हिमालय की पहाड़ियों में आटा चक्कियाँ

जरा सोचिए हाथ से चलाई जाने वाली उन आटा चक्कियों को, जिनको देखते ही भारत के महान सन्त कबीर के आँखों में आँसू आ गए, क्योंकि उनके मन में इन्हें देखते ही भाव जागा। कुदरत के उस चक्की के दो पाटों का जिन्हें हम धरती व आकाश कहते हैं और जिनके बीच में मानव उसी तरह पिसता है जैसे चक्की के दो पाटों के बीच में अनाज के दाने पिसते हैं। कबीर ने जिस चक्की से कुदरत के इस महान चक्की की परिकल्पना की वह आज भी भारत के गाँव-गाँव में देखी जा सकती है। फिर भी इस चक्की का एक और रूप है, जिसे 'घरत' कहा जाता है। जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं, लेकिन जिसकी आन-बान-शान किसी तरह से भी इस आम चक्की से कम नहीं। कोई भी व्यक्ति जिसने हिमालय के पहाड़ों को देखा है या कोई जिसने वहाँ की घाटियों के दर्शन किए हैं, आपको बता देगा कि पानी से चलने वाली आटा चक्की क्या होती है। हालांकि इसे आसानी से पहचानना थोड़ा मुश्किल है। फिर भी 'घरत' की इन पहाड़ों में खास स्थिति है, जिसके बिना जिन्दगी शायद दूभर हो गई होती। जरा सोचिए, पहाड़ों में दिन भर के काम से भरी जिन्दगी से उपजी थकान दिन भर खेतों में खटने की परेशानी दूरदराज जंगलों से घास और जलाऊ लकड़ी लाने का कमरतोड़ मेहनत का काम और बाजार से सामान का बोझ और इसके बाद घर आकर शुरू करना रोटी बनाना, लेकिन रोटी बनाने से पहले हाथ से आटा पिसना। ये तो पहाड़ जैसी जिन्दगी को पहाड़ जैसा मुश्किल बनाने जैसी बात हुई।

शायद हिमालय पर्वतावासियों ने अपने बोझिल कामों से एक बोझ को कम करने के लिए ही पानी से चलने वाली आटा चक्की इजाद करने की जरूरत महसूस की। जरा जायजा लीजिए इस चित्र का जो भारत के गौरवशाली प्रान्त हिमाचल प्रदेश के सरहान के पास स्थापित घरत का है। एक घरत में प्राचीन लोक संस्थानों और तकनीकी का निचोड़ देखा जा सकता है।

ये अमूमन गाँवों से बहुत दूर स्थित होते हैं, क्योंकि ये विशेष भौगोलिक परिस्थितियों में लगाए जा सकते हैं। एक लकड़ी की टोकरी में से पानी को गुजारा जाता है, इसमें से होता हुआ पानी नीचे एक उद्देलक से जाकर टकराता है। जो कि दो मंजिली पनचक्की के निचले हिस्से में लगा होता है। इस उद्देलक से आगे चलकर पनचक्की के पत्थरों को घुमाता है, अनाज के दाने एक शंकुनुमा लकड़ी की टोकरी में पड़े होते हैं। जहाँ से अनाज बाहर निकलता है वहाँ से चिड़ियों के आकार की एक लकड़ी जोड़ी जाती है, जो कि चक्की के पाटों के निचले हिस्से को छूती है। जैसे ही चक्की के पाट घूमते हैं, यह जुड़ी हुई लकड़ी के निचले हिस्से में कम्पन्न पैदा करती है ताकि चक्की के पाटों के छेदों में सरकाने के लिए निकास के साथ-साथ गेहूँ के दाने निरन्तर गिरते रहें। इससे एक बड़ी मीठी नीन्द लाने वाली आवाज आती है।

यदि इन चक्कियों के मॉडल को देखें तो एकदम से आँखों के सामने आधुनिक पनबिजली परियोजनाओं की तस्वीर घूम जाएगी। पनऊर्जा उत्पादन इसी प्राचीन तकनीकी से पैदा होने वाली ऊर्जा का प्रौद्योगिकी प्रयोग मात्र है जिसमें केवल घर्षण से पैदा होने वाला सिद्धान्त अतिरिक्त रूप से जोड़ दिया गया है।

आटा चक्की का एक और रूप है, जिसे 'घरत' कहा जाता है। जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं... इन परिस्थितियों का रोचक पहलू है इनकी संस्थागत मजबूती। यदि किराया देने का तरीका एवं ढाँचा देखा जाए तो ये आज के आधुनिकतम मानदण्डों पर बिल्कुल खरे उतरेंगे। ये आटा मिलें व्यावहारिक रूप में तो सार्वजनिक हैं लेकिन इनका स्वामित्व आमतौर से निजी हाथों में होता है। जहाँ तक इनके निजी होने का सम्बन्ध है, इस सन्दर्भ में है कि कोई व्यक्ति आमतौर पर इन्हें किसी नदी या छोटे नाले या छोटी नदी के प्रवाह के साथ-साथ बनाता है और एक बार जब यह बनाकर स्थापित कर दी जाती है तो हर एक इसको उपयोग में ला सकता है। और इसके लिए मालिक की उपस्थिति भी न्यूनतम ही रहती है। तरीका बड़ा सरल है। चक्की का उपयोग कीजिए और आटे के रूप में इसका किराया छोड़ जाइए। इसके दाम आमतौर पर परम्परागत रूप से तय किए जाते हैं। किराये में प्राप्त किया गया आटा अलग से रख दिया जाता है। चक्की को उपयोग में लाने वाला काम समाप्त हो जाने के बाद अनाज के निकासी की जगह को रोककर मिल बन्द कर देता है।

सांस्कृतिक और सामाजिक तौर पर देखा जाए तो पनचक्की का उपयोग करने वालों के लिए यह बैठकर गपशप करने का बड़ा अच्छा स्थान है। गेहूँ पिसाने के लिए लगने वाली लम्बी कतारें और लम्बा इन्तजार चक्की का उपयोग करने आए लोगों और पास से गुजरने वाले लोगों के बीच सामाजिक संसर्ग का एक बड़ा अच्छा अवसर प्रदान करता है। और कई अन्य जगहों के बीच यह एक ऐसी जगह है, जहाँ गाँव के लोग अपेक्षाकृत काम के बोझ से खाली होते हैं। इस आधुनिक प्रबन्धक की इस संस्था से एक स्पष्ट पाठ तो अवश्य मिल सकता है कि यदि प्रणाली सरल और आदान-प्रदान के उसूल बिल्कुल पारदर्शी है तो सेवा प्रदान करने वाले को छोटी-छोटी बातों के लिए आदमी और सामान दोनों पर बेकार व्यय नहीं करना पड़ेगा।

सामाजिक तौर से देखा जाए तो पनचक्की की यह संस्था आवश्यक सेवाओं को सभी लोगों के लिए खुला रखने की आवश्यकता का मुखर प्रतीक है जिसमें जाति-पाति का प्रश्न नगण्य है और दाम इतना सही है कि ये किसी पर भी बोझ नहीं बनते।

(लेखक योजना आयोग में निदेशक रह चुके हैं)

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