जन जुड़े, तब विनाश रुके

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समस्या के मूल कारणों को समझे बगैर बाढ़ और सुखाड़ से नहीं निपटा जा सकता। समस्या के मूल पर सुधार करना होगा। बिजली बनाने के लिए पवन, सौर और भू-तापीय ऊर्जा बेहतर व स्वच्छ विकल्प हैं। इनसे कोई विस्थापन या विनाश नहीं होता। नदियों को धरती के उपर से नहीं, बल्कि धरती के भीतर से जोड़ने की जरूरत है। यदि हम ऐसा कर सके तो न ही बाढ़ बहुत विनाशकारी साबित होगी और न ही सूखे से लोगों के हलक सूखेंगे।...तब न नदी जोड़ की जरूरत बचेगी, न भूगोल उजड़ेगा और देश भी कर्जदार होने से बच जायेगा। अभी लोग सोचते हैं कि नदियां सरकार की हैं। समस्या का समाधान भी सरकार ही करेगी। यह सोच ही समाधान के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। यह सोच बदलनी होगी। सोच बदली तो ये लोग ही सरकारों को बता देंगे कि तात्कालिक योजना बाढ़ राहत की जरूर हो, लेकिन दीर्घकालिक योजना बाढ़ निवारण की ही बने। वे यह भी बता देंगे कि बाढ़ की समस्या का समाधान नदियों को बांधने में नहीं, बल्कि मुक्त करने में ही है। नदी को नहर या नाले का स्वरूप देने की गलती भी नहीं की जानी चाहिए। हालांकि ये बातें देश के अनपढ़ भी जानते हैं, लेकिन उनकी मानने वालों की संख्या कम होती जा रही है। विकास की नई पढ़ाई के रास्ते में सर्वाधिक तोड़क तथ्य यही है।

मुझे यह लिखते हुए गर्व होता है कि मेरे जैसे अध्ययनकर्ता को भी अंगूठा छाप लोगों ने ही सिखाया है कि बाढ़ और सुखाड़ के कारण कमोबेश एक जैसे ही होते हैं। उपाय भी एक जैसे ही हैं। नदी मध्य बने बांधों में पानी रोकने का गलत तर्क देकर बाढ़ के विनाश रोका नहीं जा सकता। बांधों के जलाशयों में एकत्र पानी के फाटक खुलते ही वेग से बहने के कारण ही नदियां उफनती हैं; विनाश बढ़ता है। उत्तराखंड में गाड-गदेरे जलनिकासी का परंपरागत मार्गों को कहते हैं और चाल-खाल जलसंचयन के परंपरागत ढांचों के नाम हैं। बाढ़ का विनाश कम करने के लिए ऊपर पहाड़ियों में ही परंपरागत चाल-खाल बनाकर उत्तराखंडवासी बाढ़ के विनाश को रोकते रहे हैं। इन्ही ढांचों में रुककर पानी नीचे नदी में बाढ़ नहीं आने देता था। ताल, पाल,झाल, जाबो, कूलम, आपतानी, आहर पाइन.... जाने कितने ही नाम व स्वरूप के साथ देश के हर इलाके में ऐसे परंपरागत ढांचे मौजूद हैं।

नदियों में आने से पहले और बाद में बारिश के पानी को अपने अंदर रोककर रखने वाली ऐसी जलसंरचनाओं को कब्जामुक्त कर पुनः जीवित करना होगा। जलनिकासी के परंपरागत मार्ग में खड़े अवरोधों को हटाना होगा। स्थानीय भू सांस्कृतिक विविधता का सम्मान करते हुए बड़े पेड़ व जमीन को पकड़कर रखने वाली छोटी वनस्पतियों के सघनता बढ़ाने की योजना बनानी होगी। यह नहीं कि जहां बाझ, बुंरास, अखरोट जैसे चौड़े पत्ते वाले पेड़ चाहिए, उस उत्तराखंड में पानी सोखने व एसिड छोड़ने वाले चीड़ के जंगल लगा दिए। इसमें जन जुड़ाव की सबसे बड़ी भूमिका है। इससे उत्तराखंड में मिट्टी के क्षरण की सीमा लांघ चुकी रफ्तार भी कम होगी और विनाश भी कम होगा। ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के उपाय भी ये ही हैं।

बाढ़ नुकसान कम करे; इसके लिए परपंरागत बाढ़ क्षेत्रों व हिमालय जैसे संवेदनशील होते नए इलाकों में समय से पूर्व सूचना का तकनीकी तंत्र विकसित करना जरूरी है। बाढ़ के परंपरागत क्षेत्रों में लोग जानते हैं कि बाढ़ कब आएगी। वहां जरूरत बाढ़ आने से पहले सुरक्षा व सुविधा के लिए एहतियाती कदमों की हैं: पेयजल हेतु सुनिश्चित हैंडपम्पों को ऊंचा करना। जहां अत्यंत आवश्यक हो, पाइपलाइनों से साफ पानी की आपूर्ति करना। मकानों के निर्माण में आपदा निवारण मानकों की पालना। इसके लिए सरकार द्वारा जरूरतमंदों को जरूरी आर्थिक व तकनीकी मदद। मोबाइल बैंक, स्कूल, चिकित्सा सुविधा व अनुकूल खानपान सामग्री सुविधा। ऊंचा स्थान देखकर वहां हर साल के लिए अस्थाई रिहायशी व प्रशासनिक कैम्प सुविधा। मवेशियों के लिए चारे-पानी का इंतजाम। ऊंचे स्थानों पर चारागाह क्षेत्रों का विकास। देशी दवाइयों का ज्ञान। कैसी आपदा आने पर क्या करें? इसके लिए संभावित सभी इलाकों में निःशुल्क प्रशिक्षण देकर आपदा प्रबंधकों और स्वयंसेवकों की कुशल टीमें बनाईं जाएं व संसाधन दिए जाएं। परंपरागत बाढ़ क्षेत्रों में बाढ़ अनुकूल फसलों का ज्ञान व उपजाने में सहयोग देना। बादल फटने की घटना वाले संभावित इलाकों में जलसंरचना ढांचों को पूरी तरह पुख्ता बनाना। केदारनाथ धाम का गांधी सरोवर यदि पुख्ता हदबंदी हुई होती, तो विनाश इतना अधिक नहीं होता।

कहना न होगा कि लोगों को जोड़े और समस्या के मूल कारणों को समझे बगैर बाढ़ और सुखाड़ से नहीं निपटा जा सकता। समस्या के मूल पर सुधार करना होगा। बिजली बनाने के लिए पवन, सौर और भू-तापीय ऊर्जा बेहतर व स्वच्छ विकल्प हैं। इनसे कोई विस्थापन या विनाश नहीं होता। नदियों को धरती के उपर से नहीं, बल्कि धरती के भीतर से जोड़ने की जरूरत है। वर्षा जल संचयन के छोटी-छोटी संरचनाएं ही नदी जोड़ का सही विकल्प हैं। नदियों में जल की मात्रा और गुणवत्ता.. दोनों को संयमित करने के लिए लौटना फिर छोटी संरचनाओं और वनस्पतियों की ओर ही होगा। इन्हें जानने के लिए किसी आयोग या उच्च स्तरीय समूह की जरूरत नहीं है। हां! इन्हें लागू करने के लिए जरूरत समर्पित एक समूह नहीं, कई हजार समूहों की जरूरत इस देश को है। यदि हम ऐसा कर सके तो न ही बाढ़ बहुत विनाशकारी साबित होगी और न ही सूखे से लोगों के हलक सूखेंगे।...तब न नदी जोड़ की जरूरत बचेगी, न भूगोल उजड़ेगा और देश भी कर्जदार होने से बच जायेगा। उद्योगों को भी पानी होगा और नदियां भी बर्बाद होने से बच जाएंगी।.. तब बाढ़ विनाश नहीं, विकास का पर्याय बन जाएगी। यह संभव है; बशर्ते नींव, नीति और नीयत तीनों ईमानदार हों।

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