सूखा और बाढ़

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May 18, 2024 A case study of women-led climate resilient farming by Swayam Shikshan Prayog
Building the resilience of women farmers (Image: ICRISAT, Flcikr Commons)
April 25, 2024 Understanding the impact of heat on our world
Rising temperatures, rising risks (Image: Kim Kestler, publicdomainpictures.net)
March 30, 2024 A recent study finds that climate change induced extreme weather events such as droughts can increase the vulnerability of women to Intimate Partner Violence (IPV).
Droughts affect women the most (Image Source: Gaurav Bhosale via Wikimedia Commons)
January 22, 2024 This study finds that baseflows have a stronger triggering effect on river floods in Peninsular India as compared to rainfall and soil moisture.
River floods and groundwater, the connection. Image for representation purposes only. (Image Source: India Water Portal)
July 14, 2023 These states are at the forefront of flood early warning systems
Previously drought-prone areas are now facing floods (Image: Needpix)
July 7, 2023 WOTR study throws important new findings
The study by WOTR and Wageningen University researchers emphasizes the need to prioritize adaptive capacities alongside agricultural productivity (Image: WallpaperFlare)
कहां से आती हैं ये त्रासदियां
Posted on 07 Jul, 2013 02:27 PM प्राकृतिक संसाधनों की खपत का बेकाबू दैत्य पूरी पृथ्वी के लिए घातक सिद्ध हो रहा है। विश्व भर में आवाज उठने लगी है कि विकास के नाम पर अनियंत्रित दोहन पर रोक लगनी ही चाहिए। खतरे की इस इबारत को देखने और समझने का सिलसिला अभी शुरू हुआ हो, ऐसा भी नहीं है। 1704 में न्यूटन ने यह जता दिया था कि पृथ्वी 2060 तक नष्ट हो जाएगी। न्यूटन के इस विचार का आधार क्या था? प्रकृति का नैसर्गिक सौंदर्य आदिकाल से मनुष्य को लुभाता रहा है। सौंदर्य के अलावा हमारे जीवन का स्पंदन भी इस प्रकृति के कारण ही संभव है, पर क्या हम इससे जितना लेते हैं उसका कोई अंश वापस देने की भी कोशिश करते हैं? शायद भूलकर भी नहीं, बल्कि सच तो यह है कि हम अपनी जरूरतों की सीमा-रेखा का भरपूर उल्लंघन कर रहे हैं। जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती है तो यह बहस जरूर शुरू हो जाती है कि यह आपदा वाकई प्रकृति के कारण आई अथवा इसे प्रकृति से की जा रही छेड़छाड़ का नतीजा माना जाए। उत्तराखंड की इस बेहद विनाशकारी त्रासदी पर भी बहसों का बाजार गर्म है, लेकिन इसी के बरअक्स गांधी के एक ऐसे विचार की याद आ रही है, जिस पर कभी भी इतना ध्यान नहीं दिया गया, जितना अपेक्षित था।
कहीं बन न जाए राजनीतिक आपदा
Posted on 07 Jul, 2013 02:13 PM अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने 22 मई 2013 को लैंडसेट-8 उपग्रह के
Urban management
जन जुड़े, तब विनाश रुके
Posted on 06 Jul, 2013 10:47 AM समस्या के मूल कारणों को समझे बगैर बाढ़ और सुखाड़ से नहीं निपटा जा सकता। समस्या के मूल पर सुधार करना ह
flood
विकास की कीमत
Posted on 02 Jul, 2013 03:08 PM अगर वास्तव में हमें नदी का सही और पर्यावरणीय प्रबंधन करना है, तो
भगीरथ तो मन में ही बसा
Posted on 02 Jul, 2013 11:36 AM 16वीं और 17वीं सदी तक गंगा-यमुना इलाका घने जंगलों से ढंका था। पर ध
आपदा प्रबंधन के मोर्चे पर
Posted on 02 Jul, 2013 10:47 AM कुदरत को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। अलबत्ता मुकम्मल तैयारी हो तो प्राकृतिक आपदा से होने वाली तबाही बहुत हद तक कम की जा सकती है। मौसम के तीव्र उतार-चढ़ाव और जलवायु बदलाव के दौर में आपदा प्रबंधन की अहमियत और बढ़ गई है। लेकिन उत्तराखंड की त्रासदी से एक बार फिर जाहिर हुआ है कि हमारे देश में आपदा प्रबंधन बहुत लचर है। इसकी खामियों की पड़ताल कर रहे हैं, प्रसून लतांत।

प्राकृतिक आपदाएं प्राचीन काल से आती रही हैं, जिन्हें हम प्रकृति का, ईश्वर का प्रकोप मान कर छाती पर पत्थर रख कर फिर नए सिरे से जीवन की शुरुआत करते रहे हैं। हमारे देश में न केवल बड़ी आपदाओं से बल्कि छोटी-मोटी दुर्घटनाओं और बीमारियों तक से मुकाबला करने और उससे निजात पाने के तौर-तरीके उपलब्ध थे पर नए तरह के तथाकथित आधुनिक ज्ञान-विज्ञान ने हमारी परंपराओं और सरोकारों को पिछड़ा बताकर हमें उन तौर-तरीकों से अलग-थलग कर दिया है।

उत्तराखंड में आसमान फटने, लगातार मूसलाधार बारिश होने और पहाड़ के टूट कर बिखरने से हुई तबाही में जानमाल की जो हानि हुई है, उससे एक बार फिर आपदा प्रबंधन पर सवालिया निशान लगा है। अभी तक आपदा प्रबंधन के नाम पर किसी एजेंसी की इस मामले में कोई भूमिका देखने सुनने को नहीं मिल रही है। उलटे उसका खोखलापन ही सामने आ रहा है। राजनीतिक दल एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने तक सीमित हैं। यह भी तय नहीं हो पा रहा है कि केदारनाथ घाटी में आई आपदा राष्ट्रीय है या स्थानीय। विपक्ष इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की मांग कर रहा है तो केंद्र इस मामले में चुप्पी साधे हैं। पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक जहां इसे प्रकृति के साथ खिलवाड़ और अंधाधुंध विकास का दुष्परिणाम बता रहे हैं वहीं कुछ अंधविश्वासी लोग ईश्वर या दैवीय प्रकोप बताकर लोगों को भ्रम में डाल रहे हैं।
चुनौतियों के बरक्स
Posted on 01 Jul, 2013 04:10 PM अंतरराष्ट्रीय मंचों के साथ-साथ राष्ट्रों की सरकारें भी आपदा प्रबंध
आपदा का आर्थिक कनेक्शन
Posted on 01 Jul, 2013 11:16 AM यदि हमारे दल व मीडिया ऐसे साजिशों से अनभिज्ञ हैं, तो यह मामला और जागरूक होने का है। यदि जानते-बूझते वे इनकी वकालत कर रहे हैं, तो
disaster
आपदा और पर्यावरण रक्षक
Posted on 30 Jun, 2013 03:15 PM विकास के साथ-साथ हो सकती है पर्यावरण रक्षा। इस बात की हजारों मिसाल
शीशा पत्थर पर दे मारना
Posted on 30 Jun, 2013 02:39 PM बस जरा सी गफलत होती है और जंगल,
आदमी की गिरफ्त से छूटकर,
दीवारों की कवायद में शामिल
हो जाता है!

धूमिल
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