नील-नीर-परिधान सुशोभित हलधर-सा कृषि का उत्थान-
करता हूं निष्प्राण ऊसरों को उर्वर में जीवन-दान।
आ-आकर मिलती है मुझमें सरिताएं बहुसंख्य-सहास;
सरस-नवीन कल्पनाएं ज्यों आती सिद्ध सुकवि के पास।
तुषाराद्रि ने आयोजित की, नद-नदियों में जो कि अनन्य-
लंबी दौड़ प्रतिस्पर्धा, मैं उसमें सर्वजयी हूं धन्य।
मेरे धावन की लंबाई, धारा की चौड़ाई और-
कोई पा न सका, फिर क्यों मैं कहलाऊं न सरिच्छिरमौर?
ब्रह्मदेश की इरावती का, मुझमें जिन्हें हुआ आभास-
उनका मोहभंग करता मैं इरावान्-सा लिए विकास।
ऐरावत-से गिरिखंडों को अंतराल में भरे प्रवाह-
पीछे मुड़कर नहीं देखता, चाह बनाती चलती राह।
स्वाभिमान से, आन-खान से, ज्ञान-ध्यान से हो संयुक्त-
पिघलाई हिमशिला अहम् की, उगा विनय-भासकर उन्मुक्त।
रहते खड़े किनारों पर जो पहले जर्जर छांव-कुचैल,
उन रूखे रूखों को देती जल-समाधि धारा गुस्सैल।
रज-राजस-रंजित होते जो मेरा समझ मंद संचार-
प्रखर धार के कट जाते वे, रहते अक्षत विरज कगार।
तम-रज गुण बांधते न मुझको, सदा सतत्वगुण में अनुरक्त,
पाकर तट साधना-समन्वित रहे साधु-जीवन संसक्त।
शरत्काल में महामना मुनि के मन-सा मै शोभन-शांत-
करता हूं संचरण, न रहता जीवन चटुल ऊर्मि-आक्रांत।
तब मेरे उस सौम्य रूप को आदर देते हुए अतुच्छ-
बरसाने लगते तट के तरु सुरभिधनिक पुष्पों के गुच्छ।
तरुणी धाराएं सज्जितकर वीनि-वेणियों में वे फूल-
प्रिय कूलों से जाकर मिलती, रखतीं उन्हें प्रणय-अनुकूल।
भंवर-थालियों में रख-रखकर मैं सब कोमल कांत लतांत-
नित्य चाहता-जाकर पूंजूं शेषशयन हरि के पदप्रांत।
कभी बृहत्तर भारत का था मैं अब हूं अंतर-राष्ट्रीय-
‘नील’ - ‘अमेजन’-सदृश दीर्घतम नदी-तंत्र में परिगणनीय।
बर्मा, अरुणाचल प्रदेश हो या कि चीन, तिब्बत, नेपाल-
सबकी लोक-कथाओं में हैं रोपित मेरे सुयश-रसाल।
लिया ज्यों सत्यवती ने तीर भानुजा के फिर से अवतार।
देख तेरी धारा का रूप, झूम-झुक पड़ता बॉस अवाक्,
मनोरम हरियाली के अंक उतरना चाह रहा है काक,
किंतु वह युवक विरह से दग्ध, अस्थिपंजर तन दुखी अपार-
किसी से नहीं कहीं मुंह खोल मांग पाता है ‘स्नेह’ उधार,
देवता! है क्या तेरे तीर, तरुण-पीड़ाओं का उपचार?
लुइत! जो है तेरे उस पार झोंप प्रिय ‘बर्हमथूरी’ चारु-
युग्म मिलकर खाते हैं पान, वहां से लाते चुनकर दारु,
बहाना मत कृपया वह झोंप, बने रहना उसके अनुकूल-
अन्यथा देगा तुमको कौन पहुंचकर निर्जन में तांबूल
लहराता तेरे जल पर बाँस, पंथ पर मेरा कृशकटि प्यार।
फूल तेरे तट सरसों ज्यों कि कीट मधुआ से होती ग्रस्त-
हुआ यों ही मेरा भी प्रेम-पुष्प है अन्य किसी से व्यस्त,
नैश नभ की सुषमा नक्षत्र बने तेरी छवि रजकण कांत-
प्रियतमा-प्रीति-पल्लवित मंजु रहे मेरा पथार-मन शांत,
आंख में जीवन रहे सजीव और जीवन में तुझ-सी धार।
दुकूलों में तेरे लौहित्य! ढले हैं लोकगीत सुकुमार।
‘ब्रह्मपुत्र’ नदी काव्य में से दो अंश, कवि की पुस्तक ‘पंचगंगा’ में संकलित
करता हूं निष्प्राण ऊसरों को उर्वर में जीवन-दान।
आ-आकर मिलती है मुझमें सरिताएं बहुसंख्य-सहास;
सरस-नवीन कल्पनाएं ज्यों आती सिद्ध सुकवि के पास।
तुषाराद्रि ने आयोजित की, नद-नदियों में जो कि अनन्य-
लंबी दौड़ प्रतिस्पर्धा, मैं उसमें सर्वजयी हूं धन्य।
मेरे धावन की लंबाई, धारा की चौड़ाई और-
कोई पा न सका, फिर क्यों मैं कहलाऊं न सरिच्छिरमौर?
ब्रह्मदेश की इरावती का, मुझमें जिन्हें हुआ आभास-
उनका मोहभंग करता मैं इरावान्-सा लिए विकास।
ऐरावत-से गिरिखंडों को अंतराल में भरे प्रवाह-
पीछे मुड़कर नहीं देखता, चाह बनाती चलती राह।
स्वाभिमान से, आन-खान से, ज्ञान-ध्यान से हो संयुक्त-
पिघलाई हिमशिला अहम् की, उगा विनय-भासकर उन्मुक्त।
रहते खड़े किनारों पर जो पहले जर्जर छांव-कुचैल,
उन रूखे रूखों को देती जल-समाधि धारा गुस्सैल।
रज-राजस-रंजित होते जो मेरा समझ मंद संचार-
प्रखर धार के कट जाते वे, रहते अक्षत विरज कगार।
तम-रज गुण बांधते न मुझको, सदा सतत्वगुण में अनुरक्त,
पाकर तट साधना-समन्वित रहे साधु-जीवन संसक्त।
शरत्काल में महामना मुनि के मन-सा मै शोभन-शांत-
करता हूं संचरण, न रहता जीवन चटुल ऊर्मि-आक्रांत।
तब मेरे उस सौम्य रूप को आदर देते हुए अतुच्छ-
बरसाने लगते तट के तरु सुरभिधनिक पुष्पों के गुच्छ।
तरुणी धाराएं सज्जितकर वीनि-वेणियों में वे फूल-
प्रिय कूलों से जाकर मिलती, रखतीं उन्हें प्रणय-अनुकूल।
भंवर-थालियों में रख-रखकर मैं सब कोमल कांत लतांत-
नित्य चाहता-जाकर पूंजूं शेषशयन हरि के पदप्रांत।
कभी बृहत्तर भारत का था मैं अब हूं अंतर-राष्ट्रीय-
‘नील’ - ‘अमेजन’-सदृश दीर्घतम नदी-तंत्र में परिगणनीय।
बर्मा, अरुणाचल प्रदेश हो या कि चीन, तिब्बत, नेपाल-
सबकी लोक-कथाओं में हैं रोपित मेरे सुयश-रसाल।
लिया ज्यों सत्यवती ने तीर भानुजा के फिर से अवतार।
देख तेरी धारा का रूप, झूम-झुक पड़ता बॉस अवाक्,
मनोरम हरियाली के अंक उतरना चाह रहा है काक,
किंतु वह युवक विरह से दग्ध, अस्थिपंजर तन दुखी अपार-
किसी से नहीं कहीं मुंह खोल मांग पाता है ‘स्नेह’ उधार,
देवता! है क्या तेरे तीर, तरुण-पीड़ाओं का उपचार?
लुइत! जो है तेरे उस पार झोंप प्रिय ‘बर्हमथूरी’ चारु-
युग्म मिलकर खाते हैं पान, वहां से लाते चुनकर दारु,
बहाना मत कृपया वह झोंप, बने रहना उसके अनुकूल-
अन्यथा देगा तुमको कौन पहुंचकर निर्जन में तांबूल
लहराता तेरे जल पर बाँस, पंथ पर मेरा कृशकटि प्यार।
फूल तेरे तट सरसों ज्यों कि कीट मधुआ से होती ग्रस्त-
हुआ यों ही मेरा भी प्रेम-पुष्प है अन्य किसी से व्यस्त,
नैश नभ की सुषमा नक्षत्र बने तेरी छवि रजकण कांत-
प्रियतमा-प्रीति-पल्लवित मंजु रहे मेरा पथार-मन शांत,
आंख में जीवन रहे सजीव और जीवन में तुझ-सी धार।
दुकूलों में तेरे लौहित्य! ढले हैं लोकगीत सुकुमार।
‘ब्रह्मपुत्र’ नदी काव्य में से दो अंश, कवि की पुस्तक ‘पंचगंगा’ में संकलित
Path Alias
/articles/barahamapautara
Post By: Hindi