गंगा जल में मानसून से पहले शैवालों का आना गंगा की पारिस्थितिकी में खतरनाक बदलाव का संकेत दे रहे हैं। बीएचयू के इंस्टीट्यूट ऑफ एनवायरनमेंट ऐंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट (आईईएसडी) के वैज्ञानिकों के शोध में कई तथ्य उजागर हुए हैं। ऐसे जल में स्नान से न सिर्फ कई रोग होते हैं बल्कि दुर्लभ परिस्थितियों में मौत भी हो सकती है।Kesar Singh posted 4 months 3 weeks ago
2019 में शुरू हुए केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी योजना 'हर घर नल जल' ने इस समस्या को काफी हद तक कम कर दिया है। जल शक्ति मंत्रालय की वेबसाइट के अनुसार इस योजना के जरिए देश के 19 करोड़ से अधिक घरों में से लगभग 15 करोड़ घरों में नल के कनेक्शन लगाए जा चुके हैं। जो कुल घरों की संख्या का 77.10 प्रतिशत है। पीने के पानी की उपलब्धता के मायने में जलजीवन मिशन अभी कई पड़ाव पार करने हैं। Kesar Singh posted 4 months 3 weeks ago
इटावा जिले के उदी स्थित केंद्रीय जल आयोग के स्थल प्रभारी मनीष जैन बताते है कि इस माह चंबल नदी का जलस्तर 105.30 मीटर चल रहा है,एक सप्ताह से इसी अनुरूप जलस्तर टिका हुआ नजर आ रहा है जब की पिछले दस साल पहले इन दिनों जलस्तर 107.08 मीटर तक इन दिनों रिकॉर्ड किया गया था। चंबल नदी में भयानक रूप से गिर रहा जलस्तर जलीय जीवन के लिए काफी खतरनाक है, जानिए कैसेKesar Singh posted 4 months 3 weeks ago
हाल ही में विश्व जल दिवस 22 मार्च के अवसर पर, केन-बेतवा नदी इंटरलिंकिंग परियोजना को लागू करने के लिए उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सरकारों ने केंन्द्रीय जलशक्ति मंत्रालय के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य नदियों के बीच के क्षेत्र के माध्यम से अधिशेष क्षेत्रों से सूखाग्रस्त क्षेत्रों और जल-दुर्लभ क्षेत्रों तक पानी पहुंचाना है। इस प्रकार नदी जोड़ने की आजाद भारत की पहली बड़ी परियोजना की शुरुआत को हरी झंडी मिल गई है।Kesar Singh posted 5 months ago
किसी भी राष्ट्र की सामाजिक, आर्थिक समृद्धि के लिये घरेलू उपयोग के समान ही स्वच्छ जल जरूरी होता है, तभी उसका समुचित लाभ मिल पाता है। जहां तक उत्तराखण्ड राज्य की बात है, यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि एक समय था जब यहां अनेक प्राकृतिक जल स्रोत उपलब्ध थे, नदियां, गाड़-गधेरे, घारे, कुंए, नौले, झरने चाल-खाल, झील, ताल आदि बहुतायत से उपलब्ध थे, इन प्राकृतिक जल संसाधनों की अधिकता एवं बहुत बड़े भू-भाग में फैले सघन वन क्षेत्र को मध्यनजर रखते हुये लकड़ी और पानी की कमी की कल्पना तक भी नहीं की जाती थी, तभी तो गढ़वाली जनमानस में एक लोकोक्ति प्रचलित वी कि- "हौर घाणि का त गरीव हूह्वया-ह्ह्वया पर लाखडु-पाणि का भि गरीब ह्वया"। अर्थात अन्य वस्तुओं की कमी (गरीबी) तो सम्भव है लेकिन लकड़ी और पानी की भी गरीबी हो सकती है? असम्भव । Kesar Singh posted 5 months ago
उत्तर प्रदेश में प्रचंड गर्मी के बीच इटावा जिले में यमुना और चंबल के भेद में बड़े पैमाने पर विभिन्न स्थानों पर आग लगने की घटनाओं में छोटी चिड़िया एवं ग्रास लैंड बर्ड के आशियाने खाक होने का अंदेशा जताया जा रहा है। जानिए पूरी कहानीKesar Singh posted 5 months ago
नदी मार्ग में गाद का जमाव जल निकासी को अवरुद्ध करता है, जिससे स्थायी जल भराव की समस्या (4000 हेक्टेयर/प्रति वर्ष) लगातार बढ़ रही है। विशेषज्ञों के मुताबिक पानी के साथ जीने के अलावा अन्य विकल्प नहीं है। अतः बांग्लादेश के दक्षिण मध्य जिलोंः बरिशाल, गोपालगंज, मदारीपुर, सतखीरा और पिरोजपुर के किसानों ने, अपने पुरखों से विरासत में मिली सदियों पुरानी, मृदा-रहित, स्थिर, उथले पानी पर तैरती खेती/कृषि (फ्लोटिंग एग्रीकल्चर), की बाढ अनुकूलित ऐतिहासिक प्रणाली को पुनर्जीवित किया है, जो कि इसी आर्द्रभूमि इलाके में लगभग 250 साल पहले विकसित हुई थी। इन तैरते खेतों की जरूरत अब लगभग पूरे साल ही रहती है। तैरती क्यारियों के रूप में प्राप्त 40% अतिरिक्त कृषि योग्य भूमि, भूमिहीन किसान के लिए आय के अवसर पैदा करती है। संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार, इस पारंपरिक कृषि तकनीक पर भरोसा कर बांग्लादेशी किसान तैरती क्यारी के प्रति 100 वर्ग मीटर से S (डॉलर) 40/₹3280 का औसत लाभ कमाते हैं। Kesar Singh posted 5 months ago
भारत के उत्तर पश्चिमी क्षेत्र में विभिन्न जलवायु परिस्थितियों द्वारा बढ़ी गई भूजल में लवणता की मात्रा ज्यादा होती है। जो उत्पादकता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है और वैश्विक खाद्य सुरक्षा को खतरे में डालती है। Kesar Singh posted 5 months ago
पृथ्वी पर स्थित भूमि का वह क्षेत्र जहां भू-जल स्तर सामान्यतः या तो भूमि-सतह के बराबर होता है. अथवा भूमि उथले जल से आच्छादित होती है, आर्द्रभूमि (Wetlands) कहलाती है। जानिए विस्तार सेKesar Singh posted 5 months ago
हाल ही में प्रकाशित एक शोधपत्र में वैज्ञानिकों ने इस पर गंभीर चेतावनी जारी की है। रिपोर्ट के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से हिमालय पर हिमपात की मात्रा में कमी के कारण, पहाड़ों के नीचे बसे समुदायों को पेयजल की गंभीर कमी का सामना करना पड़ सकता है।Kesar Singh posted 5 months ago
पांच नदियों के संगम वाले उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में अमृत योजना के तहत तालाबो को हकीकत के बजाय कागजों में खोदने का काम किया गया है। जानें हकीकत और फसाना के बीच की कहानीKesar Singh posted 5 months ago
आर्सेनिक की उत्पत्ति आर्सेनोपाइराईट, ऑपींमेंट, रियलगर, क्लुडेटाइट, आर्सेनोलाइट, पेंटोक्साइड, स्कॉरोडाइट आर आर्सेनोपालेडाइटे जैसे खनिजों से हो सकती है। हालांकि, आर्सेनोपाइराइट को ज्यादातर शोधकर्ताओं द्वारा उल्लेखित किया गया है एवं यह भूजल में आर्सेनिक की अशुद्धि उत्पन्न करने वाला एक प्रचुर मात्रा में उपलब्ध खनिज है। रेडॉक्स नियंत्रित वातावरण के तहत, यह आर्सेनिक तलछट (सेडीमेंट) से भूजल में निर्मुक्त हो जाता है। हिमालयी नदियों के डेल्टाई क्षेत्रों में पीने के पानी के स्रोतों में आर्सेनिक संदूषण देखने में आता है। इसकी वजह यह है कि हिमालय की चट्टानों से बहते पानी में आर्सेनिक घुलता जाता है।Kesar Singh posted 5 months ago
भारत में इन सीढ़ीनुमा कुओं को आमतौर पर बावड़ी या बावली के रूप में जाना जाता है, जैसा कि नाम से पता चलता है कि इसमें एक ऐसा कुआ होता है जिसमें उतरते हुए पैड़ी या सीढ़ी होती है। भारत में, विशेषकर पश्चिमी भारत में बावली बहुतायत में पाई जाती हैं और सिंधु घाटी सभ्यता काल से ही इसका पता लगाया जा सकता है। इन बावड़ियों का निर्माण केवल एक संरचना रूप में ही नहीं किया गया था। अपितु उनका मुख्य उद्देश्य व्यावहारिक रूप में जल संरक्षण का था। लगभग सभी बावड़ियों का निर्माण पृथ्वी में गहराई तक खोद कर किया गया है ताकि यह सम्पूर्ण वर्ष जल के निरंतर स्रोत के रूप में काम करते रहें। तत्पश्चात, पैड़ी या सीढ़ियों का निर्माण किया जाता था, जो जल के संग्रह को और अधिक सुलभ एवं सरल करने का काम करती थी। इन सीढ़ियों का उपयोग पूजा एवं मनोरंजन आदि के लिये भी किया जाता था।Kesar Singh posted 5 months ago
प्राचीन भारतवर्ष में जल प्रबंधन पर विशेष ध्यान दिया जाता था। विभिन्न जल स्रोतों के संरक्षण और जल संरचनाओं को लगभग सभी पूर्व के शासकों ने अपनी प्राथमिकता पर रखा था। जन कल्याण के कार्यों में बावड़ियों, कुओं, तालाबों आदि का निर्माण सर्वोपरि माना जाता था। इस लेख में भारत की कुछ प्रमुख बावड़ियों का उल्लेख किया गया है। इनके अलावा बहुत सारी बावड़ियाँ हैं जो लगभग हर छोटे-बड़े शहरों में देखने को मिल सकती हैं। इस लेख में उल्लेखित हर एक बावड़ी का अपना एक इतिहास है, एक विशिष्ट वास्तुकला है और हर एक का अपना एक विशेष ध्येय है। इनमें से कई तो मध्यकालीन युग के दौरान बनाई गई थी, जो आज भी स्थानीय लोगों की जल की मूलभूत आवश्यकता को पूरा कर रही हैं। किन्तु इनमें से अनेक बावड़ियां स्थानीय लोगों एवं सरकारी उपेक्षा का शिकार हो सूख गई हैं और जर्जर अवस्था में पहुंच गई हैं।Kesar Singh posted 5 months ago
तीव्र गति से बढ़ते कृषि विकास, औद्योगीकरण और शहरीकरण के परिणामस्वरूप भूजल संसाधन के स्रोतों पर दवाव बढ़ रहा है जिसके परिणामस्वरूप भूजल संसाधनों का अतिदोहन और संदूषण हुआ है। उत्तरी भारत में लगभग 109 घन किमी भूजल की हानि हुई है जिसके कारण बंगाल की खाड़ी में समुद्र के जल स्तर में वृद्धि हुई है। पंजाब में फ्लोराइड और नाइट्रेट की मात्रा भटिंडा और फरीदकोट जिलों में क्रमशः 10 मिलीग्राम/लीटर और 90 मिलीग्राम/लीटर तक पायी है। प्राकृतिक रूप से होने वाले फ्लोराइड की उच्च सांद्रता ने दक्षिणी और उत्तर पश्चिमी भारत में लगभग 66 मिलियन लोगों को प्रभावित किया है।Kesar Singh posted 5 months 1 week ago
नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार लगभग 50 प्रतिशत झरने सूख चुके हैं, जो प्रत्यक्ष रूप से इस क्षेत्र में जल की आपूर्ति को प्रभावित करते हैं। पिछले कुछ समय से पर्यावरण में हो रहे प्राकृतिक व मानवजनित परिवर्तनों से प्राकृतिक जलस्रोत (नौले व धारे आदि) सूख रहे हैं।Kesar Singh posted 5 months 1 week ago
हिंदू-कुश क्षेत्र (यह चार देशों-भारत, नेपाल, पाकिस्तान और बांग्लादेश में विस्तारित है) में किये गए इस अध्ययन में पाया गया कि इस क्षेत्र के 8 शहरों में पानी की उपलब्धता आवश्यकता के मुकाबले 20-70% ही थी। रिपोर्ट के अनुसार, मसूरी, देवप्रयाग, सिंगतम, कलिमपॉन्ग और दार्जलिंग जैसे शहर जलसंकट से जूझ रहे हैं।Kesar Singh posted 5 months 1 week ago
सोचने वाली बात तो यह है कि घरती पर 2 तिहाई हिस्सा पानी होने के बावजूद पीने योग्य शुद्ध पेयजल सिर्फ 1 प्रतिशत ही है। 97 फीसदी जल महासागर में खारे पानी के रुप में भरा हुआ है, जबकि 2 प्रतिशत जल का हिस्सा बर्फ के रुप में जमा है। जिसकी वजह से यह नौबत आ गई है कि कई जगह पर लोगों को बूंद-बूंद पानी के लिए तरसना पड़ रहा है। इसलिए सभी को जल संरक्षण के महत्व को समझना चाहिए और अनावश्यक पानी की बर्बादी नहीं करनी चाहिए।Kesar Singh posted 5 months 1 week ago
भारतीय सभ्यता में मानवीय हस्तक्षेप द्वारा वर्षा जल संग्रहण और प्रबंधन का गहन इतिहास रहा है। भारत के विभिन्न इलाकों में मौजूद पारम्परिक जल प्रबंधन प्रणालियाँ आज भी उतनी ही कारगर साबित हो सकती हैं जितनी पूर्व में थी। समय की कसौटी पर खरी उतरी और पारिस्थितिकी एवं स्थानीय संस्कृति के अनुरूप विकसित हुई पारम्परिक जल प्रबंधन प्रणालियों ने लोगों की घरेलू और सिंचाई जरूरतों को पर्यावरण के अनुकूल तरीके से पूरा किया है। एकीकृत मानव अनुभव ने पारंपरिक प्रणालियों को कालांतर में विकसित किया है जो उनकी सबसे बड़ी खासियत व ताकत है।Kesar Singh posted 5 months 1 week ago