रेवा रूप कथा

नैहर नरबदा के रूप कुमारी, थिरकत अंग पराग झरे।
रसना रंगी रंग अंग, रूप में रूप के बौर फरे।

रूपमती जागी चहुंदिसि में, रूप को रूप की सुध न रही।
रूपहि गावे रूप को ध्यावे, रूप ने रूप को वीणा गही।

रूप की राजि में भूप शिकारी, रूप की ओट से रूप निहारे।
रूप पे रीझि के बाज बहादुर, बन-बागन फिरे सांझ-सकारे।

रूप के रूप में खो गयो भूप, तो खोई हुई-सी रूपसि जागी।
रूप अनूप से नैन मिले दोऊ, भूप सरूप भए अनुरागी।

रेवा के रंग में रूप रंगी है, रेवा ही रूप का रूप संवारे।
रूप चले जहां रेवा बहे वहां, रूप से बाज वचन यह हारे।

सुपन में रूप के देवी नरबदा, कहें रूप जाओ रेवा पीछे आत है।
रूप बसे जहां रेवा रहे वहां, रेवा किनारे रूप रागिनी सुनात है।

रेवा में रूप और रूप में रेवा बहे, विहरत और विकसत चली जात है।
रेवा की राजि फैली ऐसी मालवा में, रूप के झरोखा से नरवदा दिखात है।

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