नदियों और वनों को जोड़ना

आज जरूरत वन और पानी के अन्तर्सम्बन्ध को स्थापित करने और जल संकट के प्रति समग्र दृष्टिकोण अपनाने की है। जलग्रहण करने वाले प्राकृतिक वनों के संरक्षण को प्राथमिकता देना अनिवार्य है, न कि उन्हें एक प्रजाति के वृक्षों में बदलना।देश के नेता तथा अधिकारीगण उत्तर से दक्षिण तक देश की नदियों को जोड़ने की योजना बना रहे हैं ताकि बार-बार सिर उठाने वाले जल संकट का समाधान किया जा सके। दावा किया जा रहा है कि इस खर्चीली बृहत योजना से सिंचाई और देशवासियों के लिए अन्न उत्पादन हेतु जलापूर्ति की समस्या का निदान किया जा सकेगा। इस योजना की मंशा अच्छी है, लेकिन देर से ही सही, जो तथ्य उभर कर आ रहे हैं, वे अलग ही कहानी की ओर इशारा कर रहे हैं।

नदियों को जोड़ने की योजना की एक प्रमुख अवधारणा यह है कि उत्तर भारत की नदियाँ चूँकि हिमालय की बर्फाच्छादित चोटियों अथवा हिमनदों से निकलती हैं, इसलिए उनमें साल भर पानी रहता है।

अन्तरराष्ट्रीय संगठन विश्व वन्यजीव कोष द्वारा जारी तथ्यों के अनुसार, 'ग्लोबल वार्मिंग की वजह से हिमालय में स्थित हिमनदों का दुनिया भर में सबसे तेजी से क्षरण हो रहा है। इसके परिणामस्वरूप, हिमनदों से जल प्राप्त करने वाली नदियाँ सूखने लगेंगी और भारतीय उपमहाद्वीप में जल संकट उत्पन्न होने की आशंका उत्पन्न हो जाएगी।' निश्चित रूप से इस तरह की गम्भीर भविष्यवाणी के बाद भारत में नदियों को आपस में जोड़ने की योजना की तर्कसंगतता समाप्त हो जाती है।

भारत की नदियाँ हिमनदों अथवा पर्वतीय क्षेत्र के वनों से निकलती हैं। चिपको आन्दोलन के अगुवा तथा प्रमुख पर्यावरणविद् सुन्दरलाल बहुगुणा के अनुसार, 'वन नदियों की माता है।' वन हमारे देश की अधिकांश नदियों के लिए जलग्रहण क्षेत्र के रूप में काम करते हैं। गंगा का उदय हिमालय से होता है लेकिन कावेरी और कृष्णा जैसी नदियाँ पश्चिमी घाट के वन क्षेत्र से निकलती हैं।

जलग्रहण करने वाले ये वन मूलतः दो कार्य करते हैं। एक, वे वर्षा से नमी सोखते हैं तथा दो, उन छोटी-पतली धाराओं में जल भरने में मदद करते हैं जिनसे मिलकर नदियाँ बनती हैं। जलग्रहण करने वाले वनों के इस बुनियादी कार्य के महत्त्व के मद्देनजर ही अनादि काल से हमारे पूर्वजों ने पर्यावरण संरक्षण के उद्देश्य से नदियों के उद्गम स्थल को पवित्र मानते हुए उन्हें तीर्थ-स्थल बना दिया है।

उद्गम


इस तरह गंगा का उद्गम 'गंगोत्री' तथा कावेरी का उद्गम 'तल कावेरी' हमारे तीर्थ-स्थल हैं। नदियों, उनके उद्गम स्थल तथा वनों के प्रति श्रद्धाभाव हमारे संस्कार में है। इसका मकसद इन स्रोतों का संरक्षण करना है। हमारी नौकरशाही द्वारा 'जलक्षेत्र विकास' जैसे शब्द का विकास करने के काफी पहले नदियों के उद्गम स्थल के संरक्षण का गीत हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग बन चुका था।

इसके बावजूद वर्तमान समय में हम नदियों के जल संग्रहण क्षेत्र की संस्कृति को भूल गए हैं और वनों तथा नदी-नालों जैसे जल संसाधनों को नष्ट करने की अंधी राह पर चल पड़े हैं। देश के अधिकांश भागों में प्राकृतिक वनों के स्थान पर एक ही प्रजाति के वृक्षों वाले वन लगाए जा रहे हैं। हिमालय क्षेत्र में चौड़े पत्तों वाले ओक के प्राकृतिक वनों की जगह चीड़ के पौधे लगाए जा रहे हैं। मध्य भारत तथा पूर्वी भारत में साल के वनों को साफ कर उनकी जगह सागवान के एकल वन लगाए गए हैं।

दक्षिण भारत के पश्चिमी घाटों में हमने सर्वाधिक जैव-विविधता वाले उष्ण कटिबन्धीय वनों को इसलिए काट दिया है कि वहाँ सागौन और यूकेलिप्टस के वन लगाए जा सकें। हाल ही में कर्नाटक में शरावती नदी के किनारे पदयात्रा करने वाले दल ने पाया कि जलग्रहण क्षेत्र के वनों के लगभग अस्सी प्रतिशत भाग में वन लगाए गए हैं।

प्राकृतिक वनों को इतने बड़े पैमाने पर एक प्रजाति के वनों में बदलने का नदी की पर्यावरण प्रणाली तथा इस क्षेत्र के आर्द्रता-स्वरूप पर गम्भीर प्रभाव पड़ा है। ये वृक्ष जल संरक्षण की भूमिका का निर्वाह करने अथवा नदियों के लिए पानी का स्रोत बनने के काबिल नहीं रह गए हैं। प्रायः उन्हें अधिक पानी की आवश्यकता होती है जिससे पानी के सोते सूखने लगते हैं। नदी मुहाने पर इन सबका सम्मिलित प्रभाव पड़ता है तथा बड़े पैमाने पर पानी की कमी होती है।

मौजूदा जल संकट तथा आने वाले वर्षों में सम्भावित जल संकट की भविष्यवाणी हमारी सरकार, नेताओं और नौकरशाही द्वारा अपनाई गई संकीर्ण नीतियों का परिणाम हैं। उन्होंने वन, पानी और नदियों के अन्तर्सम्बन्ध की उपेक्षा की है। जब तक जलग्रहण क्षेत्र के वन सुरक्षित हैं, तब तक नदियाँ और सोते स्वस्थहाल रहेंगे। विश्व भर में यह एक स्वीकृत तथ्य है।

लकड़ी के भण्डार


उपरोक्त समझ की उपेक्षा करते हुए हमने हजारों एकड़ भूमि में जो वन लगाए हैं उन्हें लकड़ी के भण्डार कहा जा सकता है, क्योंकि ये लकड़ी का स्रोत तो बन जाते हैं लेकिन जल संरक्षण की अपनी दूसरी भूमिका को उपेक्षित छोड़ देते हैं। इसी का हासिल है कि बरसात के महीनों में बहने वाली नदियों में पहाड़ी इलाकों की लाल गाद दिखाई देती है। यह नदी के मृतप्राय होने का भी एक संकेत है। इनके साथ-साथ यह तथ्य भी है कि अधिकांश नदियाँ प्रदूषित हैं और उनका पानी मनुष्य तो क्या, जानवरों के पीने योग्य भी नहीं रह गया है। राष्ट्रीय वन नीति में इस तथ्य को स्वीकार किया गया है कि पर्यावरणीय भूमिका के निर्वहन तथा देश के जल संसाधनों के संरक्षण के लिए वनों का संरक्षण करने की आवश्यकता है। लेकिन सरकार की राष्ट्रीय जलनीति में जल संसाधनों के साथ वनों के अन्तर्सम्बन्ध की चर्चा तक नहीं है। इसमें यह मान लिया गया है कि पानी की उपलब्धता बनी रहेगी तथा उसकी केवल विभिन्न हितधारियों के बीच आपूर्ति करने की आवश्यकता है। ये महत्त्वपूर्ण नीतिगत दस्तावेज मुद्दों को समग्रता में देखने से भी बचते हैं।

आज जरूरत वन और पानी के अन्तर्सम्बन्ध को स्थापित करने और जल संकट के प्रति समग्र दृष्टिकोण अपनाने की है। जलग्रहण करने वाले प्राकृतिक वनों के संरक्षण को प्राथमिकता देना अनिवार्य है, न कि उन्हें एक प्रजाति के वृक्षों में बदलना। देश की नदियों और पानी की सतत आपूर्ति के बारे में यदि हम आश्वस्त होना चाहते हैं तो पानी और नदियों के स्रोतों का संरक्षण जरूरी है। ये स्रोत वन हैं।

हमारे राष्ट्रगान में सुजलाम और सुफलाम शब्द शामिल हैं, जिनका अभिप्राय है देशवासियों के लिए प्रचुर पानी। देश एक बहुत ही बुरे जल संकट को झेल रहा है। विश्व जल दिवस के मौके पर आइए हम अपनी नदियों के जल भराव क्षेत्रों का संरक्षण करने और उनका प्रदूषण रोकने की शपथ लें। इसी तरह, विश्व वन दिवस मनाने के दौरान वनों को हम लकड़ी के स्रोत के रूप में न देखकर प्रकृति की ओर से पानी और मिट्टी देने वाले स्रोत के रूप में देखें।

चिपको आन्दोलन से जुड़ी महिलाओं द्वारा तैयार किया गया यह नारा कितना सही है- क्या देते हैं हमको जंगल/शुद्ध हवा, मिट्टी और जल। शुद्ध हवा, मिट्टी और जल जीवन का आधार हैं। वनों और नदियों के बीच सम्बन्ध जोड़कर ही देश में प्रचुर पानी उपलब्ध कराया जा सकता है।

(सौजन्य : डेक्कन हेराल्ड)

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