हमारे देश में 1950 में लगभग 5 लाख तालाब थे, जिनमें 36 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होती थी, ये तालाब बाढ़ से बचाव, भूजल स्तर में वृद्धि एवं जल संकट को काफी हद तक कम कर देते थे, मगर इनमें से अधिकतर अवैध कब्जे, खेल के मैदान या नगरों, कस्बों एवं शहरों ने निगल लिए हैं। अतः जल संकट से कारगर रूप से भी तभी निपटा जा सकता है जब हम अपने प्रचलित परम्परागत वर्षा जल संग्रह की विधियों को अपनाएँगे।संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव सं. 55/196 में ताजकिस्तान सरकार एवं 148 अन्य देशों के समर्थन से स्वच्छ पेयजल की महत्ता पर जनजागृति पैदा करना, स्वच्छ जल के नियमित प्रबन्धन एवं स्वच्छ जल के संरक्षण पर विशेष बल दिया गया है। पूरे विश्व में उपलब्ध मीठे जल के 54 प्रतिशत उपयोग के बावजूद विभिन्न देशों के लगभग 38 प्रतिशत लोग जल संकट से ग्रस्त हैं। विश्व जल सम्मेलन में कहा गया कि प्रदूषित जल की वजह से 30 खतरनाक बीमारियाँ एवं इनसे पूरे विश्व में 62 प्रतिशत मौतें हो रही हैं। वर्तमान समय में लगभग 18 प्रतिशत से भी अधिक लोग गन्दा पानी पीने के लिए अभिशप्त हैं।
एक अनुमान के अनुसार 1995 में जहाँ विश्व में 3,906 घन किलोमीटर पानी का उपयोग किया गया था, वहाँ 8 करोड़ प्रतिवर्ष की गति से बढ़ रही जनसंख्या के लिए 2025 तक 50 प्रतिशत अतिरिक्त पानी की खपत होगी। इसी प्रकार एशिया में भी यह खपत 2,200 घन किलोमीटर से बढ़कर 2,900 घन किलोमीटर हो जाएगी, ऐसी स्थिति में जब पानी की माँग लगातार बढ़ रही हो, तब अन्य पारिस्थितिकीय तन्त्रों पर दबाव पड़ेगा। अतः विश्व के सभी प्रमुख संगठनों ने विभिन्न मंचों से वर्षा जल संरक्षण को अधिक प्रभावी बनाने पर जोर दिया है। एक अनुमान के अनुसार हर साल विश्व में वर्षा से प्राकृतिक रूप से 110,000 घन किलोमीटर पानी बरसता है। इसका अधिकांश भाग जलवाष्प बनकर हवा में उड़ जाता है, जबकि लगभग 42,700 घन किलोमीटर वर्षा जल नदियों में बहता है। विश्व भर में संयुक्त जल संरक्षण एवं प्रबन्धन के सकारात्मक नतीजे अब दिखने लगे हैं।
वर्षा जल संरक्षण के विभिन्न तकनीकों का समुचित प्रयोग करते हुए उन्होंने तालाब, पोखर जोहड़, नदियों एवं स्रोतों को साफ कर पुनः उपयोगी बनाने का निर्णय लिया। हर साल वर्षा एवं हिमपात के रूप में भारत को प्रकृति की तरफ से 4,000 घन किलोमीटर पानी मुफ्त मिलता है। परन्तु हमारे देश की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के कारण एक ओर जहाँ राजस्थान में औसत 100 मि.मी. वर्षा होती है, तो दूसरी तरफ मेघालय के चेरापूँजी में औसत 11,000 मि.मी. वर्षा होती है। इस प्रकार देश के कुछ हिस्से में बाढ़ के कारण लगभग 83 जिलों में 4 करोड़ हेक्टेयर भूमि जलमग्न हो जाती है तो दूसरी तरफ लगभग सूखे की स्थिति बनी रहती है। हम वर्षा जल संरक्षण के महत्त्व को न समझकर मात्र 690 घन किलोमीटर पानी का ही प्रयोग कर पाते हैं, और 1,179 घन किलोमीटर पानी व्यर्थ ही समुद्र में बह जाता है। 1985 में सिंचाई के लिए 87 प्रतिशत एवं अन्य उपयोगी कार्यों के लिए 13 प्रतिशत जल का प्रयेाग किया गया था। परन्तु 2025 तक, अन्य उपयोगी कार्यों के लिए पानी की माँग बढ़कर 27 प्रतिशत हो जाएगी। इसलिए 2025 तक भारत में 153 करोड़ लोगों के लिए 770 घन किलोमीटर पानी उपलब्ध कराने के लिए अभी से दीर्घकालीक योजनाएँ बना लेनी चाहिए।
हमोर देश में बाढ़ एवं सूखे से निपटने में एक कारगर योजना सफल हो सकती है और वह है, देश की 37 बड़ी नदियों को आपस में जोड़कर ‘भगीरथ’ महायोजना पर तीव्रता से कार्य शुरू करना। केन्द्र सरकार द्वारा 2015 तक पूर्ण होने वाली इस महत्वाकांक्षी योजना पर लगभग 5,60,000 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान है। पूर्व बिजली मन्त्री सुरेश प्रभु की अध्यक्षता वाले उच्चस्तरीय कार्यदल ने परियोजना के शुरू में ही स्पष्ट किया है कि सूखे एवं बाढ़ से निजात दिलाने में विश्व की यह अपनी तरह की पहली योजना है। इसमें हिमालय घटक में 14 नहर मालिकाओं के साथ-साथ तीन विशाल ग्रिड बनेंगे, जिनमें वर्षा ऋतु के समय बाढ़ के अतिरिक्त पानी का उपयोग जल संकट महीनों में पूरे देश में किया जा सकेगा। इस परियोजना में जहाँ पूरे देश में पेयजल एवं सिंचाई सुविधाओं में वृद्धि होगी, वहीं देश के अन्य क्षेत्रों का भी कायाकल्प हो जाएगा। इस कार्यक्रम के संचालन के लिए प्रधानमन्त्री ने 400 करोड़ रुपए की घोषणा पहले ही कर दी है। देश के 9 प्रतिशत पूर्ण शुष्क एवं 40 प्रतिशत अर्धशुष्क क्षेत्र का अधिकांश भाग सिंचाई सुविधा से लाभान्वित होगा, अतः इस योजना की परिधि में आने पर खाद्यान्नों का उत्पादन बढ़ने से आर्थिक स्थिति में काफी बदलाव आने की सम्भावना है।
एक अनुमान के अनुसार हर साल विश्व में वर्षा से प्राकृतिक रूप से 110,000 घन किलोमीटर पानी बरसता है। इसका अधिकांश भाग जलवाष्प बनकर हवा में उड़ जाता है, जबकि लगभग 42,700 घन किलोमीटर वर्षा जल नदियों में बहता है।वर्तमान समय में देश में अधिकांशतः लोग भूमिगत जल पर निर्भर हैं। केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण की एक रिपोर्ट के अनुसार 56 लाख हैण्डपम्पों एवं अन्य साधनों से भूमिगत जल का दोहन पीने के पानी के रूप में तथा सिंचाई एवं औद्योगिक कार्यों में हो रहा है। अकेले देश के ग्रामीण इलाकों में सिंचाई हेतु 50 प्रतिशत तथा पेयजल के लिए 80 प्रतिशत जल, 30 लाख हैण्डपम्पों एवं अन्य साधनों से निकाला जा रहा है। इस अमूल्य प्राकृतिक सम्पदा के अवैज्ञानिक एवं अन्धाधुन्ध दोहन से देश के 593 जिलों में से 206 जिलों में पानी का स्तर लगातार घटता जा रहा है। इनमें से करीब 70 जिलों में भूमिगत जलस्तर चार मीटर से भी नीचे गिर चुका है तथा यह गिरावट लगभग 20 से.मी. प्रतिवर्ष की दर से निरन्तर जारी है। देश में केवल उन्हीं स्थानों पर भूमिगत जलस्तर में कमी नहीं आती है, जो बड़ी नदियों के आसपास के इलाके, बाढ़ आने वाले स्थानों, कुओं एवं तालाबों के नजदीक स्थित हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की पर्यावरण सम्बन्धी रिपोर्ट में भी स्पष्ट कहा गया है कि पूरे विश्व में तीव्र भूमिगत जल दोहन से शहरों के आसपास के इलाके निम्नतम भूमिगत जलस्तर तक पहुँच गए हैं। किसी भी क्षेत्र में भूमिगत जल के 60 प्रतिशत से अधिक दोहन को खतरे का संकेत माना जाता है। कोलकाता में तो बोरिंग से निरन्तर जल निकासी के कारण जलस्तर 40 मीटर तक नीचे पहुँच चुका है। पंजाब में लगभग 60 प्रतिशत तथा हरियाणा में 40 प्रतिशत भाग अति भूमिगत दोहन के कारण खतरे के बिन्दु से भी नीचे पहुँच चुका है। गुजरात व राजस्थान के जिन इलाकों में 150 से 200 फुट नीचे पानी मिल जाता था, वहाँ अब किसानों को पानी के लिए 700 से 1,000 फुट तक बोरिंग करनी पड़ती है। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश के लखनऊ तथा कानपुर के मध्य 80 कि.मी. की एक ऐसी पट्टी देखी जा रही हैं जिसमें अवैज्ञानिक भूमिगत जल दोहन के कारण प्रतिवर्ष जलस्तर में 2-3 फिट गिरावट आ रही है, जिसके परिणामस्वरूप भूमि के भीतर एक खोह-सा बनता जा रहा है, जिससे अनेक स्थानों पर भूमि व मकानों के धंसने की आशंका व्यक्त की जा रही है। भूकम्पीय दृष्टिकोण से इन क्षेत्रों को सर्वाधिक खतरनाक घोषित किया जा चुका है। इनमें केन्द्रीय भूजल बोर्ड द्वारा उत्तर प्रदेश के घोषित 819 ब्लॉकों में से 111 ‘डार्क’ (जहाँ भूजल का स्तर 85 प्रतिशत से नीचे पहुँच चुका है) तथा ‘ग्रे’ (जहाँ भूजल स्तर 65 से 85 प्रतिशत चेतावनी के स्तर तक पहुँच चुके हैं) ब्लॉक भी शामिल हैं। देश के अन्य स्थानों में भी बोर्ड के अनुसार ‘डार्क’ एवं ‘ग्रे’ जोनों में भारी वृद्धि दर्ज की गई है। अतः भूमिगत जल के अत्यधिक दोहन के एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2017-18 तक देश में 1,532 ब्लॉकों में जल संकट उत्पन्न हो जाएगा। ‘डार्क’ क्षेत्रों में 1991 से 20.60 लाख प्रतिवर्ष की वृद्धि दर्ज की गई है। अतः अब ऐसी नीति के कार्यान्वयन की आवश्यकता है जिसमें उतना ही भूजल दोहन किया जाय जितनी वर्षा द्वारा पुनर्भरण किया जा सके।
वाशिंगटन स्थित वर्ड्ज वॉच संस्थान की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 58 प्रतिशत लोगों को पीने का स्वच्छ जल उपवलब्ध नहीं है। शहरों में 62 प्रतिशत एवं गाँवों में 18 प्रतिशत स्थानों पर ही पानी को शुद्ध करके वितरित किया जाता है, इसमें सबसे गम्भीर खतरा उन लोगों को है जो भूमिगत जल का सीधे प्रयोग कर रहे है। एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत के 18 राज्यों के 200 जनपदों के भूजल स्रोतों का पानी पीने लायक नहीं रहा है। प्रदूषण के कहर ने नदियों के बाद समुद्र और अब भूमिगत जल को निशाना बनाया है। जमीन के अन्दर रिसने वाला जल अब पाताल की तरफ फ्लोराइड, नाइट्रेट, कैडनियम, आर्सेनिक, कॉपर, जिंक, क्रोमियम, सेलीनियम, पारा, लौह, मैंगनीज, सीसा एवं अन्य विषैले तत्वों को ले जा रहा है। इन घातक प्रदूषणों से प्रभावित इलाके अब स्पष्ट रूप से अपना कुप्रभाव दिखाने लग गए हैं। अस्थि सम्बन्धित विकृतियाँ फैलाने वाला फ्लोराइड भारत के 8,600 गाँवों को अपनी चपेट में ले चुका है। केन्द्रीय भूमिगत जल बोर्ड के अनुसार राजधानी के पूरे क्षेत्र में फ्लोराइड अनुमान (अधिकतम मात्रा 1.5 मि.ग्रा./ली. से अधिक) से अधिक पाई गई है। यह हाल मध्य प्रदेश के माडेला जिले व देश के अन्य भागों का है। कृषि में बढ़ते उर्वरकों के प्रयोग से नाइट्रेट प्रदूषण बढ़ा है। भारत में प्रति हेक्टेयर उर्वरकों का प्रयोग अमेरिका से 60 प्रतिशत ज्यादा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जल में नाइट्रेट की अधिकतम मात्रा 45 मि.ग्रा./ली. तय की है। परिणामस्वरूप शिशुओं में मेथोहिमोग्लोविनिमिया (ब्लू बेबी सिण्रो45म) नामक बीमारी से लगभग 15 लाख बच्चे प्रभावित हो रहे हैं।
हमारे देश में हर साल 1.80 करोड़ बढ़ती जनसंख्या को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराना एक चुनौती है। 2050 तक 165 करोड़ लोगों के लिए 1,447 अरब घन मीटर पानी एवं 45 करोड़ मीट्रिक टन खाद्यान्न की व्यवस्था करने के लिए दीर्घकालीन योजनाएँ अभी से बनानी पड़ेगी। इसमें सबसे सरल व किफायती तरीका वर्षा जल संरक्षण अर्थात जहाँ पानी की बूँद गिरे उसे वहाँ पकड़कर रखा जाय जिससे भूजल में वृद्धि के साथ-साथ सिंचाई सुविधा एवं पेयजल सुविधा में भी वृद्धि होगी।इसी प्रकार पूर्वी भारत एवं पश्चिम बंगाल के 7 जिलों में आर्सेनिक चार गुना से भी अधिक होने के कारण त्वचा सम्बन्धी विकृतियाँ, आँत, यकृत, स्नायुतन्त्र सम्बन्धी विकृतियाँ सामने आने लगी है। चमड़ा शोधक कारखानों से निकाले गए प्रदूषित जल की वजह से क्रोमियम की अधिकतम अनुमेय सान्द्रता 0.05 मि.ग्रा./ली. से कई गुना अधिक हो चुकी है। अतः इनके आसपास के इलाकों में बीमारी व आन्त्रशोथ के मामलों में अप्रत्याशित वृद्धि होने लगी है। जल में अघुलनशील एवं अजैव विघटनशील कार्बनिक रसायन जैसे डीडीटी आदि की अल्पमात्रा (1×10-9 ग्राम/ली.) भी शरीर में विषाक्तता पैदा करने एवं विभिन्न अंगों के क्रियाकलापों को प्रभावित करने के लिए काफी हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में 5 करोड़ व्यक्ति प्रतिवर्ष प्रदूषित जल पीने की वजह से बीमार पड़ जाते हैं तथा इलाज में लगभग 5000 करोड़ रुपए खर्च हो जाते हैं। संगठन के अनुसार स्वच्छ जल मिलने से अतिसार में 50 प्रतिशत तथा हैजा में 90 प्रितशत तक कमी लाई जा सकती है।
भारत में 2001 की जनगणना की रिपोर्ट के अनुसार 36.7 प्रतिशत लोग नल, 35.7 प्रतिशत हैण्डपम्प, 18.2 प्रतिशत तालाब या झील, 5.6 प्रतिशत कुआँ एवं 3.8 प्रतिशत लोग पानी के लिए अन्य साधनों पर निर्भर है। हमारे देश में हर साल 1.80 करोड़ बढ़ती जनसंख्या को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराना एक चुनौती है। 2050 तक 165 करोड़ लोगों के लिए 1,447 अरब घन मीटर पानी एवं 45 करोड़ मीट्रिक टन खाद्यान्न की व्यवस्था करने के लिए दीर्घकालीन योजनाएँ अभी से बनानी पड़ेगी। इसमें सबसे सरल व किफायती तरीका वर्षा जल संरक्षण अर्थात जहाँ पानी की बूँद गिरे उसे वहाँ पकड़कर रखा जाय जिससे भूजल में वृद्धि के साथ-साथ सिंचाई सुविधा एवं पेयजल सुविधा में भी वृद्धि होगी। कोलम्बो स्थित अन्तरराष्ट्रीय जल प्रबन्धन संस्थान के अनुमान के अनुसार यदि भारत पानी के उपयोग की अपनी कार्यक्षमता को 2025 तक विश्व स्तर (70 प्रतिशत) का भी कर ले, तो पानी की माँग में 17 प्रतिशत की पूर्ति की जा सकती है, जबकि वर्तमान में हमारी कार्यकुशलता 30-40 प्रतिशत है। अतः वर्षा की बूँद-बूँद को बचाना होगा। वर्षा जल संरक्षण के लिए पुराने तालाबों, बावड़ियों, कुओं, जोहड़, ताल, तलैया, पोखर, झील, खण्डी, रजवाहों एवं कृत्रिम जलाशयों को फिर से उपयोग में लाना पड़ेगा। हमारे देश में 1950 में लगभग 5 लाख तालाब थे, जिनमें 36 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होती थी, ये तालाब बाढ़ से बचाव, भूजल स्तर में वृद्धि एवं जल संकट को काफी हद तक कम कर देते थे, मगर इनमें से अधिकतर अवैध कब्जे, खेल के मैदान या नगरों, कस्बों एवं शहरों ने निगल लिए हैं। अतः जल संकट से कारगर रूप से भी तभी निपटा जा सकता है जब हम अपने प्रचलित परम्परागत वर्षा जल संग्रह की विधियों को अपनाएँगे। सिंचाई के लिए अन्य जल प्रबन्धन विधियों में स्प्रिंकिल इरीगेशन, ड्रिप इरीगेशन, घड़ा सिंचाई आदि को आम प्रचलन में लाना होगा।
पानी किसी भी राष्ट्र की बहुमूल्य प्राकृतिक सम्पदा है, भारत में विश्व का 2.45 भूभाग एवं 4.5 प्रतिशत मूल्यवान पानी है। इस पानी का उचित प्रबन्धन एवं समुचित उपयोग करना होगा, तभी यह सम्पदा आर्थिक रूप से समृद्धि दिलाएगी, क्योंकि वर्तमान में पानी का 18,000 करोड़ रुपए का व्यवसाय, 2010 तक 99,000 करोड़ तक पहुँचने की आशा है। जिस प्रकार 20वीं सदी में पानी के रहने की सम्भावना है, ऐसी स्थिति में इस अमूल्य संसाधन का बड़ी सावधानी के साथ प्रबन्धन, नियमन एवं वितरण करना होगा, तभी हमारा देश आर्थिक रूप से मजबूत होगा।
(लेखकद्वय क्रमशः प्रथम हे.न.ब.ग. विश्वविद्यालय, श्रीनगर, गढ़वाल, के शिक्षा संकाय में वरिष्ठ प्रवक्ता हैं तथा द्वितीय उपर्युक्त शिक्षा संकाय में शोध छात्र हैं)
एक अनुमान के अनुसार 1995 में जहाँ विश्व में 3,906 घन किलोमीटर पानी का उपयोग किया गया था, वहाँ 8 करोड़ प्रतिवर्ष की गति से बढ़ रही जनसंख्या के लिए 2025 तक 50 प्रतिशत अतिरिक्त पानी की खपत होगी। इसी प्रकार एशिया में भी यह खपत 2,200 घन किलोमीटर से बढ़कर 2,900 घन किलोमीटर हो जाएगी, ऐसी स्थिति में जब पानी की माँग लगातार बढ़ रही हो, तब अन्य पारिस्थितिकीय तन्त्रों पर दबाव पड़ेगा। अतः विश्व के सभी प्रमुख संगठनों ने विभिन्न मंचों से वर्षा जल संरक्षण को अधिक प्रभावी बनाने पर जोर दिया है। एक अनुमान के अनुसार हर साल विश्व में वर्षा से प्राकृतिक रूप से 110,000 घन किलोमीटर पानी बरसता है। इसका अधिकांश भाग जलवाष्प बनकर हवा में उड़ जाता है, जबकि लगभग 42,700 घन किलोमीटर वर्षा जल नदियों में बहता है। विश्व भर में संयुक्त जल संरक्षण एवं प्रबन्धन के सकारात्मक नतीजे अब दिखने लगे हैं।
वर्षा जल संरक्षण के विभिन्न तकनीकों का समुचित प्रयोग करते हुए उन्होंने तालाब, पोखर जोहड़, नदियों एवं स्रोतों को साफ कर पुनः उपयोगी बनाने का निर्णय लिया। हर साल वर्षा एवं हिमपात के रूप में भारत को प्रकृति की तरफ से 4,000 घन किलोमीटर पानी मुफ्त मिलता है। परन्तु हमारे देश की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के कारण एक ओर जहाँ राजस्थान में औसत 100 मि.मी. वर्षा होती है, तो दूसरी तरफ मेघालय के चेरापूँजी में औसत 11,000 मि.मी. वर्षा होती है। इस प्रकार देश के कुछ हिस्से में बाढ़ के कारण लगभग 83 जिलों में 4 करोड़ हेक्टेयर भूमि जलमग्न हो जाती है तो दूसरी तरफ लगभग सूखे की स्थिति बनी रहती है। हम वर्षा जल संरक्षण के महत्त्व को न समझकर मात्र 690 घन किलोमीटर पानी का ही प्रयोग कर पाते हैं, और 1,179 घन किलोमीटर पानी व्यर्थ ही समुद्र में बह जाता है। 1985 में सिंचाई के लिए 87 प्रतिशत एवं अन्य उपयोगी कार्यों के लिए 13 प्रतिशत जल का प्रयेाग किया गया था। परन्तु 2025 तक, अन्य उपयोगी कार्यों के लिए पानी की माँग बढ़कर 27 प्रतिशत हो जाएगी। इसलिए 2025 तक भारत में 153 करोड़ लोगों के लिए 770 घन किलोमीटर पानी उपलब्ध कराने के लिए अभी से दीर्घकालीक योजनाएँ बना लेनी चाहिए।
हमोर देश में बाढ़ एवं सूखे से निपटने में एक कारगर योजना सफल हो सकती है और वह है, देश की 37 बड़ी नदियों को आपस में जोड़कर ‘भगीरथ’ महायोजना पर तीव्रता से कार्य शुरू करना। केन्द्र सरकार द्वारा 2015 तक पूर्ण होने वाली इस महत्वाकांक्षी योजना पर लगभग 5,60,000 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान है। पूर्व बिजली मन्त्री सुरेश प्रभु की अध्यक्षता वाले उच्चस्तरीय कार्यदल ने परियोजना के शुरू में ही स्पष्ट किया है कि सूखे एवं बाढ़ से निजात दिलाने में विश्व की यह अपनी तरह की पहली योजना है। इसमें हिमालय घटक में 14 नहर मालिकाओं के साथ-साथ तीन विशाल ग्रिड बनेंगे, जिनमें वर्षा ऋतु के समय बाढ़ के अतिरिक्त पानी का उपयोग जल संकट महीनों में पूरे देश में किया जा सकेगा। इस परियोजना में जहाँ पूरे देश में पेयजल एवं सिंचाई सुविधाओं में वृद्धि होगी, वहीं देश के अन्य क्षेत्रों का भी कायाकल्प हो जाएगा। इस कार्यक्रम के संचालन के लिए प्रधानमन्त्री ने 400 करोड़ रुपए की घोषणा पहले ही कर दी है। देश के 9 प्रतिशत पूर्ण शुष्क एवं 40 प्रतिशत अर्धशुष्क क्षेत्र का अधिकांश भाग सिंचाई सुविधा से लाभान्वित होगा, अतः इस योजना की परिधि में आने पर खाद्यान्नों का उत्पादन बढ़ने से आर्थिक स्थिति में काफी बदलाव आने की सम्भावना है।
एक अनुमान के अनुसार हर साल विश्व में वर्षा से प्राकृतिक रूप से 110,000 घन किलोमीटर पानी बरसता है। इसका अधिकांश भाग जलवाष्प बनकर हवा में उड़ जाता है, जबकि लगभग 42,700 घन किलोमीटर वर्षा जल नदियों में बहता है।वर्तमान समय में देश में अधिकांशतः लोग भूमिगत जल पर निर्भर हैं। केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण की एक रिपोर्ट के अनुसार 56 लाख हैण्डपम्पों एवं अन्य साधनों से भूमिगत जल का दोहन पीने के पानी के रूप में तथा सिंचाई एवं औद्योगिक कार्यों में हो रहा है। अकेले देश के ग्रामीण इलाकों में सिंचाई हेतु 50 प्रतिशत तथा पेयजल के लिए 80 प्रतिशत जल, 30 लाख हैण्डपम्पों एवं अन्य साधनों से निकाला जा रहा है। इस अमूल्य प्राकृतिक सम्पदा के अवैज्ञानिक एवं अन्धाधुन्ध दोहन से देश के 593 जिलों में से 206 जिलों में पानी का स्तर लगातार घटता जा रहा है। इनमें से करीब 70 जिलों में भूमिगत जलस्तर चार मीटर से भी नीचे गिर चुका है तथा यह गिरावट लगभग 20 से.मी. प्रतिवर्ष की दर से निरन्तर जारी है। देश में केवल उन्हीं स्थानों पर भूमिगत जलस्तर में कमी नहीं आती है, जो बड़ी नदियों के आसपास के इलाके, बाढ़ आने वाले स्थानों, कुओं एवं तालाबों के नजदीक स्थित हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की पर्यावरण सम्बन्धी रिपोर्ट में भी स्पष्ट कहा गया है कि पूरे विश्व में तीव्र भूमिगत जल दोहन से शहरों के आसपास के इलाके निम्नतम भूमिगत जलस्तर तक पहुँच गए हैं। किसी भी क्षेत्र में भूमिगत जल के 60 प्रतिशत से अधिक दोहन को खतरे का संकेत माना जाता है। कोलकाता में तो बोरिंग से निरन्तर जल निकासी के कारण जलस्तर 40 मीटर तक नीचे पहुँच चुका है। पंजाब में लगभग 60 प्रतिशत तथा हरियाणा में 40 प्रतिशत भाग अति भूमिगत दोहन के कारण खतरे के बिन्दु से भी नीचे पहुँच चुका है। गुजरात व राजस्थान के जिन इलाकों में 150 से 200 फुट नीचे पानी मिल जाता था, वहाँ अब किसानों को पानी के लिए 700 से 1,000 फुट तक बोरिंग करनी पड़ती है। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश के लखनऊ तथा कानपुर के मध्य 80 कि.मी. की एक ऐसी पट्टी देखी जा रही हैं जिसमें अवैज्ञानिक भूमिगत जल दोहन के कारण प्रतिवर्ष जलस्तर में 2-3 फिट गिरावट आ रही है, जिसके परिणामस्वरूप भूमि के भीतर एक खोह-सा बनता जा रहा है, जिससे अनेक स्थानों पर भूमि व मकानों के धंसने की आशंका व्यक्त की जा रही है। भूकम्पीय दृष्टिकोण से इन क्षेत्रों को सर्वाधिक खतरनाक घोषित किया जा चुका है। इनमें केन्द्रीय भूजल बोर्ड द्वारा उत्तर प्रदेश के घोषित 819 ब्लॉकों में से 111 ‘डार्क’ (जहाँ भूजल का स्तर 85 प्रतिशत से नीचे पहुँच चुका है) तथा ‘ग्रे’ (जहाँ भूजल स्तर 65 से 85 प्रतिशत चेतावनी के स्तर तक पहुँच चुके हैं) ब्लॉक भी शामिल हैं। देश के अन्य स्थानों में भी बोर्ड के अनुसार ‘डार्क’ एवं ‘ग्रे’ जोनों में भारी वृद्धि दर्ज की गई है। अतः भूमिगत जल के अत्यधिक दोहन के एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2017-18 तक देश में 1,532 ब्लॉकों में जल संकट उत्पन्न हो जाएगा। ‘डार्क’ क्षेत्रों में 1991 से 20.60 लाख प्रतिवर्ष की वृद्धि दर्ज की गई है। अतः अब ऐसी नीति के कार्यान्वयन की आवश्यकता है जिसमें उतना ही भूजल दोहन किया जाय जितनी वर्षा द्वारा पुनर्भरण किया जा सके।
वाशिंगटन स्थित वर्ड्ज वॉच संस्थान की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 58 प्रतिशत लोगों को पीने का स्वच्छ जल उपवलब्ध नहीं है। शहरों में 62 प्रतिशत एवं गाँवों में 18 प्रतिशत स्थानों पर ही पानी को शुद्ध करके वितरित किया जाता है, इसमें सबसे गम्भीर खतरा उन लोगों को है जो भूमिगत जल का सीधे प्रयोग कर रहे है। एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत के 18 राज्यों के 200 जनपदों के भूजल स्रोतों का पानी पीने लायक नहीं रहा है। प्रदूषण के कहर ने नदियों के बाद समुद्र और अब भूमिगत जल को निशाना बनाया है। जमीन के अन्दर रिसने वाला जल अब पाताल की तरफ फ्लोराइड, नाइट्रेट, कैडनियम, आर्सेनिक, कॉपर, जिंक, क्रोमियम, सेलीनियम, पारा, लौह, मैंगनीज, सीसा एवं अन्य विषैले तत्वों को ले जा रहा है। इन घातक प्रदूषणों से प्रभावित इलाके अब स्पष्ट रूप से अपना कुप्रभाव दिखाने लग गए हैं। अस्थि सम्बन्धित विकृतियाँ फैलाने वाला फ्लोराइड भारत के 8,600 गाँवों को अपनी चपेट में ले चुका है। केन्द्रीय भूमिगत जल बोर्ड के अनुसार राजधानी के पूरे क्षेत्र में फ्लोराइड अनुमान (अधिकतम मात्रा 1.5 मि.ग्रा./ली. से अधिक) से अधिक पाई गई है। यह हाल मध्य प्रदेश के माडेला जिले व देश के अन्य भागों का है। कृषि में बढ़ते उर्वरकों के प्रयोग से नाइट्रेट प्रदूषण बढ़ा है। भारत में प्रति हेक्टेयर उर्वरकों का प्रयोग अमेरिका से 60 प्रतिशत ज्यादा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जल में नाइट्रेट की अधिकतम मात्रा 45 मि.ग्रा./ली. तय की है। परिणामस्वरूप शिशुओं में मेथोहिमोग्लोविनिमिया (ब्लू बेबी सिण्रो45म) नामक बीमारी से लगभग 15 लाख बच्चे प्रभावित हो रहे हैं।
हमारे देश में हर साल 1.80 करोड़ बढ़ती जनसंख्या को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराना एक चुनौती है। 2050 तक 165 करोड़ लोगों के लिए 1,447 अरब घन मीटर पानी एवं 45 करोड़ मीट्रिक टन खाद्यान्न की व्यवस्था करने के लिए दीर्घकालीन योजनाएँ अभी से बनानी पड़ेगी। इसमें सबसे सरल व किफायती तरीका वर्षा जल संरक्षण अर्थात जहाँ पानी की बूँद गिरे उसे वहाँ पकड़कर रखा जाय जिससे भूजल में वृद्धि के साथ-साथ सिंचाई सुविधा एवं पेयजल सुविधा में भी वृद्धि होगी।इसी प्रकार पूर्वी भारत एवं पश्चिम बंगाल के 7 जिलों में आर्सेनिक चार गुना से भी अधिक होने के कारण त्वचा सम्बन्धी विकृतियाँ, आँत, यकृत, स्नायुतन्त्र सम्बन्धी विकृतियाँ सामने आने लगी है। चमड़ा शोधक कारखानों से निकाले गए प्रदूषित जल की वजह से क्रोमियम की अधिकतम अनुमेय सान्द्रता 0.05 मि.ग्रा./ली. से कई गुना अधिक हो चुकी है। अतः इनके आसपास के इलाकों में बीमारी व आन्त्रशोथ के मामलों में अप्रत्याशित वृद्धि होने लगी है। जल में अघुलनशील एवं अजैव विघटनशील कार्बनिक रसायन जैसे डीडीटी आदि की अल्पमात्रा (1×10-9 ग्राम/ली.) भी शरीर में विषाक्तता पैदा करने एवं विभिन्न अंगों के क्रियाकलापों को प्रभावित करने के लिए काफी हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में 5 करोड़ व्यक्ति प्रतिवर्ष प्रदूषित जल पीने की वजह से बीमार पड़ जाते हैं तथा इलाज में लगभग 5000 करोड़ रुपए खर्च हो जाते हैं। संगठन के अनुसार स्वच्छ जल मिलने से अतिसार में 50 प्रतिशत तथा हैजा में 90 प्रितशत तक कमी लाई जा सकती है।
भारत में 2001 की जनगणना की रिपोर्ट के अनुसार 36.7 प्रतिशत लोग नल, 35.7 प्रतिशत हैण्डपम्प, 18.2 प्रतिशत तालाब या झील, 5.6 प्रतिशत कुआँ एवं 3.8 प्रतिशत लोग पानी के लिए अन्य साधनों पर निर्भर है। हमारे देश में हर साल 1.80 करोड़ बढ़ती जनसंख्या को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराना एक चुनौती है। 2050 तक 165 करोड़ लोगों के लिए 1,447 अरब घन मीटर पानी एवं 45 करोड़ मीट्रिक टन खाद्यान्न की व्यवस्था करने के लिए दीर्घकालीन योजनाएँ अभी से बनानी पड़ेगी। इसमें सबसे सरल व किफायती तरीका वर्षा जल संरक्षण अर्थात जहाँ पानी की बूँद गिरे उसे वहाँ पकड़कर रखा जाय जिससे भूजल में वृद्धि के साथ-साथ सिंचाई सुविधा एवं पेयजल सुविधा में भी वृद्धि होगी। कोलम्बो स्थित अन्तरराष्ट्रीय जल प्रबन्धन संस्थान के अनुमान के अनुसार यदि भारत पानी के उपयोग की अपनी कार्यक्षमता को 2025 तक विश्व स्तर (70 प्रतिशत) का भी कर ले, तो पानी की माँग में 17 प्रतिशत की पूर्ति की जा सकती है, जबकि वर्तमान में हमारी कार्यकुशलता 30-40 प्रतिशत है। अतः वर्षा की बूँद-बूँद को बचाना होगा। वर्षा जल संरक्षण के लिए पुराने तालाबों, बावड़ियों, कुओं, जोहड़, ताल, तलैया, पोखर, झील, खण्डी, रजवाहों एवं कृत्रिम जलाशयों को फिर से उपयोग में लाना पड़ेगा। हमारे देश में 1950 में लगभग 5 लाख तालाब थे, जिनमें 36 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होती थी, ये तालाब बाढ़ से बचाव, भूजल स्तर में वृद्धि एवं जल संकट को काफी हद तक कम कर देते थे, मगर इनमें से अधिकतर अवैध कब्जे, खेल के मैदान या नगरों, कस्बों एवं शहरों ने निगल लिए हैं। अतः जल संकट से कारगर रूप से भी तभी निपटा जा सकता है जब हम अपने प्रचलित परम्परागत वर्षा जल संग्रह की विधियों को अपनाएँगे। सिंचाई के लिए अन्य जल प्रबन्धन विधियों में स्प्रिंकिल इरीगेशन, ड्रिप इरीगेशन, घड़ा सिंचाई आदि को आम प्रचलन में लाना होगा।
पानी किसी भी राष्ट्र की बहुमूल्य प्राकृतिक सम्पदा है, भारत में विश्व का 2.45 भूभाग एवं 4.5 प्रतिशत मूल्यवान पानी है। इस पानी का उचित प्रबन्धन एवं समुचित उपयोग करना होगा, तभी यह सम्पदा आर्थिक रूप से समृद्धि दिलाएगी, क्योंकि वर्तमान में पानी का 18,000 करोड़ रुपए का व्यवसाय, 2010 तक 99,000 करोड़ तक पहुँचने की आशा है। जिस प्रकार 20वीं सदी में पानी के रहने की सम्भावना है, ऐसी स्थिति में इस अमूल्य संसाधन का बड़ी सावधानी के साथ प्रबन्धन, नियमन एवं वितरण करना होगा, तभी हमारा देश आर्थिक रूप से मजबूत होगा।
(लेखकद्वय क्रमशः प्रथम हे.न.ब.ग. विश्वविद्यालय, श्रीनगर, गढ़वाल, के शिक्षा संकाय में वरिष्ठ प्रवक्ता हैं तथा द्वितीय उपर्युक्त शिक्षा संकाय में शोध छात्र हैं)
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Post By: birendrakrgupta