छप्पन साल की भूख

सन् 1893 के करीब मैं पहली बार-कारवार गया था। मार्मागोवा बंदरगाह पर से जब मैंने पहली बार चमकता समुद्र देखा, तब मैं अवाक् हो गया था। रात को नौ बजे हम स्टीमर में बैठे। स्टीमर ने किराना छोड़कर समुद्र में चलना शुरु किया और मेरा दिमाग भी अपना हमेशा का किनारा छोड़कर कल्पना पर तैरने लगा। सुबह हुई और हम कारवार पहुंचे। स्टीमर से नाव में उतरना आसान न था। प्रत्येक नाव के साथ उलांडियां (outriggers) बंधी हुई थीं। मेरे मन में सवाल उठा कि जान-बूझकर इस तरह की असुविधा क्यों की होगी? बाद मैं उलांडियों की उपयोगिता को समझ सका।

लहरों के थपेड़े खाते हुए बाहुबल से तैरते-तैरते दूर अंदर तक जाने में एक प्रकार का आनंद है। छाती के नीचे उछलती लहरों पर सवार होने का लुफ्त जिसने उठाया है वह कभी उसको भूल नहीं सकता। नदी के पानी की तरह समुद्र का पानी हमें डूबा देने के इंतजार में नहीं रहता। समुद्र का पानी किसी का भोग लेगा तो निरुपाय होकर ही। नहीं तो उसकी नीयत हमेशा तैराकों को तारने की ही रहती है।सफर की थकान उतरते ही हम समुद्र के किनारे फिरने जाने लगे। किनारे पर से समुद्र में तीन पहाड़ दिखाई देते थे। उनमें से एक देवगढ़ का था, दूसरा मधलिंग गढ़ का और तीसरा था कूर्मगढ़ का देवगढ़ पर दीप-स्तंभ था। यह उसकी विशेषता थी। इस दीप-मीनार के पास एक पतली ध्वज-डंडी मुश्किल से दीख पड़ती थी। समुद्र-किनारे खेलते-खेलते थक जाने के बाद दीप मीनार का जलता दीया सर्व प्रथम देखने की हमारे बीच होड़ लगती थी। कभी-कभी मन में यह विचार उठता था कि पानी के इसी विशाल पट पर से जब हम कारवार आये तब रात को स्टीमर में से देवगढ़ क्यों न देखा?

किसी स्टीमर के आने के वक्त देवगढ़ की ध्वज-डंडी पर लाल ध्वज चढ़ाया जाता था। उसे देखकर कारवार बंदरगाह के नजदीकी ध्वज-डंडी पर भी ध्वज चढ़ाया जाता था। यहां का आदमी दूरबीन लेकर देवगढ़ की ओर ताकता रहता था। वहां ध्वज दिखाई देने पर वह यहां भी ध्वज चढ़ाता था। कभी-कभी मैं दूर देवगढ़ पर चढ़ा हुआ ध्वज देख सकता था और भाई गोंदू को आश्चर्यचकित कर देता था।

एक दफा मैंने पिता जी से पूछा, “देवगढ़ पर दीया कौन जलाता है? ध्वज कौन फहराता है?” उन्होंने जबाव दिया, “वहां एक खास आदमी रखा गया है। शाम होते ही वह दिया जलाता है। दूर से आती हुई आगबोट को देखकर वह ध्वज चढ़ाता है। देवगढ़ का दीया देखकर नाविकों को पता चलता है कि कारवार का बंदरगाह आ गया। वे जानते हैं कि दीये के नीचे चट्टान है। इसलिए वे दीये के पास नहीं जाते।’

“दीप-मीनार की संभाल करने वाले मनुष्य के लिए खान की क्या सुविधा होगी? वह मीठा पानी कहां से लाता होगा?” मैंने सवाल किया।

“नाव में बैठकर खाने-पीने की सब चीजें वह कारवार ले जाता है। देवगढ़ पर शायद टांका या कुआं होगा, जिसमें बारिश का पानी जमा कर रखते होंगे।”

“क्या हम वहां नहीं जा सकते? चले, हम भी एक दफा वहां हो आयें। वहां हमेंशा रहने मे तो कैसा मजा आता होगा। शाम होते ही दीया जलाना; और आगबोट की सीटी बजती ध्वज चढ़ाना। बस, इतना ही काम? बाकी का सारा समय अपना! हम जिस तरह चाहें व्यतीत कर सकते हैं। न कोई हमसे मिलने आयेगा, न हम किसी से मिलने जायेंगे। चलें, एक दफा हम वहां हो आयें।”

पिताजी ने हमारे घर के मालिक रामजी सेठ तेली से पूछा। उन्होंने अपने जहाज के कप्तान से बातचीत की। और दूसरे ही दिन देवगढ़ जाना तय हुआ। हम सब गाड़ी में बैठकर बंदरगाह पर गये। बड़ी किश्ती में बैठने पर खूब मजा आया। पाल फैले और डोलते-डोलते हम चले। जहाज सुन्दर डोलता था, लेकिन जल्दी आगे बढ़ने का नाम न लेता था। बहुत समय लगा तो पिताजी ने रामजी सेठ ने कारण पूछा। रामजी सेठ ने कप्तान से पूछा। उसने कहा, “पवन अनुकूल नहीं है, टेढ़ा है। पवन की दिशा का ख्याल करके पाल चढ़ाये गये हैं। जहाज आगे बढ़ता है, लेकिन देवगढ़ पहुंचते-पहुंचते शाम हो जायेगी।” मुझे तो कोई आपत्ति न थी। सारा दिन डोलने का आनन्द मिलेगा और शाम होते ही दीप-मिनार का दीया नजदीक से देखने को मिलेगा। लेकिन इतनी अच्छी बात पिताजी के ध्यान में नहीं आयी। उन्होंने कहाः “यह तो ठीक नहीं है।” कप्तान ने कहा, “पवन प्रतिकूल है। इसके सामने हम क्या करें? थोड़ी दूर जाने के बाद यदि यहीं पवन जोर से बहने लगा तो इतना अंतर काटना भी मुश्किल है।” रामजी सेठ ने पिताजी से पूछा, “अब क्या करें?” पिताजी ने कहा, “और कोई उपाय ही नहीं है। वापस जायेंगे।”

हुक्म हुआ, “वापस चलो।” पालों की व्यस्था बदल दी गयी। किस तरह यह सब परिवर्तन किया जाता है, यह देखने में मैं मशगूल था। इतने में हमारा जहाज धक्के तक वापस आ पहुंचा। इतनी दूर जाने में एक घंटा लगा था। लेकिन वापस आने में पांच मिनट भी न लगे! घर लौटते वक्त सिर्फ तांगे के घोड़े ही जल्दी नहीं करते।

हम जैसे गये वैसे ही खाली हाथ लौट आये। फीके मुंह मैं घर आया, मानों अपनी फजीहत हुई हो। सहपाठियों से मैंने इतना भी न कहा कि हम देवगढ़ जाने को निकले थे।

इसके बाद करीब पांच साल तक मैं कारवार में रहा। लेकिन फिर कभी मैंने देवगढ़ जाने की कोशिश नहीं की। सूर्यास्त के समय देवगढ़ का दीया दिखने पर मैं अपने मन से यह सवाल पुछता था कि उस परी के देश में क्या होगा? चालीस वर्ष के बाद, यानी आज से दस वर्ष पहले फिर एक दफा मैं कारवार गया था लेकिन तब भी देवगढ़ नहीं जा सका।

इस बार यह निश्चय करके ही कारवार गया कि देवगढ़ देखे बिना नहीं लौटूंगा। वहां के मित्रों से मैंने कह दिया था कि देवगढ़ के लिए एक दिन जरूर रखें।

देवगढ़ में देखने लायक खास तो कुछ नही हैं। लेकिन छप्पन साल का बचपन का मेरा संकल्प देवगढ़ के साथ संलग्न था। उसको मुक्त करने की जरूरत थी।

देवगढ़ कारवार के किनारे से लगभग तीन मील दूर समुद्र में आया हुआ एक बेट है। कारवार बंदरगाह की यह सबसे बड़ी शोभा है। समुद्र की सतह से पहाड़ी की ऊंचाई 210 फुट है और उस पर की दीप-मीनार 72 फुट ऊंची है।

शराबबंदी के कारण कस्टम वालों को समुद्र का पहरा देना पड़ता है। उसके लिए उनके पास एक वाफर होती है। उसके द्वारा हमें ले जाने की व्यवस्था की गई थी। हमारा यह सैर का कार्यक्रम दूसरे कर्तव्य रूप कार्यक्रमों के आड़े न आवे इसलिए हम सुबह जल्दी उठे और बंदरगाह पर पहुंच गये। हम इतने अरसिक नहीं थे कि सुबह की प्रार्थना और जलपान घर पर करते। खलासी लोग जरा देर से आये, अतः घोड़े की तरह दौड़ती हुई हमारी वाफर के ताल के साथ चल रही हमारी प्रार्थना सुनने के लिए कारवार के पहाड़ के पीछे से सविता नारायण भी आ पहुंचे। सविता नारायण को जन्म देकर कृतार्थ प्राची कितनी खिल उठी थी! समुद्र का पानी भी प्राची की प्रसन्नता के कारण चमकती लहरों के साथ आया था। मैंने जमीन की ओर देखा। दाहिनी ओर कारवार का बंदरगाह छोटी-बड़ी नौकाओं को जगाता था और खेलाता था। उसके पास की घाटी के नारियल के पेड़ पवन की राह देखते खड़े थे। शनिवार की तोप, जो आजकल छूटती नहीं, ध्वजदंड पर से मुंह फाड़कर नाहक डराती थी। उसके बाद सरों के पेड़ कारवार की चौड़ाई को नापते हुए काली नदी तक फैले थे। जिस तरह भारतीय युद्ध के राजा विश्वरूप के मुंह में दौड़े, उसी तरह तीन-चार जहाज काली नदी के मुंह में घुस रहे थे और सदाशिव-गढ़ का पहाड़ सहज भ्रू-संकोच करके सारे प्रदेश की रक्षा करता था।

प्रार्थना पूरी होने पर हमारी वाफर ने समुद्र की पीठ पर जो रास्ता आंका था और उस पर जो डिजाइन शीघ्रता से अदृश्य हो रही थी उस ओर मेरा ध्यान गया; उस डिजाइन में मुक्तवेणी की हरेक खूबी प्रकट हुई थी।

आपको देवगढ़ दिखाये बगैर रहूंगा ही नहीं, ऐसा निश्चय करके व्यवस्था के सब ब्योरों की ओर सावधानी से ध्यान रखने वाले भाई पद्मनाथ कामत ने मुझे दक्षिण की ओर के पहाड़ की तराई के नीचे फैला हुआ चंद्रभागी किनारा दिखाया। किसी समय यूरोपियन स्त्रियां वहां नहाती होगीं। इसलिए उसका नाम Ladies beach (युवती-तट) पड़ा है।

गोवा की संस्कृति से ओत-प्रोत कवि बोरकर भी हमारे साथ सफर में आये थे। हमारे आनंद की वृद्धि करने के लिए भाई कामत अपने साथ चित्रकार श्री रमानंद को लाये थे। रमानंद ने पिता की और बड़े मेहमानों की सन्निधि में शोभा दे ऐसी नम्रता धारण करके ठीक-ठीक आत्म विलोपन किया था। लेकिन बीच समुद्र में आते ही पहाड़ बादल, सूरज पक्षी, जहाज के पाल और समुद्र की ऊर्मियां इन सबके प्रभाव के नीचे उनकी कलाधर आत्मा हमारी हस्ती का भान भूल गयी और वे अनेक दिनों के भूखे किसी खाऊ की तरह आसपास के काव्य का अनिमेष दृष्टि से भक्षण करने लगे। हमने अंगुलि-निर्देश करके उनकी ओर दूसरों का ध्यान खींचा लेकिन इससे उनका ध्यान नहीं बंटा। सिर्फ नन्हीं कुन्दा की चंचल आखें सब ओर घूमती थी।

हमारे कवि तो शास्त्रों भक्ति से हमारी प्रार्थना पूरी होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। प्रार्थना पूरी होते ही उन्होंने सागर की लहरी का एक खलासी गीत छेड़ा। गीत का प्रकार चाहे खलासी ढंग का हो, लेकिन अंदर के भाव खलासी हृदय के न थे। उस गीत के द्वारा भोले खलासी नहीं बोलते थे, बल्कि मस्ती में आये हुए कवि अपनी अभिजात भावना के फव्वारे छोड़ रहे थे। यह सच है कि उस दिन हमारी टोली में कोई स्व-स्थ (Sober) न था। हिन्दू स्कूल में आचार्य श्री कुलकर्णी भी आनंद में आ गये थे। चि. सरोज ने तो अपना स्थान छोड़कर बॉयलर के आगे खड़ा रहना पसंद किया था। अपने स्वभाव के प्रतिकूल जाकर उसने अग्रगामित्व स्वीकार किया था। यह देखकर मुझे आनंद हुआ। मैंने उसकों मंचर सरोवर में काव्य का पान किये हुए नारायण मलकानी की याद दिलाई। इतने संकेत से ही हम दोनों सारी वस्तुस्थिति मूल्यांकन कर सके!

समुद्र के पानी पर से आने-जाने के अनेक प्रकार हैं और हरेक प्रकार में अलग-अलग रस होता है। लहरों के थपेड़े खाते हुए बाहुबल से तैरते-तैरते दूर अंदर तक जाने में एक प्रकार का आनंद है। छाती के नीचे उछलती लहरों पर सवार होने का लुफ्त जिसने उठाया है वह कभी उसको भूल नहीं सकता। नदी के पानी की तरह समुद्र का पानी हमें डूबा देने के इंतजार में नहीं रहता। समुद्र का पानी किसी का भोग लेगा तो निरुपाय होकर ही। नहीं तो उसकी नीयत हमेशा तैराकों को तारने की ही रहती है।

संकरी और लम्बी नाव में बैठकर एक ही डांड से हरेक लहर के सामने चढ़-उतर करना एक दूसरा आनंद है। दो लहरों के बीच नाव टेढ़ी हो जाय तो मुसीबत में आ जायेंगे। इतना अगर संभाल लिया तो समुद्र के आनंद के साथ एकरूप होने के लिए इससे अधिक अच्छा साधन मिलना मुश्किल है।

बड़ी नाव में दो–दो को टुकड़ी में बैठकर बल्ले मारने का सांधिक आनंद का तीसरा प्रकार है। हम मौन धारण करके यह आनंद नहीं लूट सकते। ताल का नशा इतना मादक होता है कि उससे गायन अचूक फूट निकलता है।

वाफर में बैठने का आनंद इन तीनों से कुछ कम है। वह इसलिए कि उसको चलाने में मानव का बाहुबल बिलकुल खर्च नहीं होता। नियंत्रण-चक्र हाथ में पकड़ने वाले की भुजा को कसरत होती है। उतने ही पुरुषार्थ का अवकाश वाफर में मिलता है। लेकिन वाफर के द्वारा पानी को चीरते हुए जाने का आनंद सारे शरीर को मिलता है। वाफर जब सीधी-दौड़ती जाती है तब उसकी गति हमारी रग-रग में पहुंचती है। मोटर चलाने के आनंद से वाफर चलाने का आनंद अनेक गुना बढ़कर है।

इस आनंद को लूटते-लूटते और यह विचार करते-करते कि समुद्र का पानी यहां कितना गहरा होगा, हम देवगढ़ की ओर चले। मुझे एक विचार आया, जो पानी सबसे नीचे है वह ऊपर के पानी के भार से कुचल नहीं जाता होगा? ऊपर के पानी से नीचे का पानी अधिक गाढ़ा और घना होना ही चाहिए। अमुक मछलियाँ तो उस गाढ़े पानी को बींध कर नीचे उतर ही नहीं सकती होंगी। पारे के सरोवर में अगर हम पड़े तो लकड़ी के टुकड़े की तरह उसके ऊपर ही तैरते रहेंगे। अमुक प्रकार की, मछलियों का भी नीचे के गाढ़े पानी में यहीं हाल होता होगा।

ज्यों-ज्यों देवगढ़ का बेट नजदीक आता गया, त्यों-त्यों आसपास के छोटे-छोटे बेट और चट्टाने स्पष्ट दीखने लगीं। आकाश और समुद्र जहां मिलते हैं वह क्षितिज रेखा भी आज बहुत ही स्पष्ट थी। मानों कोई सूई से दिखा रहा है कि यहां पृथ्वी पूरी होती है और स्वर्ग शुरू होता है।

दो जहाज अपने पाल में पवन भरकर सफर को रवाना हुए थे। उन पालों के पेट में पवन के साथ उगते सूर्य की किरणें भी घुस गई थीं। ऐसा महसूस होता था कि इस भार से पाल फट जायेंगे। पाल इतने चमकते थे कि वे रेशम के हैं या हाथी-दांत के, यह तय करना मुश्किल था। जब पवन पाल में घुसता है तब केले के पान की डीजाइन उसमें अधिक शोभती है।

अब हम देवगढ़ के बिल्कुल नजदीक आ गये थे। सारी पहाड़ी टेकरी छोटे-बड़े पेड़ों से ढंकी हुई थी। ऊपर की दीप-मीनार अपना दर्जा संभालकर आकाश की ओर अंगुलि-निर्देश कर रही थी। अब वाफर के लिए आगे जाना असंभव था। बाकि का थोड़ा और छिछला अंतर काटने के लिए हमारी वाफर ने अपने साथ एक नन्हा-सा किंकर बांध लिया था। उस छोटी-सी नाव में हम उतरे और बेट के किनारे पहुंचे। उतरते ही पके बेर के लाल-लाल फलों ने हमारा स्वागत किया। हम ऊपर चढ़ते-चढ़ते बड़े-बड़े वृक्षों की शाखाएं तथा वरगद की जड़े निहारते-निहारते दीप-मीनार की तलहटी तक पुहंचे। दीप-मीनार के दीपकार एक भले मुसलमान थे। उन्होंने हमारा स्वागत किया। बेट पर दीप-मीनार के कारण कुछ लोग रहते थे। उनके कारण थोड़े बकरे और मुरगे भी रहते थे (और समय-समय पर बा-कायदा मरते भी थे)। समुद्र किनारे से उड़ते-उड़ते आकर यहां के पेडों पर आराम करने वाले और प्राकृतिक काव्य के फव्वारे छोड़ने वाले पक्षी तो ऋषि-मुनियों के जैसे ही पवित्र माने जाने चाहिए। वाफर में बैठकर हमने सुबह की आत्मा की उपासना की थी, यहां एक चट्टान पर बैठकर सबों ने पेट की उपासना की। आसपास की शोभा अघाकर देखने के बाद दीप-मीनार के पेट में होकर हम ऊपर गये।

समुद्र में भूत और भविष्य के लिए स्थान ही नहीं होता है। वहां वर्तमान काल और सनातन अनंतकाल, इन दोनों का ही साम्राज्य चलता है। जब तूफान होता है तब लगता है कि यही समुद्र का सच्चा और स्थायी रूप है और जब आज की तरह सर्वत्र शांति होती है तब लगता है कि तूफान तो माया है। सचमुच समुद्र का मुंह बुद्ध भगवान की शांति और उनके उपशम को व्यक्त करने के लिए ही सिरजा गया है।दीये में से ‘विश्वतो’ निकलती किरणों को खूबी से मोड़कर पानी के पृष्ठभाग क समानांतर उनका बड़ा प्रवाह दौड़ाने के लिए अनेक प्रकार के बिल्लोरी कांच से बनायी हुई दो ढालों को हमने सर्वप्रथम देखा। पेराबोला और हाईपरबोला के गणित का उसमें पूरा उपयोग किया जाता है। शंकुछेद का रहस्य जो जानता है वही इसका रहस्य समझ सकेगा। उसके बाद उस दीये का बुरका एक ओर खिसका कर हमने दूर तक सामुद्रीय शोभा निहारी और इतने से संतोष न पाकर हम दीये के आसपास की गैलरी में जाकर स्वतंत्रता से दसों दिशाएं देखने लगे।

जिस दृश्य को देखने की अभिलाषा मैं छप्पन साल से सेता आया था, वह दृश्य आज देखा। आंखों को पारण मिला। ऐसा लगता था मानों सारा बेट एक बड़ा जहाज है, दीप-मीना उसका मस्तूल (mast) है, और हम उस पर चढ़कर चारों ओर पहरा देने वाले खलासी हैं। यह सच है कि जहाज के मस्तूल की तरह यह दीप-मीनार डोलती न थी, लेकिन अभी-अभी वाफर का सफर किए हुए हमारे ‘पियक्कड’ दिमाग इस त्रुटि को दूर कर रहे थे।

इतनी ऊंचाई से चारों ओर देखने में एक अनोखा आनंद आता है। कुतुबमीनार पर से हिन्दुस्तान की अनेक राजधानियों का श्मशान देखने से मन में जो विषाद पैदा होता है सो यहां नहीं होता। यहां से दिखने वाले समुद्र में प्राचीन काल से आज तक अनेक जहाज डूब गये होंगे, लेकिन उसकी गमगीनी यहां के वातावरण में बिलकुल नहीं दीख पड़ती। समुद्र में भूत और भविष्य के लिए स्थान ही नहीं होता है। वहां वर्तमान काल और सनातन अनंतकाल, इन दोनों का ही साम्राज्य चलता है। जब तूफान होता है तब लगता है कि यही समुद्र का सच्चा और स्थायी रूप है और जब आज की तरह सर्वत्र शांति होती है तब लगता है कि तूफान तो माया है। सचमुच समुद्र का मुंह बुद्ध भगवान की शांति और उनके उपशम को व्यक्त करने के लिए ही सिरजा गया है।

इतने बड़े समुद्र को आशीर्वाद देने की शक्ति पितामह आकाश में ही हो सकती है। आकाश शांत चित्त से चारों ओर फैल गया था और समुद्र पर रक्षण का ढक्कन ढांकता था। ढक्कन पर कुछ भी डिजाइन न थी, यह पक्षियों से सहन न होता था। अतः वे उस पर तरह-तरह की रेखाएं खींचने का अस्थायी प्रयत्न करते थे। जिस तरह बच्चे किसी गंभीर आदमी को हंसाने के लिए उसके सामने डरते-डरते थोड़ी वानर-चेष्टाएं करके देखते हैं, उसी तरह –समुद्र का नीला रंग आकाश की नीलिमा को हंसाने का प्रयत्न कर रहा था।

भगवान का ऐसा विराट दर्शन होते ही भगवद्गीता का ग्यारहवां अध्याय याद आना चाहिये था, लेकिन इतने प्राचीन काल में जाने के पहले उत्तेजित चित्त ने आराम के लिए एक नजदीक का ही प्रसंग पसंद किया। बीस साल पहले मैं लंका के दक्खिनी छोर पर देवेन्द्र से भी आगे मातारा गया था, तब वहां की दीप-मीनार पर चढ़कर दोपहर की धूप में ऐसा ही, बल्कि इससे भी अनेक गुना विशाल, दृश्य देखा था। वहां नजर की त्रिज्या बनाकर मनुष्य जितना चाहे उतना बड़ा वर्तुल खींच सकता था। उस वर्तुल का दक्षिणार्ध हिन्द महासागर को दिया था और उत्तरार्ध नारियल के पत्तों की लहरे उछालते और दोपहर की धूप में चमकते वनसागर को अर्पण हुआ था। यहां देवगढ़ पर से पूर्व की ओर सूर्यनारायण के पादपीठ की तरह शोभायमान पर्वत दिखाई देता था। उसके नीचे फैला हुआ कारवार का समुद्र शांति से चमकता था। उस पर की नावों की डिजाइन बिलकुल हल्की-हल्की थी। और पश्चिम की ओर तो अरबस्तान की याद दिलाता एक अखंड महासागर ही था। यह दृश्य हृदय को ब्याकुल करने वाला था।

‘नमोSस्तु ते सर्वत एव सर्व’-इतने ही शब्द मुंह से निकल सके।

इस बीच हमारे लज्जाशील चित्रकार ने एक कोने में बैठकर पास की एक बड़ी चट्टान का और आसपास के समुद्र का एक चित्र खींचा। घर आते ही उन्होंने मुझे वह भेंट कर दिया। आज मेरी छप्पन साल की भूख तृप्त हुई थी। इस प्रसंग के स्मारक के तौर पर मैंने उसको प्रसन्नता से स्वीकार किया ।

दीप-मीनार का काव्य आखिर पूर्णता को पहुंचा।

मई, 1947

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