बाढ़ में

बाढ़ में बहते जाते हैं पुरखों के संदूक सारा माल-मता
औजार
हमारे मामूली रोजगार के
कागज-पत्तर जिनमें थे
हारों के दुखों के हाल
जिन्हें कोई दर्ज नहीं करता
कला कर्म की भाषा के धंधे और इतिहास
जिनसे बेखबर रहते हैं
हर कहीं गाफिल एक से

पानी में दिखता है कभी तेज बहाव में
छटपटाता हुआ कोई
बेमानी मगर उसकी छटपटाहट बिलकुल निरुपाय
कि बचाने की पुरानी रिवायत खत्म हो चुकी
पानी के नीचे जंग लगता है हर किस्म के लोहे पर
डूबना होगा साँस थामकर तलों तक
इसी पानी की गहरी सुरंगों में हैं
मिट्टी और काई में फँसे हथियार

वहीं होगा हरी कुछ चीजों का सिलसिला
नई टहनियाँ उगाता हुआ ढूँढ़ेंगे उसे।

1992

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