विकास की अंधी दौड़ में हमारी सरकारें नदियों का गला घोंटने में लगी हैं। उनकी कुदृष्टि से महान गंगा भी बची नहीं है। आज गंगा का नैसर्गिक जल प्रवाह खतरे में है। बिजली पैदा करने के नाम पर गंगा नदी सुरंगों में डाली जा रही है। इससे अविरल प्रवाह अवरुद्ध हो गया है।नदियों का प्रवाह शुद्ध रहे, इसके लिए जरूरी है कि उनका नैसर्गिक जल प्रवाह बना रहे। नदियों का वेग ही उनकी शुद्धि के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक तत्व है। ‘रजसा शुद्धते नारी, नदी वेगेन शुद्धते।’ अर्थात जैसे रजस्वला होकर नारी शुद्ध हो जाती है उसी प्रकार नदियां अपने वेग से शुद्ध होती है । यह भारतीय संस्कृति की अनुभव सिद्ध मान्यता है। इसलिए अविरल नैसर्गिक प्रवाह नदी की निर्मलता के लिए अनिवार्य शर्त है। लेकिन विकास की अंधी दौड़ में हमारी सरकारें नदियों का गला घोंटने में लगी हैं। उनकी कुदृष्टि से महान गंगा भी बची नहीं है। आज गंगा का नैसर्गिक जल प्रवाह खतरे में है। बिजली पैदा करने के नाम पर गंगा नदी सुरंगों में डाली जा रही है। इससे अविरल प्रवाह अवरुद्ध हो गया है।
1839 से, जब अंग्रेजी शासन था, तब से ही गंगा पर नहर और बांध बनाने की योजना शुरू हुईं। हिन्दू समाज के विरोध के कारण संयुक्त प्रांत के लेफ्टिनेंट गवर्नर मिस्टन द्वारा 5 नवम्बर, 1914 को गंगा रक्षा समझौता किया गया। आगे जब इस समझौते का उल्लंघन कर अंग्रेज सरकार ने गंगा को बांधने की कोशिश की तब महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में हिन्दू समाज ने इस पर आपत्ति दर्ज कराई। इसके परिणाम स्वरूप अंग्रेजों ने गंगा के अविरल प्रवाह को कायम रखने के समझौते से छेड़खानी बंद कर दी। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि अंग्रेज सरकार ने तो हिन्दू भावनाओं का आदर किया लेकिन हमारी अपनी सरकार को हिन्दू भावनाओं की कोई परवाह नहीं है।
‘अविरल गंगा निर्मल गंगा’ के लक्ष्य को प्राप्त करने में आ रही बाधाएः
ग्लोबल वार्मिंग आदि के कारण ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना और परिणामस्वरूप प्रवाह में जल की मात्रा कम होना।
सिंचाई व पेयजल के लिए गंगाजल के मूल प्रवाह का बेतहासा दोहन। कई स्थानों पर मूल प्रवाह का 70 प्रतिशत से अधिक जल निकाला जा रहा है।
बिजली परियोजनाओं के लिए गंगा को सुरंगों में डाला जाना।
गंगा जल को टिहरी जैसे बड़े जलाश्यों में रोकना।
नदी के प्रवाह में औद्योगिक एवं सीवेज प्रदूषण का बढ़ना।
गंगा एक्सप्रेस वे का बनाया जाना। इसके बनने से प्रदूषण में भारी वृद्धि होगी।
गंगा सागर के इलाके में नयाचार द्वीप में सलीम कंपनी के रासायनिक एवं खाद कारखाने से होने वाले प्रदूषण के कारण कलकत्ता तक गंगा एवं अन्य नदियां कुप्रभावित होंगी जिससे जलजीव एवं पर्यावरण का भारी नुकसान होगा।
गंगा को जब बांधों और सुरंगों में बांधने की कोशिश तेज हुई तो हिन्दु समाज के बीच से स्वस्फूर्त आंदोलन शुरू हो गए। एक नए कलेवर के साथ वर्ष 2006 में गंगा महासभा की शुरुआत हरिद्वार में हुई। उसमें विभिन्न धाराओं के अनेक संगठन एवं प्रमुख व्यक्ति सम्मिलित थे। उसमें तत्कालीन सरसंघचालक माननीय सुदर्शन जी, श्री इंद्रेश कुमार, जगद्गुरु शंकराचार्य श्री स्वरूपानंद सरस्वती की उपस्थिति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। विश्व हिन्दू परिषद् ने टिहरी के सवाल पर गंगा रक्षा समिति बनाई थी। टिहरी बांध बन चुकने के बाद 2003 में गंगा रक्षा समिति के विसर्जन की घोषणा स्वामी चिन्मयानन्द जी ने कर दी। 2009 में जून मास में विहिप की पहल पर गंगा रक्षा मंच की स्थापना स्वामी रामदेव जी को लेकर हुई। उसके पूर्व गंगा महासभा की ओर से गंगा संस्कृति प्रवाह यात्रा संपन्न हो चुकी थी।
इस यात्रा ने पूरे देश का ध्यान गंगा की ओर खींचा। इसी बीच पर्यावरणविद् श्री गुरुदास अग्रवाल भी गंगा के अविरल प्रवाह को बनाए रखने के लिए सक्रिय हो चुके थे। गुरुदास जी की मांग थी कि सरकार गोमुख से लेकर उत्तरकाशी के बीच 135 किमी के भागीरथी के प्रवाह में बांध बनाकर गंगा के अविरल प्रवाह को बाधित न करे। सरकार ने जब उनकी मांग पर ध्यान नहीं दिया तो उन्होंने 13 जून, 2008 को आमरण अनशन शुरू कर दिया। पर्यावरणप्रेमियों के साथ-साथ आम जनता में बढ़ते असंतोष को देखते हुए सरकार ने घोषणा की कि वह एक समिति बनाकर मामले की जांच करेगी और 3 महीने में कोई बीच का रास्ता निकालेगी।
इसके बाद डा. अग्रवाल अनशन से उठ गए। जब 6 महीने बाद भी सरकार ने कोई पहल नहीं की तो वे फिर 14 जनवरी, 2009 को अनशन पर बैठ गए। अनशन के 38वें दिन सरकार ने लोहारी नागपाला परियोजना पर हो रहे काम पर तब तक रोक लगाने की घोषणा की जब तक अध्ययन समिति की रिपोर्ट नहीं आ जाती। सरकार की इस घोषणा के बाद प्रो. अग्रवाल ने अपना दूसरा अनशन समाप्त कर दिया। लेकिन सरकार की नीयत इस मामले में साफ नहीं थी। उसकी इच्छा लोहारी नागपाल पर काम शुरू करने की थी। लेकिन कुछ महीनों बाद पड़ने वाले हरिद्वार के कुंभ ने उसे रोक दिया। वह कुंभ के अवसर पर इकट्ठा होने वाले गंगा भक्तों की विशाल संख्या को इस मुद्दे से जुड़ने का मौका नहीं देना चाहती थी। इसलिए उसने इंतजार किया और जब कुंभ समाप्त हो गया, तब सरकार ने लोहारी नागपाला पर काम फिर से शुरू करने की घोषणा कर दी। इसके विरोध में डा. अग्रवाल तीसरी बार 20 जुलाई, 2010 को आमरण अनशन पर बैठ गए। उनके समर्थन में संपूर्ण संत समाज उठ खड़ा हुआ।
पर्यावरण प्रेमियों के साथ जब आम आदमी भी इस मुद्दे पर प्रो. अग्रवाल के साथ आने लगा तो सरकार के कान खड़े हो गए और अंततः उसे एनटीपीसी की लोहारी नागपाला परियोजना को रद्द करने की घोषणा करनी पड़ी। इसी के साथ उत्तराखंड सरकार की पालामनेरी और भैरवघाटी परियोजनाओं पर भी उत्पादन रोक दिया गया। डा. गुरुदास इस बार इतने सें संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने अपना अनशन तब समाप्त किया जब सरकार की ओर से प्रणव मुखर्जी ने उन्हें लिखित रूप से यह बताया किः
1. सरकार गंगा को देश के करोड़ों लोगों की आस्था से जुड़ा विषय मानती है।
2. गोमुख से लेकर उत्तरकाशी तक के भागीरथी के प्रवाह क्षेत्र को पर्यावरण की दृष्टि से अति संवेदनशील घोषित कर दिया गया है। इस क्षेत्र में गंगा के अविरल प्रवाह से कोई छेड़छाड़ नहीं की जाएगी।
3. राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण के काम-काज में गैर सरकारी सदस्यों की भूमिका को प्रभावी बनाया जाएगा। इस दिशा में एक कदम आगे बढ़ते हुए सरकार ने प्राधिकरण में डा. अग्रवाल और उनके द्वारा बताए गए 5 और लोगों को गैर सरकारी सदस्य के रूप में शामिल करने का फैसला किया है।
यहां यह बताना जरूरी है कि गंगा से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले गंगा नदी घाटी प्राधिकरण की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है। इसमें कहने को तो प्रधानमंत्री, संबंधित राज्यों के मुख्यमंत्री, केन्द्र सरकार के विभिन्न मंत्री और कुछ गैरसरकारी सदस्य शामिल होते हैं। लेकिन इसका पूरा काम-काज स्थायी समिति में बैठे नौकरशाह चलाते हैं। गंगा को अविरल बनाए रखने के लिए डा. अग्रवाल ने जिस प्रकार तीन बार अपना जीवन दांव पर लगाने का संकल्प लिया, उसी प्रकार अब जरूरत है कि वे प्राधिकरण के कामकाज को प्रभावी बनाने के लिए अपना जीवन लगाने का संकल्प लें। जिस प्रकार नौकरशाही ने गंगा प्रदूषण एक्शन प्लान को नाकारा बना दिया, वैसा ही वह राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण के साथ करना चाहती है।
अब प्राधिकरण के सदस्य के नाते डा. अग्रवाल की यह जिम्मेदारी है कि वे उसे फंड की बंदरबांट में न फंसने दें। लोहारी नागपाला में जो क्षति हुयी है, उसे ठीक करवाना भी एक बड़ी चुनौती है।
जिस प्रकार प्रोप्रफेसर अग्रवाल ने बांध समर्थकों को रक्षात्मक मुद्रा अपनाने के लिए मजबूर कर दिया है, उसकी जितनी प्रशंशा की जाए कम है। ‘बहुत सरकारी धन खर्च हो चुका है, इसलिए परियोजना को रोका नहीं जा सकता’ यह कुतर्क इस बार नहीं चल पाया। इसी कुतर्क के दम पर नर्मदा और टिहरी पर बांधों को बनाया गया। सवाल पूछा जाना चाहिए कि जिन लोगों ने पर्यावरण की अनदेखी कर और पूर्व अनुभवों की अवहेलना कर सरकारी धन को बर्बाद किया, उन्हें दंडित क्यों न किया जाए? वास्तव में लोहारी नागपाला एक ऐसा मुद्दा है जिसने मानव केन्द्रित विकास की अवधारणा की नींव हिला दी है। आस्था से जुड़े इस मामले में एक कदम पीछे हटकर बाजारवादी ताकतों ने चालाकी दिखायी है। वो गंगा के एक छोटे से प्रवाह क्षेत्र को छोड़ कर अन्य सभी मामलों में अपनी मर्जी चलाना चाहती हैं। लेकिन ऐसा नहीं होने वाला। गंगा उत्तरकाशी में समाप्त नहीं होती, सच कहा जाए तो वह वहां से शुरू होती है। अब जहां-जहां बांध बनाने से स्थानीय पर्यावरण और जन-जीवन पर असर पड़ेगा, वहां लोहारी नाग पाला का उदाहरण दिया जाएगा। ऊर्जा के ऐसे वैकल्पिक उपायों को ढंढने के लिए सरकार पर दबाव बढ़ेगा जो पर्यावरण को हानि नहीं पहुंचाते। चारो ओर यह मांग उठेगी कि पर्यावरण को बर्बाद करके विकास नहीं चाहिए। प्रकृति केन्द्रित विकास ही सच्चा विकास है, यह आज नहीं कल सभी को मानना ही पड़ेगा।
1839 से, जब अंग्रेजी शासन था, तब से ही गंगा पर नहर और बांध बनाने की योजना शुरू हुईं। हिन्दू समाज के विरोध के कारण संयुक्त प्रांत के लेफ्टिनेंट गवर्नर मिस्टन द्वारा 5 नवम्बर, 1914 को गंगा रक्षा समझौता किया गया। आगे जब इस समझौते का उल्लंघन कर अंग्रेज सरकार ने गंगा को बांधने की कोशिश की तब महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में हिन्दू समाज ने इस पर आपत्ति दर्ज कराई। इसके परिणाम स्वरूप अंग्रेजों ने गंगा के अविरल प्रवाह को कायम रखने के समझौते से छेड़खानी बंद कर दी। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि अंग्रेज सरकार ने तो हिन्दू भावनाओं का आदर किया लेकिन हमारी अपनी सरकार को हिन्दू भावनाओं की कोई परवाह नहीं है।
‘अविरल गंगा निर्मल गंगा’ के लक्ष्य को प्राप्त करने में आ रही बाधाएः
ग्लोबल वार्मिंग आदि के कारण ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना और परिणामस्वरूप प्रवाह में जल की मात्रा कम होना।
सिंचाई व पेयजल के लिए गंगाजल के मूल प्रवाह का बेतहासा दोहन। कई स्थानों पर मूल प्रवाह का 70 प्रतिशत से अधिक जल निकाला जा रहा है।
बिजली परियोजनाओं के लिए गंगा को सुरंगों में डाला जाना।
गंगा जल को टिहरी जैसे बड़े जलाश्यों में रोकना।
नदी के प्रवाह में औद्योगिक एवं सीवेज प्रदूषण का बढ़ना।
गंगा एक्सप्रेस वे का बनाया जाना। इसके बनने से प्रदूषण में भारी वृद्धि होगी।
गंगा सागर के इलाके में नयाचार द्वीप में सलीम कंपनी के रासायनिक एवं खाद कारखाने से होने वाले प्रदूषण के कारण कलकत्ता तक गंगा एवं अन्य नदियां कुप्रभावित होंगी जिससे जलजीव एवं पर्यावरण का भारी नुकसान होगा।
गंगा रक्षा आंदोलन में तेजीः
गंगा को जब बांधों और सुरंगों में बांधने की कोशिश तेज हुई तो हिन्दु समाज के बीच से स्वस्फूर्त आंदोलन शुरू हो गए। एक नए कलेवर के साथ वर्ष 2006 में गंगा महासभा की शुरुआत हरिद्वार में हुई। उसमें विभिन्न धाराओं के अनेक संगठन एवं प्रमुख व्यक्ति सम्मिलित थे। उसमें तत्कालीन सरसंघचालक माननीय सुदर्शन जी, श्री इंद्रेश कुमार, जगद्गुरु शंकराचार्य श्री स्वरूपानंद सरस्वती की उपस्थिति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। विश्व हिन्दू परिषद् ने टिहरी के सवाल पर गंगा रक्षा समिति बनाई थी। टिहरी बांध बन चुकने के बाद 2003 में गंगा रक्षा समिति के विसर्जन की घोषणा स्वामी चिन्मयानन्द जी ने कर दी। 2009 में जून मास में विहिप की पहल पर गंगा रक्षा मंच की स्थापना स्वामी रामदेव जी को लेकर हुई। उसके पूर्व गंगा महासभा की ओर से गंगा संस्कृति प्रवाह यात्रा संपन्न हो चुकी थी।
इस यात्रा ने पूरे देश का ध्यान गंगा की ओर खींचा। इसी बीच पर्यावरणविद् श्री गुरुदास अग्रवाल भी गंगा के अविरल प्रवाह को बनाए रखने के लिए सक्रिय हो चुके थे। गुरुदास जी की मांग थी कि सरकार गोमुख से लेकर उत्तरकाशी के बीच 135 किमी के भागीरथी के प्रवाह में बांध बनाकर गंगा के अविरल प्रवाह को बाधित न करे। सरकार ने जब उनकी मांग पर ध्यान नहीं दिया तो उन्होंने 13 जून, 2008 को आमरण अनशन शुरू कर दिया। पर्यावरणप्रेमियों के साथ-साथ आम जनता में बढ़ते असंतोष को देखते हुए सरकार ने घोषणा की कि वह एक समिति बनाकर मामले की जांच करेगी और 3 महीने में कोई बीच का रास्ता निकालेगी।
इसके बाद डा. अग्रवाल अनशन से उठ गए। जब 6 महीने बाद भी सरकार ने कोई पहल नहीं की तो वे फिर 14 जनवरी, 2009 को अनशन पर बैठ गए। अनशन के 38वें दिन सरकार ने लोहारी नागपाला परियोजना पर हो रहे काम पर तब तक रोक लगाने की घोषणा की जब तक अध्ययन समिति की रिपोर्ट नहीं आ जाती। सरकार की इस घोषणा के बाद प्रो. अग्रवाल ने अपना दूसरा अनशन समाप्त कर दिया। लेकिन सरकार की नीयत इस मामले में साफ नहीं थी। उसकी इच्छा लोहारी नागपाल पर काम शुरू करने की थी। लेकिन कुछ महीनों बाद पड़ने वाले हरिद्वार के कुंभ ने उसे रोक दिया। वह कुंभ के अवसर पर इकट्ठा होने वाले गंगा भक्तों की विशाल संख्या को इस मुद्दे से जुड़ने का मौका नहीं देना चाहती थी। इसलिए उसने इंतजार किया और जब कुंभ समाप्त हो गया, तब सरकार ने लोहारी नागपाला पर काम फिर से शुरू करने की घोषणा कर दी। इसके विरोध में डा. अग्रवाल तीसरी बार 20 जुलाई, 2010 को आमरण अनशन पर बैठ गए। उनके समर्थन में संपूर्ण संत समाज उठ खड़ा हुआ।
पर्यावरण प्रेमियों के साथ जब आम आदमी भी इस मुद्दे पर प्रो. अग्रवाल के साथ आने लगा तो सरकार के कान खड़े हो गए और अंततः उसे एनटीपीसी की लोहारी नागपाला परियोजना को रद्द करने की घोषणा करनी पड़ी। इसी के साथ उत्तराखंड सरकार की पालामनेरी और भैरवघाटी परियोजनाओं पर भी उत्पादन रोक दिया गया। डा. गुरुदास इस बार इतने सें संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने अपना अनशन तब समाप्त किया जब सरकार की ओर से प्रणव मुखर्जी ने उन्हें लिखित रूप से यह बताया किः
1. सरकार गंगा को देश के करोड़ों लोगों की आस्था से जुड़ा विषय मानती है।
2. गोमुख से लेकर उत्तरकाशी तक के भागीरथी के प्रवाह क्षेत्र को पर्यावरण की दृष्टि से अति संवेदनशील घोषित कर दिया गया है। इस क्षेत्र में गंगा के अविरल प्रवाह से कोई छेड़छाड़ नहीं की जाएगी।
3. राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण के काम-काज में गैर सरकारी सदस्यों की भूमिका को प्रभावी बनाया जाएगा। इस दिशा में एक कदम आगे बढ़ते हुए सरकार ने प्राधिकरण में डा. अग्रवाल और उनके द्वारा बताए गए 5 और लोगों को गैर सरकारी सदस्य के रूप में शामिल करने का फैसला किया है।
यहां यह बताना जरूरी है कि गंगा से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले गंगा नदी घाटी प्राधिकरण की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है। इसमें कहने को तो प्रधानमंत्री, संबंधित राज्यों के मुख्यमंत्री, केन्द्र सरकार के विभिन्न मंत्री और कुछ गैरसरकारी सदस्य शामिल होते हैं। लेकिन इसका पूरा काम-काज स्थायी समिति में बैठे नौकरशाह चलाते हैं। गंगा को अविरल बनाए रखने के लिए डा. अग्रवाल ने जिस प्रकार तीन बार अपना जीवन दांव पर लगाने का संकल्प लिया, उसी प्रकार अब जरूरत है कि वे प्राधिकरण के कामकाज को प्रभावी बनाने के लिए अपना जीवन लगाने का संकल्प लें। जिस प्रकार नौकरशाही ने गंगा प्रदूषण एक्शन प्लान को नाकारा बना दिया, वैसा ही वह राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण के साथ करना चाहती है।
अब प्राधिकरण के सदस्य के नाते डा. अग्रवाल की यह जिम्मेदारी है कि वे उसे फंड की बंदरबांट में न फंसने दें। लोहारी नागपाला में जो क्षति हुयी है, उसे ठीक करवाना भी एक बड़ी चुनौती है।
जिस प्रकार प्रोप्रफेसर अग्रवाल ने बांध समर्थकों को रक्षात्मक मुद्रा अपनाने के लिए मजबूर कर दिया है, उसकी जितनी प्रशंशा की जाए कम है। ‘बहुत सरकारी धन खर्च हो चुका है, इसलिए परियोजना को रोका नहीं जा सकता’ यह कुतर्क इस बार नहीं चल पाया। इसी कुतर्क के दम पर नर्मदा और टिहरी पर बांधों को बनाया गया। सवाल पूछा जाना चाहिए कि जिन लोगों ने पर्यावरण की अनदेखी कर और पूर्व अनुभवों की अवहेलना कर सरकारी धन को बर्बाद किया, उन्हें दंडित क्यों न किया जाए? वास्तव में लोहारी नागपाला एक ऐसा मुद्दा है जिसने मानव केन्द्रित विकास की अवधारणा की नींव हिला दी है। आस्था से जुड़े इस मामले में एक कदम पीछे हटकर बाजारवादी ताकतों ने चालाकी दिखायी है। वो गंगा के एक छोटे से प्रवाह क्षेत्र को छोड़ कर अन्य सभी मामलों में अपनी मर्जी चलाना चाहती हैं। लेकिन ऐसा नहीं होने वाला। गंगा उत्तरकाशी में समाप्त नहीं होती, सच कहा जाए तो वह वहां से शुरू होती है। अब जहां-जहां बांध बनाने से स्थानीय पर्यावरण और जन-जीवन पर असर पड़ेगा, वहां लोहारी नाग पाला का उदाहरण दिया जाएगा। ऊर्जा के ऐसे वैकल्पिक उपायों को ढंढने के लिए सरकार पर दबाव बढ़ेगा जो पर्यावरण को हानि नहीं पहुंचाते। चारो ओर यह मांग उठेगी कि पर्यावरण को बर्बाद करके विकास नहीं चाहिए। प्रकृति केन्द्रित विकास ही सच्चा विकास है, यह आज नहीं कल सभी को मानना ही पड़ेगा।
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