पानी बहुत कीमती वस्तु, ये हम सब ने जाना,
जग में इसके बिना गुजारा, मुश्किल है हो पाना।
बनी सभ्यता नदियों के तट, क्योंकि वहाँ था पानी,
भूजल का जब ज्ञान नहीं था, नहीं था मानव ज्ञानी।
नदियों के पानी द्वारा ही, खेलता, खाता, पीता,
बिना प्रदूषित किए नीर को, जीवन अपना जीता।
जितनी हुई जरूरत नीर की, उतना ही ले आना,
जग में इसके बिना गुजारा, मुश्किल है हो पाना।
किन्तु ज्ञान जब हुआ भूजल का, मानव अति पर आया,
धरती माँ के सीने पर, इसने आतंक मचाया।
करे छेद अनगिनत जिगर में, दर्द इसे नहीं आया,
ट्यूबवैल आदि से खींच के इसने, पानी बहुत बहाया।
ऐसे ही बर्बाद किया जल, तो पड़े बहुत पछताना,
जग में इसके बिना गुजारा, मुश्किल है हो पाना।
जीते पानी, मरते पानी, पानी ही जीवन है,
नित्य कर्म बिन पानी के, करना बहुत कठिन है।
राह बने आसान, अगर पानी की करें हिफ़ाजत,
नहीं समय से चेते तो, फिर आ जाएगी आफ़त।
इस आफ़त से बचने को, जल संचय धर्म बनाना,
जग में इसके बिना गुजारा, मुश्किल है हो पाना।
इस जल से पौधे, फूल और बनी रहे फुलवारी,
करनी इसकी खूब हिफ़ाजत, अब हम सब की बारी।
दोहन से ज्यादा संचय का, काम हमें अब करना,
ना रहे नीर अभाव धरा पर, पड़े ना दुःखड़ा रोना।
बना रहे जल-जीवन भू पर, ऐसा अलख जगाना,
जग में इसके बिना गुजारा, मुश्किल है हो पाना।
एक अंत में बात कहूँ मैं, सुनो ध्यान लगाकर,
जल को तुम मत करना गंदा, प्रदूषण फैलाकर।
कह मौहर सिंह कोसेंगी पीढ़ी, उनके कोप से बचना,
सदा शुद्ध रहे धरती का जल, ऐसी रचना करना।
अगर हो गया जल दूषित तो, नहीं है कहीं ठिकाना,
जग में इसके बिना गुजारा, मुश्किल है हो पाना।
संपर्क - मौहर सिंह, रा.ज.सं., रुड़की (उत्तराखण्ड)
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