पृथ्वी पर स्थित भूमि का वह क्षेत्र जहां भू-जल स्तर सामान्यतः या तो भूमि-सतह के बराबर होता है. अथवा भूमि उथले जल से आच्छादित होती है, आर्द्रभूमि (Wetlands) कहलाती है। प्राकृतिक संसाधनों में आर्द्रभूमि क्षेत्र की भूमिका महत्वपूर्ण है। ये क्षेत्र अस्थाई या स्थाई रूप से जल से आच्छादित रहते हैं। अर्थात आर्द्र भूमि क्षेत्र न तो पूर्णतः जलीय क्षेत्र होते हैं और न ही पूर्णतः भू-भागीय, वरन मौसम की परिवर्तनीयता के आधार पर समान समय में दोनों प्रकार की आर्द्र भूमि पाई जा सकती है।
आर्द्र भूमि क्षेत्रों का वर्गीकरण
आर्द्र भूमि क्षेत्रों का वर्गीकरण विभिन्न जलविज्ञानीय, पारिस्थितिकी, एवं भौगोलिक पहलुओं के आधार पर किया जाता है। भारतवर्ष में आर्द्र भूमि क्षेत्रों को 19 वर्गों में विभाजित किया गया है। जिनमें नदी/सरिता, जलाशय / बेराज, प्राकृतिक झील / तालाब, कीचड़ युक्त भूमि प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त देश में पाये जाने वाले अन्य चयनित आर्द्र क्षेत्रों में दल-दल, मार्श, मॅग्रोव, कोरल, रेवेरीन, लैगून, पर्वतीय क्षेत्रों में उपलब्ध झीलें, जलग्रसन क्षेत्र आदि प्रमुख हैं। सारणी-1 में विभिन्न प्रकार के आर्द्र भूमि क्षेत्रों को दर्शाया गया है। चित्र-1 में कुछ प्रमुख आर्द्र भूमि क्षेत्रों को प्रदर्शित किया गया है।
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(*) आर्द्र भूमि क्षेत्र कोड
भारत में राज्यवार आर्द्रभूमि क्षेत्रों की उपलब्धता
भारतवर्ष में आर्द्र भूमि क्षेत्रों का कुल क्षेत्रफल 152.6 हजार वर्ग किलोमीटर है जो कुल सतही भूमि के क्षेत्रफल का मात्र 4.63% है। भारतवर्ष के अधिकांश आर्द्रभूमि क्षेत्र प्रमुख नदियों से सम्बद्ध हैं। आर्द्र भूमि क्षेत्रों का राज्यवार वितरण दर्शाता है कि राज्य के क्षेत्रफल के प्रतिशत की दृष्टि से लक्ष्यदीप में आर्द्रभूमि क्षेत्र सर्वाधिक है। यहाँ कुल भौगोलिक क्षेत्र का 96.12% भाग आर्द्र भूमि से आच्छादित है। अंडमान एवं निकोबार दीप समूह, दमन एवं दीव एवं गुजरात राज्य आर्द्र भूमि के संबंध में क्रमशः द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ स्थान पर आते हैं जहां आर्द्रभूमि क्षेत्र भौगोलिक क्षेत्र का क्रमशः 18.52%, 18.46% एवं 17.56% है। सारणी-1 में दर्शाये गए प्रत्येक वर्ग के आर्द्रभूमि क्षेत्र की भारतवर्ष में उपलब्ध संख्या एवं क्षेत्रफल को सारणी-2 में दर्शाया गया है। देश में राज्यवार आर्द्रभूमि क्षेत्र का वितरण सारणी-3 में दर्शाया गया है।
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आर्द्रभूमि क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय प्रयास रामसर सम्मेलन
रामसर सम्मेलन, (पूर्व में विशिष्टतः जलीय जीवों के लिए महत्वपूर्ण आर्द्र भूमि क्षेत्रों पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन), आर्द्र भूमि क्षेत्रों के संरक्षण एवं अविरत उपयोग के लिए एक अंतरराष्ट्रीय समझौता है। इस अंतर्राष्ट्रीय समझौते को 2 फरवरी 1971 को ईरान के रामसर शहर में ईरानियन पर्यावरण विभाग द्वारा आयोजित एक सम्मेलन में भागीदार राष्ट्रों द्वारा विकसित एवं स्वीकार किया गया था। रामसर शहर में आयोजित किए जाने के कारण इसे रामसर सम्मेलन के नाम से जाना जाता है। इस समझौते के अंतर्गत आर्द्र भूमि क्षेत्रों के मूल पारिस्थितिक कार्यों एवं उनके आर्थिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक एवं मनोरंजनात्मक मूल्यों को स्वीकार किया गया। वर्तमान में रामसर सम्मेलन में 169 भागीदार राष्ट्र सम्मिलित हैं।
रामसर सम्मेलन में पाँच अन्य सहयोगी संस्थान (अंतर्राष्ट्रीय बर्डलाइफ संस्थान, अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण यूनियन, अंतरराष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान, वेटलैंड इंटरनेशनल एवं डब्लयू.डब्ल्यू. एफ. इंटरनेशनल) कार्य में सहयोग हेतु सम्मिलित किए गए हैं। ये संस्थान विशेषज्ञ तकनीकी सलाह, अध्ययन क्षेत्रों के कार्यान्वयन में सहायता एवं वित्तीय सहायता प्रदान कर सम्मेलन के कार्यों में सहयोग प्रदान करते हैं। वर्तमान में विश्व भर में स्थित रामसर स्थलों की संख्या 2388 है। इन रामसर स्थलों के अंतर्गत कुल 253,870,023 हेक्टेयर क्षेत्र आच्छादित है। सबसे ज्यादा 175 रामसर स्थल ब्रिटेन में, इसके बाद मैक्सिको 142 का स्थान है। रामसर सचिवालय का मुख्यालय ग्लैंड (स्विटजरलैंड) में है। भारत में उपलब्ध रामसर स्थलों की सूची को सारणी-4 में दर्शाया गया है।
आर्द्र भूमि क्षेत्रों के उपयोग
आर्द्र भूमि क्षेत्र वनस्पतियों एवं जीव जंतुओं की विविध प्रजातियों के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान करने के अतिरिक्त प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से अनगिनत जनमानस को विविध प्रकार की खाद्यसामग्री, फाइबर एवं अपरिष्कृत सामग्री प्रदान करते हैं। इसके अतिरिक्त ये क्षेत्र, मानव जीवन के लिए, अनेकों उपयोगी सेवाएँ, उदाहरणतः बाढ़ नियंत्रण, तथा स्वच्छ जल आपूर्ति को प्रदान करने में भी सहायक सिद्ध होते हैं। प्राकृतिक सौन्दर्य एवं शैक्षणिक एवं मनोरंजन संबंधी क्षेत्रों में भी ये क्षेत्र उपयोगी सिद्ध होते हैं। मानव गतिविधियों जैसे बढ़ते औद्योगिकीकरण, तथा कृषि एवं आवासीय क्षेत्रों के विकास के कारण, अपने वृहत्त लाभों के बावजूद इन क्षेत्रों पर जोखिम बढ़ता जा रहा है। विश्व के लगभग 50% आर्द्र भूमि क्षेत्र गायब हो चुके हैं तथा धीरे-2 इनमें निरंतर कमी आती जा रही है।
आर्द्र भूमि क्षेत्रों के उत्तरजीविता में समस्याएँ
आर्द्र भूमि क्षेत्रों में विभिन्न कारणों से जल उपलब्धता में कमी होने के कारण यह क्षेत्र विलुप्त होते जा रहे हैं। जल उपलब्धता में कमी होने के विभिन्न कारण निम्न हैं:-
- 1. विभिन्न संरचनाओं के निर्माण के कारण आवाह क्षेत्र से जल प्रवाह में अवरोधः
- 2. क्षेत्र में होने वाली वर्षा में कमी;
- 3. शहरीकरण के कारण नदियों के तटों को पक्का करने से जल संरचनाओं का नदियों से असम्बद्ध होकर सूख जाना;
- 4. आर्द्र भूमि क्षेत्रों जल संरचनाओं में अवसाद का एकत्रीकरण;
- 5. आर्द्र क्षेत्रों में कूड़ा कर्कट आदि का निष्पादन,
- 6. ग्रामीण क्षेत्रों में उपलब्ध आर्द्र भूमि का सामाजिक संरचनाओं जैसे, स्कूल, अस्पताल, क्रीडा सुविधाओं आदि के लिए प्रयोगः
- 7. जलीय जीवों एवं मछलियों की आर्द्र क्षेत्रों में अनुपलब्धता,
- 8. आर्द्र क्षेत्रों में उपलब्ध जल प्रदूषण;
- 9. आर्द्र क्षेत्रों की आबादी क्षेत्रों से दूर उपलब्धता
आर्द्र भूमि क्षेत्रों का पुनरुद्धार एवं पुनर्स्थापन की आवश्यकता
आर्द्र भूमि क्षेत्रों का पुनरुद्धार एवं पुनर्स्थापन का अर्थ इन क्षेत्रों को इनकी मूल स्थिति में प्राप्त करना है। पुनरुद्धार प्रक्रम के दौरान आवाह क्षेत्र को जल संरचना के समाकलित भाग के रूप में स्वीकार कर उसे समान महत्ता देनी चाहिए। भारत के शहरी क्षेत्रों में उपलब्ध अनेकों आर्द्र भूमि क्षेत्रों में जल संरचनाओं के पुनरुद्धार की आवश्यकता है। देश का न्याय तंत्र इस क्षेत्र में उपयुक्त भूमिका प्रदान कर सकता है। न्याय तंत्र की सहायता से जल संरचनाओं को विलुप्त होने से बचाना काफी सरल होगा। इसके अतिरिक्त, क्षेत्र के नागरिक, एन जी ओ, एवं सरकारी संस्थान इन क्षेत्रों के पुनरुद्धार में उपयुक्त भूमिका प्रदान कर सकते हैं। संक्षेप में आर्द्र भूमि से निम्न लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं।
- 1. भूजल स्तर में वृद्धि एवं जलदायकों का पुनःपूरण;
- 2. जलीय जीवन के विकास के लिए उपयुक्तः
- 3. प्राकृतिक सौन्दर्य का विकास एवं क्षेत्र की जलवायु में नवीनता;
- 4. मनोरंजन गतिविधियों की संभावनाओं में वृद्धिः
- 5. मृदा आर्द्रता में वृद्धि के परिणामस्वरूप स्थानीय क्षेत्रों में वनस्पति उत्पादन में वृद्धि,
- 6. सूखा प्रभावित क्षेत्रों में भविष्य के विभिन्न घरेलू उपयोग हेतु जल का एकत्रीकरण
आर्द्र भूमि क्षेत्रों का पुनरुद्धार एवं पुनर्स्थापन
आर्द्र भूमि क्षेत्रों का पुनरुद्धार दो भागों में किया जा सकता है।
a. आवाह क्षेत्र का उपयुक्त प्रबंधन एवं पुनरुद्धार एवं
(b) आर्द्र भूमि क्षेत्रों का पुनरुद्धारः आर्द्र भूमि क्षेत्रों के पुनरुद्धार हेतु निम्न तकनीकों का प्रयोग किया जा सकता है।
- i. जल संरचनाओं से अवसाद को दूर करना
- ii. जल संरचनाओं से प्रदूषण को दूर करना,
- iii. इसमें आर्द्र भूमि क्षेत्रों, जल संरचनाओं, नदियों, नालों आदि के पुनरुद्धार हेतु ग्रीनब्रिज तकनीक का प्रयोग कर प्रेस्ड फाईब्रस पदार्थों (कोयर, सुखाई जल हयसिंथ), रेत, पत्थरों से फिल्टर बना कर दूषित जल के जहरीले पदार्थों, अवसाद को जल संरचनाओं में मिलाने से रोका जाता है।
- iv. आर्द्र क्षेत्रों में घरेलू एवं औद्योगिक क्षेत्रों से प्राप्त होने वाले मल एवं अवशिष्ट जल के प्रवेश को विभिन्न भौतिक, रासायनिक एवं जीव विज्ञानीय पद्धतियों के प्रयोग द्वारा बचाया जा सकता है।
- V. प्राथमिक, द्वितीयक व तृतीयक परिष्कृत अवशिष्ट जल में उपस्थित फास्फोरस को रासायनिक मिश्रण द्वारा अलग किया जा सकता है।
- vi. आर्द्र क्षेत्रों में पोषकों के प्रवेश को, विभिन्न तकनीकों के द्वारा रोका या कम किया जा
- सकता है।
- vii. तैरते मेक्रो फाइट जल में उपस्थित कार्बनिक बायोडिग्रेडेबल पदार्थों को कम करने में सहायक है। नाइट्रोजन व फास्फोरस को इस विधि से कम मात्रा में ही शोषित किया जा सकता है।
- viii. बायो मैनिपुलेशन यह विधि फूड चेन पर कार्य करती है। इसमें कार्बनिक पदार्थ-प्लेंक्तन- मछली-पक्षी शामिल हैं। भारतीय कार्प, ग्रास कार्क्स, गम्बुसिया आदि मछलियाँ पानी के शोधन में सहायक हैं।
- ix. एरेटर जेटः एरेटर जेट से पानी में घुलित ऑक्सीजन (डी ओ) की मात्रा बढाई जाती है।
- Χ. बायोरेमेडिएशन इसमें जल में यीस्ट, फांगी, बेक्टेरिया से जहरीले पदार्थों का विघटन कर उन्हें कम जहरीले या सामान्य पदार्थों में बदला जाता है।
निष्कर्ष
अपनी विशिष्टताओं एवं जलविज्ञानीय प्रक्रम में अपनी विशिष्ट भूमिका के कारण वर्तमान वर्षों में आर्द्र भूमि का संरक्षण अत्यधिक महत्वपूर्ण है। ये क्षेत्र, मानव जीवन के लिए, अनेकों उपयोगी सेवाएँ, प्रदान करने में सहायक सिद्ध होते हैं। अपने वृहत्त लाभों के बावजूद मानव गतिविधियों के कारण इन क्षेत्रों में निरंतर कमी आती जा रही है। अतः यह आवश्यक है कि इन आर्द्र भूमि क्षेत्रों को उचित संरक्षण प्रदान कर इन्हें नष्ट होने से बचाया जाए।
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