3 दिसम्बर 1984 की रात भोपाल के एक कीटनाशक बनाने वाले संयंत्र से अचानक घातक मिथाइल आइसो सायनेट गैस रिसने लगी। यूनियन कार्बाइड के इस हादसे ने लगभग 3000 लोगों की जान ले ली और सैकड़ों हज़ार लोगों को बीमार कर दिया। लगभग इसी समय अमरीका के पश्चिमी वर्जीनिया में भी कुछ ऐसी ही दुर्घटनाएं हुई। इन और इन जैसी तमाम दुर्घटनाओं ने कीटनाशकों के इस्तेमाल से जुड़े खतरों की ओर जनता का ध्यान खींचा। साथ ही जन स्वास्थ्य और कृषि में रसायनों के उपयोग बाबत लोगों के सूचना के अधिकार की जरूरत को रेखांकित किया।
कीटनाशक को किसी ऐसे तत्व या तत्वों के मिश्रण के रूप में परिभाषित किया जाता है जो किसी भी तरह के कीटों को नष्ट करता है या उससे बचाता है या उस पर नियंत्रण रखता है। ये कीट मनुष्य या जानवरों में बीमारियों के वाहक भी हो सकते हैं और पौधों और पशुओं की अवांछित प्रजातियां (खरपतवार) भी। इनमें प्रयुक्त पदार्थों में फसल की वृद्धि का नियमन करने, अविकसित फलों को गिरने से रोकने, फलों का सूखना रोकने, पत्तों का झड़ना रोकने और फसलों के संरक्षण में सहायक तत्व होते हैं।
कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग विभिन्न स्वास्थ्य और पर्यावरणीय समस्याओं को जन्म दे सकता है। खतरनाक कीटनाशकों के असुरक्षित रख-रखाव व इसके दुरुपयोग से छिड़काव करने वाले किसानों और खेतिहर मजदूरों पर विषैले प्रभाव पड़ सकते हैं। लम्बे समय तक इनके सम्पर्क में रहने से हृदय और फेफड़े सम्बंधी, तंत्रिका तंत्र, त्वचा रोग एवं भ्रूण विकृति, गर्भपात, शुक्राणुओं की संख्या घटना आदि जैसे स्थाई रोग हो सकते हैं। फिलीपीन्स में 1980 से 87 के बीच कीटनाशकों के तीव्र विषाक्त प्रभाव के 4031 मामले सामने आए। मानव स्वास्थ्य के अतिरिक्त कीटनाशक गंभीर इकॉलॉजिकल नुकसान (जैसे मछलियों, वन्य जीवन और पक्षियों पर प्रभाव, भूमिगत जल एवं वेटलैण्ड्स या नमभूमि के नाजुक पर्यावरण के प्रदूषण आदि) का कारण भी बन सकते हैं।
इस नुकसान को कम करने के लिए ऐसी नीतियां बनानी चाहिए जो खतरनाक रसायनों को प्रतिबंधित करती हैं या उनके सीमित उपयोग पर जोर देती हैं। भारत में जन स्वास्थ्य और कृषि में रसायनों का उपयोग कितना विस्तृत है? कीटनाशकों के मानव पर खतरे किस हद तक बढ़ गए हैं? इन्हें प्रतिबंधित या सीमित करने को कैसे उचित ठहराया जा सकता है? यहां हम रसायनों के समग्र उपयोग पर एक नजर डालते हुए कृषि में इनके उपयोग तथा मानवीय स्वास्थ्य पर इसके संभावित खतरों या दुष्परिणामों का आकलन करेंगे। हम स्वास्थ्य पर दुष्प्रभावों को कम करने के लिए कीटनाशकों पर अस्थाई प्रतिबंध लगाए जाने की अनापेक्षित नीतियों पर भी सवाल उठाते हैं।
भारत में पहली बार कीटनाशक का प्रयोग मलेरिया नियंत्रण के लिए आयातित डी.डी.टी. के रूप में किया गया था। इसके बाद 1948 में टिड्डी नियंत्रण के लिए बी.एच.सी. का उपयोग हुआ। अधिकांश कटिबन्धीय देशों में डी.डी.टी. का उपयोग वाहकों द्वारा फैलाई जाने वाली मलेरिया जैसी बीमारियों के नियंत्रण में होता है। वहीं बी. एच.सी. कृषि उत्पादन में एक सस्ते कीटनाशी के रूप में प्रयुक्त होती है। बाद में हम मलेरिया नियंत्रण को केन्द्र में रख भारत में जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में कीटनाशकों के इस्तेमाल की पड़ताल करेंगे।
कीटनाशकों का उपयोग
भारतीय कृषि में कीटनाशकों का प्रयोग विभिन्न फसलों में होता है। इनमें चावल, गेहूं, मक्का, ज्वार, दलहन, तिलहन, सब्ज़ियां, तंबाकू, कपास और रोपणियां शामिल हैं। कृषि क्षेत्र 1970-71 के 1 करोड़ 60 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 1994-95 में 2 करोड़ हेक्टेयर हो गया है, जबकि इसी दौरान कीटनाशकों का प्रयोग 24.3 हजार टन से बढ़कर 90 हजार टन हो गया। 1990-91 में कीटनाशकों का ग्राम प्रति हेक्टेयर प्रयोग 1970-71 से दुगुने से भी अधिक हो गया है। 1985 में भारत विश्व का नवां सबसे ज़्यादा कीटनाशक प्रयोग करने वाला देश था।
भारत के सभी राज्यों में कीटनाशकों का इस्तेमाल एक समान नहीं होता। यह रोपित जमीन और कृषि जलवायु पर निर्भर करता है। आंध्रप्रदेश, उत्तरप्रदेश, तमिलनाडु, पंजाब और महाराष्ट्र कीटनाशकों के प्रयोग के हिसाब से (इसी क्रम में) शीर्ष राज्य हैं। हालांकि यहां प्रति हेक्टेयर छिड़काव में काफी विविधता देखी गई है। यहां कीटनाशकों का प्रयोग विश्व के कुछ विकसित देशों के बराबर होता है। 1993 में तमिलनाडु में 1467. आंध्रप्रदेश में 1162, पंजाब में 826, उत्तरप्रदेश में 430 तथा महाराष्ट्र में 313 ग्राम प्रति हेक्टेयर कीटनाशक का प्रयोग होता था। परन्तु संपूर्ण भारत में यह औसतन 29.1 ग्राम प्रति हेक्टेयर था। भारत में कीटनाशकों का फसलवार उपयोग भी एक समान नहीं है। यह रोपित क्षेत्र, कृषि जलवायु परिस्थितियों और बाज़ार से जुड़े अन्य कारकों से प्रभावित होता है। अकेले चावल और कपास ही कुल कीटनाशकों के पचास फीसदी से अधिक का उपभोग करते हैं।
कीटनाशकों को उनके प्रकार और उपयोग के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है, जैसे कृमिनाशक, फफूंदनाशक, खरपतवारनाशक और अन्य कीटनाशक। तालिका । भारत में कीटनाशकों में सर्वाधिक प्रयोग कृमिनाशकों का होता है। इसका उपयोग बीमारी लगने के पहले (बचाव हेतु) और बीमारी लगने के बाद (आक्रमण के स्तर और उससे हो सकने वाली क्षति के अनुसार), दोनों तरह से होता है। कृमिनाशक में क्लोरोहाइड्रोकार्बन (जैसे डी.डी.टी. बी.एच.सी., क्लोरोडेन), कार्बनिक फॉस्फोरस और कार्बोमेट्स आदि आते हैं। डी.डी.टी., बी.एच.सी. और हेप्टाक्लोर जैसे कुछ रसायन प्रतिबंधित हैं या चलन से बाहर हैं। कृमिनाशकों की तुलना में फफूंदनाशकों का प्रयोग बहुत कम होता है।
फफूंदनाशकों का प्रयोग मुख्यतः पौधे के स्वास्थ्य और फलों की गुणवत्ता व आकार आदि पर विपरीत प्रभाव डालने वाली बीमारियों से बचाने के लिए किया जाता है। इसमें धात्विक रसायन (कॉपर ऑक्सीक्लोराइड), अधात्विक एजेण्ट (सल्फर व लाइमसल्फर) और थियो और डाईथियो कार्बमेट्स शामिल हैं। अधिकांश किसान फल और सब्ज़ियों जैसी कीमती फसलों के पूर्ण संरक्षण के लिए फफूंदनाशकों का अत्यधिक उपयोग करते हैं। दरअसल फलों के आकार-प्रकार के हिसाब से उपभोक्ता और डिब्बाबन्द खाद्य पदार्थों के निर्माता उनकी कीमत आंकते हैं। पादप नाशक फसल के साथ उग आए उन खरपतवार का सफाया कर देते हैं जो फसल के हिस्से से पानी, पोषण आदि चुराकर पैदावार कम कर देते हैं। खरपतवार-नाशक कीटनाशकों का एक बहुत छोटा वर्ग हैं। इनमें 2,4-डी, 2,4,5-टी यूरिया यौगिक आदि शामिल है
'कृषि क्षेत्र 1970-71 के 1 करोड़ 60 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 1994-95 में 2 करोड़ हेक्टेयर हो गया है, जबकि इसी दौरान कीटनाशकों का प्रयोग 24.3 हज़ार टन से बढ़कर 90 हज़ार टन हो गया। 1990- 91 में कीटनाशकों का ग्राम प्रति हेक्टेयर प्रयोग 1970-71 से दुगुने से भी अधिक हो गया है।'
पिछले कई वर्षों से मिट्टी के कीटों का नाश करने वाले, वृद्धिकारक, फसल सुखाने और पैदावार में सहायक कीटनाशकों का प्रयोग लगातार बढ़ रहा है। आम तौर पर इनका प्रयोग कम मात्रा में होता है ताकि पौधे के शाखा तंत्र पर प्रभाव डाला जा सके, फसल के विकास और पकने के समय को नियंत्रित किया जा सके, मशीनी कटाई में सहायक हो, कटाई से पहले पत्ते गिराने और पैदावार बढ़ाने की दृष्टि से पौधों के अन्य क्रियाकलापों में हेरफेर किया जा सके। आम तौर पर फफूंदनाशकों का बड़ी मात्रा में उपयोग कन्द की उन फसलों में होता है जहां मिट्टी के कृमियों से क्षतिग्रस्त हो सकने का डर हो।
कीटनाशकों का प्रयोग कीटों, परजीवियों और लार्वा इत्यादि द्वारा फैलाई जाने वाली कुछ बीमारियों से बचाने के लिए जन स्वास्थ्य सेवाओं में भी होता है। जल सतह, गंदगी, नालों और दलदल पर कीटनाशकों का छिड़काव जन स्वास्थ्य में कीटनाशकों के प्रयोग की सामान्य विधि है। घरों, होटलों जैसी व्यावसायिक जगहों पर भी इसी उद्देश्य से कीटनाशकों का प्रयोग बड़े पैमाने पर होता है 1994-95 में भारत में उपयोग किए गए कुल कीटनाशकों के पांच प्रतिशत का प्रयोग सार्वजनिक स्वास्थ्य हेतु किया गया था। भारत में मलेरिया नियंत्रण के लिए कीटनाशकों का प्रयोग सार्वजनिक स्वास्थ्य में होने वाले कीटनाशको के कुल प्रयोग में सर्वाधिक है। 1958 में प्रारम्भ हुआ रा मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम (NMEP) किसी एक बीम के खिलाफ विश्व का सबसे बड़ा कार्यक्रम है और अभी भी देश का सबसे व्यापक और बहुमुखी स्वास्थय कार्यक्रम है। मलेरिया के वाहक मच्छरों को नियंत्रित करने के लिए विभिन्न रसायन जैसे डी. डी. टी. बी.एच.- डाइएल्ड्रिन, मलैथिऑन, पैरीमिफॉस मिथाईल, बॅडियोट और अन्य कई पायरीथिऑड्स का प्रयोग होता मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम का उद्देश्य ऐसे लार्वाना और कृमिनाशक के व्यापक प्रयोग के जरिए मलेरिया परजीवी पर नियंत्रण पाना है जिनकी वातावरण में लम्बे समय तक बने रहने की सम्भावना ज़्यादा हो। इस लिए डी.डी.टी., बी.एच.सी. और मलैथिऑन NMEP के कीटनाशक हैं। हाल के कुछ वर्षों से कृषि और वाहाक नियंत्रण में बी.एच.सी. के उपयोग पर प्रतिबंध को देन हुए NMEP में बी.एच.सी. का प्रयोग बन्द है। NMEE क्रियान्वयन के कारण 1956 के 7.5 करोड़ वार्षिक मलेरिया प्रकरणों की संख्या 1995 में घटकर 1 लाख रह गई। हालांकि नियमित छिड़काव के बावजूद मलेरिया के प्रकरणों की संख्या में कमी होने के बजाए वह एक स्तर पर बनी हुई है। कारण है परजीवी का रसायन प्रति प्रतिरोधी होना। इससे मलेरिया नियंत्रण में कठिनाई आ रही है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य और कृषि में कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से मानव आबादी पर इसके विषैले प्रभाव हुए हैं। दूसरी तरफ अधिकांश घातक रसायन लम्बे समय तक क्रियाशील रहते हैं जिससे इनके सम्पर्क में आने वाली अलक्षित प्रजातियों पर कुप्रभाव के आसार बढ़ते हैं।
तालिका 1: भारत में कीटनाशकों की खपत (प्रतिशत में )
कीटनाशकों के प्रभाव
कीटनाशकों के उपयोग से जुड़े खतरे जीवजगत पर लम्बी अवधि के तथा तीव्र विषाक्त प्रभाव के रूप में नजर आने लगे हैं। कीटनाशकों के लगातार या लम्बे समय तक सम्पर्क में रहने के कारण समूची आबादी पर इसके दीर्घावधि प्रभाव पड़ते हैं जबकि कीटनाशकों का निर्माण करने, व्यापार या प्रयोग करने वाले इसके एकदम सम्पर्क या थोड़े समय तक सम्पर्क में आते हैं। इससे उन पर कीटनाशकों के कम अवधि के प्रभाव दिखते हैं।
विविध खाद्यान्नों पर ऑर्गेनो-क्लोराइड और ऑर्गेनोफॉस्फेट कीटनाशकों के अंश का निरीक्षण किया गया है। वैश्विक पर्यावरणीय निरीक्षण तंत्र का खाद्य कार्यक्रम भोजन तथा मानव दूध में कीटनाशकों के अंश के वैश्विक आंकड़े 1996 से जुटा रहा है। तालिका 2 में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा विश्व के कुछ देशों में माता के दूध में डी.डी.टी. बी.एच.सी. और पी.सी.बी. के सभी रूपों (आयसोमर) की मात्रा का पैमाना दर्शाया गया है।
इसके अलावा धान, गेहूं, मक्का जैसे अन्य खाद्य पदार्थों और केला, फूलगोभी और गन्ना जैसे फलों और वनस्पतियों में भी रसायनों की जांच हो रही है। खाद्य पदार्थों में कीटनाशकों के अंश की उपस्थिति स्वास्थ्य पर गम्भीर प्रभाव छोड़ सकते हैं। यह खतरा खाद्य पदार्थ ग्रहण करने की आवृत्ति पर निर्भर करता है। भोजन व कृषि संगठन (एफ.ए.ओ.)/विश्व स्वास्थ्य संगठन विभिन्न देशों में समय-समय पर भोजन में विषाक्त पदार्थों की उपस्थिति सम्बंधी अध्ययन कर विभिन्न खाद्य पदार्थों में रसायनों की निगरानी करता है और उसके उच्चतम मानक स्तर की अनुशंसा करता है।
स्वास्थ्य पर उपरोक्त जोखिमों के अलावा कीटनाशक पर्यावरण विनाश भी करता है। कीटनाशकों के पर्यावरणीय कुप्रभावों में एक कृषि भूमि का प्रदूषण भी है। धीमी गति से क्षय होने के कारण आर्गेनोक्लोरिक कीटनाशक ऑर्गेनोफॉस्फेट की तुलना में जमीन में अधिक समय तक रहते हैं। प्रचुर कार्बनिक भूमि की रसायन ग्रहण क्षमता सर्वाधिक होती है और रेतीली भूमि की सबसे कम। भूमिगत जल में रसायन के रिसन की संभावना एक प्रतिशत होती है और यह मिट्टी के प्रकार और भूजल के स्तर पर निर्भर करता है। इस तरह मिट्टी के रासायनिक अंशों से प्रदूषित भूमिगत जल फसल की बढ़ोतरी में योगदान देने वाले सूक्ष्मजीवों को नष्ट कर सकते हैं। ये सुरक्षित पेयजल के स्रोतों को भी खतरा पहुंचा सकते हैं।
जन भागीदारी
कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग के चलते मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण पर मण्डराते अत्यन्त गम्भीर खतरे ने इनके प्रयोग के खिलाफ लोगों का ध्यान खींचा है और 1968 में भारतीय इन्सैक्टिसाइड एक्ट अस्तित्व में आया।
तालिका 2: मानव दूध में कीटनाशक अंश की अधिकता
सरकार ही नहीं बल्कि न्यायालय भी कुछ रसायनों के प्रयोग के विरुद्ध कठोर कार्यवाही किए जाने के पक्ष में है। कुछ वर्ष पहले कृषि हेतु कई रसायनों का प्रयोग प्रतिबंधित किया गया था। कुछ रसायनों का भी प्रचलन बन्द हो गया है। कुछ रसायनों के घातक प्रभाव के विरुद्ध किए आंदोलनों ने भी इन रसायनों के उपयोग की समीक्षा करवाई है। डी.डी.टी. के बाद बी.एच.सी., एल्डरिन व अन्य रसायनों के कृषि में प्रयोग को प्रतिबंधित कर दिया गया है। 20 से ज़्यादा रसायनों पर कृषि में उपयोग पर पाबंदी लगाई जा चुकी है और कुछ रसायनों के निर्माण के लाइसेंस को भी रद्द किया जा चुका है। तालिका 3
तालिका 3: भारत में कीटनाशकों के उपयोग के खिलाफ उठाए गए नसीतिगत कदम
भारत में कृषि के परिप्रेक्ष्य में कुछ रसायनों की स्थिति दर्शाती है। यह तालिका कुछ रसायनों के लिए विश्लेषण के आधार पर की गई लेखक की सिफारिशें भी दर्शाती है। देखा जा सकता है कि जिन रसायनों पर सीमित या पूर्ण प्रतिबंध लगाया गया है उनसे स्वास्थ्य को कम या मध्यम खतरा है। ऐसे कम नुकसानदेह रसायन स्वास्थ्य पर कोई ज्यादा कुप्रभाव नहीं छोड़ते। सुझाया गया है कि कुछ रसायनों पर उच्च प्राथमिकता से प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।
सिंचाई में बढ़ोतरी, उच्च मशीनीकरण और अधिक उपज वाली नई किस्मों के कारण कृषि में हुए तीव्र विस्तार ने रसायनों के प्रयोग को बढ़ावा दिया है। कीटनाशकों के उपयोग में आई लागत के बरअक्स इनके उपयोग से मिलने वाले फायदे वहां अधिक लगते हैं जहां कीटनाशकों के लिए सब्सिडी दी जाती है। यह सहायता किसानों को छिड़काव के दौरान बरती जाने वाली सावधानियों की और कीटनाशक की सीमांत मात्रा की अवहेलना करने हेतु प्रेरित करती है। इसका नतीजा अत्यधिक कीटनाशकों के प्रयोग के रूप में दिखाई दे सकता है। इसी तरह तेजी से बढ़ती शहरी आबादी के हिसाब से अपर्याप्त निकासी और सीवर तंत्र से संक्रामक रोगों के वाहक बढ़ रहे हैं जिसका नतीजा सार्वजनिक स्वास्थ्य के हित में रसायनों के अत्यधिक उपयोग के रूप में नजर आ रहा है।
कीटनाशकों के न्यूनतम उपयोग के लिए एक बेहतर कृषि व्यवहार की आवश्यकता है ताकि स्वास्थ्य और पर्यावरण का कम से कम नुकसान हो। कुछ रसायनों पर तत्काल प्रतिबंध लगाए जाने की जरूरत है। इकॉलॉजी पर खतरा बने कुछ रसायनों के उत्पादन और प्रयोग में कमी के प्रयास कानूनी नीति के विश्लेषण की मांग करते हैं: यानी किन्हीं रसायनों को प्रतिबंधित करने की कीमत और उसे इस्तेमाल करते जाने के नुकसान को जानना होगा। कुछ रसायनों को प्रतिबंधित करने का खासा प्रभाव कीटनाशकों के उत्पादकों के साथ-साथ किसानों पर भी पड़ेगा। किसानों को अब या तो नए और महंगे विकल्प खोजने होंगे या फिर फसल को कीटों का कहर बनने देना होगा। एक व्यापक कार्ययोजना के तहत कीट नियंत्रण के विकल्प के बतौर संयुक्त कीट प्रबंधन जैसे कीट नियंत्रण के जैविक तरीकों को प्रस्तुत किया जा सकता है। साथ ही कीटनाशकों के अन्य गैर रासायनिक विकल्प जैसे खेतों में खरपतवार के सफाए हेतु जुताई आदि जैसे उपाय आज़माना भी आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)
स्रोत:- दीनबन्धु बाग का लेख इकोनॉमिक एण्ड पॉलिटिकल वीकली पत्रिका से लिया गया है ,जनवरी 2001
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