सीमांत

...और यह वह स्थल,
यही नदी वह
जिसके तट बैठे थे सट हम दोनों,
पहली बार:
और नयन के मूक-मुखर स्वर में
बातें दो-चार कर लेते थे..
आँखों के वे स्वर
मूक, निरर्थक,
फिर भी, सुख पीड़ा के
व्यंग्य-मार से पिच्छल,
और-किंतु, वह था विगत जन्म में।

यह नदी, स्वर्ण-रेखा
स्मृति के दो तट जिसके,
यह हम में है;
और क्षणों का ढूह-रेत,
स्वर्ण-रेत के द्वीप
चतुर्दिक काला पानी
यहाँ, हर द्वीप अतिक्रमण है
जीवन और मरण का।

मैं सुवर्ण-रेखा के तट पर
चला जा रहा
दूर
और फिर-फिर लौटता हूँ
जलपंछी-सा;
चलता हूँ, चेहरा कोई नहीं दिखता-
केवल द्वीप
और काला पानी,
जो मेरे ऊपर को
प्रतिच्छायित
मुझ पर कर देता है।
और तब वह नदी स्वर्ण-रेखा
जाती है सूख।
किंतु,
क्षणों की स्वर्ण-रेत के ढूह-द्वीप
बच जाते हैं।

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