नरेश

नरेश
स्वर्ण रेखा
Posted on 16 Sep, 2013 03:10 PM
मैं गुजरा हूँ उन खेतों से,
मंद बयार के अहरह झोंको में,
जहाँ गदराई हरीतिमा
झूम रही थी-
और अब मैं रुकता हूँ
और पीछे मुड़कर देखता हूँ-
वहाँ स्वर्ण-रेखा है-
सोने की लकीर, उसका
उत्फुल्ल जल
उस चट्टान पर उच्छल
जिस पर हम बैठे थे
और प्यार की बातें की थीं,
धूम-भूरे बादल से
कोमल तिपहरी में :
वे रहे हमारे पदचिन्ह
सीमांत
Posted on 16 Sep, 2013 03:08 PM
...और यह वह स्थल,
यही नदी वह
जिसके तट बैठे थे सट हम दोनों,
पहली बार:
और नयन के मूक-मुखर स्वर में
बातें दो-चार कर लेते थे..
आँखों के वे स्वर
मूक, निरर्थक,
फिर भी, सुख पीड़ा के
व्यंग्य-मार से पिच्छल,
और-किंतु, वह था विगत जन्म में।

यह नदी, स्वर्ण-रेखा
स्मृति के दो तट जिसके,
यह हम में है;
और क्षणों का ढूह-रेत,
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