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पंत जी ने चरखारी को कश्मीर यूँ ही नहीं कह दिया था। राजमहल के चारों तरफ नीलकमल और पक्षियों
महोबा का कजली महोत्सव केवल एक परंपरागत धार्मिक और सामाजिक अनुष्ठान ही नहीं है बल्कि इसके
‘‘मैं हर जगह गया
पंजाब गया, बंगाल गया, गया कर्नाटक
राजस्थन के मरुस्थल से,
शिमला की बर्फ से, कश्मीर के चिनारों तक
रहा मेरा एक ही अनुरोध
यूँ शिकारी कुत्तों सा ना न सूँघो
उसी मिट्टी से बनी है मेरी देह
लगी है जो तुम्हारे तलुओं में।’’
ਮਾੜਾ ਸਮਾਂ ਆ ਗਿਆ ਸੀ।
ਭੋਪਾ ਹੁੰਦੇ ਤਾਂ ਜ਼ਰੂਰ ਦੱਸਦੇ ਕਿ ਤਾਲਾਬਾਂ ਲਈ ਮਾੜਾ ਸਮਾਂ ਆ ਗਿਆ ਹੈ। ਜਿਹੜੀਆਂ ਸਹਿਜ, ਸਰਲ, ਰਸਭਰੀਆਂ ਪ੍ਰੰਪਰਾਵਾਂ, ਮਾਨਤਾਵਾਂ ਤਾਲਾਬ ਬਣਾਉਂਦੀਆਂ ਸਨ, ਉਹ ਸਭ ਸੁੱਕਣ ਲੱਗ ਪਈਆਂ ਸਨ।