कैसी तुम नदी हो!

(पूरी-दर्शन की याद में)

सागर को सामने पाकर ठिठक गई
कैसी तुम नदी हो?

जिसके लिए निकली थीं एक युग पहले तुम
चट्टानें तोड़तीं
अनजाने बीहड़ वनों को झिंझोड़ती
बाधाएँ उपाटकर
अपनी अनोखी,क्षिप्र इठलाती गति से
कठिन जमीन को काटकर
जीवन-भर गाती हुई
सूखे मैदानों को रिझाती हुई
बाँहों से तटों के कगारों को काटकर
पगली!
यही है वह
सागर यह तेरा है!
ठिठको मत।
सागर तुम्हारा है
इसी का तो गीत है
प्राणों में तुम्हारे जो धारा है,
छूटो,अब फूटो, अब बूँद-बूँद बाढ़ बनो
बाँहें फैलाओ
सब तोड़ के किनारे चलो, उफनो,
लब्धि के चरम क्षणों में यह असमंजस!
आगे बढ़ो,
भेंटों यह फेनिल हँसी का ज्वार
विकल प्रतीक्षा में जिसकी तुम भटकी हो आयु-भर
सामने वही है तुम्हारा प्यार-
पारावार!

सोचती हो : सागर भी बाँहें फैलाएगा
उठकर बढ़ेगा और तुम तक आ जाएगा?
पल-पल पर पलटतीं
जैसे मछली उछलती है,
होगा वह अनवरत हर-हर-हर भी
जो तट को गूँज का साक्षी बनाता है,
होगी वह बालू भी
जिस पर पानी का रेला
चुपके से सीपी और शंख रख जाता है,
होगी वह पुरनम मचलती बयार भी
जो रोम-रोम में सिसकारी भर जाती है,
होंगे
स्नानार्थी, मछुए डोंगे!

कंधे पर कैमरा झुलाए धूप-चश्मे में सैलानी
घुटनों तक साढ़ी उचकाए लहरों से खेलती मदालसा
घरौंदों को रूँधते किलकते हुए बच्चे
हाँ, सब रहे होंगे
पर हमें समुद्र नहीं दीखा!

मैं धूप-चश्मा लगाए बना रहा सैलानी
तुम सीपी और शंख समेटती
बालू बनी रहीं
और वह उद्वेलित गरजता-हहरता ज्वार
अनदेखा रह गया!

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