हिन्दुस्तान की बड़ी से बड़ी सोने की खानें मैसूर में ही है। भद्रावती के लोहे के कल-कारखाने की कीर्ति बढ़ती ही जा रही है। और कृष्णसागर तालाब तो मानव-पराक्रम का एक सुन्दर नमूना है। यह तो हो ही नहीं सकता कि ऐसे मैसूर राज्य को गिरसप्पा के प्रपात को भुनाकर खाने की बात सूझी न हो। किन्तु अब तक यह बात अमल में नहीं आयी-इतनी बड़ी शक्ति का कौन सा उपयोग किया जायठेठ बचपन में जब मैं पश्चिम समुद्र के किनारे कारवार में था तब से ही, गिर सप्पा के बारे में मैंने सुना था। उस समय सुना था कि कावेरी नदी पहाड़ पर से नीचे गिरती है और उसकी इतनी बड़ी आवाज होती है कि दो मील की दूरी पर एक के ऊपर एक रखी हुई गागरें हवा के धक्के से ही गिर जाती हैं! तब फिर उस प्रपात की आवाज तो कहां तक पहुंचती होगी? बाद में जब भूगोल पढ़ने लगा तब मन में संदेह पैदा हुआ कि कावेरी का उद्गम तो ठेठ कुर्ग में है और वह पूर्व-समुद्र से जा मिलती है। वह पश्चिम घाट के पहाड़ पर से नीचे गिर ही नहीं सकती। तब गिरसप्पा में जो गिरती है वह नदी दूसरी ही होगी। उसे तो शीघ्रता से होन्नावर के पास ही पश्चिम समुद्र से मिलना था। इसलिए सवा-सौ, डेढ़-सौ पुरुष जितनी ऊंचाई से वह कूद पड़ी है। उस नदी का नाम क्या होगा?
नायगरा के प्रपात के कई वर्णन मेरे पढ़ने में आये थे। प्रकृति माता का अमरीका को दिया हुआ वह अद्भुत आभूषण है। दुनिया भर के लोग उसकी यात्रा के लिए जाते हैं। कई लोगों ने बड़े मजबूद पीपे में बैठकर उस प्रपात में से पार होने के प्रयत्न किए हैं आदि वर्णन जैसे-जैसे मैं अधिक पढ़ता गया वैसे-वैसे मेरा कुतूहल बढ़ता गया। अनेक दिशाओं से लिए हुए चित्र और अक्षिपट (Bioscopes) नायगरा को नजर के सामने प्रत्यक्ष करने लगे। इस प्रकार नायगरा का अप्रत्यक्ष दर्शन जैसे-जैसे बढ़ता गया, वैसे-वैसे बचपन में सुने हुए उस गिरसप्पा के प्रपात की मानस पूजा बढ़ती गई। बाद में जब यह पता चला कि नायगरा तो सिर्फ 164 फुट की ऊंचाई से गिरता है, जब कि गिरसप्पा की ऊंचाई 960 फुट है, तब तो मेरे अभिमान का कोई पार न रहा। सबसे मुख्य और संसार का सबसे बड़ा पर्वत हिन्दुस्तान में हैं। सिन्धु, गंगा, और ब्रह्मपुत्रा जैसी नदियों के बारे में किसी भी देश को जरूर गर्व हो सकता है। यह सिद्ध करने के लिए कि सबसे लंबी नदी हमारे ही यहां है, अमरीका को दो नदियों की लंबाई मिलाकर एक करनी पड़ी। मिसोरी और मिसिसिपी को अलग-अलग मानें तो उनकी लंबाई कितनी होगी? हिन्दुस्तान का इतिहास जिस तरह पृथ्वी पर सबसे पुराना है, उसी तरह हिन्दुस्तान की भू-रचना भी सारे संसार में अद्भुत है।
क्या हिन्दुस्तान केवल प्रपात के बारे में हार जायेगा? सारे संसार ने कबूल किया है कि आशोक के समान दूसरा सम्राट दुनिया में नहीं हुआ है। भूगोल में भी लोगों को स्वीकारना चाहिये कि भव्यता में गिरसप्पा से (उसका सही नाम जोग है) मुकाबला हो सके ऐसा दूसरा एक भी प्रपात संसार में नहीं है।
कारकल राजकीय परिषद् के लिए मैं दक्षिण कर्नाटक में गया था तब उम्मीद रखी थी कि अगुंबा घाट चढ़कर शिमोगा होते हुए गिरसप्पा देखने के लिए जाऊंगा किन्तु वैसा नहीं हो सका।
मनसा चिंतितं कार्य दैवेनान्यत्र नीयते।
निराशा में मैंने मान लिया कि इस चिरसंचित आशा से आखिर मैं हमेशा के लिए वंचित हो गया हूं और गिरसप्पा का दर्शन मुझे ध्यान के द्वारा ही करना होगा।
किन्तु इतना तो जान लिया था कि जोग मैसूर राज्य की सीमा पर है। वहां जाने के दो रास्ते हैं। ऊपर का रास्ता शिमोगा सागर होकर जाता है और दूसरा नदी के मुख की ओर से जाता है। इसमें होन्नावर बंदर से नाव में बैठकर जंगलों को पार करके गिरसप्पा गांव तक जाना होता है और वहां से घाट चढ़ना पड़ता है। दोनों रास्तों से जाकर आये हुए लोग कहते हैं कि एक ओर की शोभा दूसरी ओर देखने को नहीं मिलती। यह तो कहा ही नहीं जा सकता कि एक ओर की शोभा दूसरी ओर की शोभा से उतरती है। एक रास्ते से जाऊं और दूसरी ओर का साक्षात् अनुभव न करूं, तब तक तो मुझे कबूल करना ही चाहिये कि मैंने जोग के आधे ही दर्शन किये हैं।
गुजरात में बाढ़ आयी थी उस समय गांधी जी अपनी बीमारी के दिन बंगलोर में बिता रहे थे। मैं उनसे मिलने गया था। वहां से मैसूर राज्य में घूमते-घामते गांधी जी सागर तक पहुंचे। श्री गंगाधरराव और राजगोपालाचार्य साथ में थे। सागर पहुंचने के बाद गिरसप्पा देखने के लिए न जाना तो मेरे लिए असंभव था। मोटर से एक ही घण्टे का रास्ता था। शिमोगा में तुंगा के किनारे घूमने गये थे तब मैंने गांधी जी से आग्रह किया था, “आप गिरसप्पा देखने चलिये न? लार्ड कर्जन सिर्फ गिरसप्पा देखने के लिए खास यहां आये थे। इस ओर आना फिर कब होगा?” गांधीजी बोले, “मुझसे इतनी भी मनमानी नहीं हो सकेगी। तुम जरूर हो आओ। तुम देख आओगे तो विद्यार्थियों को भूगोल का एकाध पाठ पढ़ा सकोगे।” मैने दलील पेश कीः “मगर यह संसार का एक अद्भुत दृश्य है। नायगरा से जोग छः गुना ऊंचा है। 960 फुट ऊपर से पानी गिरता है। आपको एक बार उसे देखना ही चाहिये।”
उन्होंने पूछा, “बारिश का पानी आकाश से कितनी ऊंचाई से गिरता है?” और मैं हार गया। मन में कहाः “स्थितधीः किं प्रभाषेत? किमासीत? व्रजेत किम्?”
मुझे मालूम था कि गांधी जी को संगीत की तरह सृष्टि-सौंदर्य का भी बड़ा शौक है। घूमने जाते हुए सूर्यास्त की शोभा की ओर या बादलों में से झांकते हुए किसी अकेले सितारे की ओर उन्होंने मेरा ध्यान किसी समय खींचा न हो ऐसी बात नहीं थी। किन्तु प्रजा की सेवा का व्रत लिये हुए गांधी जैसे सेवक महात्मा मनमानी किस तरह कर सकते हैं?
कुलशिखरिणः क्षुद्रा नैते न वा जलराशयः
एक बात इस तरह समाप्त हुई इसलिए मैंने दूसरी बात शुरू कर दीः ‘आप नदी आते इसलिए महादेव भाई भी नहीं आते। आप उनसे कहेंगे तो ही वे आयेंगे।’
“उसकी इच्छा हो तो वह भले तुम्हारे साथ जाये। मैं मना नहीं करूंगा किन्तु वह नहीं आयेगा। मैं ही उसका गिरसप्पा हूं।”
बाकी के हम सब ठहरे दुनियवी आदर्श के लोग! पहाड़ पर से गिरता हुआ प्रपात चर्मचक्षु से न देखें तब तक हमें तृप्ति नहीं हो सकती थी। इसलिए भोजन के पहले ही हम सागर से रवाना हुए और मोटर की मदद से जंगल पार करने लगे। पहाड़ों को कुरेदकर रेलवे वाले जब खोह या सुरंग बनाते हैं तब हमें बहुत आश्चर्य होता है। किन्तु बम्बई की बस्ती से भी घने सह्याद्रि के जंगलों में से रास्ता तैयार करना उससे भी अधिक कठिन है। यहां आपका डायनेमाइट (सुरंग) नहीं चलेगा। तने को काटने के बाद भी एक एक पेड़ को शाखाओं के जाल से मुक्त करना हिन्दू-मुसलमानों के झगड़ों को निबटाने जितना कठिन काम है। खंडाला घाट की गहरी खोह के बीचों-बीच जाने पर आदमी जिस भयानक रमणीयता का अनुभव करता है, उसी तरह की स्थिति का अनुभव इन जंगलों में होता है। ऐसे जंगलों में हाथी, बाघ या अजगर जैसे प्राणी ही शोभा देते हैं। इनमें मनुष्य तो बिलकुल तुच्छ प्राणी मालूम होता है। लगता है, यह ऐसे जंगलों में कहां से आ गया!
खैर; हम जंगल पार करके शरावती के किनारे पहुंचे। इस ओर उसे भारंगी भी कहते हैं। भारंगी यानी बारहगंगा। यहां के लोग यदि यह मानते हों कि गंगा नदी से इस नदी का माहात्म्य बारह गुना अधिक है, तो हम उनसे झगड़ा नहीं करेंगे। हरेक बच्चे को अपनी ही मां सर्वश्रेष्ठ मालूम होती है न? पानी रिमझिम बरस रहा था। यहां गगनभेदी महावृक्ष भी थे, और छोटे-बड़े झाड़-झंखाड़ भी थे। अमर घास भी थी और जमीन तथा पेड़ों की बूढ़ी छाल पर उगने वाली शैवाल (काई) भी थी। उस पार के छोटे-बड़े पेड़ नदी का पानी कितना ठंडा या गहरा है यह जांचने के लिए अपने पत्तों वाले हाथ पानी में डालते थे। और कुहरे के चंद बादल आलसी सांड की तरह इधर-उधर भटक रहे थे।
नदी को देखकर सवाल उठता है कि यह नदी कहां से आती है और कहां जाती है? मेरे मन में तो हमेशा नदी कहां से आती है, यही सवाल प्रथम उठता है। दूसरों के मन में भी यही सवाल उठता होगा। इसका क्या कारण है? नदी कहां जाती है, यह जांचना आसान है। नदी में कूद पड़े कि वह हमें अनायास अपने साथ ले चलती है। उतनी हिम्मत न हो तो एकाध पेड़ के तने को कुरेदकर बस उसमें बैठ जाइये। किन्तु नदी कहां से आती है, यह जांचने के लिए प्रतीप गति से जाना चाहिये। ऐसा तो सिर्फ ऋषिगण ही कर सकते हैं। उस दिन का दृश्य ऐसा था जिससे मन में संदेह उत्पन्न होता था कि भारंगी या शरावती का पानी पहाड़ से आता है या बादलों से?
नाव में बैठकर हम उस पार गये। किनारे की जमीन से कई नन्हें-नन्हें झरने कूद कूदकर नदी में गिरते थे। उन पर से हम सहज अनुमान लगा सके कि अगले दिन भारी बरसात होने के कारण नदी का पानी काफी बढ़ गया था। आज वह करीब पांच फुट उतरा था। नाव हमें नीचे उतारकर दूसरों को लाने वापस गई। शांत पानी में नाव जब डांड की डब् डब् आवाज करती हुई जाती या आती है उस समय का दृश्य कितना सुंदर मालूम होता है! और जब यह नाव हमारे प्रियजनों को अपने पेट में स्थान देकर उन्हें गहरे पानी की सतह पर से खींचकर लाती है, तब चिंता का कोई कारण न होते हुए भी मन में डर मालूम हुए बिना नहीं रहता। राजगोपालाचार्य अपने पुत्र और पुत्री को साथ लेकर नाव में बैठने जा रहे थे। मैंने उनसे कहा, ‘हमारे पुरखों ने कहा है कि एक ही कुटुंब के सब लोग एक साथ एक ही नाव में बैठें यह ठीक नहीं है। या तो पिता हमारे साथ आयें या पुत्र; दोनों नहीं।’ साथी लोग इसरिवाज की चर्चा करने लगे। किसी को इसमें प्रतिष्ठा की बू आई, किसी को और कुछ सूझा। किन्तु किसी के ध्यान में यह बात नहीं आयी कि सर्वनाश की संभावना को टालने के लिए ही यह नियम बनाय गया है। मुझे यह अर्थ स्पष्ट करके वायुमंडल को विषण्ण नहीं बनाना था। इसलिए पुरखों की बुद्धि की निंदा सुनता हुआ मैं उस पार पहुंचा। जब नाव मझधार में पहुंची तब मंत्र बोलकर आचमन करना मैं नहीं भूला। नदी के दर्शन के साथ स्नान, पान और दान की विधि होनी ही चाहिये। तभी कहा जायेगा कि नदी का पूरा साक्षात्कार किया।
दूसरी टुकड़ी आ पहुंची और हम दाहिनी ओर के रास्ते से चलने लगे। नदी का वह बायां किनारा था। रास्ते के बड़े-बड़े पेड़ों की मस्जिद के स्तंभों की तरह सीधे ऊंचे जाते देखकर हमें आनंद हुआ। हमारी टोली इतनी बड़ी थी कि इस निर्जन अरण्य में देखते ही देखते ही हमारा वार्ताविनोद और हमारा अट्टहास्य चारों ओर फैल गया। मगर कितनी देर तक? हम कुछ ही दूर गये होंगे कि नदी ने अपनी गंभीर ध्वनि शुरू की। इस आवाज को किसकी उपमा दी जाय? इतनी गंभीर आवाज और कहीं सुनी हो तभी तो उपमा दी जा सके न? मेघगर्जना भीषण जरूर होती है, और यह भी सच है कि वह सारे आकाश में फैल जाती है। किन्तु वह सतत नहीं होती। यहां तो आप सुन-सुनकर थक जायें तो भी आवाज रुकती ही नहीं। क्या यहां बादल टूट पड़ते हैं? क्या तोपें छूटती हैं? अथवा पहाड़ के बड़े-बड़े पत्थरों की धानी फूटती है? या नदी अपना ध्यान मौन छोड़कर महारुद्र का स्तवराज बोलती है?
‘अब कौन सा दृश्य आयेगा?’, अब कौन सा दृश्य आयेगा? ऐसे कुतूहल से आंखे फाड़कर चारों ओर देखते हम मुसाफिर खाने (डाकबंगले) तक पहुंचे। जहां से प्रपात का दर्शन सबसे सुन्दर होता है, वहीं मैसूर राज्य की ओर से यह अतिथिशाला बनायी गयी है। हम निरिक्षण के चबूतरे पर जा पहुंचे। मगर यह क्या? सर्वव्यापी कुहरे के अलावा और कुछ दिखायी ही नही देता था। और प्रपात अपनी गंभीर आवाज से सारी घाटी को गूंजा रहा था। ठीक दोपहर को भी सूर्य के दर्शन नहीं हो पाये। जहां देखे वहां कुहरा ही कुहरा! कुहरे के घने बादल मानो कुरुक्षेत्र का महायुद्ध मचा रहे हो और जोग अपने ताल से उनका साथ दे रहा हो। इतनी उम्मीद के साथ आने के बाद इस तरह का तमाशा हमें कभी देखने को नहीं मिला था। मिनट पर मिनट बीतते जाते थे और हमारी निराशा के साथ कुहरा भी घना होता जाता था। आखिर हम मौन तोड़कर आपस में बाते करने लगे। बातें करने के लिए कोई खास विषय नहीं था, किन्तु निराशा की शून्यता को भरने के लिए कुछ तो चाहिये था।
क्या इन्द्रदेव कुपित हो गये हैं या वरुणदेव अप्रसन्न हो गये हैं? मैं यह सोच ही रहा था कि इतने में वायुदेव ने मदद की और एक क्षण के लिए-सिर्फ एक ही क्षण के लिए कुहरे का वह घना परदा दूर हटा और जिंदगीभर जिसके लिए तरसता रहा था वह अद्भुत दृश्य आखिर आंखों के सामने आया! महादेव जी के सिर पर जिस तरह गंगा का अवतरण होता है, उसी प्रकार एक बड़ा प्रपात नीचे की खोह से बाहर निकले हुए हाथी जैसे पत्थर पर गिरकर, पानी का आटा बनाकर, चारों ओर उसकी बौछारें उड़ा रहा हैं!!
नहीं। इस दृश्य का वर्णन शब्दों में हो ही नहीं सकता। आश्चर्यमग्न होकर मैं बोल उठाः
नमः पुरस्तात् अथ् पृष्ठतस् ते नमोSस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्त-वीर्यामित-विकमस् त्वम सर्वं समाप्नोषि ततोSसि सर्वः।।
तुरन्त सामने का वह हाथी के समान पत्थर सिर से प्रपात की जटाओं को झाड़कर बोलाः
सुदुर्दर्शम् इदं रूपं दृष्टवान् असि यन् मम।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शन-कांक्षिणः।।
कुहरे का परदा फिर पहले की तरह जम गया और हमारी स्थिति ऐसी हो गयी। मानो हमने जो दृश्य देखा था वह सब स्वप्न था, माया थी या मतिभ्रम था! वह विस्तीर्ण खोह, वह विशाल पात्र, वह भयानक गहराई और उसके बीच पानी का नहीं बल्कि आटे का- नहीं, मैदे का-वह अद्भुत प्रपात और फव्वारा! सारा दृश्य कल्पनातीत था। यह प्रतीति दृढ़ होने के पहले ही कि हम जो अपनी आंखों से देख रहे हैं वह सच्चा ही है, कुहरे का क्षीरसागर फिर फैल गया और हम सामने के काव्य के साथ उसमें डूब गये।
अब कोई किसी से बोलता नहीं था। जो देखा था उस पर सोचने लगे। जहां कुछ भी नहीं था वहां इतनी बड़ी और गहरी सृष्टि कहां से पैदा हुई और देखते-ही-देखते वह कहां लुप्त हो गयी-इसी आश्चर्य ने मानों हम सबकों घेर लिया।
मन में आया, चाहे क्षण के लिए ही क्यों न हो, जो देखने आये थे उसे हमने देख लिया। अद्भुत रिति से देख लिया। एक क्षण के लिए जो दर्शन हुआ उसके स्मरण और ध्यान में घंटों बिताये जा सकते हैं।
इतने में वही शुभ्र जटाधारी पत्थर फिर से बोलाः
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस् त्वं तदेव में रूपम् इदं प्रपश्य।
कुहरे का आवरण फिर दूर हटा और अब तो इस छोर से उस छोर तक सब कुछ दीख पड़ने लगा। सामने की ओर से ठेठ बायें छोर पर ‘राजा’ अर्धचंद्राकार पत्थर पर से नीचे कूद रहा था उसका पानी बारिश के कीचड़ के कारण कॉफी के रंग का हो गया था। किन्तु सबसे अधिक पानी राजा को ही मिलता है। छाती फुलाता हुआ जब वह ठेठ सीधा तब इस बात का खयाल होता है कि प्रकृति की शक्ति कितनी अपरिमित है। राजा का प्रपात का विस्तार भी कुछ कम नहीं है। और उसके दोनों ओर बड़े-बड़े मोतियों के कई हार लटकते दौड़ते हैं। सचमुच यह प्रपात राजा के नाम के काबिल ही है।
उसके पास के जिस प्रपात का दर्शन मुझे सबसे प्रथम हुआ था वह वास्तव में तीसरा था। उसका नाम है वीरभद्र। बीच का एक प्रपात रुद्र इस ओर से स्पष्ट दिखाई ही नहीं देता। वह कदम-कदम पर जोर से चिल्लाता हुआ आखिर राजा में मिल जाता है।
ठेठ दाहिनी ओर एक छोटा सा प्रपात है। उसकी कमर कुछ पतली है। इस लिए मैंने उसका नाम पार्वती रखा। जी भरकर देखने के बाद हमारी बातें फिर से शुरू हुई। स्वयं जो कुछ देखा हो उसे दूसरे को दिखाने की उमंग जिसमें न हो वह आदमी-आदमी नहीं है। आदमी संचारशील होता है, संवादशील होता है। उसने जो अनुभव किया वही दूसरों को भी होता है- हो सकता है- ऐसा विश्वास जब तक न हो तब तक उसे परम संतोष नहीं होता। राजाजी ने ध्यान खींचा, ‘यह नीचे तो देखो! ठंडी भाप के ये बादल कैसे ऊपर कूद आते हैं?’ देवदास कहने लगे, ‘उन पक्षियों को तो देखो! कैसे निर्भय होकर उड़ रहे हैं? मणिबहन ने भी ऐसा ही कुछ कहा और लक्ष्मी ने अपने अण्णा को तमिल भाषा में बहुत समझाकर अपना आनंद व्यक्त किया। हमारे साथ और एक भाई आये थे। वे रास्ते में अकारण ही नाराज हो गये थे। हम जब इस स्वर्गीय दृश्य के आनंद में विभोर हो रहे थे तब उन भाई को अपने माने हुए अपमान की ही जुगाली करनी थी। चंद्रशंकर ने उनकी इस स्थिति की ओर मेरा ध्यान खींचा। मैं मन ही मन बोलाः’
पत्रं नैव यदा करीर-विटपे दोषो वसंतस्य किम्?
नोलूकोप्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणम्?
इस संसार में निराशा, गलतफहमी, अप्रतिष्ठा, या वियोग सच्चे दुःख नहीं हैं। बल्कि अंहकार ही सबसे बड़ा दुःख है। अहंकार की विकृति को बड़े-बड़े धन्वंतरि भी दूर नहीं कर सकते।
उन भाई की अनेक प्रकार की परेशानियों और विकृतियों को मैं जानता था इसलिए गिरसप्पा के जोग के सामने भी उन्हें दो क्षण दिये बिना मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उनको गिरसप्पा के बारे में थोड़ी जानकारी दी और उन्हें प्रसन्न करने-का प्रयत्न किया।
राजा प्रपात के पीछे की ओर की खोह में असंख्य पक्षी रहते हैं, और दूर दूर के खेतों चुनकर लाये हुए ‘उच्छिष्ट’ और उत्कृष्ट दानों का संग्रह करते हैं। एक बार किसी से सुना था कि यह संग्रह इतना बड़ा होता है कि सरकार की ओर से उसका निलाम किया जाता है। मधुमक्खियों का मधु लूटनेवाला मानव-प्राणी पक्षियों के संग्रह को भी लूटे तो उसमें आश्चर्य की क्या बात है? जो संग्रह करता है वह लूटा जाता है, ऐसी सृष्टि की व्यवस्था ही दीख पड़ती हैः ‘परिग्रहों भयायैव’।
फिर कुहरे का आवरण फैला और मुझे अन्तर्मुख होकर विचार में डूब जाने का मौका मिला। ऐसे भव्य दृश्यों का रहस्य क्या है? भूगोलवेत्ता और भूस्तरशास्त्री फौरन कह देंगे ‘यहां का पहाड़ ‘निस’ कोटि के पत्थर के स्तर का है। घाटी में से एक कगार टूट गई होगी और आसपास की मिट्टी घुल गई होगी। एक बार प्रपात शुरू होने पर वह नीचे की जमीन को अधिकाधिक गहरा खोदता जाता है और जहां से प्रपात शुरू होता है उस कोने को घिसता जाता है। ऊपर का वह माथा यदि सख्त पत्थर का हो, तो ऊंचाई हजारों वर्षों तक कायम रह सकती है। प्रपात से समुद्र अधिक दूर न होने से नदी का आगे का हिस्सा साफ हो गया है और प्रपात की ऊंचाई कायम रही है।’ किन्तु यह तो हुआ प्रपात का जड़ रहस्य। किसी आधुनिक यांत्रिक से पूछिये तो वह कहेगाः ‘अकेले गिरसप्पा के प्रपात में इतना प्रचंड सामर्थ्य है कि मैसूर और कानड़ा (कर्णाटक) इन दोनों जिलों को चाहिये उतनी शक्ति वह दे सकता है। फिर, आप उससे बिजली लीजिये, हरेक शहर और गांव को प्रकाशित कीजिये, कल-कारखाने चलाइये और अपने मुल्क के या दूसरों के मुल्क के चाहे उतने लोगों को बेकार बना दीजिये।’
प्रकृति से जो कुछ फायदा मिलता है वह पृथ्वी की सभी संतानें आपस में समझ बूझकर बांट लें और जीवनयात्रा का बोझा हल्का कर लें, ऐसी बुद्धि आदमी को जब सूझेगी तब की बात अलग है। किन्तु आज तो मनुष्य के हाथ में किसी भी तरह की शक्ति आ गयी कि वह फौरन उसका उपयोग दूसरों से स्पर्धा करके श्रेष्ठत्व पाने के लिए ही करता है। फिर वह श्रेष्ठत्व उसे भले दूसरों को मारकर मिलता हो, या गुलाम बनाकर मिलता हो, या आधे पेट पर रखकर मिलता हो।
मैसूर राज्य एक आगे बढ़ा हुआ राज्य है। बड़े-बड़े इंजीनियरों ने दीवान पद को सुशोभित करके यहां की समृद्धि को बढा़ने की कोशिश की है। यदि कहें कि सारे संसार के लिए आवश्यक चंदन का तेल सिर्फ मैसूर राज्य ही देता है तो इसमें अधिक अत्युक्ति नहीं होगी। हिन्दुस्तान की बड़ी से बड़ी सोने की खानें मैसूर में ही है। भद्रावती के लोहे के कल-कारखाने की कीर्ति बढ़ती ही जा रही है। और कृष्णसागर तालाब तो मानव-पराक्रम का एक सुन्दर नमूना है। यह तो हो ही नहीं सकता कि ऐसे मैसूर राज्य को गिरसप्पा के प्रपात को भुनाकर खाने की बात सूझी न हो। किन्तु अब तक यह बात अमल में नहीं आयी-इतनी बड़ी शक्ति का कौन सा उपयोग किया जाय, यह न सूझने से या सीमा का कोई झगड़ा बीच में आने से या अन्य किसी कारण से, यह मैं भूल गया हूं। मगर इसमें कोई शक नहीं कि गिरसप्पा कि शोभा अब भी उतनी ही प्राकृतिक, उदात्त और अक्षुण्ण है।
भगिनी निवेदिता की प्रख्यात तुलना का यहां स्मरण हो आता है। किसी भी स्थान की रमणीयता ने जब भारतवासी को आकर्षित किया है तब उसने फौरन उसका धार्मिक रूपान्तर कर ही दिया है। भारत का हृदय जब किसी अद्भुत रमणीय या भव्य दृश्य को देखता है, तब तुरंत उसको लगता है कि यह तो गाय जैसे बछड़े को पुकारती है वैसे परमात्मा जीवात्मा को पुकार रहा है। नायगरा का प्रपात यदि हिन्दुस्तान में गंगा मैया के प्रवाह में होता तो यहां की जनता ने उसका वायुमंडल कैसा बना डाला होता? आमोद-प्रमोद और पिकनिक की टोलियों के बदले और रेल के यात्रियों के बदले प्रपात की पूजा करने के लिए वार्षिक या मासिक यात्रियों की टोलियां ही टोलियां यहां इकट्ठा होती। भोगविलास के सब साधन मुहैया करने वाले होटलों के बदले प्रपात के किनारे या उसके बीचोंबीच उमड़े हुए हृदय की भक्ति उंडेलने के लिए बड़े-बड़े मंदिर बनाये गये होते। सृष्टि के वैभव को देखकर भड़कीले ऐशो आराम और शानोशौकत के बदले लोगों ने यहां तप किया होता। और इतनी प्रचंड शक्ति को मनुष्य के फायदे के लिए और सुख-चैन के लिए कैद करने की बात सूझने के बदले उसे प्रकृति के साथ ऐक्य का अनुभव करने वाली मस्ती में भैरव जाप के साथ पानी के प्रवाह में अपने जीवन-प्रवाह को मिला देने की ही बात सूझती। स्वभाव भिन्नता में क्या कुछ बाकी रहता है?
मगर प्रकृति की भव्यता को देखकर उसमें अपने शरीर को छोड़ देने में आध्यात्मिकता है क्या? नहीं। इसमें कोई संदेह नहीं कि शरीर के बंधन टूट जायें, ‘किसी भी हालत में जीवित रहूंगा ही’ इस तरह की पामर जीवनाशा मनुष्य छोड़ दे, इसमें आध्यात्मिक प्रगति है। किन्तु यह वृत्ति स्थायी होनी चाहिये। क्षणिक उन्माद का कोई अर्थ नहीं है। फन्ना होने की इच्छा हरेक मनुष्य के दिल में किसी समय पैदा होती ही है। इश्क की यह एक विकृति है। इसमें किन्हीं आध्यात्मिक तत्त्वों की झांकी देखकर उस पर फिदा होना मनुष्य-जीवन की महत्ता को शोभा नहीं देता। भगवान बुद्ध ने अपनी अचूक नजर से उसको विभव-तृष्णा का नाम देकर उसे धिक्कारा है। विभव का अर्थ है नाश। भगवान मनु ने भी यह बात साफ शब्दों में बताई हैः
नाभिनन्देत मरणम्; नाभिनन्देत जीवितम्।
इसमें संदेह नहीं कि गिरसप्पा के प्रपात जैसे रोमहर्षण दृश्य के सामने यंत्रों, शक्ति के हॉर्स-पावर, बिजली के प्रकाश या कल-कारखानों के बारे में सोचना आत्मा को भूलकर बाहरी वैभव का ध्यान करने के बराबर है। किन्तु आसपास का प्रदेश यदि अकाल से पीड़ित हो, लोग अनेक रोगों के शिकार होते हों, और जनता का यह दुःख प्रपात के पानी का अन्य उपयोग करने से ही दूर होता हो, तो उस समय हमारा क्या आग्रह होगा? सृष्टि सौंदर्य का रसपान करने वाले हमारे चित्त के आह्लादक साधन को प्रपात को -वैसा का वैसा रखने का, या हमारे आपद्ग्रस्त भाइयों को दुःख मुक्त करने के लिए उसका बलिदान देने का? जहा पर्याप्त अनाज न मिलता हो वहां अनाज की खेती को छोड़कर गुलाब की खेती करने लगें, तो क्या इससे हमारा हृदयविकास होगा? गुलाब में काव्य है, अनाज में कारुण्य है। दोनों में से हम किसे पसन्द करेंगे? इंग्लैंड के एक एक प्राचीन राजा ने अनेक गांवों को उजाड़कर मृगया के लिए एक महान उपवन तैयार किया था। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह राजा मर्दाने खेलों का रसिया था। किन्तु सवाल यह है कि उसे प्रजासेवक मानें या नहीं? जब कला के सामने सेवा का सवाल खड़ा होता है, किस वृत्ति को- काव्य की या कारुण्य की-पोषण दें यह तय करना होता है, तब निर्णय किसी कसौटी पर कसकर दिया जाय? जलते हुए रोम को देखकर नीरो का फिडल बजाना और जलती मिथिला को देखकर जनक राजा की आध्यात्मिक चर्चा करना, दोनों में फर्क है। जनता की सेवा जितनी बन सकती थी उतनी सब करने के बाद व्यर्थ की चिंता में दिल को जलाने की अपेक्षा हृदय में अंतर्यामी के स्मरण को दृढ़ करने का प्रयत्न आर्यवृत्ति को सूचित करता है। इनेगिने लोगों के विलास या ऐश्वर्य के लिए प्रकृति की शक्ति का उपयोग करना और प्राकृतिक सौंदर्य का नाश करना अधर्म है। किन्तु प्राणियों के आर्तिनाश से होने वाले हृदय-विकास को छोड़कर प्रकृति के विभूति-दर्शन में उसको ढूंढ़ने की इच्छा रखना उचित है या नहीं, यह विचारने जैसा है।
वे रूठे हुए भाई अपने कल्पित अपमान की जलन में सामने का दृश्य भूल गए थे और मैं अपने तात्त्विक कल्पना-विहार में शून्य दृष्टि से सामने देख रहा था। दोनों अभागे थे, क्योंकि कल्पना या जलन चलाने के लिए बाद में चाहे उतना समय मिलता। कुहरे का आवरण फिर फैला। अब क्या प्रपात फिर से दिखाई देने वाला था? राजा जी ने कहा, ‘गरमी के दिनों में जब प्रपात गिरता है तब पानी की फुहार पर तरह-तरह के इंद्रधनुष दिखाई देते हैं। उस समय की शोभा बिलकुल निराली होती है। और यह भी नहीं कहा जा सकता कि चांदनी रात में भी धनुष नहीं दिखाई देते। मैसूर का सर्वसंग्रह (गजेटियर) लिखता है कि घास के बड़े-बड़े गट्ठों को आग लगा कर प्रपात में छोड देने से ऐसा दिखाई देता है मानों अंधेरी रात में सारी घाटी जल उठी हो। चंद लोगों ने रात के समय आतिशबाजी करके भी यहां अद्भुत आनंद पाया है। उत्पाती मानव क्या-क्या नहीं करता? मुझे तो ऐसी कोई बात पसन्द नहीं है। ऐसे स्थान पर प्रकृति जो खुराक परोसती है उसकी स्वाभाविक रूचि अनुभव करने में ही सच्ची रसिकता है। मानवी मसाले डालने से स्वाद और पाचनशक्ति, दोनों खराब होते हैं।
अब हम बंगलें के भीतर पहुंचे। साथ में जो भोजन लाये थे उसको उदरस्थ किया। यहां का पानी पी नहीं सकते, क्योंकि फौरन मलेरिया होता है। अधिकतर लोगों ने गरम-गरम कॉफी पीकर ही प्यास बुझाई। मैंने तो उस दिन चातक की तरह बारिश की कुछ बूंदे पाकर ही संतोष माना।
प्रपात का और एक दर्शन करके हम वापस लौटे। अब तो सब तरह से स्पष्ट हो चुका कि प्रपात तीन नहीं बल्कि चार हैं। बाई ओर का पहला बड़ा प्रपात है राजा। उसकी बगल की खोह से आक्रोश करता हुआ उससे आ मिलने वाला ‘रोअरर’ (Roarer) मेरा रुद्र है। सिर पर छूट रहे फव्वारे की शुभ्र जटाओं वाला ‘रॉकेट’। उसे अब वीरभद्र कहने के सिवा चारा नहीं था। और अंत में आने वाले प्रपात का नाम मैंने तन्वंगी पार्वती ही रखा। अंग्रेजों ने रुद्र को Roarer नाम दिया है। वीरभद्र को Rocket और पार्वती को Lady का नाम दिया है।
अब हम वापस लौटे। पांवों में जोंके चिपकने का डर था। यहां के लोगों ने हम सबको सावधानी से चलने के बारे में चेतावनी दे रखी थी। उन्होंने कहा था, जोंकें चिपकेंगी तो मालूम ही नहीं होगा कि चिपक गयी हैं, और खून चूसा जायेगा। मैंने कहा, आप इसकी फिक्र मत कीजिये। अंग्रेजों को हम पहचान गये हैं, तो क्या जोंकों से सावधान नहीं रहेंगे? तिस पर भी करीब-करीब हरेक के पांव में एक एक जोंक चिपक ही गयी । हो सकता है, मेरे शरीर में खून का विशेष आकर्षण न होने से या मेरा खून कसैला होने से या शायद काकदृष्टि से देख देखकर मैं चलता था इससे, मैं बच गया था। हम कुछ आगे गये। किन्तु मणिबहन से रहा नहीं गया। ‘जरा ठहरिये। बन सके तो फिर एक ओर से प्रपात के दर्शन कर आती हूं।’ मगर कुहरा खुले ही नहीं तो?, ‘न खुले तो कोई हर्ज नहीं। वापस लौट आयेंगे। किन्तु एक बार देखने तो दीजिये।’
वापस लौटते समय बीच में एक जगह रास्ता फूटा था। वहां से होकर कइयों ने नजदीक से पार्वती का दर्शन किया और वहां की जमीन फिसलने वाली होने से पार्वती को ‘वंदेमातरम्’ कहकर साष्टांग प्रणिपात भी किया।
जाते समय जिस रास्ते से अज्ञात और अनुभूत काव्य अनुभव किया था, उसी रास्ते से वापस लौटते समय हम संस्मरणों के स्मृतिकाव्य का अनुभव करने लगे, हालांकि वही दृश्य उलटी दिशा से देखने में कम नवीनता न थी। जिन पेड़ों के बारे में जोते समय हमने बातें की थीं, वही पेड़ वापस लौटते समय ध्यान तो खींचेंगे ही। इसलिए इन परिचित भाइयों से ‘क्योंजी कैसे हो?’ कहकर कुशल-समाचार पूछे बिना भला आगे कैसे जाया जा सकता है? और पेड़-पेड़ के बीच प्रेम का पुल बांधने वाली लतायें उनकी नम्रता को नमन किए बिना जो आगे जाता है वह अरसिक है। हम आहिस्ता-आहिस्ता नदी के किनारे तक आ पहुंचे। अब उसी शांत प्रवाह के ऊपर से वापस लौटना था। कुहरे के बादल बिखर गये थे। नदी के शांत पानी को आहिस्ता-आहिस्ता प्रपात की ओर जाता हुआ देखकर मेरे मन में बलिदान के लिए जाते हुए भेड़ों के झुंड की तस्वीर खड़ी हो गयी। मैंने उस पानी से कहाः ‘तुम्हारे भाग्य में कितना बड़ा अधःपतन लिखा है इस बात का खयाल तक तुम्हें नहीं है इसीलिए इतने शांत चित्त से तुम आगे बढ़ते हो। या नहीं- मैं ही गलती कर रहा हूं। तुम जीवनधर्मी हो। तुम्हें विनाश का क्या डर है?’
प्रायः कन्दुक-पातेन पतत्यार्यः पतन्नपि।
जितनी ऊंचाई से गिरोगे उतने ही ऊंचे उछलोगे। तुम्हारी दया खाने वाला मैं कौन हूं? शरावती के पवित्र पानी का स्पर्श करने के लिए मैंने अपना हाथ लंबा किया। पानी खिलखिलाकर हंसा और बोला, ‘न ही कल्याणकृत कश्चित् दुर्गतिं तात! गच्छति।’ नाव इस पार आ गयी और हमें सूझा कि मोटर को इस ओर जरा नीचे तक दौड़ाया जाय तो उसे प्रपात की फिर से दाहिनी यात्रा भी होगी। हम जिस ओर हो आये थे उसे ‘मैसूर की तरफ’ कहते हैं और दाहिनी ओर से जाने के लिए निकले उसे बम्बई की तरफ कहते हैं। क्योंकि जोग दोनों राज्य की सीमा पर है।
यहां तो हम बिलकुल नजदीक आ पहुंचे। मैं बड़ी-बड़ी शिलाओं के बीच से दौड़ने लगा। दो साल के बीमार के रूप में मेरी ख्याति काफी फैली हुई थी। इससे मुझे दौड़ते देखकर राजा जी को आश्चर्य हुआ। किसी ने कहा, ‘वे तो महाराष्ट्र के मावले हैं और हिमालय के यात्री भी हैं। मछलियों को जिस तरह पानी, उसी तरह इन मराठों को पहाड़ होते हैं।’ इन वचनों को सुनने के लिए मुझे कहां रुकना था? मैं तो दौड़ता-दौड़ता राजा प्रपात की बगल में उस प्रख्यात टीले के पास जा पहुंचा। यहां से खड़े-खड़े नीचे की ओर देखा ही नहीं सकता। चक्कर खाकर आदमी गिर जाता है। कानों में चारों प्रपात की आवाज इतनी भरी हुई थी कि दूसरा कुछ सुनने के लिए उनमें गुंजाइश ही बाकी न थी। जिस तरह प्रपात का पानी ऊपर से नीचे गिरकर फिर ऊंचा उछलता था, उसी तरह कान में आवाज भी उछलती होगी। प्रथम मेरा ध्यान खींचा राजा के गंडस्थल पर लटकती मोतियों की लड़ियों ने और जल प्रलय से लोगों को बचाने के लिए जिस तरह वीर तैराक पानी में कूदते हैं उसी तरह इस ओर के प्रपात में होकर युक्ति से गुजरने वाले पक्षियों ने क्या इन पक्षियों को इस प्रपात की भीषण भव्यता का खयाल ही नहीं है, या ईश्वर ने उनके दिल में इतनी हिम्मत भर दी है? मेरा खयाल है कि आगंतुक पक्षियों की इतनी हिम्मत नहीं होगी। इन जोगवासियों का जन्म यहीं हुआ, प्रपात के पटल की सुरक्षितता में उनकी परवरिश हुई। शेर के बच्चे शेरनी से नहीं डरते। सागर की मछलियां लहरों में आनंद मानती हैं, उसी तरह ये जोग के बच्चे जोग के साथ खेलते होंगे।
राजा प्रपात को मैसूर की ओर से दूर से देखा था, तब उसका असर भिन्न प्रकार का हुआ था। यहां तो हम उसके इतने नजदीक थे, मानों हाथी के गंडस्थल पर ही सोये हों। ऊपर का पानी प्रपात की ओर ऐसा खिंचा चला आता था, मानों कोई महाप्रजा जाने-अनजाने, इच्छा-अनिच्छा से महान क्रांति की ओर घसीटी जाती हो। कोई महाप्रजा जब सामाजिक और राजनितिक प्रगति के प्रवाह में बहने लगती है तब आगे क्या होने वाला है इस बात का उसे ख्याल तक नही होता। और खयाल हो भी तो ‘हमारे बारे में यह सच नहीं होगा, हम किसी न किसी तरह बच जायेंगे,’ ऐसी अंधी आशा वह रखती है। इस बीच प्रगति का नशा बढ़ता ही जाता है। अंत में उग्र लोग संयम सुझाते हैं और नरम (मॉडरेट) लोग अंधे होकर गैरजिम्मेदार लोगों के साथ मिल जाते हैं और फिर इच्छा होने पर भी पीछे नहीं हट सकते। या खुद पीछे हटें तो भी क्या? धनुष से निकला हुआ तीर कभी वापस खींचा जा सका है? जो अटल न हो वह क्रांति काहेकी?
प्रपात का पानी नीचे कहां तक जाता है यह देखना या जानना असंभव था। क्योंकि उछलते हुए पानी के बड़े-बड़े बादल प्रपात के पांवों से लिपटे हुए थे। पानी के उन्मत्त उत्सव को देखकर लगता था मानों महादेव जी संहारकरी तांडव-नृत्य ही कर रहे हों और सामने का रुद्र उसमें ताल दे रहा हो। परन्तु रोमांचकारी शोभा का परम उत्कर्ष तो वीरभद्र ही दिखाता है। आपकों यह मालूम ही नहीं होगा कि यहां पानी गिरता है और पानी उछलता है। ऐसा मालूम होता था मानों बड़ी-बड़ी तोपों से गोलों के सहारे कोरे आटे के फव्वारे उड़ते हों। उस दृश्य का वर्णन शब्दों में हो ही नहीं सकता, क्योंकि शब्दों की परवरिश ‘शांति और व्यवस्था’ के बीच होती है।
हमने लेटे-लेटे यहां से इस दृश्य को जी भरकर देखा। या सच कहें तो चाहे उतने लेटने पर भी तृप्त होना असंभव है इस बात का यकीन हुआ तब तक देखा। आखिर हम खड़े होकर वापस लौटे। लेकिन वापस लौटना आसान न था। कोई तो उठता नहीं था। उसे खींचकर लाने के लिए दूसरा जाता था तो वह भी खुद उस नयनोत्सव में चिपक जाता था। पहला पछताकर उठता था तो जो बुलाने जाता वह नहीं उठता था। और जब दोनों मुश्किल से संयम करके वापस लौटते, तब इन पर गुस्सा होकर झगड़ा करने के लिए गये हुए तीसरे भाई एक क्षण के लिए आंखों को तृप्त करने वहां खड़े हो जाते और उन दोनों के संयम को थोड़ा शिथिल बना देते। उन दोनों के मन में आताः इतने चिढ़े हुए समाज-नियंता जितनी छूट लेते हैं उतनी यदि हम भी लें तो इसमें कोई गलती नहीं है। हम कहां उनसे अधिक संयमी होने का दावा करते हैं? मेरे दिल में आया कि उस शिला पर पहुंच जाऊंगा तो राजा के पानी में पांव डाल सकूंगा। किन्तु नदी का पानी कुछ बढ़ता जा रहा था और उसमें वह शिला एक छोटे द्वीप के जैसी बन गयी थी। इसलिए राजा जी ने मुझे मना किया। मुझे भी लगा कि उनकी बात नहीं मानूंगा तो दूनी उद्धतता होगी। राजाजी की आज्ञा का उल्लंघन कैसे किया जाय? और ‘राजा’ के सिर पर पांव कैसे रखा जाय?
हम वापस लौटें। भक्ति, विस्मय, मानव-जीवन की क्षणभंगुरता, दृश्य की भव्यता, इस क्षण की धन्यता-कई वृत्तियों के बादल हृदय में भरे थे और वहां से उस वीरभद्र की तरह सिर में अपने तीर छोड़ते थे। विचारों की यह आतिशबाजी अद्भुत होती है। हृदय से तीर छूटकर सीधे सिर तक पहुंचता है और वहां फूटता है तब स्वस्थ शरीर कैसा अस्वस्थ हो जाता है, इस बात का जिसने अनुभव लिया है वही इसके चमत्कार को जान सकता है।
इस स्थान पर मंदिर क्यों नहीं है? हमारे मंदिर तो मानो जन्मभूमि के काव्य मय स्थान है। अगर पहाड़ का अमूक शिखर उत्तुंग है, तो वहां कोई ऋषि ध्यान करने के लिए जाकर बैठा ही है और भक्तों ने वहां एक मंदिर बनाया ही है। फिर वह चाहे पूना के पास का पार्वती शिखर हो, चांपानेर के पास का पावागढ़ हो, जूनागढ़ के पास का गिरनार हो या हिमालय का कैलाश शिखर हो। दक्षिण की ओर दौड़ने वाली नदी कहीं उत्तरवाहिनी हुई है? तो चलो, वहां एकाध तीर्थ की स्थापना करो, करोड़ों लोग आकर पावन हो जायेंगे। बड़ी-बड़ी दो नदियां एक-दूसरे से मिलती हों तो उस प्रयाग में हमारे संतों ने तीसरी अपनी सरस्वती बहायी ही है। सारी यात्रा पूरी करके समुद्र तक पहुंचे, तो वहां भक्तों ने जगन्नाथ जी की या सेतुबध महादेव जी की स्थापना की ही है। जहां जमीन का अंत दीख पड़ा वहां या तो कन्याकुमारी होगी या देवेंद्र होगा। लंबे रेगिस्तान में एकाध सरोवर दिखाई दे तो वह नारायण ही सरोवर, उसकी पूजा होनी ही चाहिये। और क्षीरभवानी की स्थापना भी होनी ही चाहिये।
हमारे संत कवियों ने तीर्थस्थानों की स्थापना कहां-कहां की है, यह खोजने चलेंगे तो हिन्दुस्तान का सारा भूगोल पूरा करना पड़ेगा। मुसलमान संतों ने और रोमन कैथलिक पादरियों ने भी हमारे देश में इसी तरह अद्भुत काव्यमय स्थान पसंद किये हैं और वहां पूजा-प्रार्थना की व्यवस्था की है। फिर इस प्रपात के पास मंदिर क्यों नहीं है? क्या जीवनराशि के इतने बड़े अधः पतन को देखकर मुनि खिन्न हुए होंगे? क्या भैरवघाटी की तरह यहां शरीर छोड़ने का नशा पैदा होगा, इस खयाल से लोक संग्रह करने वाले मुनियों ने लोकयात्रा के लिए इस स्थान को नापसन्द किया होगा? या दिमाग को भर देने वाली अखंड और भीषण गर्जना ध्यान के लिए अनुकूल नहीं है, ऐसा मानकर उपासक यहां से विमुख हुए होंगे? या यह प्रपात ही स्वयं अभयब्रह्म की मूर्ति है, उसके पास ध्यान खिंच सके ऐसी कौन सी मूर्ति खड़ी करें, इस उधेड़ बुन में पड़कर उन्होंने यह विचार छोड़ दिया? कौन बता सकता है? हमारे पुरखों ने यहां कोई मंदिर नहीं बनाया, इस बात का मुझे जरा भी दुःख नहीं है। किन्तु इस स्थान को देखकर सूझे हुए भावों का एकाध तांडवस्तोत्र तो अवश्य उनको लिखना चाहिये था। पार्थिव मूर्ति जहां काम नहीं करती वहां वाङ्मयी मूर्ति जरूर उद्दीपक हो सकती है।
यह सारी शोभा हम प्रपात के सिर पर से देख रहे थे। होन्नावर की ओर से आने वाले लोग जब उत्तर कानड़ा जिले के महाकांतार से आते हैं तब उन्हें नीचे से इस प्रपात का आ-पाद-मस्तक दर्शन होता होगा। दोनों में कौन सा दर्शन ज्यादा अच्छा है, यह बिना अनुभव किए कौन बता सकेगा और अनुभव लें भी तो क्या? प्रकृति की अलग-अलग विभूतियों में किसी समय तुलना हुई है? हिमालय की भव्यता, सागर की गंभीरता, रेगिस्तान की भीषणता और आकाश की नम्र अनंतता के बीच तुलना या पसंदगी कौन कर सकता है? इसलिए एक बार होन्नावर के रास्ते से जोग के दर्शन के लिए आना चाहिये।
समुद्र में जहाजी बेड़े का अनुभव लेकर कुशल बने हुए चंद फौजी अफसर प्रपात को नापने के लिए आये थे और हिंडोले में लटकते हुए प्रपात की पीछे की ओर पहुंच गये थे। उन्हें किस तरह का अनुभव हुआ होगा? जोग के पक्षियों ने उनका कैसा स्वागत किया होगा? प्रपात के परदे में से अंदर फैलने वाला बाहर का प्रकाश उन्हें कैसा मालूम हुआ होगा? और अंधेरी रात में प्रपात के पीछे यदि घास जलाकर बड़ा प्रकाश किया जाय तो सारी घाटी में किस तरह की गंधर्वनगरी पैदा होगी, इस बात का ख्याल क्या किसी को है? जल यहां बिजली का कल-कारखाना तैयार होगा तब कुछ कल्पनाशूर लोग इस प्रपात के पीछे बिजली की बत्तियों की कतार जरूर लगायेंगे और संसार ने कभी न देखा हो ऐसा इंद्रजाल फैलायेंगे। उस समय सारी घाटी एक महान रंगंभूमि के जैसी बन जायेगी और चारों खंडों के भूदेव उसे देखने के लिए अवतार लेंगे। परन्तु उस समय क्या किसी को ईश्वर का स्मरण होगा? मालूम होता है, अपनी बुद्धिशक्ति का उपयोग ईश्वर को पहचानने के लिए करने के बदले मनुष्य ने उसका उपयोग ईश्वर को भूलने की युक्तियां और पद्धतियां खोजने में ही किया है।
शायद ऐसा भी हो कि सब ओर से परास्त होने के बाद ही बुद्धि ईश्वर को अधिक अच्छी तरह से समझ सकेगी।
हरेक वस्तु का अंत होता है। इसलिए हमारी इस जोग-यात्रा का भी अंत हुआ। अत्यंत पवित्र और मीठे संस्मरणों के साथ हम वापस लौटे। किन्तु फिर एक बार वहां जाने की वासना तो रह ही गयी। इसलिए ‘पुनरागमनाय च’ इन शास्त्रोक्त शब्दों का उच्चार करके हम भारत-वैभव की इस असाधारण विभूति से विदा ले सके।
सितंबर, 1927
नायगरा के प्रपात के कई वर्णन मेरे पढ़ने में आये थे। प्रकृति माता का अमरीका को दिया हुआ वह अद्भुत आभूषण है। दुनिया भर के लोग उसकी यात्रा के लिए जाते हैं। कई लोगों ने बड़े मजबूद पीपे में बैठकर उस प्रपात में से पार होने के प्रयत्न किए हैं आदि वर्णन जैसे-जैसे मैं अधिक पढ़ता गया वैसे-वैसे मेरा कुतूहल बढ़ता गया। अनेक दिशाओं से लिए हुए चित्र और अक्षिपट (Bioscopes) नायगरा को नजर के सामने प्रत्यक्ष करने लगे। इस प्रकार नायगरा का अप्रत्यक्ष दर्शन जैसे-जैसे बढ़ता गया, वैसे-वैसे बचपन में सुने हुए उस गिरसप्पा के प्रपात की मानस पूजा बढ़ती गई। बाद में जब यह पता चला कि नायगरा तो सिर्फ 164 फुट की ऊंचाई से गिरता है, जब कि गिरसप्पा की ऊंचाई 960 फुट है, तब तो मेरे अभिमान का कोई पार न रहा। सबसे मुख्य और संसार का सबसे बड़ा पर्वत हिन्दुस्तान में हैं। सिन्धु, गंगा, और ब्रह्मपुत्रा जैसी नदियों के बारे में किसी भी देश को जरूर गर्व हो सकता है। यह सिद्ध करने के लिए कि सबसे लंबी नदी हमारे ही यहां है, अमरीका को दो नदियों की लंबाई मिलाकर एक करनी पड़ी। मिसोरी और मिसिसिपी को अलग-अलग मानें तो उनकी लंबाई कितनी होगी? हिन्दुस्तान का इतिहास जिस तरह पृथ्वी पर सबसे पुराना है, उसी तरह हिन्दुस्तान की भू-रचना भी सारे संसार में अद्भुत है।
क्या हिन्दुस्तान केवल प्रपात के बारे में हार जायेगा? सारे संसार ने कबूल किया है कि आशोक के समान दूसरा सम्राट दुनिया में नहीं हुआ है। भूगोल में भी लोगों को स्वीकारना चाहिये कि भव्यता में गिरसप्पा से (उसका सही नाम जोग है) मुकाबला हो सके ऐसा दूसरा एक भी प्रपात संसार में नहीं है।
कारकल राजकीय परिषद् के लिए मैं दक्षिण कर्नाटक में गया था तब उम्मीद रखी थी कि अगुंबा घाट चढ़कर शिमोगा होते हुए गिरसप्पा देखने के लिए जाऊंगा किन्तु वैसा नहीं हो सका।
मनसा चिंतितं कार्य दैवेनान्यत्र नीयते।
निराशा में मैंने मान लिया कि इस चिरसंचित आशा से आखिर मैं हमेशा के लिए वंचित हो गया हूं और गिरसप्पा का दर्शन मुझे ध्यान के द्वारा ही करना होगा।
किन्तु इतना तो जान लिया था कि जोग मैसूर राज्य की सीमा पर है। वहां जाने के दो रास्ते हैं। ऊपर का रास्ता शिमोगा सागर होकर जाता है और दूसरा नदी के मुख की ओर से जाता है। इसमें होन्नावर बंदर से नाव में बैठकर जंगलों को पार करके गिरसप्पा गांव तक जाना होता है और वहां से घाट चढ़ना पड़ता है। दोनों रास्तों से जाकर आये हुए लोग कहते हैं कि एक ओर की शोभा दूसरी ओर देखने को नहीं मिलती। यह तो कहा ही नहीं जा सकता कि एक ओर की शोभा दूसरी ओर की शोभा से उतरती है। एक रास्ते से जाऊं और दूसरी ओर का साक्षात् अनुभव न करूं, तब तक तो मुझे कबूल करना ही चाहिये कि मैंने जोग के आधे ही दर्शन किये हैं।
गुजरात में बाढ़ आयी थी उस समय गांधी जी अपनी बीमारी के दिन बंगलोर में बिता रहे थे। मैं उनसे मिलने गया था। वहां से मैसूर राज्य में घूमते-घामते गांधी जी सागर तक पहुंचे। श्री गंगाधरराव और राजगोपालाचार्य साथ में थे। सागर पहुंचने के बाद गिरसप्पा देखने के लिए न जाना तो मेरे लिए असंभव था। मोटर से एक ही घण्टे का रास्ता था। शिमोगा में तुंगा के किनारे घूमने गये थे तब मैंने गांधी जी से आग्रह किया था, “आप गिरसप्पा देखने चलिये न? लार्ड कर्जन सिर्फ गिरसप्पा देखने के लिए खास यहां आये थे। इस ओर आना फिर कब होगा?” गांधीजी बोले, “मुझसे इतनी भी मनमानी नहीं हो सकेगी। तुम जरूर हो आओ। तुम देख आओगे तो विद्यार्थियों को भूगोल का एकाध पाठ पढ़ा सकोगे।” मैने दलील पेश कीः “मगर यह संसार का एक अद्भुत दृश्य है। नायगरा से जोग छः गुना ऊंचा है। 960 फुट ऊपर से पानी गिरता है। आपको एक बार उसे देखना ही चाहिये।”
उन्होंने पूछा, “बारिश का पानी आकाश से कितनी ऊंचाई से गिरता है?” और मैं हार गया। मन में कहाः “स्थितधीः किं प्रभाषेत? किमासीत? व्रजेत किम्?”
मुझे मालूम था कि गांधी जी को संगीत की तरह सृष्टि-सौंदर्य का भी बड़ा शौक है। घूमने जाते हुए सूर्यास्त की शोभा की ओर या बादलों में से झांकते हुए किसी अकेले सितारे की ओर उन्होंने मेरा ध्यान किसी समय खींचा न हो ऐसी बात नहीं थी। किन्तु प्रजा की सेवा का व्रत लिये हुए गांधी जैसे सेवक महात्मा मनमानी किस तरह कर सकते हैं?
कुलशिखरिणः क्षुद्रा नैते न वा जलराशयः
एक बात इस तरह समाप्त हुई इसलिए मैंने दूसरी बात शुरू कर दीः ‘आप नदी आते इसलिए महादेव भाई भी नहीं आते। आप उनसे कहेंगे तो ही वे आयेंगे।’
“उसकी इच्छा हो तो वह भले तुम्हारे साथ जाये। मैं मना नहीं करूंगा किन्तु वह नहीं आयेगा। मैं ही उसका गिरसप्पा हूं।”
बाकी के हम सब ठहरे दुनियवी आदर्श के लोग! पहाड़ पर से गिरता हुआ प्रपात चर्मचक्षु से न देखें तब तक हमें तृप्ति नहीं हो सकती थी। इसलिए भोजन के पहले ही हम सागर से रवाना हुए और मोटर की मदद से जंगल पार करने लगे। पहाड़ों को कुरेदकर रेलवे वाले जब खोह या सुरंग बनाते हैं तब हमें बहुत आश्चर्य होता है। किन्तु बम्बई की बस्ती से भी घने सह्याद्रि के जंगलों में से रास्ता तैयार करना उससे भी अधिक कठिन है। यहां आपका डायनेमाइट (सुरंग) नहीं चलेगा। तने को काटने के बाद भी एक एक पेड़ को शाखाओं के जाल से मुक्त करना हिन्दू-मुसलमानों के झगड़ों को निबटाने जितना कठिन काम है। खंडाला घाट की गहरी खोह के बीचों-बीच जाने पर आदमी जिस भयानक रमणीयता का अनुभव करता है, उसी तरह की स्थिति का अनुभव इन जंगलों में होता है। ऐसे जंगलों में हाथी, बाघ या अजगर जैसे प्राणी ही शोभा देते हैं। इनमें मनुष्य तो बिलकुल तुच्छ प्राणी मालूम होता है। लगता है, यह ऐसे जंगलों में कहां से आ गया!
खैर; हम जंगल पार करके शरावती के किनारे पहुंचे। इस ओर उसे भारंगी भी कहते हैं। भारंगी यानी बारहगंगा। यहां के लोग यदि यह मानते हों कि गंगा नदी से इस नदी का माहात्म्य बारह गुना अधिक है, तो हम उनसे झगड़ा नहीं करेंगे। हरेक बच्चे को अपनी ही मां सर्वश्रेष्ठ मालूम होती है न? पानी रिमझिम बरस रहा था। यहां गगनभेदी महावृक्ष भी थे, और छोटे-बड़े झाड़-झंखाड़ भी थे। अमर घास भी थी और जमीन तथा पेड़ों की बूढ़ी छाल पर उगने वाली शैवाल (काई) भी थी। उस पार के छोटे-बड़े पेड़ नदी का पानी कितना ठंडा या गहरा है यह जांचने के लिए अपने पत्तों वाले हाथ पानी में डालते थे। और कुहरे के चंद बादल आलसी सांड की तरह इधर-उधर भटक रहे थे।
नदी को देखकर सवाल उठता है कि यह नदी कहां से आती है और कहां जाती है? मेरे मन में तो हमेशा नदी कहां से आती है, यही सवाल प्रथम उठता है। दूसरों के मन में भी यही सवाल उठता होगा। इसका क्या कारण है? नदी कहां जाती है, यह जांचना आसान है। नदी में कूद पड़े कि वह हमें अनायास अपने साथ ले चलती है। उतनी हिम्मत न हो तो एकाध पेड़ के तने को कुरेदकर बस उसमें बैठ जाइये। किन्तु नदी कहां से आती है, यह जांचने के लिए प्रतीप गति से जाना चाहिये। ऐसा तो सिर्फ ऋषिगण ही कर सकते हैं। उस दिन का दृश्य ऐसा था जिससे मन में संदेह उत्पन्न होता था कि भारंगी या शरावती का पानी पहाड़ से आता है या बादलों से?
नाव में बैठकर हम उस पार गये। किनारे की जमीन से कई नन्हें-नन्हें झरने कूद कूदकर नदी में गिरते थे। उन पर से हम सहज अनुमान लगा सके कि अगले दिन भारी बरसात होने के कारण नदी का पानी काफी बढ़ गया था। आज वह करीब पांच फुट उतरा था। नाव हमें नीचे उतारकर दूसरों को लाने वापस गई। शांत पानी में नाव जब डांड की डब् डब् आवाज करती हुई जाती या आती है उस समय का दृश्य कितना सुंदर मालूम होता है! और जब यह नाव हमारे प्रियजनों को अपने पेट में स्थान देकर उन्हें गहरे पानी की सतह पर से खींचकर लाती है, तब चिंता का कोई कारण न होते हुए भी मन में डर मालूम हुए बिना नहीं रहता। राजगोपालाचार्य अपने पुत्र और पुत्री को साथ लेकर नाव में बैठने जा रहे थे। मैंने उनसे कहा, ‘हमारे पुरखों ने कहा है कि एक ही कुटुंब के सब लोग एक साथ एक ही नाव में बैठें यह ठीक नहीं है। या तो पिता हमारे साथ आयें या पुत्र; दोनों नहीं।’ साथी लोग इसरिवाज की चर्चा करने लगे। किसी को इसमें प्रतिष्ठा की बू आई, किसी को और कुछ सूझा। किन्तु किसी के ध्यान में यह बात नहीं आयी कि सर्वनाश की संभावना को टालने के लिए ही यह नियम बनाय गया है। मुझे यह अर्थ स्पष्ट करके वायुमंडल को विषण्ण नहीं बनाना था। इसलिए पुरखों की बुद्धि की निंदा सुनता हुआ मैं उस पार पहुंचा। जब नाव मझधार में पहुंची तब मंत्र बोलकर आचमन करना मैं नहीं भूला। नदी के दर्शन के साथ स्नान, पान और दान की विधि होनी ही चाहिये। तभी कहा जायेगा कि नदी का पूरा साक्षात्कार किया।
दूसरी टुकड़ी आ पहुंची और हम दाहिनी ओर के रास्ते से चलने लगे। नदी का वह बायां किनारा था। रास्ते के बड़े-बड़े पेड़ों की मस्जिद के स्तंभों की तरह सीधे ऊंचे जाते देखकर हमें आनंद हुआ। हमारी टोली इतनी बड़ी थी कि इस निर्जन अरण्य में देखते ही देखते ही हमारा वार्ताविनोद और हमारा अट्टहास्य चारों ओर फैल गया। मगर कितनी देर तक? हम कुछ ही दूर गये होंगे कि नदी ने अपनी गंभीर ध्वनि शुरू की। इस आवाज को किसकी उपमा दी जाय? इतनी गंभीर आवाज और कहीं सुनी हो तभी तो उपमा दी जा सके न? मेघगर्जना भीषण जरूर होती है, और यह भी सच है कि वह सारे आकाश में फैल जाती है। किन्तु वह सतत नहीं होती। यहां तो आप सुन-सुनकर थक जायें तो भी आवाज रुकती ही नहीं। क्या यहां बादल टूट पड़ते हैं? क्या तोपें छूटती हैं? अथवा पहाड़ के बड़े-बड़े पत्थरों की धानी फूटती है? या नदी अपना ध्यान मौन छोड़कर महारुद्र का स्तवराज बोलती है?
‘अब कौन सा दृश्य आयेगा?’, अब कौन सा दृश्य आयेगा? ऐसे कुतूहल से आंखे फाड़कर चारों ओर देखते हम मुसाफिर खाने (डाकबंगले) तक पहुंचे। जहां से प्रपात का दर्शन सबसे सुन्दर होता है, वहीं मैसूर राज्य की ओर से यह अतिथिशाला बनायी गयी है। हम निरिक्षण के चबूतरे पर जा पहुंचे। मगर यह क्या? सर्वव्यापी कुहरे के अलावा और कुछ दिखायी ही नही देता था। और प्रपात अपनी गंभीर आवाज से सारी घाटी को गूंजा रहा था। ठीक दोपहर को भी सूर्य के दर्शन नहीं हो पाये। जहां देखे वहां कुहरा ही कुहरा! कुहरे के घने बादल मानो कुरुक्षेत्र का महायुद्ध मचा रहे हो और जोग अपने ताल से उनका साथ दे रहा हो। इतनी उम्मीद के साथ आने के बाद इस तरह का तमाशा हमें कभी देखने को नहीं मिला था। मिनट पर मिनट बीतते जाते थे और हमारी निराशा के साथ कुहरा भी घना होता जाता था। आखिर हम मौन तोड़कर आपस में बाते करने लगे। बातें करने के लिए कोई खास विषय नहीं था, किन्तु निराशा की शून्यता को भरने के लिए कुछ तो चाहिये था।
क्या इन्द्रदेव कुपित हो गये हैं या वरुणदेव अप्रसन्न हो गये हैं? मैं यह सोच ही रहा था कि इतने में वायुदेव ने मदद की और एक क्षण के लिए-सिर्फ एक ही क्षण के लिए कुहरे का वह घना परदा दूर हटा और जिंदगीभर जिसके लिए तरसता रहा था वह अद्भुत दृश्य आखिर आंखों के सामने आया! महादेव जी के सिर पर जिस तरह गंगा का अवतरण होता है, उसी प्रकार एक बड़ा प्रपात नीचे की खोह से बाहर निकले हुए हाथी जैसे पत्थर पर गिरकर, पानी का आटा बनाकर, चारों ओर उसकी बौछारें उड़ा रहा हैं!!
नहीं। इस दृश्य का वर्णन शब्दों में हो ही नहीं सकता। आश्चर्यमग्न होकर मैं बोल उठाः
नमः पुरस्तात् अथ् पृष्ठतस् ते नमोSस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्त-वीर्यामित-विकमस् त्वम सर्वं समाप्नोषि ततोSसि सर्वः।।
तुरन्त सामने का वह हाथी के समान पत्थर सिर से प्रपात की जटाओं को झाड़कर बोलाः
सुदुर्दर्शम् इदं रूपं दृष्टवान् असि यन् मम।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शन-कांक्षिणः।।
कुहरे का परदा फिर पहले की तरह जम गया और हमारी स्थिति ऐसी हो गयी। मानो हमने जो दृश्य देखा था वह सब स्वप्न था, माया थी या मतिभ्रम था! वह विस्तीर्ण खोह, वह विशाल पात्र, वह भयानक गहराई और उसके बीच पानी का नहीं बल्कि आटे का- नहीं, मैदे का-वह अद्भुत प्रपात और फव्वारा! सारा दृश्य कल्पनातीत था। यह प्रतीति दृढ़ होने के पहले ही कि हम जो अपनी आंखों से देख रहे हैं वह सच्चा ही है, कुहरे का क्षीरसागर फिर फैल गया और हम सामने के काव्य के साथ उसमें डूब गये।
अब कोई किसी से बोलता नहीं था। जो देखा था उस पर सोचने लगे। जहां कुछ भी नहीं था वहां इतनी बड़ी और गहरी सृष्टि कहां से पैदा हुई और देखते-ही-देखते वह कहां लुप्त हो गयी-इसी आश्चर्य ने मानों हम सबकों घेर लिया।
मन में आया, चाहे क्षण के लिए ही क्यों न हो, जो देखने आये थे उसे हमने देख लिया। अद्भुत रिति से देख लिया। एक क्षण के लिए जो दर्शन हुआ उसके स्मरण और ध्यान में घंटों बिताये जा सकते हैं।
इतने में वही शुभ्र जटाधारी पत्थर फिर से बोलाः
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस् त्वं तदेव में रूपम् इदं प्रपश्य।
कुहरे का आवरण फिर दूर हटा और अब तो इस छोर से उस छोर तक सब कुछ दीख पड़ने लगा। सामने की ओर से ठेठ बायें छोर पर ‘राजा’ अर्धचंद्राकार पत्थर पर से नीचे कूद रहा था उसका पानी बारिश के कीचड़ के कारण कॉफी के रंग का हो गया था। किन्तु सबसे अधिक पानी राजा को ही मिलता है। छाती फुलाता हुआ जब वह ठेठ सीधा तब इस बात का खयाल होता है कि प्रकृति की शक्ति कितनी अपरिमित है। राजा का प्रपात का विस्तार भी कुछ कम नहीं है। और उसके दोनों ओर बड़े-बड़े मोतियों के कई हार लटकते दौड़ते हैं। सचमुच यह प्रपात राजा के नाम के काबिल ही है।
उसके पास के जिस प्रपात का दर्शन मुझे सबसे प्रथम हुआ था वह वास्तव में तीसरा था। उसका नाम है वीरभद्र। बीच का एक प्रपात रुद्र इस ओर से स्पष्ट दिखाई ही नहीं देता। वह कदम-कदम पर जोर से चिल्लाता हुआ आखिर राजा में मिल जाता है।
ठेठ दाहिनी ओर एक छोटा सा प्रपात है। उसकी कमर कुछ पतली है। इस लिए मैंने उसका नाम पार्वती रखा। जी भरकर देखने के बाद हमारी बातें फिर से शुरू हुई। स्वयं जो कुछ देखा हो उसे दूसरे को दिखाने की उमंग जिसमें न हो वह आदमी-आदमी नहीं है। आदमी संचारशील होता है, संवादशील होता है। उसने जो अनुभव किया वही दूसरों को भी होता है- हो सकता है- ऐसा विश्वास जब तक न हो तब तक उसे परम संतोष नहीं होता। राजाजी ने ध्यान खींचा, ‘यह नीचे तो देखो! ठंडी भाप के ये बादल कैसे ऊपर कूद आते हैं?’ देवदास कहने लगे, ‘उन पक्षियों को तो देखो! कैसे निर्भय होकर उड़ रहे हैं? मणिबहन ने भी ऐसा ही कुछ कहा और लक्ष्मी ने अपने अण्णा को तमिल भाषा में बहुत समझाकर अपना आनंद व्यक्त किया। हमारे साथ और एक भाई आये थे। वे रास्ते में अकारण ही नाराज हो गये थे। हम जब इस स्वर्गीय दृश्य के आनंद में विभोर हो रहे थे तब उन भाई को अपने माने हुए अपमान की ही जुगाली करनी थी। चंद्रशंकर ने उनकी इस स्थिति की ओर मेरा ध्यान खींचा। मैं मन ही मन बोलाः’
पत्रं नैव यदा करीर-विटपे दोषो वसंतस्य किम्?
नोलूकोप्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणम्?
इस संसार में निराशा, गलतफहमी, अप्रतिष्ठा, या वियोग सच्चे दुःख नहीं हैं। बल्कि अंहकार ही सबसे बड़ा दुःख है। अहंकार की विकृति को बड़े-बड़े धन्वंतरि भी दूर नहीं कर सकते।
उन भाई की अनेक प्रकार की परेशानियों और विकृतियों को मैं जानता था इसलिए गिरसप्पा के जोग के सामने भी उन्हें दो क्षण दिये बिना मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उनको गिरसप्पा के बारे में थोड़ी जानकारी दी और उन्हें प्रसन्न करने-का प्रयत्न किया।
राजा प्रपात के पीछे की ओर की खोह में असंख्य पक्षी रहते हैं, और दूर दूर के खेतों चुनकर लाये हुए ‘उच्छिष्ट’ और उत्कृष्ट दानों का संग्रह करते हैं। एक बार किसी से सुना था कि यह संग्रह इतना बड़ा होता है कि सरकार की ओर से उसका निलाम किया जाता है। मधुमक्खियों का मधु लूटनेवाला मानव-प्राणी पक्षियों के संग्रह को भी लूटे तो उसमें आश्चर्य की क्या बात है? जो संग्रह करता है वह लूटा जाता है, ऐसी सृष्टि की व्यवस्था ही दीख पड़ती हैः ‘परिग्रहों भयायैव’।
फिर कुहरे का आवरण फैला और मुझे अन्तर्मुख होकर विचार में डूब जाने का मौका मिला। ऐसे भव्य दृश्यों का रहस्य क्या है? भूगोलवेत्ता और भूस्तरशास्त्री फौरन कह देंगे ‘यहां का पहाड़ ‘निस’ कोटि के पत्थर के स्तर का है। घाटी में से एक कगार टूट गई होगी और आसपास की मिट्टी घुल गई होगी। एक बार प्रपात शुरू होने पर वह नीचे की जमीन को अधिकाधिक गहरा खोदता जाता है और जहां से प्रपात शुरू होता है उस कोने को घिसता जाता है। ऊपर का वह माथा यदि सख्त पत्थर का हो, तो ऊंचाई हजारों वर्षों तक कायम रह सकती है। प्रपात से समुद्र अधिक दूर न होने से नदी का आगे का हिस्सा साफ हो गया है और प्रपात की ऊंचाई कायम रही है।’ किन्तु यह तो हुआ प्रपात का जड़ रहस्य। किसी आधुनिक यांत्रिक से पूछिये तो वह कहेगाः ‘अकेले गिरसप्पा के प्रपात में इतना प्रचंड सामर्थ्य है कि मैसूर और कानड़ा (कर्णाटक) इन दोनों जिलों को चाहिये उतनी शक्ति वह दे सकता है। फिर, आप उससे बिजली लीजिये, हरेक शहर और गांव को प्रकाशित कीजिये, कल-कारखाने चलाइये और अपने मुल्क के या दूसरों के मुल्क के चाहे उतने लोगों को बेकार बना दीजिये।’
प्रकृति से जो कुछ फायदा मिलता है वह पृथ्वी की सभी संतानें आपस में समझ बूझकर बांट लें और जीवनयात्रा का बोझा हल्का कर लें, ऐसी बुद्धि आदमी को जब सूझेगी तब की बात अलग है। किन्तु आज तो मनुष्य के हाथ में किसी भी तरह की शक्ति आ गयी कि वह फौरन उसका उपयोग दूसरों से स्पर्धा करके श्रेष्ठत्व पाने के लिए ही करता है। फिर वह श्रेष्ठत्व उसे भले दूसरों को मारकर मिलता हो, या गुलाम बनाकर मिलता हो, या आधे पेट पर रखकर मिलता हो।
मैसूर राज्य एक आगे बढ़ा हुआ राज्य है। बड़े-बड़े इंजीनियरों ने दीवान पद को सुशोभित करके यहां की समृद्धि को बढा़ने की कोशिश की है। यदि कहें कि सारे संसार के लिए आवश्यक चंदन का तेल सिर्फ मैसूर राज्य ही देता है तो इसमें अधिक अत्युक्ति नहीं होगी। हिन्दुस्तान की बड़ी से बड़ी सोने की खानें मैसूर में ही है। भद्रावती के लोहे के कल-कारखाने की कीर्ति बढ़ती ही जा रही है। और कृष्णसागर तालाब तो मानव-पराक्रम का एक सुन्दर नमूना है। यह तो हो ही नहीं सकता कि ऐसे मैसूर राज्य को गिरसप्पा के प्रपात को भुनाकर खाने की बात सूझी न हो। किन्तु अब तक यह बात अमल में नहीं आयी-इतनी बड़ी शक्ति का कौन सा उपयोग किया जाय, यह न सूझने से या सीमा का कोई झगड़ा बीच में आने से या अन्य किसी कारण से, यह मैं भूल गया हूं। मगर इसमें कोई शक नहीं कि गिरसप्पा कि शोभा अब भी उतनी ही प्राकृतिक, उदात्त और अक्षुण्ण है।
भगिनी निवेदिता की प्रख्यात तुलना का यहां स्मरण हो आता है। किसी भी स्थान की रमणीयता ने जब भारतवासी को आकर्षित किया है तब उसने फौरन उसका धार्मिक रूपान्तर कर ही दिया है। भारत का हृदय जब किसी अद्भुत रमणीय या भव्य दृश्य को देखता है, तब तुरंत उसको लगता है कि यह तो गाय जैसे बछड़े को पुकारती है वैसे परमात्मा जीवात्मा को पुकार रहा है। नायगरा का प्रपात यदि हिन्दुस्तान में गंगा मैया के प्रवाह में होता तो यहां की जनता ने उसका वायुमंडल कैसा बना डाला होता? आमोद-प्रमोद और पिकनिक की टोलियों के बदले और रेल के यात्रियों के बदले प्रपात की पूजा करने के लिए वार्षिक या मासिक यात्रियों की टोलियां ही टोलियां यहां इकट्ठा होती। भोगविलास के सब साधन मुहैया करने वाले होटलों के बदले प्रपात के किनारे या उसके बीचोंबीच उमड़े हुए हृदय की भक्ति उंडेलने के लिए बड़े-बड़े मंदिर बनाये गये होते। सृष्टि के वैभव को देखकर भड़कीले ऐशो आराम और शानोशौकत के बदले लोगों ने यहां तप किया होता। और इतनी प्रचंड शक्ति को मनुष्य के फायदे के लिए और सुख-चैन के लिए कैद करने की बात सूझने के बदले उसे प्रकृति के साथ ऐक्य का अनुभव करने वाली मस्ती में भैरव जाप के साथ पानी के प्रवाह में अपने जीवन-प्रवाह को मिला देने की ही बात सूझती। स्वभाव भिन्नता में क्या कुछ बाकी रहता है?
मगर प्रकृति की भव्यता को देखकर उसमें अपने शरीर को छोड़ देने में आध्यात्मिकता है क्या? नहीं। इसमें कोई संदेह नहीं कि शरीर के बंधन टूट जायें, ‘किसी भी हालत में जीवित रहूंगा ही’ इस तरह की पामर जीवनाशा मनुष्य छोड़ दे, इसमें आध्यात्मिक प्रगति है। किन्तु यह वृत्ति स्थायी होनी चाहिये। क्षणिक उन्माद का कोई अर्थ नहीं है। फन्ना होने की इच्छा हरेक मनुष्य के दिल में किसी समय पैदा होती ही है। इश्क की यह एक विकृति है। इसमें किन्हीं आध्यात्मिक तत्त्वों की झांकी देखकर उस पर फिदा होना मनुष्य-जीवन की महत्ता को शोभा नहीं देता। भगवान बुद्ध ने अपनी अचूक नजर से उसको विभव-तृष्णा का नाम देकर उसे धिक्कारा है। विभव का अर्थ है नाश। भगवान मनु ने भी यह बात साफ शब्दों में बताई हैः
नाभिनन्देत मरणम्; नाभिनन्देत जीवितम्।
इसमें संदेह नहीं कि गिरसप्पा के प्रपात जैसे रोमहर्षण दृश्य के सामने यंत्रों, शक्ति के हॉर्स-पावर, बिजली के प्रकाश या कल-कारखानों के बारे में सोचना आत्मा को भूलकर बाहरी वैभव का ध्यान करने के बराबर है। किन्तु आसपास का प्रदेश यदि अकाल से पीड़ित हो, लोग अनेक रोगों के शिकार होते हों, और जनता का यह दुःख प्रपात के पानी का अन्य उपयोग करने से ही दूर होता हो, तो उस समय हमारा क्या आग्रह होगा? सृष्टि सौंदर्य का रसपान करने वाले हमारे चित्त के आह्लादक साधन को प्रपात को -वैसा का वैसा रखने का, या हमारे आपद्ग्रस्त भाइयों को दुःख मुक्त करने के लिए उसका बलिदान देने का? जहा पर्याप्त अनाज न मिलता हो वहां अनाज की खेती को छोड़कर गुलाब की खेती करने लगें, तो क्या इससे हमारा हृदयविकास होगा? गुलाब में काव्य है, अनाज में कारुण्य है। दोनों में से हम किसे पसन्द करेंगे? इंग्लैंड के एक एक प्राचीन राजा ने अनेक गांवों को उजाड़कर मृगया के लिए एक महान उपवन तैयार किया था। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह राजा मर्दाने खेलों का रसिया था। किन्तु सवाल यह है कि उसे प्रजासेवक मानें या नहीं? जब कला के सामने सेवा का सवाल खड़ा होता है, किस वृत्ति को- काव्य की या कारुण्य की-पोषण दें यह तय करना होता है, तब निर्णय किसी कसौटी पर कसकर दिया जाय? जलते हुए रोम को देखकर नीरो का फिडल बजाना और जलती मिथिला को देखकर जनक राजा की आध्यात्मिक चर्चा करना, दोनों में फर्क है। जनता की सेवा जितनी बन सकती थी उतनी सब करने के बाद व्यर्थ की चिंता में दिल को जलाने की अपेक्षा हृदय में अंतर्यामी के स्मरण को दृढ़ करने का प्रयत्न आर्यवृत्ति को सूचित करता है। इनेगिने लोगों के विलास या ऐश्वर्य के लिए प्रकृति की शक्ति का उपयोग करना और प्राकृतिक सौंदर्य का नाश करना अधर्म है। किन्तु प्राणियों के आर्तिनाश से होने वाले हृदय-विकास को छोड़कर प्रकृति के विभूति-दर्शन में उसको ढूंढ़ने की इच्छा रखना उचित है या नहीं, यह विचारने जैसा है।
वे रूठे हुए भाई अपने कल्पित अपमान की जलन में सामने का दृश्य भूल गए थे और मैं अपने तात्त्विक कल्पना-विहार में शून्य दृष्टि से सामने देख रहा था। दोनों अभागे थे, क्योंकि कल्पना या जलन चलाने के लिए बाद में चाहे उतना समय मिलता। कुहरे का आवरण फिर फैला। अब क्या प्रपात फिर से दिखाई देने वाला था? राजा जी ने कहा, ‘गरमी के दिनों में जब प्रपात गिरता है तब पानी की फुहार पर तरह-तरह के इंद्रधनुष दिखाई देते हैं। उस समय की शोभा बिलकुल निराली होती है। और यह भी नहीं कहा जा सकता कि चांदनी रात में भी धनुष नहीं दिखाई देते। मैसूर का सर्वसंग्रह (गजेटियर) लिखता है कि घास के बड़े-बड़े गट्ठों को आग लगा कर प्रपात में छोड देने से ऐसा दिखाई देता है मानों अंधेरी रात में सारी घाटी जल उठी हो। चंद लोगों ने रात के समय आतिशबाजी करके भी यहां अद्भुत आनंद पाया है। उत्पाती मानव क्या-क्या नहीं करता? मुझे तो ऐसी कोई बात पसन्द नहीं है। ऐसे स्थान पर प्रकृति जो खुराक परोसती है उसकी स्वाभाविक रूचि अनुभव करने में ही सच्ची रसिकता है। मानवी मसाले डालने से स्वाद और पाचनशक्ति, दोनों खराब होते हैं।
अब हम बंगलें के भीतर पहुंचे। साथ में जो भोजन लाये थे उसको उदरस्थ किया। यहां का पानी पी नहीं सकते, क्योंकि फौरन मलेरिया होता है। अधिकतर लोगों ने गरम-गरम कॉफी पीकर ही प्यास बुझाई। मैंने तो उस दिन चातक की तरह बारिश की कुछ बूंदे पाकर ही संतोष माना।
प्रपात का और एक दर्शन करके हम वापस लौटे। अब तो सब तरह से स्पष्ट हो चुका कि प्रपात तीन नहीं बल्कि चार हैं। बाई ओर का पहला बड़ा प्रपात है राजा। उसकी बगल की खोह से आक्रोश करता हुआ उससे आ मिलने वाला ‘रोअरर’ (Roarer) मेरा रुद्र है। सिर पर छूट रहे फव्वारे की शुभ्र जटाओं वाला ‘रॉकेट’। उसे अब वीरभद्र कहने के सिवा चारा नहीं था। और अंत में आने वाले प्रपात का नाम मैंने तन्वंगी पार्वती ही रखा। अंग्रेजों ने रुद्र को Roarer नाम दिया है। वीरभद्र को Rocket और पार्वती को Lady का नाम दिया है।
अब हम वापस लौटे। पांवों में जोंके चिपकने का डर था। यहां के लोगों ने हम सबको सावधानी से चलने के बारे में चेतावनी दे रखी थी। उन्होंने कहा था, जोंकें चिपकेंगी तो मालूम ही नहीं होगा कि चिपक गयी हैं, और खून चूसा जायेगा। मैंने कहा, आप इसकी फिक्र मत कीजिये। अंग्रेजों को हम पहचान गये हैं, तो क्या जोंकों से सावधान नहीं रहेंगे? तिस पर भी करीब-करीब हरेक के पांव में एक एक जोंक चिपक ही गयी । हो सकता है, मेरे शरीर में खून का विशेष आकर्षण न होने से या मेरा खून कसैला होने से या शायद काकदृष्टि से देख देखकर मैं चलता था इससे, मैं बच गया था। हम कुछ आगे गये। किन्तु मणिबहन से रहा नहीं गया। ‘जरा ठहरिये। बन सके तो फिर एक ओर से प्रपात के दर्शन कर आती हूं।’ मगर कुहरा खुले ही नहीं तो?, ‘न खुले तो कोई हर्ज नहीं। वापस लौट आयेंगे। किन्तु एक बार देखने तो दीजिये।’
वापस लौटते समय बीच में एक जगह रास्ता फूटा था। वहां से होकर कइयों ने नजदीक से पार्वती का दर्शन किया और वहां की जमीन फिसलने वाली होने से पार्वती को ‘वंदेमातरम्’ कहकर साष्टांग प्रणिपात भी किया।
जाते समय जिस रास्ते से अज्ञात और अनुभूत काव्य अनुभव किया था, उसी रास्ते से वापस लौटते समय हम संस्मरणों के स्मृतिकाव्य का अनुभव करने लगे, हालांकि वही दृश्य उलटी दिशा से देखने में कम नवीनता न थी। जिन पेड़ों के बारे में जोते समय हमने बातें की थीं, वही पेड़ वापस लौटते समय ध्यान तो खींचेंगे ही। इसलिए इन परिचित भाइयों से ‘क्योंजी कैसे हो?’ कहकर कुशल-समाचार पूछे बिना भला आगे कैसे जाया जा सकता है? और पेड़-पेड़ के बीच प्रेम का पुल बांधने वाली लतायें उनकी नम्रता को नमन किए बिना जो आगे जाता है वह अरसिक है। हम आहिस्ता-आहिस्ता नदी के किनारे तक आ पहुंचे। अब उसी शांत प्रवाह के ऊपर से वापस लौटना था। कुहरे के बादल बिखर गये थे। नदी के शांत पानी को आहिस्ता-आहिस्ता प्रपात की ओर जाता हुआ देखकर मेरे मन में बलिदान के लिए जाते हुए भेड़ों के झुंड की तस्वीर खड़ी हो गयी। मैंने उस पानी से कहाः ‘तुम्हारे भाग्य में कितना बड़ा अधःपतन लिखा है इस बात का खयाल तक तुम्हें नहीं है इसीलिए इतने शांत चित्त से तुम आगे बढ़ते हो। या नहीं- मैं ही गलती कर रहा हूं। तुम जीवनधर्मी हो। तुम्हें विनाश का क्या डर है?’
प्रायः कन्दुक-पातेन पतत्यार्यः पतन्नपि।
जितनी ऊंचाई से गिरोगे उतने ही ऊंचे उछलोगे। तुम्हारी दया खाने वाला मैं कौन हूं? शरावती के पवित्र पानी का स्पर्श करने के लिए मैंने अपना हाथ लंबा किया। पानी खिलखिलाकर हंसा और बोला, ‘न ही कल्याणकृत कश्चित् दुर्गतिं तात! गच्छति।’ नाव इस पार आ गयी और हमें सूझा कि मोटर को इस ओर जरा नीचे तक दौड़ाया जाय तो उसे प्रपात की फिर से दाहिनी यात्रा भी होगी। हम जिस ओर हो आये थे उसे ‘मैसूर की तरफ’ कहते हैं और दाहिनी ओर से जाने के लिए निकले उसे बम्बई की तरफ कहते हैं। क्योंकि जोग दोनों राज्य की सीमा पर है।
यहां तो हम बिलकुल नजदीक आ पहुंचे। मैं बड़ी-बड़ी शिलाओं के बीच से दौड़ने लगा। दो साल के बीमार के रूप में मेरी ख्याति काफी फैली हुई थी। इससे मुझे दौड़ते देखकर राजा जी को आश्चर्य हुआ। किसी ने कहा, ‘वे तो महाराष्ट्र के मावले हैं और हिमालय के यात्री भी हैं। मछलियों को जिस तरह पानी, उसी तरह इन मराठों को पहाड़ होते हैं।’ इन वचनों को सुनने के लिए मुझे कहां रुकना था? मैं तो दौड़ता-दौड़ता राजा प्रपात की बगल में उस प्रख्यात टीले के पास जा पहुंचा। यहां से खड़े-खड़े नीचे की ओर देखा ही नहीं सकता। चक्कर खाकर आदमी गिर जाता है। कानों में चारों प्रपात की आवाज इतनी भरी हुई थी कि दूसरा कुछ सुनने के लिए उनमें गुंजाइश ही बाकी न थी। जिस तरह प्रपात का पानी ऊपर से नीचे गिरकर फिर ऊंचा उछलता था, उसी तरह कान में आवाज भी उछलती होगी। प्रथम मेरा ध्यान खींचा राजा के गंडस्थल पर लटकती मोतियों की लड़ियों ने और जल प्रलय से लोगों को बचाने के लिए जिस तरह वीर तैराक पानी में कूदते हैं उसी तरह इस ओर के प्रपात में होकर युक्ति से गुजरने वाले पक्षियों ने क्या इन पक्षियों को इस प्रपात की भीषण भव्यता का खयाल ही नहीं है, या ईश्वर ने उनके दिल में इतनी हिम्मत भर दी है? मेरा खयाल है कि आगंतुक पक्षियों की इतनी हिम्मत नहीं होगी। इन जोगवासियों का जन्म यहीं हुआ, प्रपात के पटल की सुरक्षितता में उनकी परवरिश हुई। शेर के बच्चे शेरनी से नहीं डरते। सागर की मछलियां लहरों में आनंद मानती हैं, उसी तरह ये जोग के बच्चे जोग के साथ खेलते होंगे।
राजा प्रपात को मैसूर की ओर से दूर से देखा था, तब उसका असर भिन्न प्रकार का हुआ था। यहां तो हम उसके इतने नजदीक थे, मानों हाथी के गंडस्थल पर ही सोये हों। ऊपर का पानी प्रपात की ओर ऐसा खिंचा चला आता था, मानों कोई महाप्रजा जाने-अनजाने, इच्छा-अनिच्छा से महान क्रांति की ओर घसीटी जाती हो। कोई महाप्रजा जब सामाजिक और राजनितिक प्रगति के प्रवाह में बहने लगती है तब आगे क्या होने वाला है इस बात का उसे ख्याल तक नही होता। और खयाल हो भी तो ‘हमारे बारे में यह सच नहीं होगा, हम किसी न किसी तरह बच जायेंगे,’ ऐसी अंधी आशा वह रखती है। इस बीच प्रगति का नशा बढ़ता ही जाता है। अंत में उग्र लोग संयम सुझाते हैं और नरम (मॉडरेट) लोग अंधे होकर गैरजिम्मेदार लोगों के साथ मिल जाते हैं और फिर इच्छा होने पर भी पीछे नहीं हट सकते। या खुद पीछे हटें तो भी क्या? धनुष से निकला हुआ तीर कभी वापस खींचा जा सका है? जो अटल न हो वह क्रांति काहेकी?
प्रपात का पानी नीचे कहां तक जाता है यह देखना या जानना असंभव था। क्योंकि उछलते हुए पानी के बड़े-बड़े बादल प्रपात के पांवों से लिपटे हुए थे। पानी के उन्मत्त उत्सव को देखकर लगता था मानों महादेव जी संहारकरी तांडव-नृत्य ही कर रहे हों और सामने का रुद्र उसमें ताल दे रहा हो। परन्तु रोमांचकारी शोभा का परम उत्कर्ष तो वीरभद्र ही दिखाता है। आपकों यह मालूम ही नहीं होगा कि यहां पानी गिरता है और पानी उछलता है। ऐसा मालूम होता था मानों बड़ी-बड़ी तोपों से गोलों के सहारे कोरे आटे के फव्वारे उड़ते हों। उस दृश्य का वर्णन शब्दों में हो ही नहीं सकता, क्योंकि शब्दों की परवरिश ‘शांति और व्यवस्था’ के बीच होती है।
हमने लेटे-लेटे यहां से इस दृश्य को जी भरकर देखा। या सच कहें तो चाहे उतने लेटने पर भी तृप्त होना असंभव है इस बात का यकीन हुआ तब तक देखा। आखिर हम खड़े होकर वापस लौटे। लेकिन वापस लौटना आसान न था। कोई तो उठता नहीं था। उसे खींचकर लाने के लिए दूसरा जाता था तो वह भी खुद उस नयनोत्सव में चिपक जाता था। पहला पछताकर उठता था तो जो बुलाने जाता वह नहीं उठता था। और जब दोनों मुश्किल से संयम करके वापस लौटते, तब इन पर गुस्सा होकर झगड़ा करने के लिए गये हुए तीसरे भाई एक क्षण के लिए आंखों को तृप्त करने वहां खड़े हो जाते और उन दोनों के संयम को थोड़ा शिथिल बना देते। उन दोनों के मन में आताः इतने चिढ़े हुए समाज-नियंता जितनी छूट लेते हैं उतनी यदि हम भी लें तो इसमें कोई गलती नहीं है। हम कहां उनसे अधिक संयमी होने का दावा करते हैं? मेरे दिल में आया कि उस शिला पर पहुंच जाऊंगा तो राजा के पानी में पांव डाल सकूंगा। किन्तु नदी का पानी कुछ बढ़ता जा रहा था और उसमें वह शिला एक छोटे द्वीप के जैसी बन गयी थी। इसलिए राजा जी ने मुझे मना किया। मुझे भी लगा कि उनकी बात नहीं मानूंगा तो दूनी उद्धतता होगी। राजाजी की आज्ञा का उल्लंघन कैसे किया जाय? और ‘राजा’ के सिर पर पांव कैसे रखा जाय?
हम वापस लौटें। भक्ति, विस्मय, मानव-जीवन की क्षणभंगुरता, दृश्य की भव्यता, इस क्षण की धन्यता-कई वृत्तियों के बादल हृदय में भरे थे और वहां से उस वीरभद्र की तरह सिर में अपने तीर छोड़ते थे। विचारों की यह आतिशबाजी अद्भुत होती है। हृदय से तीर छूटकर सीधे सिर तक पहुंचता है और वहां फूटता है तब स्वस्थ शरीर कैसा अस्वस्थ हो जाता है, इस बात का जिसने अनुभव लिया है वही इसके चमत्कार को जान सकता है।
इस स्थान पर मंदिर क्यों नहीं है? हमारे मंदिर तो मानो जन्मभूमि के काव्य मय स्थान है। अगर पहाड़ का अमूक शिखर उत्तुंग है, तो वहां कोई ऋषि ध्यान करने के लिए जाकर बैठा ही है और भक्तों ने वहां एक मंदिर बनाया ही है। फिर वह चाहे पूना के पास का पार्वती शिखर हो, चांपानेर के पास का पावागढ़ हो, जूनागढ़ के पास का गिरनार हो या हिमालय का कैलाश शिखर हो। दक्षिण की ओर दौड़ने वाली नदी कहीं उत्तरवाहिनी हुई है? तो चलो, वहां एकाध तीर्थ की स्थापना करो, करोड़ों लोग आकर पावन हो जायेंगे। बड़ी-बड़ी दो नदियां एक-दूसरे से मिलती हों तो उस प्रयाग में हमारे संतों ने तीसरी अपनी सरस्वती बहायी ही है। सारी यात्रा पूरी करके समुद्र तक पहुंचे, तो वहां भक्तों ने जगन्नाथ जी की या सेतुबध महादेव जी की स्थापना की ही है। जहां जमीन का अंत दीख पड़ा वहां या तो कन्याकुमारी होगी या देवेंद्र होगा। लंबे रेगिस्तान में एकाध सरोवर दिखाई दे तो वह नारायण ही सरोवर, उसकी पूजा होनी ही चाहिये। और क्षीरभवानी की स्थापना भी होनी ही चाहिये।
हमारे संत कवियों ने तीर्थस्थानों की स्थापना कहां-कहां की है, यह खोजने चलेंगे तो हिन्दुस्तान का सारा भूगोल पूरा करना पड़ेगा। मुसलमान संतों ने और रोमन कैथलिक पादरियों ने भी हमारे देश में इसी तरह अद्भुत काव्यमय स्थान पसंद किये हैं और वहां पूजा-प्रार्थना की व्यवस्था की है। फिर इस प्रपात के पास मंदिर क्यों नहीं है? क्या जीवनराशि के इतने बड़े अधः पतन को देखकर मुनि खिन्न हुए होंगे? क्या भैरवघाटी की तरह यहां शरीर छोड़ने का नशा पैदा होगा, इस खयाल से लोक संग्रह करने वाले मुनियों ने लोकयात्रा के लिए इस स्थान को नापसन्द किया होगा? या दिमाग को भर देने वाली अखंड और भीषण गर्जना ध्यान के लिए अनुकूल नहीं है, ऐसा मानकर उपासक यहां से विमुख हुए होंगे? या यह प्रपात ही स्वयं अभयब्रह्म की मूर्ति है, उसके पास ध्यान खिंच सके ऐसी कौन सी मूर्ति खड़ी करें, इस उधेड़ बुन में पड़कर उन्होंने यह विचार छोड़ दिया? कौन बता सकता है? हमारे पुरखों ने यहां कोई मंदिर नहीं बनाया, इस बात का मुझे जरा भी दुःख नहीं है। किन्तु इस स्थान को देखकर सूझे हुए भावों का एकाध तांडवस्तोत्र तो अवश्य उनको लिखना चाहिये था। पार्थिव मूर्ति जहां काम नहीं करती वहां वाङ्मयी मूर्ति जरूर उद्दीपक हो सकती है।
यह सारी शोभा हम प्रपात के सिर पर से देख रहे थे। होन्नावर की ओर से आने वाले लोग जब उत्तर कानड़ा जिले के महाकांतार से आते हैं तब उन्हें नीचे से इस प्रपात का आ-पाद-मस्तक दर्शन होता होगा। दोनों में कौन सा दर्शन ज्यादा अच्छा है, यह बिना अनुभव किए कौन बता सकेगा और अनुभव लें भी तो क्या? प्रकृति की अलग-अलग विभूतियों में किसी समय तुलना हुई है? हिमालय की भव्यता, सागर की गंभीरता, रेगिस्तान की भीषणता और आकाश की नम्र अनंतता के बीच तुलना या पसंदगी कौन कर सकता है? इसलिए एक बार होन्नावर के रास्ते से जोग के दर्शन के लिए आना चाहिये।
समुद्र में जहाजी बेड़े का अनुभव लेकर कुशल बने हुए चंद फौजी अफसर प्रपात को नापने के लिए आये थे और हिंडोले में लटकते हुए प्रपात की पीछे की ओर पहुंच गये थे। उन्हें किस तरह का अनुभव हुआ होगा? जोग के पक्षियों ने उनका कैसा स्वागत किया होगा? प्रपात के परदे में से अंदर फैलने वाला बाहर का प्रकाश उन्हें कैसा मालूम हुआ होगा? और अंधेरी रात में प्रपात के पीछे यदि घास जलाकर बड़ा प्रकाश किया जाय तो सारी घाटी में किस तरह की गंधर्वनगरी पैदा होगी, इस बात का ख्याल क्या किसी को है? जल यहां बिजली का कल-कारखाना तैयार होगा तब कुछ कल्पनाशूर लोग इस प्रपात के पीछे बिजली की बत्तियों की कतार जरूर लगायेंगे और संसार ने कभी न देखा हो ऐसा इंद्रजाल फैलायेंगे। उस समय सारी घाटी एक महान रंगंभूमि के जैसी बन जायेगी और चारों खंडों के भूदेव उसे देखने के लिए अवतार लेंगे। परन्तु उस समय क्या किसी को ईश्वर का स्मरण होगा? मालूम होता है, अपनी बुद्धिशक्ति का उपयोग ईश्वर को पहचानने के लिए करने के बदले मनुष्य ने उसका उपयोग ईश्वर को भूलने की युक्तियां और पद्धतियां खोजने में ही किया है।
शायद ऐसा भी हो कि सब ओर से परास्त होने के बाद ही बुद्धि ईश्वर को अधिक अच्छी तरह से समझ सकेगी।
हरेक वस्तु का अंत होता है। इसलिए हमारी इस जोग-यात्रा का भी अंत हुआ। अत्यंत पवित्र और मीठे संस्मरणों के साथ हम वापस लौटे। किन्तु फिर एक बार वहां जाने की वासना तो रह ही गयी। इसलिए ‘पुनरागमनाय च’ इन शास्त्रोक्त शब्दों का उच्चार करके हम भारत-वैभव की इस असाधारण विभूति से विदा ले सके।
सितंबर, 1927
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