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सूखा और बाढ़
उत्तराखंड: विकास का सालाना उत्सव
Posted on 25 Jun, 2013 10:52 AMअगर धीरे चलो,वह तुम्हे छू लेगी,
दौड़ो दूर छूट जाएगी नदी!
केदारनाथ सिंह
प्रलय का शिलालेख
Posted on 24 Jun, 2013 09:09 PMअबकी उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के कई हिस्सों में भीषण तबाही हुई है। पर बादल, बारिश, बाढ़ और भूस्खलन आदि को तबाही का कारण मानना कितना सही होगा? इन इलाकों में पीछे हुई घटनाओं से क्या हम कुछ समझना चाहते हैं या नहीं। इन अप्राकृतिक घटनाओं में प्राकृतिक होने की वजहों की छानबीन की ही जानी चाहिए। उत्तराखंड में हिमालय और उसकी नदियों के तांडव का आकार-प्रकार अब धीरे-धीरे बढ़ने और दिखने लगा है। लेकिन क्या सचमुच में मौसमी बाढ़ इस इलाके में नई है? सन् 1977 में अनुपम मिश्र का लिखा एक यात्रा वृतांत।
सन् 1977 की जुलाई का तीसरा हफ्ता। उत्तरप्रदेश के चमोली जिले की बिरही घाटी में आज एक अजीब-सी खामोशी है। यों तीन दिन से लगातार पानी बरस रहा है और इस कारण अलकनंदा की सहायक नदी बिरही का जल स्तर बढ़ता जा रहा है। उफनती पहाड़ी नदी की तेज आवाज पूरी घाटी में टकरा कर गूंज भी रही है। फिर भी चमोली-बदरीनाथ मोटर सड़क से बाईं तरफ लगभग 22 किलोमीटर दूर 6,500 फुट की ऊंचाई पर बनी इस घाटी के 13 गांवों के लोगों को आज सब कुछ शांत-सा लग रहा है।
आज से सिर्फ सात बरस पहले ये लोग प्रलय की गर्जना सुन चुके थे, देख चुके थे। इनके घर, खेत व ढोर उस प्रलय में बह चुके थे। उस प्रलय की तुलना में आज बिरही नदी का शोर इन्हें डरा नहीं रहा था। कोई एक मील चौड़ी और पांच मील लंबी इस घाटी में चारों तरफ बड़ी-बड़ी शिलाएं, पत्थर, रेत और मलबा भरा हुआ है, इस सब के बीच से किसी तरह रास्ता बना कर बह रही बिरही नदी सचमुच बड़ी गहरी लगती है।

यह विनाश कुछ कहता है
Posted on 21 Jun, 2013 12:07 PMउत्तराखंड में बाढ़ से बढ़ती बर्बादी की हकीकत यह है कि जगह-जगह सुरंगों व झीलों में बांधने की हो रही नापाक क

जब पर्वत ही बह जाएं तो...
Posted on 18 Jun, 2013 12:55 PMआश्चर्य होता है कि जिन सदानीरा नदियों में कुछ दिन पहले तक मीलों तकसूखा ज़मीन पर ही नहीं, आंखों में भी है
Posted on 14 May, 2013 12:23 PM डोंगरकिन्ही, जिला बीड मुख्यालय से 32 किलोमीटर दूर बालाघाट की पहावसंत लेकर आया है सूखा
Posted on 26 Apr, 2013 04:34 PM आधुनिक सभ्यता में रची-बसी हमारी जीवनशैली बिजली के बिना सांस भी नहीं ले सकती है। रोशनी और पावर की प्यास और पानी की प्यास के बीच चुनाव जैसा कुछ बचा ही नहीं है। जालना में लोहे के कारखाने कुकुरमुत्तों की तरह उगे हैं और ये सारे नगर के पानी को जरूरत से ज्यादा पीते हैं। इनकी पानी भी रोका नहीं जा सकता है क्योंकि अगर ये उद्योग बंद हुए तो इनमें काम कर रहे 50 हजार से ज्यादा कामगार न केवल बेरोजगार हो जाएंगे बल्कि अपने गांव-नगर पहुंच कर पानी की ज्यादा मांग भी करेंगे।अकाल... सूखा... बाढ़...महामारी... आदि-आदि सब पहले कुछ खास प्रांतों की किस्मत में लिखे होते थे। जबसे सबकी समझ में यह आ गया है कि ये सब बेहिसाब कमाई के प्राकृतिक अवसर होते हैं, तब से ये जहां चाहें वहां आ जाते हैं। इन दिनों सूखा महाराष्ट्र में डेरा डाले हुए है। महाराष्ट्र सरकार इस मेहमान से बेहद चिंतित है। मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण अपना एक माह का वेतन सूखा राहत कोष में दे रहे हैं। मंत्रियों से भी ऐसा ही करने को कह रहे हैं। लेकिन मंत्रियों में कोई उत्साह नहीं दिखा। मंत्रियों की तरफ से बता दिया गया है कि हम अपना वेतन दे-देकर तो इस सूखे का मुकाबला नहीं कर सकते हैं। उपमुख्यमंत्री अजित पवार तो मंत्रियों से भी आगे निकल गए। केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार के भतीजे अजित पवार ने तो जो मुंह में आया बोल दिया। कह दिया कि वे पेशाब कर-कर के भी सूखी नदियों को नहीं भर सकते हैं। सूखे से घिरे महाराष्ट्र में यह बयान सूबे की राजनीति में तूफान बरपा गया है।श्रृंखलाबद्ध तालाब पुनर्जीवन से सूखे का मुकाबला
Posted on 15 Apr, 2013 10:48 AMसूखे से लड़ने में असफल पुरूष तो बाहर चला जाता है परंतु घर पर अकेली रह रही महिला को अनेक सामाजिक वंचनाओं एवं अपमानों का सामना करना पड़ता है। इसे संज्ञान में लेते हुए चरखारी में तालाबों को पुनर्जीवित किया गया।संदर्भ

सूखे में मुकाबला कर फिर से शुरू की खेती
Posted on 14 Apr, 2013 10:25 AMसूखे ने किसानों के समक्ष भुखमरी की स्थिति पैदा की और लोगों को पलायन हेतु मजबूर किया, पर यह भी समस्या का स्थाई समाधान नहीं था, तब लोगों ने पुनः अपनी परंपरागत खेती की और वापसी की।संदर्भ

बकरी पालन : सूखे में आजीविका का सहारा
Posted on 11 Apr, 2013 01:15 PMखेती में पशुपालन एक महत्वपूर्ण अवयव के रूप में हमेशा से उपयोगी रहा है। सूखे के क्षेत्र में इसका महत्व और बढ़ जाता है और उसमें भी बकरी पालन सूखे की दृष्टिकोण व छोटे किसानों के लिहाज से काफी प्रभावी है क्योंकि इसमें लागत कम होने के साथ ही साथ आजीविका के विकल्प भी बढ़ जाते हैं।परिचय
