Posted on 23 Oct, 2010 02:17 PM हिन्दुस्तान की बड़ी से बड़ी सोने की खानें मैसूर में ही है। भद्रावती के लोहे के कल-कारखाने की कीर्ति बढ़ती ही जा रही है। और कृष्णसागर तालाब तो मानव-पराक्रम का एक सुन्दर नमूना है। यह तो हो ही नहीं सकता कि ऐसे मैसूर राज्य को गिरसप्पा के प्रपात को भुनाकर खाने की बात सूझी न हो। किन्तु अब तक यह बात अमल में नहीं आयी-इतनी बड़ी शक्ति का कौन सा उपयोग किया जायठेठ बचपन में जब मैं पश्चिम समुद्र के किनारे कारवार में था तब से ही, गिर सप्पा के बारे में मैंने सुना था। उस समय सुना था कि कावेरी नदी पहाड़ पर से नीचे गिरती है और उसकी इतनी बड़ी आवाज होती है कि दो मील की दूरी पर एक के ऊपर एक रखी हुई गागरें हवा के धक्के से ही गिर जाती हैं! तब फिर उस प्रपात की आवाज तो कहां तक पहुंचती होगी? बाद में जब भूगोल पढ़ने लगा तब मन में संदेह पैदा हुआ कि कावेरी का उद्गम तो ठेठ कुर्ग में है और वह पूर्व-समुद्र से जा मिलती है। वह पश्चिम घाट के पहाड़ पर से नीचे गिर ही नहीं सकती। तब गिरसप्पा में जो गिरती है वह नदी दूसरी ही होगी। उसे तो शीघ्रता से होन्नावर के पास ही पश्चिम समुद्र से मिलना था। इसलिए सवा-सौ, डेढ़-सौ पुरुष जितनी ऊंचाई से वह कूद पड़ी है। उस नदी का नाम क्या होगा?
Posted on 23 Oct, 2010 09:20 AM कितना शीतल उसका दर्शन था! गेहूं के रवे के जैसी सफेद रेत पर स्फटिक जैसा पानी बहता हो, और ऊपर से चंड भास्कर की प्रतापी किरणे बरसती हों, ऐसी शोभा का वर्णन कैसे हो सकता है? मानो चांदी के रस की कोठी भट्टी का ताप सहन न कर सकने के कारण टूट गयी है नेल्लूर यानी धान का गांव। दक्षिण भारत के इतिहास में नेल्लूर ने अपना नाम चिरस्थायी कर दिया है। बेजवाड़े से मद्रास जाते हुए रास्ते में नेल्लूर आता है।
भारत सेवक समाज के स्व. हणमंतरावने नेल्लूर से कुछ आगे पल्लीपाडु नामक गांव में एक आश्रम की स्थापना की है। उसे देखने के लिए जाते समय सुभग-सलिला पिनाकिनी के दर्शन हुए। श्रीमती कनकम्पा के पवित्र हाथों से काटे हुए सूत की धोती की भेंट स्वीकार करके हम आश्रम देखने के लिए चले। कुछ दूर तक तो बगीचे ही बगीचे नजर आये। जहां-तहां नहरों में पानी दौड़ता था, और हरियाली-ही-हरियाली हंसती दिखाई देती थी।
Posted on 22 Oct, 2010 01:30 PM सभी नदी-भक्तों ने स्वीकार किया है कि गंगा का स्नान और तुंगा का पान मनुष्य को मोक्ष के रास्ते ले जाता है। मोटर की यात्रा यदि न होती तो तुंगभद्रा को मैं अनेक स्थानों पर अनेक तरह से देख लेता। तुंगभद्रा एक महान संस्कृति की प्रतिनिधि है। आज भी वेदपाठी लोगों में तुंगभद्रा के किनारे बसे हुए ब्राह्मणों के उच्चारण आदर्श और प्रमाणभूत माने जाते हैं।जलमग्न पृथ्वी को अपने शूलदंत से बाहर निकालने वाले वराह भगवान ने जिस पर्वत पर अपनी थकान दूर करने के लिए आराम किया, उस पर्वत का नाम वराह पर्वत ही हो सकता है। भगवान आराम करते थे तब उनके दोनों दंतों से पानी टपकने लगा और उसकी धाराएं पैदा हुईं। बांये दंत की धाराएं हुई तुंगा नदी और दाहिने दंत से निकली भद्रा नदी। आज इस उद्गम स्थान को कहते हैं। गंगामूल और वराह पर्वत को कहते हैं बाबाबुदान। बाबाबुदान शायद वराह-पर्वत नहीं है, लेकिन उसका पड़ोसी है। तुंगा के किनारे शंकराचार्य का शृंगेरी मठ है। मैंने तुंगा के दर्शन किये थे। तीर्थहल्ली में। (कन्नड़ भाषा में हल्ली के माने हैं ग्राम।) तीर्थहल्ली में मैं शायद एक घंटे जितना ही ठहरा था। लेकिन वहां की नदी के पात्र की शोभा देखकर खुश हुआ था।
Posted on 22 Oct, 2010 10:19 AM जिस प्रकार तेरे किनारे रामचंद्र ने दुष्ट रावण के नाश का संकल्प किया था, वैसा ही संकल्प मैं कब से अपने मन में लिए हुए हूं। तेरी कृपा होगी तो हृदय में से तथा देश में से रावण का राज्य मिट जायेगा, रामराज्य की स्थापना होते मैं देखूंगा और फिर तेरे दर्शन के लिए आऊंगा। और कुछ नहीं तो कांस की कलगी के स्थावर प्रवाह की तरह मुझे उन्मत बना दे, जिससे बिना संकोच के एक-ध्यान होकर मैं माता की सेवा में रत रह सकूं और बाकी सब कुछ भूल जाऊं। तेरे नीर में अमोघ शक्ति है। तेरे नीर के एक बिंदु का सेवन भी व्यर्थ नहीं जायेगा। बचपन में सुबह उठकर हम भूपाली गाते थे। उनमें से ये चार पंक्तियां अब भी स्मृतिपट पर अंकित हैं:
‘उठोनियां प्रातःकाळीं। वदनीं वदा चंद्रामौळी। श्री बिंदुमाधवाजवळी। स्नान करा गंगेचें। स्नान करा गोदेचें।।’
गंगा और गोदा एक ही हैं दोनों के माहात्म्य में जरा भी फर्क नहीं है। फर्क कोई हो भी तो इतना ही कि कालिकाल के पाप के कारण गंगा का माहात्म्य किसी समय कम हो सकता है, किन्तु गोदावरी का माहात्म्य कभी कम हो ही नहीं सकता। श्री रामचंद्र के अत्यंत सुख के दिन इस गोदावरी के तीर पर ही बीते थे, और जीवन का दारुण आघात भी उन्हें यहीं सहना पड़ा था। गोदावरी तो दक्षिणी की गंगा है।
Posted on 21 Oct, 2010 10:35 AM हरिकी पैंड़ी के आसपास बनारस की शोभा का सौवां हिस्सा भी आपको नहीं मिलेगा। फिर भी यहां पर प्रकृति और मनुष्य ने एक-दूसरे के बैरी न होते हुए गंगा की शोभा बढ़ाने का काम सहयोग से किया है।त्रिपथगा गंगा के तीन अवतार हैं। गंगोत्री या गोमुख से लेकर हरिद्वार तक की गंगा उसका प्रथम अवतार है। हरिद्वार से लेकर प्रयागराज तक की गंगा उसका दूसरा अवतार है प्रथम अवतार में वह पहाड़ के बंधन से-शिवजी की जटाओं से-मुक्त होने के लिए प्रयत्न करती है। दूसरे अवतार में वह अपनी बहन यमुना से मिलने के लिए आतुर है। प्रयागराज से गंगा यमुना से मिलकर अपने बड़े प्रवाह के साथ सरित्पति सागर में विलीन होने की चाह रखती है। यह है उसका तीसरा अवतार। गंगोत्री, हरिद्वार, प्रयाग और गंगासागर, गंगापुत्र आर्यों के लिए चार बड़े से बड़े तीर्थस्थान हैं। जितना ऊपर चढ़े उतना तीर्थ का माहात्म्य अधिक, ऐसा माना जाता है।
Posted on 21 Oct, 2010 10:26 AM ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों मिलकर जिस तरह दत्तात्रेय जी बनते हैं, उसी तरह अलकनंदा, मंदाकिनी और भागीरथी मिलकर गंगामैया बनती हैं। ये तीनों गंगा की बहनें नहीं हैं, बल्कि गंगा के अंग हैं।ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों मिलकर जिस तरह दत्तात्रेय जी बनते हैं, उसी तरह अलकनंदा, मंदाकिनी और भागीरथी मिलकर गंगामैया बनती हैं। ये तीनों गंगा की बहनें नहीं हैं, बल्कि गंगा के अंग हैं। भागीरथी भले गंगोत्री से आती हो, तो भी मंदाकिनी का केदारनाथ और अलकनंदा का बद्रीनारायण भी गंगा के ही उद्गम है। ब्रह्मकपाल से होकर जो अलकनंदा बहती है और वहां एक बार श्राद्ध करने से जो अशेष पूर्वजों को एक साथ हमेशा के लिए मुक्ति देती है उस अलकनंदा का उद्गम स्थान क्या गंगोत्री से कम पवित्र है?
Posted on 19 Oct, 2010 11:11 AM प्याज या कैबेज (पत्तागोभी) हाथ में आने पर फौरन उसकी सब पत्तियां खोलकर देखने की जैसे इच्छा होती है, वैसे ही नदी को देखने पर उसके उद्गम की ओर चलने की इच्छा मनुष्य को होती ही है। उद्गम की खोज सनातन खोज है। गंगोत्री, जमनोत्री और महाबलेश्वर या त्र्यंबक की खोज इसी तरह हुई है।छुटपन में भोज और कालिदास की कहानियां पढ़ने को मिलती थीं। भोज राजा पूछते हैं, “यह नदी इतनी क्यों रोती है?” नदी का पानी पत्थरों को पार करते हुए आवाज करता होगा। राजा को सूझा, कवि के सामने एक कल्पना फेंक दे; इसलिए उसने ऊपर का सवाल पूछा। लोककथाओं का कालिदास लोकमानस को जंचे ऐसा ही जवाब देगा न? उसने कहा, “रोने का कारण क्यों पूछते हैं, महाराज? यह बाला पीहर से ससुराल जा रही है। फिर रोयेगी नहीं तो क्या करेगी?” इस समय मेरे मन में आया, “ससुराल जाना अगर पसन्द नहीं है तो भला जाती क्यों है?” किसी ने जवाब दिया, “लड़की का जीवन ससुराल जाने के लिए ही है।”
Posted on 22 Sep, 2010 11:10 AM विकास की अंधी दौड़ में हमारी सरकारें नदियों का गला घोंटने में लगी हैं। उनकी कुदृष्टि से महान गंगा भी बची नहीं है। आज गंगा का नैसर्गिक जल प्रवाह खतरे में है। बिजली पैदा करने के नाम पर गंगा नदी सुरंगों में डाली जा रही है। इससे अविरल प्रवाह अवरुद्ध हो गया है।नदियों का प्रवाह शुद्ध रहे, इसके लिए जरूरी है कि उनका नैसर्गिक जल प्रवाह बना रहे। नदियों का वेग ही उनकी शुद्धि के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक तत्व है। ‘रजसा शुद्धते नारी, नदी वेगेन शुद्धते।’ अर्थात जैसे रजस्वला होकर नारी शुद्ध हो जाती है उसी प्रकार नदियां अपने वेग से शुद्ध होती है । यह भारतीय संस्कृति की अनुभव सिद्ध मान्यता है। इसलिए अविरल नैसर्गिक प्रवाह नदी की निर्मलता के लिए अनिवार्य शर्त है। लेकिन विकास की अंधी दौड़ में हमारी सरकारें नदियों का गला घोंटने में लगी हैं। उनकी कुदृष्टि से महान गंगा भी बची नहीं है। आज गंगा का नैसर्गिक जल प्रवाह खतरे में है। बिजली पैदा करने के नाम पर गंगा नदी सुरंगों में डाली जा रही है। इससे अविरल प्रवाह अवरुद्ध हो गया है।