सरस्वती का नाम याद करते ही मन कुछ ऐसा विषष्ण होता है। भारत की केवल तीन ही नदियों का नाम लेना हो तो गंगा, यमुना के साथ सरस्वती आयेगी ही। अगर सात नदियों को पूजा में मदद के लिए बुलाना है तो उनके बीच बराबर मध्य में सरस्वती को याद करना ही पड़ता हैः
गंगे! च यमुने! चैव गोदावरी! सरस्वति!
नर्मदे! सिन्धु! कावेरि! जलेSस्मिन् सन्निधिं कुरु।।
और अगर तीन भारतीय पहाड़ों की असंख्य कन्याओं का स्मरण-चिंतन करना है तो उनमें न मालूम कितनी छोटी-छोटी नदियां सरस्वती का नाम धारण करके हमारे सामने खड़ी होंगी, लेकिन संस्कृतिपूजक भारतीय हृदय विषाद के साथ कहता है कि हमारी असली सरस्वती नदी, जो एक दफे बहती थी और आज जो लुप्त हो गई है, वह कहां से निकली, कहां भूमि में छिप गई, और किस रेगिस्तान में सदा के लिए लुप्त हो गई, यह निश्चित रूप से कह नहीं सकते।
दुनिया की सब नदियां अपना-अपना जल सागर को देकर कृतार्थ होती है, लेकिन चंद नदियां अधिक परोपकारी होती हैं, वे कहती हैं, “असंख्य नदियों का जल सतत लेते हुए भी जो खारा-का-खारा ही रहता है, उसे हम पति क्यों बनावें? जहां लोगों को पीने कि लिए पानी की बूंद भी नहीं मिलती, वहां कभी जमीन के ऊपर और ज्यादातर जमीन के अंदर, गुप्त रूप से बहकर रेत के मैदान में समा जाना, यह भी एक पवित्र जीवन-साधना है।” ऐसा कहकर रेगिस्तान को अपना जीवन सौंप देने में वे धन्यता अनुभव करती हैं।
यह देखकर संस्कृति की उपासना करने वाले उत्तरकालीन ऋषियों ने तय कि अनेक सरोवरों के कारण, जिसे हम सरस्वती (सरस्वती) कहते थे, उस पुरानी नदी को बाजू पर रखकर हमारे मानस-सरोवर में जिसका उद्गम हुआ, अपने जीवन से जो हमारा जीवन कृतार्थ करती है, और हमारे हृदय-सागर में जा पहुंचती है, उस ‘संस्कृति-विद्यारूपी’ सरस्वती को ही हम अपनी पूजा में स्थान देंगे। जहां गंगा और यमुना अपना जल एकत्र करती हैं, उस तीर्थ-स्थान में बैठकर ऋषियों ने यज्ञ-याग चलाये। यज्ञ-याग के लिए उस स्थान को प्रकृष्ट माना, और उसे नाम दिया प्रयाग (आज लोग उसे इलाहाबाद कहते हैं)।
इस प्रयाग तीर्थ में गंगा-यमुना का संगम तो है ही, लेकिन हमारे सारे ऋषि मुनि अपनी सारी विद्याओं के प्रवाहों को संस्कृत के अध्यापन के द्वारा यहीं बताते हैं। इस तरह वहां पर त्रिवेणी-संगम है। गंगा-यमुना का जल आखों से देखा जाता है; सांस्कृतिक सरस्वती का दैवी प्रवाह हम श्रद्धा की आंखों के द्वारा ही देख सकते हैं। इसीलिए प्रयाग को हम ‘त्रिवेणी संगम’ कहते हैं। हमारी सरस्वती यहां अखंड बहती रहेगी और सारे भारत को सारी पृथ्वी को चैतन्य का जल देती रहेगी। स्थूल सरस्वती तो विस्मृति के रेगिस्तान में लुप्त हो गई होगी। संस्कृत-संस्कृति की यह विद्या-सरस्वती-कभी भी लुप्त नहीं हो सकेगी। दुनिया की सब संस्कृतियों का भारत में संगम होता रहेगा, और एक दिन आयेगा, जब दुनिया भारत को समन्वय तीर्थ कहेगी। त्रिवेणी- संगम अनंतवेणी-संगम बनेगा।
भारत-भाग्य-विधाता चाहता है कि इस माहात्म्य के लिए योग्य बनना, यही हमारी जीवन-साधना बने!
12 मार्च, 1973
गंगे! च यमुने! चैव गोदावरी! सरस्वति!
नर्मदे! सिन्धु! कावेरि! जलेSस्मिन् सन्निधिं कुरु।।
और अगर तीन भारतीय पहाड़ों की असंख्य कन्याओं का स्मरण-चिंतन करना है तो उनमें न मालूम कितनी छोटी-छोटी नदियां सरस्वती का नाम धारण करके हमारे सामने खड़ी होंगी, लेकिन संस्कृतिपूजक भारतीय हृदय विषाद के साथ कहता है कि हमारी असली सरस्वती नदी, जो एक दफे बहती थी और आज जो लुप्त हो गई है, वह कहां से निकली, कहां भूमि में छिप गई, और किस रेगिस्तान में सदा के लिए लुप्त हो गई, यह निश्चित रूप से कह नहीं सकते।
दुनिया की सब नदियां अपना-अपना जल सागर को देकर कृतार्थ होती है, लेकिन चंद नदियां अधिक परोपकारी होती हैं, वे कहती हैं, “असंख्य नदियों का जल सतत लेते हुए भी जो खारा-का-खारा ही रहता है, उसे हम पति क्यों बनावें? जहां लोगों को पीने कि लिए पानी की बूंद भी नहीं मिलती, वहां कभी जमीन के ऊपर और ज्यादातर जमीन के अंदर, गुप्त रूप से बहकर रेत के मैदान में समा जाना, यह भी एक पवित्र जीवन-साधना है।” ऐसा कहकर रेगिस्तान को अपना जीवन सौंप देने में वे धन्यता अनुभव करती हैं।
यह देखकर संस्कृति की उपासना करने वाले उत्तरकालीन ऋषियों ने तय कि अनेक सरोवरों के कारण, जिसे हम सरस्वती (सरस्वती) कहते थे, उस पुरानी नदी को बाजू पर रखकर हमारे मानस-सरोवर में जिसका उद्गम हुआ, अपने जीवन से जो हमारा जीवन कृतार्थ करती है, और हमारे हृदय-सागर में जा पहुंचती है, उस ‘संस्कृति-विद्यारूपी’ सरस्वती को ही हम अपनी पूजा में स्थान देंगे। जहां गंगा और यमुना अपना जल एकत्र करती हैं, उस तीर्थ-स्थान में बैठकर ऋषियों ने यज्ञ-याग चलाये। यज्ञ-याग के लिए उस स्थान को प्रकृष्ट माना, और उसे नाम दिया प्रयाग (आज लोग उसे इलाहाबाद कहते हैं)।
इस प्रयाग तीर्थ में गंगा-यमुना का संगम तो है ही, लेकिन हमारे सारे ऋषि मुनि अपनी सारी विद्याओं के प्रवाहों को संस्कृत के अध्यापन के द्वारा यहीं बताते हैं। इस तरह वहां पर त्रिवेणी-संगम है। गंगा-यमुना का जल आखों से देखा जाता है; सांस्कृतिक सरस्वती का दैवी प्रवाह हम श्रद्धा की आंखों के द्वारा ही देख सकते हैं। इसीलिए प्रयाग को हम ‘त्रिवेणी संगम’ कहते हैं। हमारी सरस्वती यहां अखंड बहती रहेगी और सारे भारत को सारी पृथ्वी को चैतन्य का जल देती रहेगी। स्थूल सरस्वती तो विस्मृति के रेगिस्तान में लुप्त हो गई होगी। संस्कृत-संस्कृति की यह विद्या-सरस्वती-कभी भी लुप्त नहीं हो सकेगी। दुनिया की सब संस्कृतियों का भारत में संगम होता रहेगा, और एक दिन आयेगा, जब दुनिया भारत को समन्वय तीर्थ कहेगी। त्रिवेणी- संगम अनंतवेणी-संगम बनेगा।
भारत-भाग्य-विधाता चाहता है कि इस माहात्म्य के लिए योग्य बनना, यही हमारी जीवन-साधना बने!
12 मार्च, 1973
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