर का बंदोबस्त कर दीजिये।’ उस दिन उन्होंने दो बार पूछताछ की कि काका के कन्याकुमारी जाने का प्रबंध हुआ या नहीं।
पू. बाको ललचाने में मुझे कोई कठिनाई नहीं हुई। दूसरे दो भाई भी हमारे साथ हो गये।
जिस दृश्य की प्रशंसा पू. बापू जी के मुंह से सुनी थी, वह दृश्य देखने की मेरी उत्कंठा बहुत बढ़ गई थी। यहां पहुंचने के बाद तो उसका नशा ही चढ़ गया। उसके बाद जितनी बार यहां आया हूं, वहीं नशा मुझ पर चढ़ा है।
और आश्चर्य की बात तो यह है कि इस नशे के साथ ही मन में ब्रह्मचर्य के बारे में भी गहरे विचार उठे बिना नहीं रहते। देवी कन्याकुमारी का यह स्थान है, इसीलिए ये विचार मन में उठते हों, ऐसी बात नहीं है। मैंने तो ऐसा कभी नहीं माना। स्वामी विवेकानंद न इस स्थान पर वही नशा अनुभव किया था, यह जानने के कारण भी यहां आते ही मेरे मन में ब्रह्मचर्य के विचार नहीं उठते। गांधी जी की भव्यता की भव्य साधना के साथ भी ये विचार संलग्न नहीं हैं। किन्तु ये विचार स्वयंभू रूप से मन में उठते ही हैं।
इस समय (ता. 5-1-1947) तीसरी दफा मैं यहां आया हूं। आते ही सबसे पहले समुद्र की लहरें, आकाश के बादल, पूर्व-पश्चिम के क्षितिज और पीछे की पहाड़ियां-सब स्नेहियों को मैंने देख लिया।
आज पौष का महीना है और शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी है। आज चंद्र रोहिणी में या मृग में होना चाहिये। हम मंजिल-व-मंजिल मोटर की रफ्तार से कन्याकुमारी की ओर जब दौड़ रहे थे, तभी से चंद्र आकाश में ऊंचा चढ़कर इस ताक में बैठा था कि कब सूर्यास्त हो और कब मैं आकाश पर अधिकार करूं। संध्या को अपना वर्ण विलास फैलाने के लिए उसने अधिक अवकाश नहीं दिया। फिर भी जितना अवकाश मिला उतने में ही संध्या ने रंगों के अनेक सुन्दर दृश्य दिखला दिये।
सूर्यास्त देखने की हमारी बड़ी अभिलाषा थी। किन्तु पश्चिम के बादलों ने कुछ उलाहना देते हुए हम से कहा, ‘क्या किसी का अस्त देखने की उत्कंठा रखी जा सकती है? वास्तव में सूर्य का अस्त होता ही नहीं है। आपकी दृष्टि से ही प्रकाश का अस्त होता है। उसके लिए सूर्य को देखने के बदले उदय या अस्त के अवसरों पर वह जो एकरूपता धारण करता है उसके रंग को ही क्यों नहीं देख लेते?’
उदये सविता रक्तो रक्तश्चास्तमने तथा।
संपत्तौ च विपतौ च महताम् एक-रूपता।।
यह श्लोक बादलों ने भी बचपन में कंठस्थ कर लिया होगा।
सूर्य जब क्षितिज के नीचे गया, तब बादलों के गवाक्षों में से सूर्यप्रकाश की लाल किरणें ऊपर तक फैलीं। और ऊपर फैलीं उससे भी अधिक दक्षिण तथा उत्तर की ओर फैल गई। गवाक्ष अधिक नहीं थे, किन्तु जो थे वे बहुत बड़े थे। अतः किरणें ऐसी दिखती थीं मानों लाल रंग के पट्टे खींचे गये हों। और आकाश अपने वैभव में प्रतिष्ठित मालूम होता था। मैंने माना था उससे कुछ अधिक समय तक यह शोभा कायम रही; इससे उसी को देखते रहने की अभिलाषा रखने वाला मन कुछ तृप्त-सा हुआ।
जहां कुमारी के न-हुए-विवाह- के अक्षत बिखरे हुए हैं, उस ओर की शिला पर हम लहरों का तांडव देखने के लिए जा बैठे देखते-ही-देखते संध्या पश्चिम में विलीन हो गई और चंद्र का राज्य आरम्भ हुआ। बादलों ने आकाश को घेर लेने का मनसूबा अभी पूरा नहीं किया था, इतने में दक्षिण की ओर के बादलों में से एक बड़ा सितारा चमकने लगा। वह दूसरा कौन हो सकता था? स्वयं अगस्ति महाराज दक्षिण-पूर्व दिशा पर आरूढ़ हो रहे थे। सौभाग्य से यमुना और याममत्स्य भी तिरछी रेखा में आकाश में दिखाई दिये। दक्षिण दिशा का ध्यान करने का फल मिला। संतुष्ट हुई आंखों से हमने उत्तर को ओर दृष्टि डाली। वहां आकाश में देवयानी (कैसियोपिया) का M ऊपर तक चढ़ा हुआ था। उसके नीचे लगभग क्षितिज के पास एक ताड़ के जितनी ऊंचाई पर उसी ताड़ के पत्ते का आसन बनाकर ध्रुव कुमार ने हमें अपना सुभग दर्शन दिया। देवयानी और ध्रुव को देखते-देखते दृष्टि पश्चिम की ओर मुड़ी; वहां हंस ने बताया कि श्रवण तो कब के अस्त हो गये हैं। अतः पूर्व की ओर देखा। ब्रह्महृदय ने कहा कि ब्रह्ममंडल का विस्तार इतने में ही कहीं होना चाहिये।
प्राणियों को जो उदर-भरण नामक यज्ञकर्म करना पड़ता है उसे हमने भी पूर्ण किया और नहाने के लिए तैयार किए हुए कुंड में उतरे। नये ढंग से बनाये हुए इस कुंड में समुद्र का पानी निरन्तर आता रहता है। आधा कुंड चार फुट गहरा है। बाकी का आठ फुट गहरा है। कपड़े बदलने के लिए दो कमरे भी बनाये गये हैं। इस तरह की सुघड़ व्यवस्था धार्मिक पुण्य को कम करती है,हमने फिर दक्षिण की ओर मुंह किया। अगस्ति इतना ऊंचा नहीं आया था कि हम उसकी कुटिया की कल्पना कर सकें। किन्तु व्याध तो दिखना ही चाहिये। व्याध चाहे जितना तेजस्वी हो, तो भी बादलों के मोटे स्तर को किस तरह बींध सकता है? फिर हमने अपनी दृष्टि से बादलों का स्तर भेदने का प्रयत्न किया। संदेह हुआ कि बादलों का जो हिस्सा कुछ विशेष उजला मालूम होता है उसी के पीछे व्याध होना चाहिये। बादलों के उस पार व्याध का प्रकाश और इस पार हमारी दृष्टि-दोनों के हमले से बादल पतले हुए; और जिस प्रकार पतले परदे के पीछे से नाटक के पात्र दिखाई देते हैं, उसी प्रकार व्याध दिखाई देने लगा। देखते ही देखते व्याध पूर्ण रूप में सामने आया और उसके बाद व्याध, अगस्ति, यमुना और याममत्स्य की शोभा तेलुगु अक्षरों की शिरोरेखा जैसी दिखाई देने लगी।
अभी मृग दिखाई देगा, रोहिणी चमकेगी, प्रश्वन झांकेगा, ऐसी आशा से हम आकाश की ओर ताक रहे थे, इतने में रजनीनाथ ने अपने आसपास कुंडल फैलाया और इस सुवर्ण-वलय के साथ आकाश में बादल भी बढ़े। आकाश में चंद्रिका फैली हो तो भी क्या? रात के बादल हमारा ध्यान बहुत आकर्षित नहीं कर सकते थे। अतः हमने अत्यंत काले समुद्र के गंभीर जल पर नाचते सफेद फेन की चमकती हुई रेखाओं की पंक्तियां देखकर ही आंखों को तृप्त किया।
समुद्र के जल पर और आकाश के बादलों पर विविध रंगों के नाच जी भरकर देखने के बाद यह गंभीरता इतनी तृप्तिदायक मालूम हुई कि इस तृप्ति के साथ स्थित प्रज्ञ का आदर्श गाने में और संध्या की उपासना करने में अनोखा आनंद आया। यह सागर पूर्ण है। उस पर फैला हुआ आकाश पूर्ण है। इन दोनों के दर्शन से जीवन की संध्या के समय हृदय मे उद्भुत हमारा शांति-प्रधान आनंद भी पूर्ण है। अब इस त्रिविध पूर्णता में से कुछ भी निकाल लीजिये या कुछ भी उसमें जोड़ दीजिये, पूर्णत्व में कोई कमी नहीं होगी। पायी हुई पूर्णता कम हो सकती है, क्योंकि वह सच्ची पूर्णता नहीं है। साधी हुई पूर्णता स्थायी है; क्योंकि इस विरासत के साथ ही हम पैदा हुए थे। वहां तक पहुंचने में विलंब हुआ यही दोष है। जो पूर्णता साधी वह आत्मसात् हो गई। अब वहां से चढ़ने-उतरने का प्रश्न ही नहीं है।
जो विराट् है, अनन्त है, बृहत्तम है, उस के साथ एक रूप होने के बाद जो जीवन स्वाभाविक रूप में जिया जा सकता है, वहीं सच्चा ब्रह्मचर्य है। वासना को दबा देने पर वह फिर कभी भी उछल सकती है। वासना को मार डालने पर वह भूत की तरह हैरान कर सकती है। वासना को तृप्त करने के उपाय किये जायं तो व्यसन की तरह वह सदा के लिए चिपक जायेगी और बढ़ेगी। वासना का स्वागत किया जाय तो वह दिमाग में मंडराने लगेगी। वासना का तो मुकाबला करके उससे पूछना चाहिये कि तू कौन है? मित्र के रूप में शत्रूता करने आयी है या जीवन को समृद्ध करने की साधना के रूप में आयी है? वासना जब तक स्पष्ट और खुली नहीं होती, तब तक ही वह मोहक मालूम होती है। मोह अस्पष्टता का होता है, एकांगी दर्शन का होता है। वासना का वश होने में मुख्य मदद अंधेपन की ही होती है। वासना का अंधा विरोध भी उसको मजबूत ही बनाता है। दो आंखों से देखकर हम वासना को पहचान नहीं सकते। उसकी ओर महादेव जी की तरह तीन आंखों से देखना चाहिये। फिर उसकी शत्रुता अपने-आप खत्म हो जाती है।
वासना का सामना केवल तपस्या से नहीं हो सकता; सच तो यह है कि प्रज्ञा के स्थिर होने के बाद वासना का विरोध ही नहीं करना पड़ता ।
जीवन में जब तक हमें अपूर्णता का भान है, तब तक हम यह नहीं कह सकते कि ब्रह्मचर्य सिद्ध हुआ है। अपूर्णता स्वयं बाधक नहीं है। बालक में अपूर्णता कम नहीं होती। वह निर्मल भाव से जीवन जीता रहता है। और उसकी अपूर्णता स्वाभाविक क्रम से कम होती जाती है। अपूर्णता का भान हुआ कि तुरंत मनुष्य पामर बन जाता है। सागर की तरह पूर्ण होने के बाद लहरें चाहे उतनी उछलती-कूदती रहें, पानी का जत्था चाहे वहां दौड़ता रहे; किन्तु सागर को बहने की आवश्यकता नहीं रहती। वह ‘आत्मनि तृप्तः’ है, इसीलिए उसको अपनी मर्यादा छोड़ने की जरूरत नहीं होती। उसको अपनी मर्यादा का भान ही नहीं है; इसीलिए अनायास, अभावित रूप में मर्यादा का पालन उसके द्वारा होता रहता है। यही सच्चा ब्रह्मचर्य है।
प्रार्थना पूरी की और पिछले चार दिन के संस्मरण लिखने की ऊर्मि जागी। कुछ लिखने के बाद ही नींद आ सकी।
दूसरे दिन ब्रह्म-मुहूर्त में भूत की तरह मैं समुद्र-तट पर जा बैठता, किन्तु बारिश ने रोक दिया। प्रार्थना के समय समुद्र-तट पर जाते-जाते फिर से आकाश की ओर देखा। दक्षिण दिशा इतनी साफ, सुन्दर और पारदर्शक थी कि पूर्व की ओर जमे हुए बादलों पर मन में गुस्सा आया। उन्होंने यदि दक्षिण का अनुकरण किया होता तो उनका क्या बिगड़ जाता?
दक्षिण दिशा में त्रिशंकु बराबर खड़ा था। जय-विजय उसके द्वारपालों का काम कर रहे थे। ‘कैरीना’ या झूठा क्रॉस एक ओर जाकर पड़ा था। उन दोनों के बीच कुछ ऐसे सुन्दर तारे चमक रहे थे, जो वर्धा या बंबई के लोगों को जीवन में कभी भी देखने को नहीं मिलते।
उत्तर की ओर सप्तर्षि पूर्ण नम्रता के साथ फैले हुए थे। ध्रुव रात की तरह करीब-करीब जमीन को छूने जा रहा था। स्वाति और चित्रा सिर पर चमक रहे थे। हस्त कुछ टेढ़ा हो गया था। पश्चिम की ओर चंद्र अस्त हो चुका था, किन्तु चंद्रिका अभी अपना अस्तित्व बता रही थी। पुनर्वसु की नाव में से केवल प्रश्वन ही बादलों को भेंदकर झांक रहा था। अकेला तारा ऐकाकी अपने स्वभाव के अनुसार प्रश्वन और मघा से कुट्टी करके दूर जा कर खड़ा हो गया था। मघा का हंसिया फाल्गुनी के चौकोन को संभाल रहा था। पूर्व की ओर विशाखा के नीचे गुरु और शुक्र शोभायमान थे और ये दोनों काफी ऊंचे चढ़ आये थे, इसीलिए पतली अनुराधा, टेढ़ी ज्येष्ठा और नुकीला मुल उनको सहारा दे रहा था। गुरु और शुक्र जब पारिजात के पास आते हैं, तब इन तीनो की तुलना सुन्दर होती है। और मंगल के उनके पास न होने का दुःख नहीं होता।
मुझे हिन्दुस्तान की एक ज्योतिर्मयी व्याख्या सूझी है। कन्याकुमारी के दक्षिण में यदि हम जायें तो ध्रुव दिखाई नहीं देता; और कश्मीर के उत्तर की ओर जायें तो दक्षिण दिशा में अगस्ति दिखाई नहीं देता। अतः मैंने यह व्याख्या बनाई है कि जिस प्रदेश में ध्रुव और अगस्ति दोनों दिखाई पड़ते हैं वहीं हमारा भारत देश है।
प्रार्थना के बाद, सब प्राणियों को जो उदर-भरण नामक यज्ञकर्म करना पड़ता है उसे हमने भी पूर्ण किया और नहाने के लिए तैयार किए हुए कुंड में उतरे। नये ढंग से बनाये हुए इस कुंड में समुद्र का पानी निरन्तर आता रहता है। आधा कुंड चार फुट गहरा है। बाकी का आठ फुट गहरा है। कपड़े बदलने के लिए दो कमरे भी बनाये गये हैं। इस तरह की सुघड़ व्यवस्था धार्मिक पुण्य को कम करती है, ऐसा नहीं मानना चाहिये। नहाकर हम कन्याकुमारी के दर्शन करने गये। यह मंदिर त्रावण कोर के हिन्दू राज्य में है, अतः हरिजनों के लिए वह बहुत समय से खुला कर दिया गया है। मंदिर के द्वार पर सरकार का घोषणापत्र लगा है कि जो जन्म या धर्म से हिन्दू है, वे ही इस मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं।
मंदिर का स्थापत्य सादा किन्तु प्रशस्त है। पत्थर के खंभों पर छत के तौर पर पत्थर ही आड़े रखने के कारण अंदर से सारा मंदिर तहखाने की तरह मालूम होता है। देवी की मूर्ति पूर्व दिशा की ओर देखती है किन्तु उस ओर का बाहर का दरवाजा बंद होने से देवी को समुद्र का दर्शन नहीं होता, न समुद्र को देवी का दर्शन होता है! बेचारे बंगाल-सागर ने कभी यह दावा नहीं किया होगा कि वह जन्म या धर्म से हिन्दू है! और समुद्र होने के कारण मर्यादा का उल्लंघन करके भी वह मंदिर में प्रवेश कर नहीं सकता!!
कन्याकुमारी की कथा बड़ी करुण है। यहां के किनारे पर बिखरी हुई अक्षत के जैसी सफेद मोटी रेत, माणिक के चूर्ण जैसी लाल रेत का गुलाल और स्याही चूस के तौर पर उपयोग में लाई जाने वाली काली रेत-ये सब प्राकृतिक चीजें उस करुण कहानी को और भी करुण बनाने में मदद करती हैं। संसार के सभी महाकाव्य यदि करुणान्त होते हैं, तो हिन्द महासागर की अधिष्ठात्री देवी कन्याकुमारी की कथा भी करुणांत हो यही उपपन्न है। करुण रस में जो गहराई होती है, उसी के द्वारा जीवन की प्रतीति हो सकती है।
दुःखं सत्यं सुखं माय; दुःखं जन्तोः परं धनम्।
..............................दुःखं जीवन-हृद्गतम।।
छिछला जीवन मानता है कि सुख ही जीवन की अनुभूति है, जीवन का सार सर्वस्व है। इस भम्र को मिटाने का काम दुःख को सौंपा गया है। दुःख से परास्त न होकर जो मनुष्य जीवन को साधना के तौर पर दुःख को स्वीकार करता है, वही सुख-दुःख से परे होकर जीवन-समृद्धि का आनंद भोग सकता है। यह आनंद सुख दुःखातीत होने के कारण सागर के जैसा गंभीर और आकाश के जैसा अनंत होता है।
इस आनंद के भाग्य में किसी के साथ विवाह-बद्ध होना नहीं लिखा है!
दिसम्बर, 1947
किन्तु जब कोई नदी सागर से मिलती है तब यह सागर-सरिता-संगम का उन्माद शिव-पार्वती के मिलन के समान अद्भुत-रम्य होता है। इसका वर्णन भक्त वृत्ति से या संतान की भाषा में हो ही नहीं सकता। मनुष्य को यह भूल कर कि वह मनुष्य है, और अपनी शक्ति से भी अधिक ऊंचे उड़कर सागर-सरिता के इस असमान संगम का वर्णन करना होगा।दो नदियों का संगम या प्रयाग अनेक स्थानों पर देखने को मिलता है। संगम का काव्य आर्यों के हृदय या मस्तिष्क तक पहुंचा कि तुरन्त उन्हें वहां यज्ञ-याग करने की सूझी ही है। यज्ञ-याग के लिए ऐसे प्रकृष्ट या प्रशस्त स्थान को वे प्र-याग कहते हैं।
जब दो नदियां मिलती हैं तब अधिकतर अंग्रेजी Y के जैसी आकृति बनती है। महाराष्ट्र में कह्लाड़ के पास दो नदियां आमने-सामने आकर मिलती हैं और बाद को समकोण में एक ओर बहती हैं। उनकी अंग्रेजी के T जैसी पांच किनारों की आकृति बनती हैं। दो नदियां आमने-सामने आकर एक-दूसरे को गले लगाती हैं, इसलिए उसे प्रिति-संगम कहते हैं।
गंगा से जहां यमुना मिलती हैं वहां पर भी लगभग T के जैसी ही आकृति बनती है। सिर्फ उसमें गंगा सीधी जाती है और यमुना किसी आग्रह के बिना और कुछ संभ्रम (घुमाव) के सात गंगा से मिलती है।
यमुना प्रथम तो ‘आत्मनि अप्रत्यय’ दिखाई देती है। किन्तु गंगा से मिलते ही दोनों बहनें उल्लास के उन्माद में आ जाती हैं; और इस डर से कि यदि एक-दूसरे में झट ओतप्रोत हो गई तो मिलने का आनंद मिट जायेगा, दूर-दूर तक दोनों कम-ज्यादा मिला ही करती हैं। धर्मकवियों ने इस स्थान को ‘प्रयाग-राज’ जैसा गौरव भरा नाम यों ही नहीं दिया है।
किन्तु जब कोई नदी सागर से मिलती है तब यह सागर-सरिता-संगम का उन्माद शिव-पार्वती के मिलन के समान अद्भुत-रम्य होता है। इसका वर्णन भक्त वृत्ति से या संतान की भाषा में हो ही नहीं सकता। मनुष्य को यह भूल कर कि वह मनुष्य है, और अपनी शक्ति से भी अधिक ऊंचे उड़कर सागर-सरिता के इस असमान संगम का वर्णन करना होगा।
मगर धनुष्कोटि में तो विष्णु और महादेव के मिलन के समान दो समुद्रों का सागर-संगम है। रत्नाकर मानार (manar) की ओर से आता है। महोदधि पाल्क (palk) की सामुद्रधुनी का प्रतिनिधि है। इन दोनों को झट कैसे मिलने दिया जाय? पृथ्वी ने मानों राम-धनुष की कमानदार कोटि बीच में आड़ी डालकर एक कोष तक इन दोनों को मिलने से रोका है। इधर रत्नाकर उछलता है तो उधर महोदधि गरजता है और पवन की सूचना के अनुसार वे अपने-अपने प्रवाह को दौड़ाते हैं।
और इन दोनों का सलाह–मशविरा कैसा अनोखा होता है! महोदधि यदि हरा रंग धारण करता है तो रत्नाकर पूरा नीला हो जाता है; और जब रत्नाकर पर हरा रंग चढ़ता है तो महोदधि आकाश को भी दीक्षा दे सके ऐसा गहरा नीला रंग बहाने लगता है।
जब तक उन्हें लगता है कि मिलने की इच्छा होने पर भी मिला नहीं जा सकता, तब तक दोनों क्रोध से तमतमाते रहते हैं क्षण-क्षण में नया क्रोध जताते हैं। और एक बार मिलने की छूट मिली की ऐसी शांति और सहजता चेहरे पर दिखा कर दोनों मिलते हैं, मानों मिलने की दोनों को कोई उत्सुकता ही नहीं थी। मिलना था इसलिए मिल लिये! व्याकुलता को मानों दूर ही छोड़ दिया। जहां दोनों का प्रत्यक्ष मिलन होता है, वहां तो सरोवर की शांति ही फैली रहती है और इसमें आश्चर्य क्या है? अद्वैत में आनंद की परिसीमा ही हो सकती है, उन्माद को स्थान कैसे हो सकता है?
धनुष्कोटि के छोर पर खड़े-खड़े एक बार गोल चक्कर लगाकर देख लेना चाहिये। जहां से चलकर आते हैं उतनी जमीन की जीभ को छोड़ दें तो सब ओर महासागर की विशाल जलराशि का क्षितिज के साथ बनता वलय ही देखने को मिलता है।
रंगून या कराची जाते समय बीच समुद्र में चारों ओर समुद्र वलय और क्षितिज वलय मिलकर एक हो जाते हैं, उसकी मस्ती कुछ कम नहीं होती। मन में यह कल्पना आये बिना नही रहती कि पानी के इस क्षितिज-विस्तार पर आकाश का उतना ही बड़ा किन्तु अनंत गुना ऊंचा ढक्कन रखा हुआ है, और इस बड़े डिब्बेश्वर में एक छोटे जहाज पर बैठे हुए ‘कोटश्च कीटायते’-हम मोतियों की तरह संगृहीत किए गये हैं। ज्यों-ज्यों इस परिस्थिति पर हम अधिक सोचते हैं, त्यों-त्यों मन में अपनी तुच्छता का अधिकाधिक भान हमें होने लगता है।
धनुष्कोटि की बात इससे अलग है। पृथ्वी के साथ हम अनुब्ध हैं, पैर तले मजबूत जमीन है और यह जमीन धीरे-धीरे फैलकर एक विशाल देश और खंड की ओर ले जा सकती है- यह ख्याल हमें न सिर्फ आश्वासन देता है, बल्कि प्रचंड आत्म विश्वास का अधिकारी बनाता है। धनुष्कोटि के छोर पर मैं जितनी बार पहुंचा हूं, उतनी बार मुझे मनुष्य के आत्म-गौरव का भान विशेष रूप से हुआ है। इसीलिए वहां अपनी ‘भूमिका’ पर स्थिर रहकर मैं सागर की उपासन कर सका हूं।
जब-जब मैं मंडपम् छोड़कर पुल पर से पामबन गया हूं, तब-तब इस प्रदेश का ‘रघुवंश’ में लिखा हुआ कालिदास का वर्णन मुझे याद आया है। कालिदास की वर्णन शक्ति मुझमें भले न हो, किन्तु इस बारे में मेरे मन में तनिक भी संदेह नहीं कि मैं उनका समान-धर्मा हूं। मैं ‘कवियशः प्रार्थी’ थोड़े ही हूं कि कालिदास के साथ अपना नाम देने में संकोच करूं? मुझ पर हंसने वाले टीकाकारों को मैं एक टीकाकार कवि का ही वचन सुना दूंगाः ‘पर्वते परमाणौ च पदार्थत्वं प्रतिष्ठितम्।’
मगर मैं जब धनुष्कोटि के पास आता हूं, तब कालिदास को भूल जाता हूं और लंका में किस तरह पहुंचा जाय इस उधेड़बुन में पड़े हुए हनुमान की दृष्टि से दक्षिण की ओर देखने लगता हूं। जिन-जिन वानर-यूथ-मुख्यों नें सेतु की कल्पना की और उसे कार्य रूप में परिणत किया, उनकी दृष्टि से तलाईमानार की दिशा में देखने लगता हूं। और इस प्रकार कल्पना को दौड़ाते-दौड़ाते जब थक जाता हूं, तब चारों धाम की यात्रा पूरी करके रामेश्वर पहुंचे हुए वृद्ध यात्रियों का हृदय धारण करके कल्पना करता हूं: “एक पूर्ण जीवन लगभग पूरा करके मैंने भारतवर्ष के जितने ही विशाल जीवन-प्रदेश की यात्रा कर ली। अब वापस लौटकर क्या करना है? इहलोक का काम ज्यों-त्यों पूरा कर लिया। सफलता मिली हो या विफलता, वही जीवन फिर से नहीं बिताना है। अब तो यह सारा जीवन पीठ के पीछे रहे यही अच्छा है। मुड़कर उसकी ओर देखने का स्मरण-रस भी अब नहीं रहा है। अब तो साम्पराय का परजीवन का परमार्थ की दृष्टि से विचार करने में ही श्रेय है।” जब इस प्रकार की विचार-परंपरा मन में उठती है, तब मन एक प्रकार से बेचैन हो उठता है, और दूसरे प्रकार से परम शांति का अनुभव करता है।
अबकी बार जब मैं धनुष्कोटि आया, तो परंपरा के अनुसार मैंने महोदधि में स्नान किया। महासागर से क्षमा भी मांगी। किन्तु मन में तो एक ही विचार आया कि यहां अब फिर से नहीं आना होगा। सीलोन कभी जाना है। मगर धनुष्कोटि के जो दर्शन किये, वे अंतिम है। यह विचार मन में क्यों आया, कहना मुश्किल है। किन्तु इसमें संदेह नहीं कि मन में तृप्ति का विचार इसी बार उत्पन्न हुआ।
रामेश्वर-धनुष्कोटि के बाद कन्याकुमारी। एक स्थान यदि भव्य है तो दूसरा भव्यतर है। यहां दो नहीं बल्कि तीन सागरों का संगम है। संगम का यह वायुमंडल अभेद –भक्ति के आनंद के समान है। ‘यहां हिन्द महासागर पूरा होता है,’ ‘यहां बम्बई का यानी पश्चिम समुद्र शुरू होता है,’ और ‘यहां बंगाल का पूर्व समुद्र शुरू होता है’- यो न तो यहां कह सकते हैं न मान सकते हैं। यहां भारतवर्ष का दक्षिण का छोर है और तीनो सागर उसको तीनों ओर से लिपटे हुए पड़े हैं। संगम तो हम कहते हैं। सागरों के लिए यहां संगम के जैसा कुछ भी नहीं है। संगम की कल्पना हमारी है। सागरों से यदि पूछेंगे तो वे कहेंगे कि जिस भेद का अस्तित्त्व ही नहीं है, उसके मिट जाने की बात भी भला कैसे करें? ‘सं-गम’ की कल्पना ही बिलकुल गलत है। कहना ही हो तो उसको ‘सं-भवन’ कहिये। यहां पूर्ण एकता है वहां किसी भी हिस्से को चाहे जो नाम दे सकते हैं। नाम और रूप का द्वैत यहां फीका पड़ जाता है, धुल जाता है, और फिर शुद्ध अद्वैत ही अपनी अखंड मस्ती में गर्जना करता है।
कन्याकुमारी में मैंने जिस भव्यता का अनुभव किया है, वैसी भव्यता हिमालय को छोड़कर और गांधीजी के जीवन को छोड़कर अन्यत्र कहीं भी अनुभव नहीं की है।
कन्याकुमारी का महत्त्व मैंने पहले-पहल गांधी जी के ही मुंह से सुना था। वे शायद ही किसी दृश्य का वर्णन करते हैं। किन्तु कन्याकुमारी से आश्रम में लौटने के बाद उन्होंने मेरे सामने इस स्थान का उत्साहपूर्वक वर्णन किया था।
सन् 1927 में जब मैंने उनके साथ दक्षिण हिन्दुस्तान की यात्रा की थी, तब नागर-कोविल पहुंचते ही उन्होंने अपने मेजबान से खास तौर पर सिफारिश की कि ‘काका को कन्याकुमारी जाना है; मोटर का बंदोबस्त कर दीजिये।’ उस दिन उन्होंने दो बार पूछताछ की कि काका के कन्याकुमारी जाने का प्रबंध हुआ या नहीं।
पू. बाको ललचाने में मुझे कोई कठिनाई नहीं हुई। दूसरे दो भाई भी हमारे साथ हो गये।
जिस दृश्य की प्रशंसा पू. बापू जी के मुंह से सुनी थी, वह दृश्य देखने की मेरी उत्कंठा बहुत बढ़ गई थी। यहां पहुंचने के बाद तो उसका नशा ही चढ़ गया। उसके बाद जितनी बार यहां आया हूं, वहीं नशा मुझ पर चढ़ा है।
और आश्चर्य की बात तो यह है कि इस नशे के साथ ही मन में ब्रह्मचर्य के बारे में भी गहरे विचार उठे बिना नहीं रहते। देवी कन्याकुमारी का यह स्थान है, इसीलिए ये विचार मन में उठते हों, ऐसी बात नहीं है। मैंने तो ऐसा कभी नहीं माना। स्वामी विवेकानंद न इस स्थान पर वही नशा अनुभव किया था, यह जानने के कारण भी यहां आते ही मेरे मन में ब्रह्मचर्य के विचार नहीं उठते। गांधी जी की भव्यता की भव्य साधना के साथ भी ये विचार संलग्न नहीं हैं। किन्तु ये विचार स्वयंभू रूप से मन में उठते ही हैं।
इस समय (ता. 5-1-1947) तीसरी दफा मैं यहां आया हूं। आते ही सबसे पहले समुद्र की लहरें, आकाश के बादल, पूर्व-पश्चिम के क्षितिज और पीछे की पहाड़ियां-सब स्नेहियों को मैंने देख लिया।
आज पौष का महीना है और शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी है। आज चंद्र रोहिणी में या मृग में होना चाहिये। हम मंजिल-व-मंजिल मोटर की रफ्तार से कन्याकुमारी की ओर जब दौड़ रहे थे, तभी से चंद्र आकाश में ऊंचा चढ़कर इस ताक में बैठा था कि कब सूर्यास्त हो और कब मैं आकाश पर अधिकार करूं। संध्या को अपना वर्ण विलास फैलाने के लिए उसने अधिक अवकाश नहीं दिया। फिर भी जितना अवकाश मिला उतने में ही संध्या ने रंगों के अनेक सुन्दर दृश्य दिखला दिये।
सूर्यास्त देखने की हमारी बड़ी अभिलाषा थी। किन्तु पश्चिम के बादलों ने कुछ उलाहना देते हुए हम से कहा, ‘क्या किसी का अस्त देखने की उत्कंठा रखी जा सकती है? वास्तव में सूर्य का अस्त होता ही नहीं है। आपकी दृष्टि से ही प्रकाश का अस्त होता है। उसके लिए सूर्य को देखने के बदले उदय या अस्त के अवसरों पर वह जो एकरूपता धारण करता है उसके रंग को ही क्यों नहीं देख लेते?’
उदये सविता रक्तो रक्तश्चास्तमने तथा।
संपत्तौ च विपतौ च महताम् एक-रूपता।।
यह श्लोक बादलों ने भी बचपन में कंठस्थ कर लिया होगा।
सूर्य जब क्षितिज के नीचे गया, तब बादलों के गवाक्षों में से सूर्यप्रकाश की लाल किरणें ऊपर तक फैलीं। और ऊपर फैलीं उससे भी अधिक दक्षिण तथा उत्तर की ओर फैल गई। गवाक्ष अधिक नहीं थे, किन्तु जो थे वे बहुत बड़े थे। अतः किरणें ऐसी दिखती थीं मानों लाल रंग के पट्टे खींचे गये हों। और आकाश अपने वैभव में प्रतिष्ठित मालूम होता था। मैंने माना था उससे कुछ अधिक समय तक यह शोभा कायम रही; इससे उसी को देखते रहने की अभिलाषा रखने वाला मन कुछ तृप्त-सा हुआ।
जहां कुमारी के न-हुए-विवाह- के अक्षत बिखरे हुए हैं, उस ओर की शिला पर हम लहरों का तांडव देखने के लिए जा बैठे देखते-ही-देखते संध्या पश्चिम में विलीन हो गई और चंद्र का राज्य आरम्भ हुआ। बादलों ने आकाश को घेर लेने का मनसूबा अभी पूरा नहीं किया था, इतने में दक्षिण की ओर के बादलों में से एक बड़ा सितारा चमकने लगा। वह दूसरा कौन हो सकता था? स्वयं अगस्ति महाराज दक्षिण-पूर्व दिशा पर आरूढ़ हो रहे थे। सौभाग्य से यमुना और याममत्स्य भी तिरछी रेखा में आकाश में दिखाई दिये। दक्षिण दिशा का ध्यान करने का फल मिला। संतुष्ट हुई आंखों से हमने उत्तर को ओर दृष्टि डाली। वहां आकाश में देवयानी (कैसियोपिया) का M ऊपर तक चढ़ा हुआ था। उसके नीचे लगभग क्षितिज के पास एक ताड़ के जितनी ऊंचाई पर उसी ताड़ के पत्ते का आसन बनाकर ध्रुव कुमार ने हमें अपना सुभग दर्शन दिया। देवयानी और ध्रुव को देखते-देखते दृष्टि पश्चिम की ओर मुड़ी; वहां हंस ने बताया कि श्रवण तो कब के अस्त हो गये हैं। अतः पूर्व की ओर देखा। ब्रह्महृदय ने कहा कि ब्रह्ममंडल का विस्तार इतने में ही कहीं होना चाहिये।
प्राणियों को जो उदर-भरण नामक यज्ञकर्म करना पड़ता है उसे हमने भी पूर्ण किया और नहाने के लिए तैयार किए हुए कुंड में उतरे। नये ढंग से बनाये हुए इस कुंड में समुद्र का पानी निरन्तर आता रहता है। आधा कुंड चार फुट गहरा है। बाकी का आठ फुट गहरा है। कपड़े बदलने के लिए दो कमरे भी बनाये गये हैं। इस तरह की सुघड़ व्यवस्था धार्मिक पुण्य को कम करती है,हमने फिर दक्षिण की ओर मुंह किया। अगस्ति इतना ऊंचा नहीं आया था कि हम उसकी कुटिया की कल्पना कर सकें। किन्तु व्याध तो दिखना ही चाहिये। व्याध चाहे जितना तेजस्वी हो, तो भी बादलों के मोटे स्तर को किस तरह बींध सकता है? फिर हमने अपनी दृष्टि से बादलों का स्तर भेदने का प्रयत्न किया। संदेह हुआ कि बादलों का जो हिस्सा कुछ विशेष उजला मालूम होता है उसी के पीछे व्याध होना चाहिये। बादलों के उस पार व्याध का प्रकाश और इस पार हमारी दृष्टि-दोनों के हमले से बादल पतले हुए; और जिस प्रकार पतले परदे के पीछे से नाटक के पात्र दिखाई देते हैं, उसी प्रकार व्याध दिखाई देने लगा। देखते ही देखते व्याध पूर्ण रूप में सामने आया और उसके बाद व्याध, अगस्ति, यमुना और याममत्स्य की शोभा तेलुगु अक्षरों की शिरोरेखा जैसी दिखाई देने लगी।
अभी मृग दिखाई देगा, रोहिणी चमकेगी, प्रश्वन झांकेगा, ऐसी आशा से हम आकाश की ओर ताक रहे थे, इतने में रजनीनाथ ने अपने आसपास कुंडल फैलाया और इस सुवर्ण-वलय के साथ आकाश में बादल भी बढ़े। आकाश में चंद्रिका फैली हो तो भी क्या? रात के बादल हमारा ध्यान बहुत आकर्षित नहीं कर सकते थे। अतः हमने अत्यंत काले समुद्र के गंभीर जल पर नाचते सफेद फेन की चमकती हुई रेखाओं की पंक्तियां देखकर ही आंखों को तृप्त किया।
समुद्र के जल पर और आकाश के बादलों पर विविध रंगों के नाच जी भरकर देखने के बाद यह गंभीरता इतनी तृप्तिदायक मालूम हुई कि इस तृप्ति के साथ स्थित प्रज्ञ का आदर्श गाने में और संध्या की उपासना करने में अनोखा आनंद आया। यह सागर पूर्ण है। उस पर फैला हुआ आकाश पूर्ण है। इन दोनों के दर्शन से जीवन की संध्या के समय हृदय मे उद्भुत हमारा शांति-प्रधान आनंद भी पूर्ण है। अब इस त्रिविध पूर्णता में से कुछ भी निकाल लीजिये या कुछ भी उसमें जोड़ दीजिये, पूर्णत्व में कोई कमी नहीं होगी। पायी हुई पूर्णता कम हो सकती है, क्योंकि वह सच्ची पूर्णता नहीं है। साधी हुई पूर्णता स्थायी है; क्योंकि इस विरासत के साथ ही हम पैदा हुए थे। वहां तक पहुंचने में विलंब हुआ यही दोष है। जो पूर्णता साधी वह आत्मसात् हो गई। अब वहां से चढ़ने-उतरने का प्रश्न ही नहीं है।
जो विराट् है, अनन्त है, बृहत्तम है, उस के साथ एक रूप होने के बाद जो जीवन स्वाभाविक रूप में जिया जा सकता है, वहीं सच्चा ब्रह्मचर्य है। वासना को दबा देने पर वह फिर कभी भी उछल सकती है। वासना को मार डालने पर वह भूत की तरह हैरान कर सकती है। वासना को तृप्त करने के उपाय किये जायं तो व्यसन की तरह वह सदा के लिए चिपक जायेगी और बढ़ेगी। वासना का स्वागत किया जाय तो वह दिमाग में मंडराने लगेगी। वासना का तो मुकाबला करके उससे पूछना चाहिये कि तू कौन है? मित्र के रूप में शत्रूता करने आयी है या जीवन को समृद्ध करने की साधना के रूप में आयी है? वासना जब तक स्पष्ट और खुली नहीं होती, तब तक ही वह मोहक मालूम होती है। मोह अस्पष्टता का होता है, एकांगी दर्शन का होता है। वासना का वश होने में मुख्य मदद अंधेपन की ही होती है। वासना का अंधा विरोध भी उसको मजबूत ही बनाता है। दो आंखों से देखकर हम वासना को पहचान नहीं सकते। उसकी ओर महादेव जी की तरह तीन आंखों से देखना चाहिये। फिर उसकी शत्रुता अपने-आप खत्म हो जाती है।
वासना का सामना केवल तपस्या से नहीं हो सकता; सच तो यह है कि प्रज्ञा के स्थिर होने के बाद वासना का विरोध ही नहीं करना पड़ता ।
जीवन में जब तक हमें अपूर्णता का भान है, तब तक हम यह नहीं कह सकते कि ब्रह्मचर्य सिद्ध हुआ है। अपूर्णता स्वयं बाधक नहीं है। बालक में अपूर्णता कम नहीं होती। वह निर्मल भाव से जीवन जीता रहता है। और उसकी अपूर्णता स्वाभाविक क्रम से कम होती जाती है। अपूर्णता का भान हुआ कि तुरंत मनुष्य पामर बन जाता है। सागर की तरह पूर्ण होने के बाद लहरें चाहे उतनी उछलती-कूदती रहें, पानी का जत्था चाहे वहां दौड़ता रहे; किन्तु सागर को बहने की आवश्यकता नहीं रहती। वह ‘आत्मनि तृप्तः’ है, इसीलिए उसको अपनी मर्यादा छोड़ने की जरूरत नहीं होती। उसको अपनी मर्यादा का भान ही नहीं है; इसीलिए अनायास, अभावित रूप में मर्यादा का पालन उसके द्वारा होता रहता है। यही सच्चा ब्रह्मचर्य है।
प्रार्थना पूरी की और पिछले चार दिन के संस्मरण लिखने की ऊर्मि जागी। कुछ लिखने के बाद ही नींद आ सकी।
दूसरे दिन ब्रह्म-मुहूर्त में भूत की तरह मैं समुद्र-तट पर जा बैठता, किन्तु बारिश ने रोक दिया। प्रार्थना के समय समुद्र-तट पर जाते-जाते फिर से आकाश की ओर देखा। दक्षिण दिशा इतनी साफ, सुन्दर और पारदर्शक थी कि पूर्व की ओर जमे हुए बादलों पर मन में गुस्सा आया। उन्होंने यदि दक्षिण का अनुकरण किया होता तो उनका क्या बिगड़ जाता?
दक्षिण दिशा में त्रिशंकु बराबर खड़ा था। जय-विजय उसके द्वारपालों का काम कर रहे थे। ‘कैरीना’ या झूठा क्रॉस एक ओर जाकर पड़ा था। उन दोनों के बीच कुछ ऐसे सुन्दर तारे चमक रहे थे, जो वर्धा या बंबई के लोगों को जीवन में कभी भी देखने को नहीं मिलते।
उत्तर की ओर सप्तर्षि पूर्ण नम्रता के साथ फैले हुए थे। ध्रुव रात की तरह करीब-करीब जमीन को छूने जा रहा था। स्वाति और चित्रा सिर पर चमक रहे थे। हस्त कुछ टेढ़ा हो गया था। पश्चिम की ओर चंद्र अस्त हो चुका था, किन्तु चंद्रिका अभी अपना अस्तित्व बता रही थी। पुनर्वसु की नाव में से केवल प्रश्वन ही बादलों को भेंदकर झांक रहा था। अकेला तारा ऐकाकी अपने स्वभाव के अनुसार प्रश्वन और मघा से कुट्टी करके दूर जा कर खड़ा हो गया था। मघा का हंसिया फाल्गुनी के चौकोन को संभाल रहा था। पूर्व की ओर विशाखा के नीचे गुरु और शुक्र शोभायमान थे और ये दोनों काफी ऊंचे चढ़ आये थे, इसीलिए पतली अनुराधा, टेढ़ी ज्येष्ठा और नुकीला मुल उनको सहारा दे रहा था। गुरु और शुक्र जब पारिजात के पास आते हैं, तब इन तीनो की तुलना सुन्दर होती है। और मंगल के उनके पास न होने का दुःख नहीं होता।
मुझे हिन्दुस्तान की एक ज्योतिर्मयी व्याख्या सूझी है। कन्याकुमारी के दक्षिण में यदि हम जायें तो ध्रुव दिखाई नहीं देता; और कश्मीर के उत्तर की ओर जायें तो दक्षिण दिशा में अगस्ति दिखाई नहीं देता। अतः मैंने यह व्याख्या बनाई है कि जिस प्रदेश में ध्रुव और अगस्ति दोनों दिखाई पड़ते हैं वहीं हमारा भारत देश है।
प्रार्थना के बाद, सब प्राणियों को जो उदर-भरण नामक यज्ञकर्म करना पड़ता है उसे हमने भी पूर्ण किया और नहाने के लिए तैयार किए हुए कुंड में उतरे। नये ढंग से बनाये हुए इस कुंड में समुद्र का पानी निरन्तर आता रहता है। आधा कुंड चार फुट गहरा है। बाकी का आठ फुट गहरा है। कपड़े बदलने के लिए दो कमरे भी बनाये गये हैं। इस तरह की सुघड़ व्यवस्था धार्मिक पुण्य को कम करती है, ऐसा नहीं मानना चाहिये। नहाकर हम कन्याकुमारी के दर्शन करने गये। यह मंदिर त्रावण कोर के हिन्दू राज्य में है, अतः हरिजनों के लिए वह बहुत समय से खुला कर दिया गया है। मंदिर के द्वार पर सरकार का घोषणापत्र लगा है कि जो जन्म या धर्म से हिन्दू है, वे ही इस मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं।
मंदिर का स्थापत्य सादा किन्तु प्रशस्त है। पत्थर के खंभों पर छत के तौर पर पत्थर ही आड़े रखने के कारण अंदर से सारा मंदिर तहखाने की तरह मालूम होता है। देवी की मूर्ति पूर्व दिशा की ओर देखती है किन्तु उस ओर का बाहर का दरवाजा बंद होने से देवी को समुद्र का दर्शन नहीं होता, न समुद्र को देवी का दर्शन होता है! बेचारे बंगाल-सागर ने कभी यह दावा नहीं किया होगा कि वह जन्म या धर्म से हिन्दू है! और समुद्र होने के कारण मर्यादा का उल्लंघन करके भी वह मंदिर में प्रवेश कर नहीं सकता!!
कन्याकुमारी की कथा बड़ी करुण है। यहां के किनारे पर बिखरी हुई अक्षत के जैसी सफेद मोटी रेत, माणिक के चूर्ण जैसी लाल रेत का गुलाल और स्याही चूस के तौर पर उपयोग में लाई जाने वाली काली रेत-ये सब प्राकृतिक चीजें उस करुण कहानी को और भी करुण बनाने में मदद करती हैं। संसार के सभी महाकाव्य यदि करुणान्त होते हैं, तो हिन्द महासागर की अधिष्ठात्री देवी कन्याकुमारी की कथा भी करुणांत हो यही उपपन्न है। करुण रस में जो गहराई होती है, उसी के द्वारा जीवन की प्रतीति हो सकती है।
दुःखं सत्यं सुखं माय; दुःखं जन्तोः परं धनम्।
..............................दुःखं जीवन-हृद्गतम।।
छिछला जीवन मानता है कि सुख ही जीवन की अनुभूति है, जीवन का सार सर्वस्व है। इस भम्र को मिटाने का काम दुःख को सौंपा गया है। दुःख से परास्त न होकर जो मनुष्य जीवन को साधना के तौर पर दुःख को स्वीकार करता है, वही सुख-दुःख से परे होकर जीवन-समृद्धि का आनंद भोग सकता है। यह आनंद सुख दुःखातीत होने के कारण सागर के जैसा गंभीर और आकाश के जैसा अनंत होता है।
इस आनंद के भाग्य में किसी के साथ विवाह-बद्ध होना नहीं लिखा है!
दिसम्बर, 1947
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