विकास के साथ-साथ हो सकती है पर्यावरण रक्षा। इस बात की हजारों मिसालें मिलती हैं विकसित देशों में जहां नदियां भी साफ हैं और समुद्र के तट पर बने हैं बड़े-बड़े शहर बिना किसी नुकसान किए। पहाड़ों में शहरीकरण से खतरा होता तो स्विटजरलैंड जैसा देश ही न होता। वहां मैंने आल्प्स पहाड़ों की ऊचाई में देखी है चौड़ी, आधुनिक सड़कें और कई किलोमीटर लंबे सुरंग जो पहाड़ों के नीचे से गुजरते हैं। अगर बाकी दुनिया में इस किस्म का विकास हो सकता है तो भारत में क्यों नहीं? उत्तराखंड में लोगों को बचाने का काम अभी पूरा नहीं हुआ है लेकिन अभी से सामने आने लग गए हैं वे खास विशेषज्ञ जिनको किसी हादसे के हो जाने के बाद हमेशा मालूम पड़ता है कि वे पहले से जानते थे कि ऐसा होना ही था। इस बार ऐसे लोगों की जमात में आपको सबसे ज्यादा दिखेंगे पर्यावरण के रक्षक। आपदा के पहले दिन से ही हर टीवी चैनल पर आपने देखे होंगे ये तथाकथित पर्यावरण रक्षक जो ज्ञान ऐसे झाड़ते हैं जैसे प्रकृति से उनका कोई निजी रिश्ता हो। वास्तव में न इन लोगों को प्रकृति की कोई समझ है न पर्यावरण का ज्ञान लेकिन पर्यावरण की रक्षा के बहाने आजकल खूब पैसा बंटा है और विदेशी सम्मेलनों में हिस्सा लेने खूब मौके मिलते हैं।
विदेशों में जब अपने भारतीय विशेषज्ञ भाषण देना शुरू करते हैं असली वैज्ञानिकों के बीच तो पकड़े जाते हैं। देवास में एक बार पहुंची थी भारतीय महिला विशेषज्ञ जिसने असली-विशेषज्ञों के सामने कहा कि मोनसैंटो जैसी विदेशी बीज कंपनियों के आने के बाद ही भारत के किसानों में गरीबी आई है। इस बात से सबको मालूम पड़ गया कि इस महिला को न बीजों की कोई समझ थी न पर्यावरण की। दोबारा उसको बुलाया नहीं गया देवास। लेकिन आज भी अपने इस भारत महान में इस महिला के लेख छपते हैं बड़े-बड़े अखबारों में। हिस्सा लेती हैं टीवी की चर्चाओं में।
उत्तराखंड की त्रासदी के बाद ऐसे लोग बहुत दिखे हैं टीवी पर। ऊंची आवाजों में इन्होंने कहा है कि पहाड़ों में शहरीकरण की वजह से आपदा आई। उनका दावा है कि गंगाजी पर बांधों के बनाने के कारण इतनी भयानक बाढ़ आई बावजूद इसके कि साफ जाहिर है अब कि टिहरी बांध न होता तो शायद पूरा उत्तराखंड डूब गया होता।
समस्या हमारी यह है कि जितने ढोंगी है यह पर्यावरण बचाने वाले एनजीओ उतने ही ढोंगी अक्सर रहे हैं हमारे पर्यावरण मंत्री। मिसाल के तौर पर उत्तराखंड की सरकार को आदेश दे दिया किसी पर्यावरण मंत्री ने कि गंगाजी के किनारों से सौ किलोमीटर की दूरी पर ही शहरों का निर्माण हो सकता है। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने जब समझाने की कोशिश की कि लाखों लोगों की जीविका का सवाल है तो पर्यावरण मंत्रालय के पास जवाब न था। ये बातें मुख्यमंत्री ने खुद टीवी पर कही आपदा के बाद।
सच तो यह है कि पर्यावरण मंत्रालय ने विकास की राह में रुकावट डालने का काम ज्यादा किया है और पर्यवरण बचाने का कम। वरना गंगा और यमुना जैसी अति पवित्र नदियों का क्या यह हाल होता जो आज है? वरना हमारे जंगलों की इतनी बर्बादी होती क्या? वरना हमारे शहरों का यह हाल होता कि मुंबई जैसे महानगरों के आधे हिस्से पर बनी हैं झुग्गी बस्तियां जहां न पानी साफ है न हवा और जहां छोटे बच्चे खेलते हैं कूड़ेदानों में। इन चीजों की तरफ नहीं जाती है पर्यावरण मंत्रियों की नजरें और न ही उन पर्यावरण के रक्षकों की।
विकास के साथ-साथ हो सकती है पर्यावरण रक्षा। इस बात की हजारों मिसालें मिलती हैं विकसित देशों में जहां नदियां भी साफ हैं और समुद्र के तट पर बने हैं बड़े-बड़े शहर बिना किसी नुकसान किए। पहाड़ों में शहरीकरण से खतरा होता तो स्विटजरलैंड जैसा देश ही न होता। वहां मैंने आल्प्स पहाड़ों की ऊचाई में देखी है चौड़ी, आधुनिक सड़कें और कई किलोमीटर लंबे सुरंग जो पहाड़ों के नीचे से गुजरते हैं। अगर बाकी दुनिया में इस किस्म का विकास हो सकता है तो भारत में क्यों नहीं?
इस सवाल का जवाब देना इस लेख में मुश्किल है क्योंकि पर्यावरण मंत्रालय और पर्यावरण के गैर-सरकारी रक्षकों ने मामला पेचीदा कर दिया है। इतना जरूर कहूंगी कि हिमालय में अगर हम सोच-समझ कर निर्माण करें तो शहर भी बन सकते हैं, आधुनिक सड़के भी बिना पर्यावरण को नुकसान किए।
जो लोग कहते हैं कि उत्तराखंड में आपदा प्राकृतिक नहीं थी इंसानों की बनाई हुई थी ठीक कहते हैं लेकिन कारण गलत बताते हैं। असली कारण यह नहीं था कि शहरों और सड़कों के निर्माण के कारण प्रकृति को नुकसान पहुंचा। असली कारण यह है कि जिन सरकारी अधिकारियों की देखरेख में ये काम करवाए गए उन्होंने आपराधिक लापरवाही बरती। सड़कों के निर्माण का काम दिया ऐसे ठेकेदारों को जिनको जरा भी अनुभव नहीं था कि पहाड़ी क्षेत्रों में सड़कें कैसे बनती हैं और शहरों में हजारों अवैध इमारतें बनने के बाद ही उनको दिखा कि अवैध थी और गंगाजी के इतने पास कि जरा सा नदी का पानी ऊपर आया तो उनको गंभीर खतरा था।
यह कहने के बाद लेकिन यह भी याद रखना जरूरी है कि बाढ़ भी इस बार ऐसी थी कि पूरे के पूरे गांव बह गए हैं, पूरे के पूरे शहर। ऐसी बाढ़ पहले भी आ चुकी है हिमालय में और भविष्य में भी आ सकती है। उत्तराखंड के शासकों की जिम्मेवारी बनती है इसके लिए तैयार रहने की। इस जिम्मेवारी में वे इस बार हर तरह से नाकाम रहे।
विदेशों में जब अपने भारतीय विशेषज्ञ भाषण देना शुरू करते हैं असली वैज्ञानिकों के बीच तो पकड़े जाते हैं। देवास में एक बार पहुंची थी भारतीय महिला विशेषज्ञ जिसने असली-विशेषज्ञों के सामने कहा कि मोनसैंटो जैसी विदेशी बीज कंपनियों के आने के बाद ही भारत के किसानों में गरीबी आई है। इस बात से सबको मालूम पड़ गया कि इस महिला को न बीजों की कोई समझ थी न पर्यावरण की। दोबारा उसको बुलाया नहीं गया देवास। लेकिन आज भी अपने इस भारत महान में इस महिला के लेख छपते हैं बड़े-बड़े अखबारों में। हिस्सा लेती हैं टीवी की चर्चाओं में।
उत्तराखंड की त्रासदी के बाद ऐसे लोग बहुत दिखे हैं टीवी पर। ऊंची आवाजों में इन्होंने कहा है कि पहाड़ों में शहरीकरण की वजह से आपदा आई। उनका दावा है कि गंगाजी पर बांधों के बनाने के कारण इतनी भयानक बाढ़ आई बावजूद इसके कि साफ जाहिर है अब कि टिहरी बांध न होता तो शायद पूरा उत्तराखंड डूब गया होता।
समस्या हमारी यह है कि जितने ढोंगी है यह पर्यावरण बचाने वाले एनजीओ उतने ही ढोंगी अक्सर रहे हैं हमारे पर्यावरण मंत्री। मिसाल के तौर पर उत्तराखंड की सरकार को आदेश दे दिया किसी पर्यावरण मंत्री ने कि गंगाजी के किनारों से सौ किलोमीटर की दूरी पर ही शहरों का निर्माण हो सकता है। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने जब समझाने की कोशिश की कि लाखों लोगों की जीविका का सवाल है तो पर्यावरण मंत्रालय के पास जवाब न था। ये बातें मुख्यमंत्री ने खुद टीवी पर कही आपदा के बाद।
सच तो यह है कि पर्यावरण मंत्रालय ने विकास की राह में रुकावट डालने का काम ज्यादा किया है और पर्यवरण बचाने का कम। वरना गंगा और यमुना जैसी अति पवित्र नदियों का क्या यह हाल होता जो आज है? वरना हमारे जंगलों की इतनी बर्बादी होती क्या? वरना हमारे शहरों का यह हाल होता कि मुंबई जैसे महानगरों के आधे हिस्से पर बनी हैं झुग्गी बस्तियां जहां न पानी साफ है न हवा और जहां छोटे बच्चे खेलते हैं कूड़ेदानों में। इन चीजों की तरफ नहीं जाती है पर्यावरण मंत्रियों की नजरें और न ही उन पर्यावरण के रक्षकों की।
विकास के साथ-साथ हो सकती है पर्यावरण रक्षा। इस बात की हजारों मिसालें मिलती हैं विकसित देशों में जहां नदियां भी साफ हैं और समुद्र के तट पर बने हैं बड़े-बड़े शहर बिना किसी नुकसान किए। पहाड़ों में शहरीकरण से खतरा होता तो स्विटजरलैंड जैसा देश ही न होता। वहां मैंने आल्प्स पहाड़ों की ऊचाई में देखी है चौड़ी, आधुनिक सड़कें और कई किलोमीटर लंबे सुरंग जो पहाड़ों के नीचे से गुजरते हैं। अगर बाकी दुनिया में इस किस्म का विकास हो सकता है तो भारत में क्यों नहीं?
इस सवाल का जवाब देना इस लेख में मुश्किल है क्योंकि पर्यावरण मंत्रालय और पर्यावरण के गैर-सरकारी रक्षकों ने मामला पेचीदा कर दिया है। इतना जरूर कहूंगी कि हिमालय में अगर हम सोच-समझ कर निर्माण करें तो शहर भी बन सकते हैं, आधुनिक सड़के भी बिना पर्यावरण को नुकसान किए।
जो लोग कहते हैं कि उत्तराखंड में आपदा प्राकृतिक नहीं थी इंसानों की बनाई हुई थी ठीक कहते हैं लेकिन कारण गलत बताते हैं। असली कारण यह नहीं था कि शहरों और सड़कों के निर्माण के कारण प्रकृति को नुकसान पहुंचा। असली कारण यह है कि जिन सरकारी अधिकारियों की देखरेख में ये काम करवाए गए उन्होंने आपराधिक लापरवाही बरती। सड़कों के निर्माण का काम दिया ऐसे ठेकेदारों को जिनको जरा भी अनुभव नहीं था कि पहाड़ी क्षेत्रों में सड़कें कैसे बनती हैं और शहरों में हजारों अवैध इमारतें बनने के बाद ही उनको दिखा कि अवैध थी और गंगाजी के इतने पास कि जरा सा नदी का पानी ऊपर आया तो उनको गंभीर खतरा था।
यह कहने के बाद लेकिन यह भी याद रखना जरूरी है कि बाढ़ भी इस बार ऐसी थी कि पूरे के पूरे गांव बह गए हैं, पूरे के पूरे शहर। ऐसी बाढ़ पहले भी आ चुकी है हिमालय में और भविष्य में भी आ सकती है। उत्तराखंड के शासकों की जिम्मेवारी बनती है इसके लिए तैयार रहने की। इस जिम्मेवारी में वे इस बार हर तरह से नाकाम रहे।
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