सह्याद्रि को श्रद्धांजलि


जिस तरह कृष्णा के किनारे महाराष्ट्र की राजधानी सतारा में जन्म होने के कारण मैं अपने को कृष्णा पुत्र कहलाता हूं उसी तरह सह्याद्रि की गोंद में पला हुआ होने के कारण मैं अपने को सह्यपुत्र भी कहलाता हूं। औरंगंजेब ने हमारे शिवाजी के प्रति अपना तिरस्कार बताने के लिए भले ही उसे ‘पहाड़ का चूहा’ कहा हो, मैं हमारे सह्याद्रि का चूहा होने पर भी गौरव अनुभव करता हूं। सह्याद्रि तो भारत भूमि की पश्चिम की रीढ़ है। खंभात से लेकर कन्याकुमारी तक जो पश्चिम सागर फैला हुआ है उसका स्वागत करने का उसके साथ बातें करने का अधिकार सह्याद्रि का ही है। और पश्चिम सागर भी हर साल ग्रीष्मकाल के बाद अपने लवण जल से मीठे बादल बनाकर सह्याद्रि का अभिषेक करता रहता है। प्रकृति माता का वह बड़ा वार्षिक महोत्सव है। सह्याद्रि के ऊंचे-ऊंचे शिखरों पर जब ये बादल बरसने लगते हैं तब हम पर्वत-पुत्र आनंद-विभोर हो जाते हैं और उन्मत्त होकर नाचने लगते हैं। सह्याद्रि की नदियां अपने पिता का गौरव कभी नहीं भूलतीं। पक्षपातरहित पूर्व और पश्चिम दोनों सागरों को अपनी श्रद्धांजलियां अर्पित करती रहती हैं। जो नदियां पूर्व की ओर जाती है, उन्हें दूर-दूर की यात्रा करनी पड़ती है। पश्चिम की नदियां मस्ती में आकर कायोत्सर्ग करके बड़ी ऊंचाई से नीचे कूद पड़ती हैं। और देखते-देखते पूरे वेग से सागर में जा मिलती हैं। इसीलिए शायद पश्चिम की ओर का सागर इतना ज्यादा गहरा है। हिमालय अगर भारत का पूर्व-पश्चिम अन्तर नापता है, तो सह्याद्रि भी ‘दक्षिण प्रदेश’ का उत्तर-दक्षिण अन्तर नापता है।

रामायण, महाभारत और भागवत हमारे देश की और हमारे संस्कृति की गाथाएं होने के कारण हमारे लिए वंदनीय और शिरोधार्य हैं ही। लेकिन दक्षिण के हम लोगों की जीवन-गाथा हम यहां के लोकगीतों में पाते हैं।

पेड़ जिस तरह अपने फूलों और फलों से सुशोभित होते हैं उसी तरह हमारा सह्याद्रि हमारे पुरखों के बांधे हुए पहाड़ी किलों से सुशोभित है। इनको हम दुर्ग कहते हैं। जहां जाना आसान नहीं है, वे होते हैं दुर्ग। बादशाह औरंगजेब ने हम लोगों को पहाड़ के चूहे कह कर हमारी अवहेलना की, लेकिन वह हमें दबा नहीं सका। दिल्ली की फौजें और दिल्ली का खजाना लेकर वह चूहों को दबाने के लिए हमारे राज्य में आया। हमारे किले जीत लेना उसके लिए अशक्य नहीं था, लेकिन हमने एक भी किला शत्रु के और अपने गरम-गरम लोहे की कीमत लिए-दिए बिना छोड़ा नहीं और हम जानते भी थे कि विजयी औरंगजेब के पास एक भी किला अपने वश में रखने की ताकत नहीं थी। नया किला लिया और जीता हुआ पुराना किला को खो दिया-ऐसा खेल उन्नीस बरस तक वह खेला। और न जाने किस मुहूर्त में वह महाराष्ट्र आया था, कि फिर दिल्ली लौट नहीं सका। उसकी हड्डियां महाराष्ट्र की मध्यकालीन राजधानी औरंगाबाद के पास ही आराम कर रही हैं। मैंने औरंगजेब को महाराष्ट्री बादशाह कहा है। महाराष्ट्र में जन्म लेने से, महाराष्ट्र की हवा में प्रथम सांस लेने से अगर कोई आदमी महाराष्ट्री बन सकता है, तो मेरी दलील है कि बारह बरस से अधिक जिसने महाराष्ट्र का अन्न-जल खाया और अपनी अंतिम सांस महाराष्ट्र में ली उसे भी हम महाराष्ट्री क्यों न कहें? औरंगजेब को हम पहाड़ी चूहों के एक दर में ही अंतिम आराम का स्थान मिला है।

सह्याद्रि के कारण महाराष्ट्र के दो विभाग होते हैं- ‘कोंकण’ और ‘देश’। इन दो विभागों का जीवनक्रम बिलकुल अलग-अलग है। आबोहवा में तो फर्क है ही, आहार में भी फर्क है। स्वभाव में भी दोनों की अलग-अलग खूबियां पायी जाती है। यहां तक कि ब्राह्मणों की जातियों में भी इस स्थान-भेद के कारण दो अलग नाम हुए हैं-कोकणस्थ और देशस्थ। सह्याद्रि के शिखर तीन हजार और चार हजार फुट से अधिक ऊंचे होते हुए भी पूर्व से पश्चिम या पश्चिम से पूर्व आना-जाना कठिन नहीं है-हमारा पर्वत सह्य जो ठहरा! उसने अपने शिखरों के बीच आने-जाने के लिए घाटियां रखी हैं। चंद बहुत कड़ी है, ज्यादातर आसान है। कोंकण विभाग के महत्वाकांक्षी लोग अक्सर इन घाटियों के द्वारा ही सह्याद्रि को लाघंकर ‘देश’ पर जाते हैं और अपने भाग्योदय की आजमाइश करते हैं। यह प्रक्रिया सदियों से चलती आई हैं और ‘देश’ के जवा-मर्द इन्हीं घाटों से नीचे उतरकर कोंकण के बंदरों में अपनी शक्ति का परिचय देते हैं और मेहनत की रोटी कमाते हैं। इन दोनों के बीच पहाड़ के आश्रय से जो जातियां रहती हैं वे तो मानों गरुड़ पक्षी की औलाद हैं। इनका युद्ध कौशल श्रीकृष्ण के जमाने से आजतक अनेक लोगों ने कबूल किया है। पहाड़ पर से बड़े-बड़े पत्थरों को, नीचे से आने वाले शत्रु के सीर की तलाश लेने के लिए, भेज देने की कला इन्हीं की थी। इनकी मदद से श्रीकृष्ण ने कई बार आत्म-रक्षा की है।

मैंने बचपन से लेकर आजतक इन घाटियों में कई दफे यात्रा की है। कभी पैदल तो कभी बैलगाड़ी पर, कभी मोटर से की तो कभी रेल से, किश्ती की मुसाफिरी भी कहीं-कहीं सह्याद्रि की ही मुसाफिरी गिनी जा सकती है। इन घाटियों का आरोहण और अवरोहण मेरे बचपन का असाधारण आनंद था; उसका वर्णन तो विस्तार से अलग ही करना होगा।

सह्याद्रि की वनस्पतियां, सह्याद्रि की वनौषधियां और यहां के महावृक्षों की समृद्धि से किसी भी देश के लोग ईर्ष्या कर सकते हैं। सह्याद्रि के हरेक हिस्से में घास के और पेड़ के फूल अलग होते हैं। आर्युवेद में इन फूलों से मिलने वाले शहद के अलग-अलग उपयोग बताये हैं। फलां रोग के लिए बैजनाथ पहाड़ का शहद अच्छा, फलां रोग के लिए महाबलेश्वर का अच्छा, ऐसी खूबियां पुराने ग्रंथों में पाई जाती हैं।

मराठी-साहित्य में सह्याद्रि के अलग-अलग किलों का वर्णन मिलता है। वनौषधि का विस्तार भी पाया जाता है। वहां के सांपों के बारे में भी किसी ने कुछ लिख रखा है। यहां के पहाड़ों की चट्टानों में जो गुफाएं और लयन खोदे हुए हैं उनका वर्णन तो अखिल भारतीय साहित्य में जगह-जगह पाया जाता है। सोपारा, धारापुरी, जोगेश्वरी, कान्हेरी, कारला, भाजा, नासिक, लेण्याद्रि, अजन्ता, वेरूल –ये सब स्थान महाराष्ट्र के और महाराष्ट्र की संस्कृति के जरा-जर्जर लेकिन अमर स्मारक हैं।

पहाड़ों में जहां नदी का उद्गम है वहां संस्कृति का उद्गम ढूंढ़ने के लिए सांधु-संत गये बिना नहीं रहते।

इंद्रायणी का उद्गम-स्थान लोणावला, भीमा का भीमाशंकर, कृष्णा आदि कई नदियों का उद्गम-स्थान पवित्र महाबलेश्वर, कावेरी का और तुंगभद्रा का गंगामूली आदि सब स्थानों पर सह्याद्रि के तपस्वियों ने ध्यान-चिंतन किया है। उनके आशीर्वाद आज भी हमें मिलते हैं।

सह्याद्रि ने तो कन्नड़, तुलू और महाराष्ट्र तीनों भाषाओं के लोगों को आश्रय दिया हुआ है। तीनों का इतिहास मिलकर सह्याद्रि का इतिहास होता है।

और दक्षिण का मलय पर्वत तो सह्याद्रि का ही एक उपनिवेश है। उसे अगर सह्याद्रि के साथ ले लिया तो केरल का इतिहास भी ऊपर के इतिहास में सम्मिलित करना होगा।

जिस तरह एक दफे कलकत्ता से कराची तक बीच में कहीं ठहरे बिना एक ही उड़ान में हवाई जहाज की मुसाफिरी मैंने की थी, अथवा कराची से बम्बई तक आकाश से 18 हजार फुट की ऊंचाई पर से देश का निरीक्षण किया था। उसी तरह किसी दिन कन्याकुमारी से लेकर विंध्याद्रि तक अगर सह्याद्रि का आपादमस्तक व्योम-दर्शन कर सका तो मैं अपने को धन्य-धन्य समझूंगा। किसी समय कोलम्बों से बम्बई की सीधी हवाई सफर कर सका, तभी यह शक्य होगा। तुलसी दास के पुष्पक-आरोही रामचंद्र के जैसा स्थान-स्थान के पवित्र तीर्थों का वंदन करता-करता सह्याद्रि का आंखे भरकर निरीक्षण करूंगा तब तो सरस्वती ही स्वयं उस आनंद का वर्णन कर सकेगी।

परमपिता सह्याद्रि को कोटि-कोटि वंदन! 26 मार्च, 1957
 
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