वंदना शिवा

वंदना शिवा
जल का अधिकार : राज्य, बाजार और समुदाय के सन्दर्भ में
Posted on 08 Jan, 2016 11:17 AM
सम्पूर्ण इतिहास में मानव समुदाय इन बुनियादी प्रश्नों से जूझता रहा है कि पानी पर किसका अधिकार है? यह निजी स्वामित्व की चीज है या सामुदायिक सम्पदा है? इस पर आम लोगों के किस प्रकार के अधिकार हैं, या होने चाहिए? राज्य के क्या अधिकार है? निगमों तथा व्यापारिक हितों के क्या अधिकार हैं?
आदिवासी रहेंगे तो बचेंगे जंगल
Posted on 23 Mar, 2015 12:34 PM

आज भारत और चीन के खेतों में जो कुछ भी हो रहा है वह शताब्दियों पहले हो चुका था। ये गतिविधियाँ लग

विकास की कीमत
Posted on 02 Jul, 2013 03:08 PM
अगर वास्तव में हमें नदी का सही और पर्यावरणीय प्रबंधन करना है, तो
नदी जोड़ का मिथक और साइंस
Posted on 15 Mar, 2012 12:20 PM

यही समय है, जब जल संसाधनों के नियोजन में पानी बचाने की बात सबसे ऊपर रहनी चाहिए। लेकिन इसके उलट नदी जोड़ परियोजना

कैसे बचेगी धरती
Posted on 15 Jul, 2011 12:12 PM

भोजन और जल की आवश्यकता तभी पूरी हो सकती है, जब प्रकृति में मौजूद खाद्य और पानी की सुरक्षा की जा

जल स्वराज अभियान में भागीदारी करें
Posted on 30 Jun, 2011 09:25 AM
यमुना, गए एक हजार वर्षों में नौ विभिन्न राजवंशो की राजधानी रही दिल्ली की जीवनदायिनी बनी रही है, किन्तु बेपरवाही और अनियंत्रित विकास के कुछ ही दशकों में अब यह गन्दे नाले में तब्दील हो गई है। अब ऐसे हजारों तालाबों, झीलों, और जोहड़ों का अस्तित्व नहीं रहा, जिनमें बरसात का पानी जमा होता था। भूमि के ऊपरी तल का पानी गायब हो गया या प्रदूषित होकर रह गया है। अब स्थिति यह है कि निचली सतह का पानी निकालने की ह
हमें चाहिए नयी जमीन, नया जीवन
Posted on 14 Jun, 2010 10:45 AM

धरा को वसुंधरा बनाये रखने के लिए हमें व्यापक बदलाव की ओर कदम उठाना होगा. दुनिया के नीति निर्धारकों को यह सोचना होगा कि मनुष्य की हर समस्या का समाधान आर्थिक अधिनायकवाद में निहित नहीं है. व्यक्ति की स्वतंत्रता, उसकी मूल जरूरत इस आर्थिक अधिनायकवाद के भरोसे पूरी नहीं की जा सकती. हमें नयी जमीन चाहिए. हमें नया जीवन चाहिए.
जल : प्रथम और अन्तिम सार्वजनिक सम्पदा
Posted on 11 Jun, 2015 09:28 PM
जल संकट व्यापारिक कारणों से उत्पन्न एक पारिस्थितिकीय संकट है जिसका कोई बाजारनिष्ठ समाधान नहीं है। बाजारनिष्ठ समाधान धरती को बर्बाद करते हैं और असमानता को बढ़ावा देते हैं। जल संकट को खत्म करने के लिए पारिस्थितिकीय लोकतन्त्र को नई जिन्दगी का आवश्यकता है।

जल के दो आयाम बेहद विवादित हैं- जल की सार्वजनिकता का आयाम और जल के वस्तु होने का आयाम।
हिंसक खेती से अशान्त होती धरती
Posted on 25 Dec, 2010 01:02 PM
दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात युद्धक सामग्रियों का प्रयोग कृषि कार्य में लेने से कृषि का स्वरूप भी हिंसक हो गया है। हमारे यहां तो अनादिकाल से माना जाता रहा है कि जैसा अन्न खाएंगे वैसा ही मन बनेगा। प्रस्तुत आलेख इसी मान्यता का विस्तार है और यह मानव जीवन की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि ‘कृषि’ की वर्तमान स्थिति पर तीखी टिप्पणी करते हुए यह सोचने पर मजबूर कर रहा है कि किस प्रकार हम पुनः जैविक खेती की ओर लौटे और
कोई खास चिंता या पहल नहीं
Posted on 10 Jun, 2010 04:41 PM

अभी थोड़े दिनों पहले की बात है, जब यूरोप के आसमान पर छाई धुंध और गुबार ने यूरोपीय जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया था। आइसलैंड के एक ज्वालामुखी से निकलने वाले लावे और धुएं से पूरा आसमान कई दिनों तक भरा रहा। यह महज एक उदाहरण भर है कि किस तरह दुनिया भर में पर्यावरण संबंधी मुश्किलें लगातार बढ़ रही हैं। आज से कुछेक साल पहले तक किसी ने नहीं सोचा होगा कि पर्यावरण संबंधी ऐसी मुश्किलें भी आएंगी। हकीकत
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