Posted on 14 May, 2015 04:29 PMजरा सोचिए हाथ से चलाई जाने वाली उन आटा चक्कियों को, जिनको देखते ही भारत के महान सन्त कबीर के आँखों में आँसू आ गए, क्योंकि उनके मन में इन्हें देखते ही भाव जागा। कुदरत के उस चक्की के दो पाटों का जिन्हें हम धरती व आकाश कहते हैं और जिनके बीच में मानव उसी तरह पिसता है जैसे चक्की के दो पाटों के बीच में अनाज के दाने पिसते हैं। कबीर ने जिस चक्की से कुदरत के इस महान चक्की की परिकल्पना की वह आज भी भारत के ग
Posted on 14 May, 2015 11:43 AMजल को विभिन्न भाषाओं में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। लैटिन में इसे एक्वा, अंग्रेजी में वाटर, हिन्दी में जल या पानी, संस्कृत में पानीय या सलिल या अम्बु, मराठी व गुजराती में पाणी, बंगाली में जल, कन्नड़ में नीरू, तेलुगू में नीलू तथा फारसी में आब कहते हैं।
Posted on 12 May, 2015 11:54 AMइस बात पर गौर करना हमेशा ही दिलचस्प रहा है कि समय के साथ-साथ हमारी विचार शैली कैसे बदलती रहती है। सौ वर्ष पहले किसी ने शायद कभी सोचा भी न होगा कि एक दिन हमें खरीदकर पानी पीना पड़ेगा, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार आजकल हम सब स्वच्छ हवा के बारे में सोचते हैं कि यह तो प्रकृति की देन है, इसे भी क्या खरीद कर सांस लेनी होगी?