काका कालेलकर

काका कालेलकर
कन्याकुमारी की भव्यता
Posted on 18 Feb, 2011 04:43 PM
1970 के साल के अंतिम दिन थे सुबह तड़के उठकर, नहा-धोकर, प्रार्थना करके मदुराई से हम चल पड़े। विरुध नगर के पास साढ़े छः बजे सूर्योदय-पूर्व की शोभा देखी और साढ़े दस बजे हम कन्याकुमारी पहुंचे।
सूर्य-दर्शन
Posted on 18 Feb, 2011 04:39 PM
हमारे असंख्य पूर्वजों ने भारत भक्ति के लिए खास स्थान पसंद किये हैं और भारत दर्शन क्रम भी बांध दिया है। ‘चार धाम की यात्रा’ इस व्यवस्था का एक सर्वमान्य नमूना है। पश्चिम में द्वारका, उत्तर में बदरीनारायण अथवा अमरनाथ, पूर्व में जगन्नाथपुरी और दक्षिण में (शंकर आचार्य के भक्त कहेंगे श्रृंगेरी मेरे जैसा देवीभक्त कहेगा) कन्या कुमारी। इन चार धामों की यात्रा अगर की तो भारत के सारे प्रेक्षणीय पवित्र धाम उसक
पहाड़ी नदियों का सांस्कृतिक संदेश
Posted on 18 Feb, 2011 04:36 PM
मै पहाड़ी नदी-पुत्र हूं, इसलिए और संस्कृति-उपासक होने के कारण भी सारस्वत् हूं। आज हिमालय-कन्या कोसी, तीस्ता और अन्य अनेक पर्वती नदियों का दर्शन कर उत्तेजित हुआ हूं। नदियां यहां के मनुष्यों को, पशु-पक्षियों को और मत्स्यों को जीवन देती हैं, यह तो है ही, परन्तु यहां के निवासियों का जीवन बनाने में भी इन नदियों का हिस्सा सबसे ज्यादा है। राजा और राज्य आते हैं और जाते हैं उनके सैन्य और कानून राज्य चलाते
हिमालय की पार्वती नदियां
Posted on 18 Feb, 2011 01:56 PM
चन्द नदियां पहाड़ों से निलकती हैं और चन्द नदियां सरोवरों से बहने लगती हैं जो सरोवरों से जन्म लेती है, वे हैं सरोजा। हिमालसय के उस पार दो बहुत बड़े और अत्यन्त पवित्र सरोवर है। एक का नाम है मानस-सरोवर, दूसरे का राकसताल या रावण-ह्रद। इन सरोवरों से निकलने वाली नदियों को सरोजा ही कहना पड़ेगा। यों देखा जाय, तो हिमालय की सभी नदियों को पार्वती नाम दिया जा सकता है। नदियां यानी अप्सरा। पहाड़ों से अप् यानी ज
पर्वत और उनकी नदियां
Posted on 18 Feb, 2011 01:51 PM
(1) हिमालय पर्वत में से उद्गम पाने वाली नदियां- गंगा, सरस्वती, चंद्रभागा, (चिनाब), यमुना, शुतुद्री (सतलुज), वितस्ता (झेलम), इरावती (रावी), कुहू (काबूल), गोमती, धूतपापा (शारदा), बाहुदा (राप्ती), दृषद्वती (चितंग), विपाशा (बियास), देविका (दीग), सरयू (घाघरा), रंक्षू (रामगंगा), गंडकी (गंडक), कौशिकी (कोसी), त्रित्या और लोहित्या (ब्रह्मपुत्र)।
जोग का प्रपात
Posted on 23 Oct, 2010 02:17 PM
हिन्दुस्तान की बड़ी से बड़ी सोने की खानें मैसूर में ही है। भद्रावती के लोहे के कल-कारखाने की कीर्ति बढ़ती ही जा रही है। और कृष्णसागर तालाब तो मानव-पराक्रम का एक सुन्दर नमूना है। यह तो हो ही नहीं सकता कि ऐसे मैसूर राज्य को गिरसप्पा के प्रपात को भुनाकर खाने की बात सूझी न हो। किन्तु अब तक यह बात अमल में नहीं आयी-इतनी बड़ी शक्ति का कौन सा उपयोग किया जायठेठ बचपन में जब मैं पश्चिम समुद्र के किनारे कारवार में था तब से ही, गिर सप्पा के बारे में मैंने सुना था। उस समय सुना था कि कावेरी नदी पहाड़ पर से नीचे गिरती है और उसकी इतनी बड़ी आवाज होती है कि दो मील की दूरी पर एक के ऊपर एक रखी हुई गागरें हवा के धक्के से ही गिर जाती हैं! तब फिर उस प्रपात की आवाज तो कहां तक पहुंचती होगी? बाद में जब भूगोल पढ़ने लगा तब मन में संदेह पैदा हुआ कि कावेरी का उद्गम तो ठेठ कुर्ग में है और वह पूर्व-समुद्र से जा मिलती है। वह पश्चिम घाट के पहाड़ पर से नीचे गिर ही नहीं सकती। तब गिरसप्पा में जो गिरती है वह नदी दूसरी ही होगी। उसे तो शीघ्रता से होन्नावर के पास ही पश्चिम समुद्र से मिलना था। इसलिए सवा-सौ, डेढ़-सौ पुरुष जितनी ऊंचाई से वह कूद पड़ी है। उस नदी का नाम क्या होगा?

नेल्लूर की पिनाकिनी
Posted on 23 Oct, 2010 09:20 AM
कितना शीतल उसका दर्शन था! गेहूं के रवे के जैसी सफेद रेत पर स्फटिक जैसा पानी बहता हो, और ऊपर से चंड भास्कर की प्रतापी किरणे बरसती हों, ऐसी शोभा का वर्णन कैसे हो सकता है? मानो चांदी के रस की कोठी भट्टी का ताप सहन न कर सकने के कारण टूट गयी है नेल्लूर यानी धान का गांव। दक्षिण भारत के इतिहास में नेल्लूर ने अपना नाम चिरस्थायी कर दिया है। बेजवाड़े से मद्रास जाते हुए रास्ते में नेल्लूर आता है।

भारत सेवक समाज के स्व. हणमंतरावने नेल्लूर से कुछ आगे पल्लीपाडु नामक गांव में एक आश्रम की स्थापना की है। उसे देखने के लिए जाते समय सुभग-सलिला पिनाकिनी के दर्शन हुए। श्रीमती कनकम्पा के पवित्र हाथों से काटे हुए सूत की धोती की भेंट स्वीकार करके हम आश्रम देखने के लिए चले। कुछ दूर तक तो बगीचे ही बगीचे नजर आये। जहां-तहां नहरों में पानी दौड़ता था, और हरियाली-ही-हरियाली हंसती दिखाई देती थी।

वेदों की धात्री तुंगभद्रा
Posted on 22 Oct, 2010 01:30 PM
सभी नदी-भक्तों ने स्वीकार किया है कि गंगा का स्नान और तुंगा का पान मनुष्य को मोक्ष के रास्ते ले जाता है। मोटर की यात्रा यदि न होती तो तुंगभद्रा को मैं अनेक स्थानों पर अनेक तरह से देख लेता। तुंगभद्रा एक महान संस्कृति की प्रतिनिधि है। आज भी वेदपाठी लोगों में तुंगभद्रा के किनारे बसे हुए ब्राह्मणों के उच्चारण आदर्श और प्रमाणभूत माने जाते हैं।जलमग्न पृथ्वी को अपने शूलदंत से बाहर निकालने वाले वराह भगवान ने जिस पर्वत पर अपनी थकान दूर करने के लिए आराम किया, उस पर्वत का नाम वराह पर्वत ही हो सकता है। भगवान आराम करते थे तब उनके दोनों दंतों से पानी टपकने लगा और उसकी धाराएं पैदा हुईं। बांये दंत की धाराएं हुई तुंगा नदी और दाहिने दंत से निकली भद्रा नदी। आज इस उद्गम स्थान को कहते हैं। गंगामूल और वराह पर्वत को कहते हैं बाबाबुदान। बाबाबुदान शायद वराह-पर्वत नहीं है, लेकिन उसका पड़ोसी है। तुंगा के किनारे शंकराचार्य का शृंगेरी मठ है। मैंने तुंगा के दर्शन किये थे। तीर्थहल्ली में। (कन्नड़ भाषा में हल्ली के माने हैं ग्राम।) तीर्थहल्ली में मैं शायद एक घंटे जितना ही ठहरा था। लेकिन वहां की नदी के पात्र की शोभा देखकर खुश हुआ था।
गोदावरी : दक्षिण की गंगा
Posted on 22 Oct, 2010 10:19 AM
जिस प्रकार तेरे किनारे रामचंद्र ने दुष्ट रावण के नाश का संकल्प किया था, वैसा ही संकल्प मैं कब से अपने मन में लिए हुए हूं। तेरी कृपा होगी तो हृदय में से तथा देश में से रावण का राज्य मिट जायेगा, रामराज्य की स्थापना होते मैं देखूंगा और फिर तेरे दर्शन के लिए आऊंगा। और कुछ नहीं तो कांस की कलगी के स्थावर प्रवाह की तरह मुझे उन्मत बना दे, जिससे बिना संकोच के एक-ध्यान होकर मैं माता की सेवा में रत रह सकूं और बाकी सब कुछ भूल जाऊं। तेरे नीर में अमोघ शक्ति है। तेरे नीर के एक बिंदु का सेवन भी व्यर्थ नहीं जायेगा। बचपन में सुबह उठकर हम भूपाली गाते थे। उनमें से ये चार पंक्तियां अब भी स्मृतिपट पर अंकित हैं:

‘उठोनियां प्रातःकाळीं। वदनीं वदा चंद्रामौळी।
श्री बिंदुमाधवाजवळी। स्नान करा गंगेचें। स्नान करा गोदेचें।।’

कृष्णा वेण्ण्या तुंगभद्रा। सरयू कालिंदी नर्मदा।
भीमा भामा गोदा। करा स्नान गंगेचें।।


गंगा और गोदा एक ही हैं दोनों के माहात्म्य में जरा भी फर्क नहीं है। फर्क कोई हो भी तो इतना ही कि कालिकाल के पाप के कारण गंगा का माहात्म्य किसी समय कम हो सकता है, किन्तु गोदावरी का माहात्म्य कभी कम हो ही नहीं सकता। श्री रामचंद्र के अत्यंत सुख के दिन इस गोदावरी के तीर पर ही बीते थे, और जीवन का दारुण आघात भी उन्हें यहीं सहना पड़ा था। गोदावरी तो दक्षिणी की गंगा है।

जीवनतीर्थ हरिद्वार
Posted on 21 Oct, 2010 10:35 AM
हरिकी पैंड़ी के आसपास बनारस की शोभा का सौवां हिस्सा भी आपको नहीं मिलेगा। फिर भी यहां पर प्रकृति और मनुष्य ने एक-दूसरे के बैरी न होते हुए गंगा की शोभा बढ़ाने का काम सहयोग से किया है।त्रिपथगा गंगा के तीन अवतार हैं। गंगोत्री या गोमुख से लेकर हरिद्वार तक की गंगा उसका प्रथम अवतार है। हरिद्वार से लेकर प्रयागराज तक की गंगा उसका दूसरा अवतार है प्रथम अवतार में वह पहाड़ के बंधन से-शिवजी की जटाओं से-मुक्त होने के लिए प्रयत्न करती है। दूसरे अवतार में वह अपनी बहन यमुना से मिलने के लिए आतुर है। प्रयागराज से गंगा यमुना से मिलकर अपने बड़े प्रवाह के साथ सरित्पति सागर में विलीन होने की चाह रखती है। यह है उसका तीसरा अवतार। गंगोत्री, हरिद्वार, प्रयाग और गंगासागर, गंगापुत्र आर्यों के लिए चार बड़े से बड़े तीर्थस्थान हैं। जितना ऊपर चढ़े उतना तीर्थ का माहात्म्य अधिक, ऐसा माना जाता है।
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