प्रस्तावित रोजगार गारण्टी अधिनियम को भारत में सामाजिक नीति की बृहत्तर संकल्पना के एक तत्व के रूप में देखा जा सकता है। इस संकल्पना में सामाजिक व्यय में बड़े पैमाने पर बढ़ोत्तरी तथा उसकी संरचना में क्रान्तिकारी सुधार दोनों शामिल हैं।रोजगार गारण्टी अधिनियम का विचार नया नहीं है, लेकिन एक के बाद एक अनहोनी घटनाओं की शृंखला ने इसे अन्धकार से निकाल कर राजनीतिक कार्यक्रम के शीर्ष पर बिठा दिया है। साझा न्यूनतम कार्यक्रम के पहले अनुच्छेद में कहा गया है, “संप्रग सरकार तत्काल एक राष्ट्रीय रोजगार गारण्टी अधिनियम बनाएगी। आरम्भ में यह सार्वजनिक परिसम्पत्ति तैयार करने वाले कार्यक्रमों को आरम्भ कर प्रत्येक ग्रामीण-शहरी निर्धन तथा निम्न-मध्यम परिवार के कम-से-कम एक सक्षम व्यक्ति को प्रतिवर्ष कम से कम 100 दिनों का रोजगार प्रदान करने की कानूनी गारण्टी देगा।”
जुलाई 2004 में सम्बद्ध नागरिकों ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी अधिनियम का प्रारूप तैयार कर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद को भेजा। महीने भर के भीतर ही परिषद ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में किए गए संकल्प के अनुरूप इस प्रारूप में संशोधन कर उसे सरकार के पास तत्काल विचार के लिए भेज दिया।
प्रस्तावित अधिनियम अस्थायी आधार पर शारीरिक श्रम करने के इच्छुक किसी भी ग्रामीण को न्यूनतम निर्धारित मजदूरी पर रोजगार की वैधानिक गारण्टी देता है। काम के लिए आवेदन करने वाला कोई भी वयस्क 15 दिनों के भीतर सार्वजनिक कार्य में रोजगार पाने का हकदार होगा। ऐसा न हो पाने पर उसे रोजगार भत्ता दिया जाएगा। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा तैयार किए गए अधिनियम के प्रारूप में आरम्भ में प्रत्येक घर पर 100 दिनों की रोजगार गारण्टी की सीमा निर्धारित की गई है जिसे आगे चलकर बढ़ाया अथवा समाप्त किया जा सकता है।
लेकिन अधिनियम की आवश्कयता पर सवाल किए गए हैं। कहा जा रहा है कि बड़े पैमाने पर रोजगार कार्यक्रम शुरू करना पर्याप्त क्यों नहीं है? इसका उत्तर यह है कि कानून सरकार पर एक जिम्मेदारी डालता है और मजदूरों को मोलभाव की ताकत देता हैं। यह जवाबदेही अपेक्षित बनाता है। इसके विपरीत, कार्यक्रम से मजदूर सरकारी कारिन्दों के आसरे हो जाते हैं।
कार्यक्रम और अधिनियम में एक दूसरा प्रमुख अन्तर भी है। कार्यक्रम आते-जाते रहते हैं, लेकिन कानून ज्यादा स्थायी होते हैं। कार्यक्रम में कोई नौकरशाह काट-छाँट कर सकता है, अथवा उसे निरस्त भी कर सकता है। जबकि कानून में परिवर्तन के लिए संसद द्वारा संशोधन अपेक्षित होता है। रोजगार गारण्टी अधिनियम पारित होने से श्रमिकों को अधिक स्थायी अधिकार मिलेंगे। समय के साथ-साथ वे अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो जाएँगे और उनकी रक्षा करना सीख जाएँगे।
रोजगार गारण्टी अधिनियम का मुख्य उद्देश्य अवाम को काम के अपने संवैधानिक अधिकार के बुनियादी पहलू के बारे में सरकार से दावा करने के योग्य बनाना है। ऐसा हो, इसके लिए जरूरी है कि अधिनियम उन्हें प्रभावी तथा टिकाऊ अधिकार दे। इसका लक्ष्य वंचितों को शक्ति देना तथा सम्बद्ध अधिकारियों द्वारा कर्तव्य पालन में किसी प्रकार की लापरवाही के विरुद्ध व्यापक उपाय करना है।रोजगार गारण्टी अधिनियम की आलोचना प्रायः इसके दूरगामी आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक महत्त्व को न समझ पाने के कारण की जाती है। ग्रामीण परिवारों को गरीबी और भूख से रक्षा करने की दिशा में यह अधिनियम दूर तक जाएगा। वस्तुतः एक सर्वांगीण रोजगार गारण्टी अधिनियम से भारत के अधिकांश ग्रामण गरीब परिवार गरीबी-रेखा से ऊपर निकल पाएँगे। दूसरे, इससे ग्रामीण-शहरी पलायन में नाटकीय रूप से कमी आएगी। गाँवों में यदि काम उपलब्ध हो तो अधिकतर ग्रामीण परिवार खाली दिनों में शहरों की ओर जाना छोड़ देंगे। तीसरे रोजगार गारण्टी अधिनियम के तहत रोजगार पाने वालों का एक बड़ा हिस्सा महिलाएँ होंगी। सुनिश्चित रोजगार से उन्हें थोड़ी आर्थिक आजादी मिलेगी। इस तरह, रोजगार गारण्टी महिला सशक्तीकरीण का एक प्रमुख स्रोत बनेगा। चौथे, रोजगार गारण्टी अधिनियम गाँवों में उपयोगी परिसम्पत्तियाँ खड़ी करने का एक अवसर है। इसमें विशेष रूप से पर्यावरण रक्षा के क्षेत्र में वाटरशेड विकास, भूमि को उर्वर बनाने, भू-क्षरण रोकने, तालाबों के जीर्णोद्धार, वन संरक्षण तथा सम्बद्ध गतिविधियों जैसे श्रमोन्मुखी सार्वजनिक कार्य करने की बड़ी सम्भावना है। पाँचवें, सुनिश्चित रोजगार से गाँवों में शक्ति-सन्तुलन बदलने तथा अधिक समता-आधारित सामाजिक व्यवस्था स्थापित होने की सम्भावना है। आखिर में, रोजगार गारण्टी अधिनियम के रूप में ग्राम पंचायतों तथा ग्राम सभाओं सहित पंचायती राज संस्थाओं को सक्रिय तथा सशक्त बनाने का एक विशिष्ट अवसर सामने आया है। इससे इन संस्थाओं को एक नया मकसद और उसे पूरा करने के लिए वित्तीय संसाधन हासिल होगा।
लेकिन रोजगार गारण्टी अधिनियम सस्ता प्रक्रम नहीं होगा। इस विचार के प्रति सहानुभूति रखने वाले लोग भी प्रायः आश्चर्य करते हैं कि क्या इस पर आने वाला व्यय वहन करने योग्य होगा। यह एक रोचक तथ्य है कि ‘नदियों को जोड़ने’ की परियोजना के सन्दर्भ में ऐसी चिन्ता शायद ही कभी प्रकट की गई हो। इस परियोजना की लागत रोजगार गारण्टी अधिनियम की लागत की तुलना में काफी अधिक और लाभ (यदि कोई है तो) काफी सन्दिग्ध है।
इसके बावजूद इस परियोजना को आसानी से देश के कुछ सर्वाधिक प्रतिष्ठित संस्थानों और व्यक्तियों का समर्थन मिल गया - वह भी बेहद सतही आधार पर। यदि नदियों को जोड़ने की परियोजना कॉरपोरेट क्षेत्र के लिए अलीबाबा का खजाना साबित न हुआ, तो आश्चर्य होगा।
जो भी हो, रोजगार गारण्टी की आर्थिक व्यवहार्यता की जाँच इसके अपने सन्दर्भ में किए जाने की जरूरत है, किसी खर्चीली परियोजना से तुलना कर नहीं। इस विषय पर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा तैयार की गई टिप्पणी में रोजगार गारण्टी की लागत को वर्ष 2005-06 में सकल घरेलू उत्पाद (सघउ) के 0.5 प्रतिशत से वर्ष 2008-09 में बढ़कर एक प्रतिशत हो जाने की सम्भावना व्यक्त की गई है। यह इस मान्यता पर आधारित है कि धीरे-धीरे इस कार्यक्रम को चार वर्ष की अवधि में 150 जिलों से आरम्भ कर पूरे देश में लागू कर दिया जाएगा।
सघउ के एक प्रतिशत की अनुमानित लागत वित्तीय लागत है। वास्तविक लागत इससे काफी कम होगी। उदाहरणार्थ, किसी श्रमिक को सार्वजनिक कार्य में रोजगार देने की वित्तीय लागत उसकी संवैधानिक न्यूनतम मजदूरी होगी, लेकिन श्रमिक के अन्यथा बेरोजगार होने की स्थिति में इसकी वास्तविक लागत (जाने वाले वास्तविक संसाधन) उतनी अधिक नहीं होगी। यदि रोजगार गारण्टी की वास्तविक लागत सघउ का एक प्रतिशत हो भी, तो भी चिन्ता की कोई बात नहीं है।
रोजगार गारण्टी की वित्त व्यवस्था से जुड़ी चुनौती को इस तथ्य के आलोक में देखे जाने की जरूरत है कि भारत का कर-सघउ अनुपात अन्तरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में काफी कम है। केन्द्र और राज्य दोनों को मिलाकर यह लगभग 15 प्रतिशत है जबकि ओईसीडी देशों में यह 37 प्रतिशत है। हाल के वर्षों में भारत का कर-सघउ अनुपात कम हुआ है। उदाहरण के लिए, सघउ से केन्द्रीय करों का अनुपात 2003-04 में केवल 9.3 प्रतिशत था जबकि 1987-88 में यह 10.6 प्रतिशत था। दूसरी बातों के अलावा ये कुछ ऐसे संकेतक हैं जो बताते हैं कि रोजगार गारण्टी और उससे जुड़े सामाजिक कार्यक्रमों के लिए वित्त जुटाने के लिए भारत के सघउ-कर अनुपात को बढ़ाए जाने की अभी काफी गुंजाइश है।
कर राजस्व बढ़ाने की दिशा में वित्त मन्त्रालय में हाल ही में जमा किए गए केलकर-2 रिपोर्ट में उपयोगी संकेत हैं। हालांकि समान कर निर्धारित करने तथा कर की दरें कम कर राजस्व बढ़ाने में इसकी दिल छू लेने वाली आस्था जैसे कुछ पक्षों पर प्रश्न किए जा सकते हैं।
बावजूद इसके, इस रिपोर्ट में मूल्यवर्द्धित कर लागू करने, अधिकांश सेवाओं पर कराधान करने, कर-आधार बढ़ाने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग करने, छूटों को समाप्त करने तथा कर चोरी रोकने जैसे अनेक संवेदनशील उपायों के द्वारा कर-सघउ अनुपात बढ़ाने का सुझाव भी दिया गया है। इन अवसरों का यदि सदुपयोग किया गया तो योजनागत व्यय को भारत के सघउ के एक प्रतिशत से काफी अधिक बढ़ाया जा सकता है।
लेकिन ‘केलकर-2’ पर ही ठिठक जाना कतई आवश्यक नहीं है। अन्य अनेक वित्तीय विकल्पों पर विचार किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, हाल की विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि व्यावसायिक कर से विशृंखल नियन्त्रण हटा देने भर से राज्य सरकारें सघउ के 0.9 प्रतिशत के बराबर अतिरिक्त कर राजस्व संग्रहीत करने लगेंगी।
इसी तरह, पर्यावरण को क्षति पहुँचाने वाले उपभोग अथवा असामाजिक गतिविधियों पर ‘हरित कर’ लगाकर काफी राजस्व अर्जित किया जा सकता है। अनावश्यक सरकारी व्यय को कम किए जाने की भी काफी सम्भावना है। इसकी शुरुआत सैन्य व्यय तथा अमीरों को मिलने वाली सबसिडियाँ कम करके की जा सकती हैं। संक्षेप में, रोजगार गारण्टी को धारण करने की भारतीय अर्थव्यवस्था की क्षमता में कोई सन्देह नहीं है। अपेक्षा इस सम्भावना को देख पाने और उसका दोहन करने के प्रति प्रतिबद्धता की है।
इनमें से कुछ प्रस्तावों का वे लोग विरोध कर सकते हैं जो यथास्थिति बने रहने से लाभान्वित हो रहे हैं। यह मूल्यवर्द्धित कर तथा पूँजी विनियम कर के मामले में हम हाल ही में देख चुके हैं। एक तरह से यह कर सुधारों को रोजगार गारण्टी अधिनियम जैसे सकारात्मक पहलों के साथ अधिक प्रखरता से जोड़ना है। टुकड़ों में सुधार लागू करने से प्रायः निहित स्वार्थ उन्हें पटरी से उतार देते हैं। अतः आज एक व्यापक नई प्रविधि की आवश्यकता है जिसमें कर-सघउ अनुपात तो हो ही, साथ ही कर राजस्व का बेहतर उपयोग भी शामिल हो। इस तरह के किसी पैकेज की सफलता की गुंजाइश टुकड़ों में किए जाने वाले सुधारों की तुलना में कहीं अधिक है।
‘अमीर पर कर’ लगाने का सिद्धान्त इस पैकेज का निर्देशक सिद्धान्त हो सकता है। विगत लगभग 20 वर्षों के दौरान तथाकथित मध्यवर्ग (आय का शीर्ष पाँच प्रतिशत) इतना अमीर हो चुका है कि सपने में भी उसकी कल्पना सम्भव न थी। वास्तव में, इसमें बगैर वीजा का आवेदन किए अपने को पहली दुनिया में स्थापित कर लिया है। काफी समय से इसमें उसकी हिस्सेदारी बकाया है। इसके बावजूद भारत में गरीबी अपने भयानक लक्षणों के साथ लगातार बनी हुई है। यह केवल उनके लिए ही दुखद नहीं है, वरन राष्ट्र के चेहरे पर भी एक गहरा धब्बा है। राष्ट्र के आत्म-सम्मान से लेकर प्रजातन्त्र की गुणवत्ता तक यह सारी चीजों को प्रभावित कर रहा है।
थोड़ा अलग रूप में कहें, तो प्रस्तावित रोजगार गारण्टी अधिनियम के बारे में विचार करने के दो तरीके हैं। एक तरीका यह है कि इसे मेहनतकश वर्ग तथा सुविधाप्राप्त वर्ग के बीच संघर्ष के रूप में देखा जाए। दूसरा यह कि इसे राष्ट्रीय उद्यम माना जाए – एक ऐसा उद्यम जिससे किसी न किसी रूप में प्रत्येक नागरिक जुड़ा है। दोनों ही दृष्टिकोणों में कुछ यथार्थ है, लेकिन अब तक सार्वजनिक बहसों में केवल पहला दृष्टिकोण ही छाया रहा है। अधिनियम के व्यापक सामाजिक फायदों की स्वीकृति से इस मुद्दे को भिन्न आलोक में देखा जा सकेगा।
प्रस्तावित रोजगार गारण्टी अधिनियम को भारत में सामाजिक नीति की बृहत्तर संकल्पना के रूप में देखना बड़ा महत्वाकांक्षी लग सकता है। इस संकल्पना में सामाजिक व्यय में बड़े पैमाने पर बढ़ोत्तरी तथा उसकी संरचना में क्रान्तिकारी सुधार, दोनों शामिल हैं।
भारत में सरकार का सामाजिक व्यय बमुश्किल सघउ का 6 प्रतिशत है जबकि अमेरिका में यह 17 प्रतिशत, इंग्लैण्ड में 26 प्रतिशत तथा स्वीडन में 36 प्रतिशत है। इसके अलावा, जो भी राशि खर्च की जाती है उसका प्रभाव बहुत थोड़ा होता है। इसके बावजूद, चाहे स्वास्थ्य रक्षा कर क्षेत्र हो अथवा प्राथमिक शिक्षा, बाल पोषण या सामाजिक सुरक्षा का क्षेत्र, प्रभावकारी, कम लागत वाले हस्तक्षेपों की कमी नहीं है। आज समय की माँग है कि सामाजिक व्यय बढ़ाया जाए, साथ ही इस व्यय को उन हस्तक्षेपों पर केन्द्रित किया जाए जो प्रभावी हों।
रोजगार गारण्टी अधिनियम इस दृष्टिकोण में एकदम फिट बैठता है। ग्रामीण परिवारों को आर्थिक असुरक्षा से बचाने का एकमात्र सुज्ञात तरीका यह है कि माँग पर राहतकारी रोजगार का सार्वभौम अधिकार (काम करने में असमर्थ लोगों के लिए सीधी राहत सहित) दिया जाए। इस दृष्टिकोण ने सूखा राहत के सन्दर्भ में तुलनात्मक रूप से बेहतर काम किया है। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि यदि संकट पूर्ण समय में बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन न किया जाता तो विगत पचास वर्षों में भारत में अनेक दुर्भिक्ष आए होते। महाराष्ट्र की रोजगार गारण्टी स्कीम ने रोजगार-आधारित सामाजिक सुरक्षा की स्थायी प्रणाली लागू किए जाने की सम्भावना जता दी है। प्रस्तावित रोजगार गारण्टी अधिनियम की रचना इन्हीं अनुभवों पर आधारित है- यह अन्धकार में छलांग लगाने जैसा नहीं है।
रोजगार गारण्टी अधिनियम से जुड़े तीन प्रकार के भय का निराकरण जरूरी है। पहला यह कि व्यापक भ्रष्टाचार की वजह से धन की बर्बादी होगी। इस सन्दर्भ में राजीव गाँधी की इस उक्ति का प्रायः हवाला दिया जाता है कि गरीबी-उन्मूलन कार्यक्रमों पर खर्च किए जाने वाले प्रत्येक एक रुपए में से मात्र 15 पैसे ही वस्तुतः उन लोगों तक पहुँच पाते हैं। लेकिन यह एक तथ्य है कि इस बहुप्रचारित आँकड़े को कभी भी प्रमाणित नहीं किया गया। इसके अलावा, यह भी महत्त्वपूर्ण है कि अलग-अलग कार्यक्रमों पर किए जाने वाले सार्वजनिक व्यय के सन्दर्भ में इसका प्रभाव काफी सीमा तक अलग-अलग होता हैं। निश्चित रूप से अनेक कार्यक्रमों के ऐसे भी उल्लेखनीय उदाहरण हैं जिनके अन्तर्गत बेहतर काम किया गया है। इनमें राहत कार्य शामिल हैं। दूसरे भ्रष्टाचार की संस्कृतिक अपरिवर्तनीय नहीं है। राजस्थान तथा अन्य स्थानों के हाल के अनुभवों से प्रदर्शित होता है कि कानूनी कार्यवाही (सशक्त सूचना के अधिकार कानून सहित) तथा सामाजिक कार्यवाही, दोनों का प्रयोग कर सार्वजनिक कार्य से भ्रष्टाचार को समाप्त किया जा सकता है।
रोजगार गारण्टी अधिनियम से जुड़े तीन प्रकार के भय का निराकरण जरूरी है। पहला यह कि व्यापक भ्रष्टाचार की वजह से धन की बर्बादी होगी। दूसरा भय यह है कि रोजगार गारण्टी अधिनियम से वित्तीय दिवालियेपन की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। तीसरा भय यह है कि सरकार अन्तहीन विवादों में उलझ जाएगी... दूसरा भय यह है कि रोजगार गारण्टी अधिनियम से वित्तीय दिवालियेपन की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, रोजगार गारण्टी की लागत 2005-06 में सघउ के 0.5 प्रतिशत से बढ़कर 2008-09 में जैसे-जैसे समूचे देश में इसे लागू किया जाएगा, सघउ का एक प्रतिशत हो जाएगा। हालांकि यह अनुमान तुलनात्मक रूप से आदर्श स्थितियों पर आधारित है जिनमें अधिनियम अपने वायदे पर खरा उतरेगा। यदि ऐसा हुआ, तो सघउ का एक प्रतिशत अधिकांश ग्रामीण परिवारों की भयंकर गरीबी से रक्षा करने के लिए दिया जाने वाला तर्कसंगत मूल्य होगा। लेकिन अधिक सम्भावना है कि औपचारिक वैधानिक गारण्टी के बावजूद सरकार अपना खर्च नियन्त्रित करने के तरीके ढूँढेगी। वह आवेदन-प्रक्रिया को दुरूह बनाने, आवेदक के गाँव से काफी दूर उसे काम देने, न्यूनतम मजदूरी से कम पारिश्रमिक का भुगतान करने सहित अन्य ऐसे उपाय करेगी जिससे लोगों के लिए अपने अधिकार का दावा करना कठिनतर हो जाए। महाराष्ट्र में यही हुआ और वहाँ रोजगार गारण्टी कार्यक्रम की लागत कम होकर सघउ का मात्र 0.2 प्रतिशत रह गई।
केन्द्र सरकार ने इस उदाहरण का अनुकरण करने में रत्ती भर समय नहीं गंवाया। उसने इसमें एक नई धारा शामिल कर दी जिसके अनुसार यह अधिनियम ‘उन्हीं इलाकों और उन्हीं अवधियों, जैसा कि अधिसूचित किया जाए’ में प्रभावी होगा। इससे रोजगार गारण्टी का मूल मकसद परास्त हो जाएगा क्योंकि इससे केन्द्र सरकार को किसी भी समय इस कार्यक्रम को स्थापित करने की अनुमति मिल जाएगी। इस आलोक में देखने पर, वास्तविक भय यह नहीं होता कि रोजगार गारण्टी अधिनियम से वित्तीय दिवालियेपन की स्थिति पैदा हो जाएगी, बल्कि यह है कि सुनिश्चित रोजगार पर सरकारी व्यय सघउ का अनुमानित एक प्रतिशत के आसपास पहुँचने में अनेक वर्ष लग जाएँगे।
तीसरा भय यह है कि सरकार अन्तहीन विवादों में उलझ जाएगी, क्योंकि पीड़ित मजदूर स्थानीय प्राधिकारियों को अदालत में ले जाएँगे। एक बार फिर यह व्यावहारिक अनुभव के विपरीत है। क्या महाराष्ट्र में ऐसा हुआ? क्या ऐसा न्यूनतम मजदूरी कानूनों के सन्दर्भ में हुआ जबकि न केवल निजी क्षेत्र में, बल्कि सार्वजनिक क्षेत्र में भी इसका निर्लज्ज उल्लंघन किया गया? क्या यह सूचना का अधिकार कानून के साथ हुआ जिसका उल्लंघन ज्यादा आसान है? क्या यह प्राथमिक शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाए जाने पर हुआ? कतई नहीं। सच्चाई यह है कि आम भारतीय नागरिक अनेक कारणों से कोर्ट-कचहरी से डरते हैं और वे उनसे भरसक दूर रहना चाहेंगे, उनके आसपास भी भटकना नहीं चाहेंगे। कुछ जनरुचि मामले दायर हो सकते हैं, लेकिन वह भी बुरी बात नहीं होगी।
रोजगार गारण्टी अधिनियम से जुड़े भय इसकी कार्यविधि को न समझ पाने के कारण हैं। एक भोली-भाली धारणा यह है कि एक बार लागू हो जाने के बाद यह कानून तात्कालिक तथा यान्त्रिक रूप से काम करने लगेगा। व्यवहार में यह कानून निजी नियोक्ताओं और सरकारी अधिकारियों की असीमित ताकत के विरुद्ध सतत रूप से संघर्षरत मजदूरों को थोड़ी-सी मोल-तोल की शक्ति देने के अलावा और कुछ खास नहीं कर पाएगा। मुझे सन्देह है कि अधिकार हरण का व्यक्तिगत अनुभव रखने वाला कोई भी व्यक्ति असंगठित मजदूरों को रोजगार गारण्टी अधिनियम द्वारा प्रदत्त थोड़ी-सी मोल-तोल की ताकत सौंपने में संकोच करेगा।
राष्ट्रीय रोजगार गारण्टी विधेयक, 2004 को 21 दिसम्बर, 2004 को संसद के पटल पर रखा गया। सिद्धान्ततः यह एक स्वागतयोग्य कदम है। दुर्भाग्य से इस विधेयक को इस कदर कम कर दिया गया है कि यह रोजगार गारण्टी के उद्देश्यों को परास्त कर देता है।
रोजगार गारण्टी अधिनियम का मुख्य उद्देश्य अवाम को काम के अपने संवैधानिक अधिकार के बुनियादी पहलू के बारे में सरकार से दावा करने के योग्य बनाना है। ऐसा हो, इसके लिए जरूरी है कि अधिनियम उन्हें प्रभावी तथा टिकाऊ अधिकार दे। इसका लक्ष्य वंचितों को शक्ति देना तथा सम्बद्ध अधिकारियों द्वारा कर्तव्य पालन में किसी प्रकार की लापरवाही के विरुद्ध व्यापक उपाय करना है। सम्बद्ध नागरिकों ने इसी भावना के साथ अधिनियम का प्रारूप तैयार किया जिसे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने परिवर्द्धित किया था।
दुर्भाग्यवश संसद के पटल पर रखा गया विधेयक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के प्रारूप का उपहास है। इसमें एक ऐसे नौकरशाह की सुविधा से बड़े पैमाने पर परिवर्तन किया गया है जो सरकार की जिम्मेदारियाँ कम-से-कम करना चाहता है। यह सुनिश्चित करने के सारे उपाय किए गए हैं कि सरकार जब चाहे खेल के नियम बदल दे।
सलाहकार परिषद के प्रारूप की एक विशेषता यह थी कि यह सार्वभौमिकता और आत्मचयन के दोहरे सिद्धान्त पर आधारित था। इसमें सभी परिवार आवेदन कर सकते थे और अधिनियम को पाँच वर्ष के भीतर समूचे ग्रामीण भारत में लागू किया जाना था। पात्रता आधार को अनावश्यक माना गया था, क्योंकि न्यूनतम मजदूरी पर अनियमित शारीरिक श्रम करने की इच्छा अपने-आप में जरूरत का द्योतक है। आत्मचयन प्रणाली की प्रभावशीलता राहत कार्यों में भारत के सुदीर्घ अनुभव पर आधारित है।
संसद में प्रस्तुत विधेयक में सार्वभौमिकता तथा आत्मचयन से पूरी तरह पलायन किया गया है। सबसे पहले तो विधेयक में इसे समूचे ग्रामीण भारत में समयबद्ध रूप से लागू करने की कोई गारण्टी नहीं है। जिन इलाकों में यह अधिनियम लागू होगा, वहाँ भी रोजगार गारण्टी केवल ‘राज्य के उन्हीं इलाकों में और उसी अवधि तक जो केन्द्र सरकार द्वारा अधिसूचित की जाए’ लागू होगा। दूसरे शब्दों में, इस गारण्टी को कहीं भी और किसी भी वक्त वापस लिया जा सकता है।
इसी त्वरा में विधेयक रोजगार गारण्टी और बेरोजगारी भत्ता, दोनों को ‘निर्धन परिवारों’ तक सीमित करने की अनुमति देता है। यह तटस्थ प्रतीत होता है, लेकिन वास्तव में यह बेहद खतरनाक है। ‘निर्धन परिवारों’ की पहचान कैसे की जाएगी? विधेयक में निर्धन परिवारों की परिभाषा सम्बद्ध वित्तीय वर्ष के दौरान गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों के रूप में दी गई है। लेकिन यह महज पुनरुक्ति जैसा है, इसमें कोई व्यावहारिक दिशा-निर्देश नहीं है। व्यवहार में राज्य सरकारों द्वारा रोजगार गारण्टी कार्यक्रमों को बीपीएल कार्डधारियों तक सीमित करने की पूरी सम्भावना है। लेकिन बीपीएल सूची को बेहद अविश्वसनीय माना जाता है और इस सीमा की वजह से अनेक निर्धन परिवार कार्यक्रम का लाभ पाने से वंचित रह जाएँगे। इससे ग्रामीण परिवारों को आर्थिक असुरक्षा से बचाने का रोजगार गारण्टी का मुख्य प्रयोजन परास्त हो जाएगा। इसके अलावा इस दृष्टिकोण से गरीबी रेखा से नीचे तथा उसके ऊपर जीवनयापन करने वाले परिवारों के बीच घातक सामाजिक विभाजन और बढ़ेगा।
विधेयक में न्यूनतम मजदूरी को हटा दिया गया है। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के प्रारूप में मजदूरों को सम्बद्ध राज्य में खेतीहर मजदूरों के लिए निर्धारित संवैधानिक न्यूनतम मजदूरी का हक दिया गया था। लेकिन संसद में प्रस्तुत विधेयक के अनुसार इसे एक केन्द्रीय मानक के द्वारा विस्थापित किया जा सकता है (केन्द्र सरकार अधिसूचना जारी कर इस अधिनियम के लिए मजदूरी की दर निर्दिष्ट कर सकती है)। संवैधानिक न्यूनतम मजदूरी से कम भुगतान करने के सन्दिग्ध कानूनी तथा नैतिक तर्क के अतिरिक्त इससे केन्द्र सरकार को, यदि वह चाहे तो अपने कदम वापस खींचने का एक और अवसर मिल जाता है। मजदूरी की दर मनमर्जी कम करके काम की माँग को कम किया जा सकता है।
इस विधेयक के अन्य कई पहलुओं में भी अधिनियम को सरकार के लिए सुरक्षित बनाने की प्रवृत्ति देखी जा सकती है। उदाहरण के लिए, पारदर्शिता प्रावधानों को काफी कम कर दिया गया है। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के प्रारूप में नामों की पंजी तथा अन्य दस्तावेजों को जनता को निःशुल्क अथवा लागत मूल्य का भुगतान कर निरीक्षण के लिए उपलब्ध कराए जाने का प्रावधान था। इसके विपरीत, विधेयक कहता है कि ‘कार्यक्रम में निर्दिष्ट शुल्क का भुगतान करने पर’ ये दस्तावेज उपलब्ध होंगे। इस तरह अपमानजनक दस्तावेजों को जनता की निगाहों से दूर रखने को कोई नहीं रोक सकता।
इसी प्रकार राज्य सरकारों द्वारा आरम्भ किए जाने वाले रोजगार गारण्टी कार्यक्रमों की मूल विशेषताओं तथा इन कार्यक्रमों के तहत श्रमिकों के अधिकारों को अधिनियम के मुख्य भाग से हटाकर संलग्न दो अनुसूचियों में ले जाया गया है। इन अनुसूचियों को अधिनियम को संशोधित किए बगैर केन्द्र सरकार की अधिसूचना के द्वारा संशोधित किया जा सकता है। इससे केन्द्र सरकार को कार्यक्रमों को पटरी से उतारने अथवा श्रमिकों के अधिकारों को कम करने का व्यापक अधिकार मिल जाता है।
निष्कर्ष यह है कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी विधेयक, 2004 श्रमिकों को राज्य की सदाशयता के भरोसे छोड़ देता है। निश्चित रूप से कोई हितैषी सरकार इस विधायिका का सदुपयोग ग्रामीण गरीबों को बड़े पैमाने पर काम के अवसर प्रदान करने के लिए कर सकती है। साथ ही, इस अधिनियम के अन्तर्गत सरकार किसी भी समय अपने स्वैच्छिक अधिकारों का प्रयोग इस पूरी परियोजना को समाप्त करने के लिए कर सकती है। इस सन्दर्भ में सरकार की सदाशयता पर यकीन करना अनुभव पर उम्मीद की जीत होगी।
कहने का अभिप्राय यह नहीं है कि प्रभावशाली रोजगार गारण्टी अधिनियम के लिए संघर्ष को छोड़ देना चाहिए। सिद्धान्ततः इस विधेयक में अब भी संशोधन किया जा सकता है और संसद के बजट सत्र में इसे पारित किया जा सकता है। लेकिन सम्पूर्ण रोजगार गारण्टी अधिनियम की लोकप्रिय माँग की पुरजोर अभिव्यक्ति के बगैर ऐसा होने की सम्भावना नहीं है। श्रमिक आन्दोलन तथा काम के अधिकार के लिए समर्पित सभी संगठनों के सम्मुख यह एक रोचक चुनौती है।
(लेखक दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के अर्थशास्त्र विभाग में मानद प्रोफेसर हैं)
जुलाई 2004 में सम्बद्ध नागरिकों ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी अधिनियम का प्रारूप तैयार कर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद को भेजा। महीने भर के भीतर ही परिषद ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में किए गए संकल्प के अनुरूप इस प्रारूप में संशोधन कर उसे सरकार के पास तत्काल विचार के लिए भेज दिया।
प्रस्तावित अधिनियम अस्थायी आधार पर शारीरिक श्रम करने के इच्छुक किसी भी ग्रामीण को न्यूनतम निर्धारित मजदूरी पर रोजगार की वैधानिक गारण्टी देता है। काम के लिए आवेदन करने वाला कोई भी वयस्क 15 दिनों के भीतर सार्वजनिक कार्य में रोजगार पाने का हकदार होगा। ऐसा न हो पाने पर उसे रोजगार भत्ता दिया जाएगा। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा तैयार किए गए अधिनियम के प्रारूप में आरम्भ में प्रत्येक घर पर 100 दिनों की रोजगार गारण्टी की सीमा निर्धारित की गई है जिसे आगे चलकर बढ़ाया अथवा समाप्त किया जा सकता है।
लेकिन अधिनियम की आवश्कयता पर सवाल किए गए हैं। कहा जा रहा है कि बड़े पैमाने पर रोजगार कार्यक्रम शुरू करना पर्याप्त क्यों नहीं है? इसका उत्तर यह है कि कानून सरकार पर एक जिम्मेदारी डालता है और मजदूरों को मोलभाव की ताकत देता हैं। यह जवाबदेही अपेक्षित बनाता है। इसके विपरीत, कार्यक्रम से मजदूर सरकारी कारिन्दों के आसरे हो जाते हैं।
कार्यक्रम और अधिनियम में एक दूसरा प्रमुख अन्तर भी है। कार्यक्रम आते-जाते रहते हैं, लेकिन कानून ज्यादा स्थायी होते हैं। कार्यक्रम में कोई नौकरशाह काट-छाँट कर सकता है, अथवा उसे निरस्त भी कर सकता है। जबकि कानून में परिवर्तन के लिए संसद द्वारा संशोधन अपेक्षित होता है। रोजगार गारण्टी अधिनियम पारित होने से श्रमिकों को अधिक स्थायी अधिकार मिलेंगे। समय के साथ-साथ वे अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो जाएँगे और उनकी रक्षा करना सीख जाएँगे।
रोजगार गारण्टी अधिनियम का मुख्य उद्देश्य अवाम को काम के अपने संवैधानिक अधिकार के बुनियादी पहलू के बारे में सरकार से दावा करने के योग्य बनाना है। ऐसा हो, इसके लिए जरूरी है कि अधिनियम उन्हें प्रभावी तथा टिकाऊ अधिकार दे। इसका लक्ष्य वंचितों को शक्ति देना तथा सम्बद्ध अधिकारियों द्वारा कर्तव्य पालन में किसी प्रकार की लापरवाही के विरुद्ध व्यापक उपाय करना है।रोजगार गारण्टी अधिनियम की आलोचना प्रायः इसके दूरगामी आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक महत्त्व को न समझ पाने के कारण की जाती है। ग्रामीण परिवारों को गरीबी और भूख से रक्षा करने की दिशा में यह अधिनियम दूर तक जाएगा। वस्तुतः एक सर्वांगीण रोजगार गारण्टी अधिनियम से भारत के अधिकांश ग्रामण गरीब परिवार गरीबी-रेखा से ऊपर निकल पाएँगे। दूसरे, इससे ग्रामीण-शहरी पलायन में नाटकीय रूप से कमी आएगी। गाँवों में यदि काम उपलब्ध हो तो अधिकतर ग्रामीण परिवार खाली दिनों में शहरों की ओर जाना छोड़ देंगे। तीसरे रोजगार गारण्टी अधिनियम के तहत रोजगार पाने वालों का एक बड़ा हिस्सा महिलाएँ होंगी। सुनिश्चित रोजगार से उन्हें थोड़ी आर्थिक आजादी मिलेगी। इस तरह, रोजगार गारण्टी महिला सशक्तीकरीण का एक प्रमुख स्रोत बनेगा। चौथे, रोजगार गारण्टी अधिनियम गाँवों में उपयोगी परिसम्पत्तियाँ खड़ी करने का एक अवसर है। इसमें विशेष रूप से पर्यावरण रक्षा के क्षेत्र में वाटरशेड विकास, भूमि को उर्वर बनाने, भू-क्षरण रोकने, तालाबों के जीर्णोद्धार, वन संरक्षण तथा सम्बद्ध गतिविधियों जैसे श्रमोन्मुखी सार्वजनिक कार्य करने की बड़ी सम्भावना है। पाँचवें, सुनिश्चित रोजगार से गाँवों में शक्ति-सन्तुलन बदलने तथा अधिक समता-आधारित सामाजिक व्यवस्था स्थापित होने की सम्भावना है। आखिर में, रोजगार गारण्टी अधिनियम के रूप में ग्राम पंचायतों तथा ग्राम सभाओं सहित पंचायती राज संस्थाओं को सक्रिय तथा सशक्त बनाने का एक विशिष्ट अवसर सामने आया है। इससे इन संस्थाओं को एक नया मकसद और उसे पूरा करने के लिए वित्तीय संसाधन हासिल होगा।
लेकिन रोजगार गारण्टी अधिनियम सस्ता प्रक्रम नहीं होगा। इस विचार के प्रति सहानुभूति रखने वाले लोग भी प्रायः आश्चर्य करते हैं कि क्या इस पर आने वाला व्यय वहन करने योग्य होगा। यह एक रोचक तथ्य है कि ‘नदियों को जोड़ने’ की परियोजना के सन्दर्भ में ऐसी चिन्ता शायद ही कभी प्रकट की गई हो। इस परियोजना की लागत रोजगार गारण्टी अधिनियम की लागत की तुलना में काफी अधिक और लाभ (यदि कोई है तो) काफी सन्दिग्ध है।
इसके बावजूद इस परियोजना को आसानी से देश के कुछ सर्वाधिक प्रतिष्ठित संस्थानों और व्यक्तियों का समर्थन मिल गया - वह भी बेहद सतही आधार पर। यदि नदियों को जोड़ने की परियोजना कॉरपोरेट क्षेत्र के लिए अलीबाबा का खजाना साबित न हुआ, तो आश्चर्य होगा।
जो भी हो, रोजगार गारण्टी की आर्थिक व्यवहार्यता की जाँच इसके अपने सन्दर्भ में किए जाने की जरूरत है, किसी खर्चीली परियोजना से तुलना कर नहीं। इस विषय पर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा तैयार की गई टिप्पणी में रोजगार गारण्टी की लागत को वर्ष 2005-06 में सकल घरेलू उत्पाद (सघउ) के 0.5 प्रतिशत से वर्ष 2008-09 में बढ़कर एक प्रतिशत हो जाने की सम्भावना व्यक्त की गई है। यह इस मान्यता पर आधारित है कि धीरे-धीरे इस कार्यक्रम को चार वर्ष की अवधि में 150 जिलों से आरम्भ कर पूरे देश में लागू कर दिया जाएगा।
सघउ के एक प्रतिशत की अनुमानित लागत वित्तीय लागत है। वास्तविक लागत इससे काफी कम होगी। उदाहरणार्थ, किसी श्रमिक को सार्वजनिक कार्य में रोजगार देने की वित्तीय लागत उसकी संवैधानिक न्यूनतम मजदूरी होगी, लेकिन श्रमिक के अन्यथा बेरोजगार होने की स्थिति में इसकी वास्तविक लागत (जाने वाले वास्तविक संसाधन) उतनी अधिक नहीं होगी। यदि रोजगार गारण्टी की वास्तविक लागत सघउ का एक प्रतिशत हो भी, तो भी चिन्ता की कोई बात नहीं है।
रोजगार गारण्टी की वित्त व्यवस्था से जुड़ी चुनौती को इस तथ्य के आलोक में देखे जाने की जरूरत है कि भारत का कर-सघउ अनुपात अन्तरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में काफी कम है। केन्द्र और राज्य दोनों को मिलाकर यह लगभग 15 प्रतिशत है जबकि ओईसीडी देशों में यह 37 प्रतिशत है। हाल के वर्षों में भारत का कर-सघउ अनुपात कम हुआ है। उदाहरण के लिए, सघउ से केन्द्रीय करों का अनुपात 2003-04 में केवल 9.3 प्रतिशत था जबकि 1987-88 में यह 10.6 प्रतिशत था। दूसरी बातों के अलावा ये कुछ ऐसे संकेतक हैं जो बताते हैं कि रोजगार गारण्टी और उससे जुड़े सामाजिक कार्यक्रमों के लिए वित्त जुटाने के लिए भारत के सघउ-कर अनुपात को बढ़ाए जाने की अभी काफी गुंजाइश है।
कर राजस्व बढ़ाने की दिशा में वित्त मन्त्रालय में हाल ही में जमा किए गए केलकर-2 रिपोर्ट में उपयोगी संकेत हैं। हालांकि समान कर निर्धारित करने तथा कर की दरें कम कर राजस्व बढ़ाने में इसकी दिल छू लेने वाली आस्था जैसे कुछ पक्षों पर प्रश्न किए जा सकते हैं।
बावजूद इसके, इस रिपोर्ट में मूल्यवर्द्धित कर लागू करने, अधिकांश सेवाओं पर कराधान करने, कर-आधार बढ़ाने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग करने, छूटों को समाप्त करने तथा कर चोरी रोकने जैसे अनेक संवेदनशील उपायों के द्वारा कर-सघउ अनुपात बढ़ाने का सुझाव भी दिया गया है। इन अवसरों का यदि सदुपयोग किया गया तो योजनागत व्यय को भारत के सघउ के एक प्रतिशत से काफी अधिक बढ़ाया जा सकता है।
लेकिन ‘केलकर-2’ पर ही ठिठक जाना कतई आवश्यक नहीं है। अन्य अनेक वित्तीय विकल्पों पर विचार किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, हाल की विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि व्यावसायिक कर से विशृंखल नियन्त्रण हटा देने भर से राज्य सरकारें सघउ के 0.9 प्रतिशत के बराबर अतिरिक्त कर राजस्व संग्रहीत करने लगेंगी।
इसी तरह, पर्यावरण को क्षति पहुँचाने वाले उपभोग अथवा असामाजिक गतिविधियों पर ‘हरित कर’ लगाकर काफी राजस्व अर्जित किया जा सकता है। अनावश्यक सरकारी व्यय को कम किए जाने की भी काफी सम्भावना है। इसकी शुरुआत सैन्य व्यय तथा अमीरों को मिलने वाली सबसिडियाँ कम करके की जा सकती हैं। संक्षेप में, रोजगार गारण्टी को धारण करने की भारतीय अर्थव्यवस्था की क्षमता में कोई सन्देह नहीं है। अपेक्षा इस सम्भावना को देख पाने और उसका दोहन करने के प्रति प्रतिबद्धता की है।
इनमें से कुछ प्रस्तावों का वे लोग विरोध कर सकते हैं जो यथास्थिति बने रहने से लाभान्वित हो रहे हैं। यह मूल्यवर्द्धित कर तथा पूँजी विनियम कर के मामले में हम हाल ही में देख चुके हैं। एक तरह से यह कर सुधारों को रोजगार गारण्टी अधिनियम जैसे सकारात्मक पहलों के साथ अधिक प्रखरता से जोड़ना है। टुकड़ों में सुधार लागू करने से प्रायः निहित स्वार्थ उन्हें पटरी से उतार देते हैं। अतः आज एक व्यापक नई प्रविधि की आवश्यकता है जिसमें कर-सघउ अनुपात तो हो ही, साथ ही कर राजस्व का बेहतर उपयोग भी शामिल हो। इस तरह के किसी पैकेज की सफलता की गुंजाइश टुकड़ों में किए जाने वाले सुधारों की तुलना में कहीं अधिक है।
‘अमीर पर कर’ लगाने का सिद्धान्त इस पैकेज का निर्देशक सिद्धान्त हो सकता है। विगत लगभग 20 वर्षों के दौरान तथाकथित मध्यवर्ग (आय का शीर्ष पाँच प्रतिशत) इतना अमीर हो चुका है कि सपने में भी उसकी कल्पना सम्भव न थी। वास्तव में, इसमें बगैर वीजा का आवेदन किए अपने को पहली दुनिया में स्थापित कर लिया है। काफी समय से इसमें उसकी हिस्सेदारी बकाया है। इसके बावजूद भारत में गरीबी अपने भयानक लक्षणों के साथ लगातार बनी हुई है। यह केवल उनके लिए ही दुखद नहीं है, वरन राष्ट्र के चेहरे पर भी एक गहरा धब्बा है। राष्ट्र के आत्म-सम्मान से लेकर प्रजातन्त्र की गुणवत्ता तक यह सारी चीजों को प्रभावित कर रहा है।
थोड़ा अलग रूप में कहें, तो प्रस्तावित रोजगार गारण्टी अधिनियम के बारे में विचार करने के दो तरीके हैं। एक तरीका यह है कि इसे मेहनतकश वर्ग तथा सुविधाप्राप्त वर्ग के बीच संघर्ष के रूप में देखा जाए। दूसरा यह कि इसे राष्ट्रीय उद्यम माना जाए – एक ऐसा उद्यम जिससे किसी न किसी रूप में प्रत्येक नागरिक जुड़ा है। दोनों ही दृष्टिकोणों में कुछ यथार्थ है, लेकिन अब तक सार्वजनिक बहसों में केवल पहला दृष्टिकोण ही छाया रहा है। अधिनियम के व्यापक सामाजिक फायदों की स्वीकृति से इस मुद्दे को भिन्न आलोक में देखा जा सकेगा।
तीन भय
प्रस्तावित रोजगार गारण्टी अधिनियम को भारत में सामाजिक नीति की बृहत्तर संकल्पना के रूप में देखना बड़ा महत्वाकांक्षी लग सकता है। इस संकल्पना में सामाजिक व्यय में बड़े पैमाने पर बढ़ोत्तरी तथा उसकी संरचना में क्रान्तिकारी सुधार, दोनों शामिल हैं।
भारत में सरकार का सामाजिक व्यय बमुश्किल सघउ का 6 प्रतिशत है जबकि अमेरिका में यह 17 प्रतिशत, इंग्लैण्ड में 26 प्रतिशत तथा स्वीडन में 36 प्रतिशत है। इसके अलावा, जो भी राशि खर्च की जाती है उसका प्रभाव बहुत थोड़ा होता है। इसके बावजूद, चाहे स्वास्थ्य रक्षा कर क्षेत्र हो अथवा प्राथमिक शिक्षा, बाल पोषण या सामाजिक सुरक्षा का क्षेत्र, प्रभावकारी, कम लागत वाले हस्तक्षेपों की कमी नहीं है। आज समय की माँग है कि सामाजिक व्यय बढ़ाया जाए, साथ ही इस व्यय को उन हस्तक्षेपों पर केन्द्रित किया जाए जो प्रभावी हों।
रोजगार गारण्टी अधिनियम इस दृष्टिकोण में एकदम फिट बैठता है। ग्रामीण परिवारों को आर्थिक असुरक्षा से बचाने का एकमात्र सुज्ञात तरीका यह है कि माँग पर राहतकारी रोजगार का सार्वभौम अधिकार (काम करने में असमर्थ लोगों के लिए सीधी राहत सहित) दिया जाए। इस दृष्टिकोण ने सूखा राहत के सन्दर्भ में तुलनात्मक रूप से बेहतर काम किया है। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि यदि संकट पूर्ण समय में बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन न किया जाता तो विगत पचास वर्षों में भारत में अनेक दुर्भिक्ष आए होते। महाराष्ट्र की रोजगार गारण्टी स्कीम ने रोजगार-आधारित सामाजिक सुरक्षा की स्थायी प्रणाली लागू किए जाने की सम्भावना जता दी है। प्रस्तावित रोजगार गारण्टी अधिनियम की रचना इन्हीं अनुभवों पर आधारित है- यह अन्धकार में छलांग लगाने जैसा नहीं है।
रोजगार गारण्टी अधिनियम से जुड़े तीन प्रकार के भय का निराकरण जरूरी है। पहला यह कि व्यापक भ्रष्टाचार की वजह से धन की बर्बादी होगी। इस सन्दर्भ में राजीव गाँधी की इस उक्ति का प्रायः हवाला दिया जाता है कि गरीबी-उन्मूलन कार्यक्रमों पर खर्च किए जाने वाले प्रत्येक एक रुपए में से मात्र 15 पैसे ही वस्तुतः उन लोगों तक पहुँच पाते हैं। लेकिन यह एक तथ्य है कि इस बहुप्रचारित आँकड़े को कभी भी प्रमाणित नहीं किया गया। इसके अलावा, यह भी महत्त्वपूर्ण है कि अलग-अलग कार्यक्रमों पर किए जाने वाले सार्वजनिक व्यय के सन्दर्भ में इसका प्रभाव काफी सीमा तक अलग-अलग होता हैं। निश्चित रूप से अनेक कार्यक्रमों के ऐसे भी उल्लेखनीय उदाहरण हैं जिनके अन्तर्गत बेहतर काम किया गया है। इनमें राहत कार्य शामिल हैं। दूसरे भ्रष्टाचार की संस्कृतिक अपरिवर्तनीय नहीं है। राजस्थान तथा अन्य स्थानों के हाल के अनुभवों से प्रदर्शित होता है कि कानूनी कार्यवाही (सशक्त सूचना के अधिकार कानून सहित) तथा सामाजिक कार्यवाही, दोनों का प्रयोग कर सार्वजनिक कार्य से भ्रष्टाचार को समाप्त किया जा सकता है।
रोजगार गारण्टी अधिनियम से जुड़े तीन प्रकार के भय का निराकरण जरूरी है। पहला यह कि व्यापक भ्रष्टाचार की वजह से धन की बर्बादी होगी। दूसरा भय यह है कि रोजगार गारण्टी अधिनियम से वित्तीय दिवालियेपन की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। तीसरा भय यह है कि सरकार अन्तहीन विवादों में उलझ जाएगी... दूसरा भय यह है कि रोजगार गारण्टी अधिनियम से वित्तीय दिवालियेपन की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, रोजगार गारण्टी की लागत 2005-06 में सघउ के 0.5 प्रतिशत से बढ़कर 2008-09 में जैसे-जैसे समूचे देश में इसे लागू किया जाएगा, सघउ का एक प्रतिशत हो जाएगा। हालांकि यह अनुमान तुलनात्मक रूप से आदर्श स्थितियों पर आधारित है जिनमें अधिनियम अपने वायदे पर खरा उतरेगा। यदि ऐसा हुआ, तो सघउ का एक प्रतिशत अधिकांश ग्रामीण परिवारों की भयंकर गरीबी से रक्षा करने के लिए दिया जाने वाला तर्कसंगत मूल्य होगा। लेकिन अधिक सम्भावना है कि औपचारिक वैधानिक गारण्टी के बावजूद सरकार अपना खर्च नियन्त्रित करने के तरीके ढूँढेगी। वह आवेदन-प्रक्रिया को दुरूह बनाने, आवेदक के गाँव से काफी दूर उसे काम देने, न्यूनतम मजदूरी से कम पारिश्रमिक का भुगतान करने सहित अन्य ऐसे उपाय करेगी जिससे लोगों के लिए अपने अधिकार का दावा करना कठिनतर हो जाए। महाराष्ट्र में यही हुआ और वहाँ रोजगार गारण्टी कार्यक्रम की लागत कम होकर सघउ का मात्र 0.2 प्रतिशत रह गई।
केन्द्र सरकार ने इस उदाहरण का अनुकरण करने में रत्ती भर समय नहीं गंवाया। उसने इसमें एक नई धारा शामिल कर दी जिसके अनुसार यह अधिनियम ‘उन्हीं इलाकों और उन्हीं अवधियों, जैसा कि अधिसूचित किया जाए’ में प्रभावी होगा। इससे रोजगार गारण्टी का मूल मकसद परास्त हो जाएगा क्योंकि इससे केन्द्र सरकार को किसी भी समय इस कार्यक्रम को स्थापित करने की अनुमति मिल जाएगी। इस आलोक में देखने पर, वास्तविक भय यह नहीं होता कि रोजगार गारण्टी अधिनियम से वित्तीय दिवालियेपन की स्थिति पैदा हो जाएगी, बल्कि यह है कि सुनिश्चित रोजगार पर सरकारी व्यय सघउ का अनुमानित एक प्रतिशत के आसपास पहुँचने में अनेक वर्ष लग जाएँगे।
तीसरा भय यह है कि सरकार अन्तहीन विवादों में उलझ जाएगी, क्योंकि पीड़ित मजदूर स्थानीय प्राधिकारियों को अदालत में ले जाएँगे। एक बार फिर यह व्यावहारिक अनुभव के विपरीत है। क्या महाराष्ट्र में ऐसा हुआ? क्या ऐसा न्यूनतम मजदूरी कानूनों के सन्दर्भ में हुआ जबकि न केवल निजी क्षेत्र में, बल्कि सार्वजनिक क्षेत्र में भी इसका निर्लज्ज उल्लंघन किया गया? क्या यह सूचना का अधिकार कानून के साथ हुआ जिसका उल्लंघन ज्यादा आसान है? क्या यह प्राथमिक शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाए जाने पर हुआ? कतई नहीं। सच्चाई यह है कि आम भारतीय नागरिक अनेक कारणों से कोर्ट-कचहरी से डरते हैं और वे उनसे भरसक दूर रहना चाहेंगे, उनके आसपास भी भटकना नहीं चाहेंगे। कुछ जनरुचि मामले दायर हो सकते हैं, लेकिन वह भी बुरी बात नहीं होगी।
रोजगार गारण्टी अधिनियम से जुड़े भय इसकी कार्यविधि को न समझ पाने के कारण हैं। एक भोली-भाली धारणा यह है कि एक बार लागू हो जाने के बाद यह कानून तात्कालिक तथा यान्त्रिक रूप से काम करने लगेगा। व्यवहार में यह कानून निजी नियोक्ताओं और सरकारी अधिकारियों की असीमित ताकत के विरुद्ध सतत रूप से संघर्षरत मजदूरों को थोड़ी-सी मोल-तोल की शक्ति देने के अलावा और कुछ खास नहीं कर पाएगा। मुझे सन्देह है कि अधिकार हरण का व्यक्तिगत अनुभव रखने वाला कोई भी व्यक्ति असंगठित मजदूरों को रोजगार गारण्टी अधिनियम द्वारा प्रदत्त थोड़ी-सी मोल-तोल की ताकत सौंपने में संकोच करेगा।
बेरोजगार गारण्टी विधेयक
राष्ट्रीय रोजगार गारण्टी विधेयक, 2004 को 21 दिसम्बर, 2004 को संसद के पटल पर रखा गया। सिद्धान्ततः यह एक स्वागतयोग्य कदम है। दुर्भाग्य से इस विधेयक को इस कदर कम कर दिया गया है कि यह रोजगार गारण्टी के उद्देश्यों को परास्त कर देता है।
रोजगार गारण्टी अधिनियम का मुख्य उद्देश्य अवाम को काम के अपने संवैधानिक अधिकार के बुनियादी पहलू के बारे में सरकार से दावा करने के योग्य बनाना है। ऐसा हो, इसके लिए जरूरी है कि अधिनियम उन्हें प्रभावी तथा टिकाऊ अधिकार दे। इसका लक्ष्य वंचितों को शक्ति देना तथा सम्बद्ध अधिकारियों द्वारा कर्तव्य पालन में किसी प्रकार की लापरवाही के विरुद्ध व्यापक उपाय करना है। सम्बद्ध नागरिकों ने इसी भावना के साथ अधिनियम का प्रारूप तैयार किया जिसे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने परिवर्द्धित किया था।
दुर्भाग्यवश संसद के पटल पर रखा गया विधेयक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के प्रारूप का उपहास है। इसमें एक ऐसे नौकरशाह की सुविधा से बड़े पैमाने पर परिवर्तन किया गया है जो सरकार की जिम्मेदारियाँ कम-से-कम करना चाहता है। यह सुनिश्चित करने के सारे उपाय किए गए हैं कि सरकार जब चाहे खेल के नियम बदल दे।
सलाहकार परिषद के प्रारूप की एक विशेषता यह थी कि यह सार्वभौमिकता और आत्मचयन के दोहरे सिद्धान्त पर आधारित था। इसमें सभी परिवार आवेदन कर सकते थे और अधिनियम को पाँच वर्ष के भीतर समूचे ग्रामीण भारत में लागू किया जाना था। पात्रता आधार को अनावश्यक माना गया था, क्योंकि न्यूनतम मजदूरी पर अनियमित शारीरिक श्रम करने की इच्छा अपने-आप में जरूरत का द्योतक है। आत्मचयन प्रणाली की प्रभावशीलता राहत कार्यों में भारत के सुदीर्घ अनुभव पर आधारित है।
संसद में प्रस्तुत विधेयक में सार्वभौमिकता तथा आत्मचयन से पूरी तरह पलायन किया गया है। सबसे पहले तो विधेयक में इसे समूचे ग्रामीण भारत में समयबद्ध रूप से लागू करने की कोई गारण्टी नहीं है। जिन इलाकों में यह अधिनियम लागू होगा, वहाँ भी रोजगार गारण्टी केवल ‘राज्य के उन्हीं इलाकों में और उसी अवधि तक जो केन्द्र सरकार द्वारा अधिसूचित की जाए’ लागू होगा। दूसरे शब्दों में, इस गारण्टी को कहीं भी और किसी भी वक्त वापस लिया जा सकता है।
इसी त्वरा में विधेयक रोजगार गारण्टी और बेरोजगारी भत्ता, दोनों को ‘निर्धन परिवारों’ तक सीमित करने की अनुमति देता है। यह तटस्थ प्रतीत होता है, लेकिन वास्तव में यह बेहद खतरनाक है। ‘निर्धन परिवारों’ की पहचान कैसे की जाएगी? विधेयक में निर्धन परिवारों की परिभाषा सम्बद्ध वित्तीय वर्ष के दौरान गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों के रूप में दी गई है। लेकिन यह महज पुनरुक्ति जैसा है, इसमें कोई व्यावहारिक दिशा-निर्देश नहीं है। व्यवहार में राज्य सरकारों द्वारा रोजगार गारण्टी कार्यक्रमों को बीपीएल कार्डधारियों तक सीमित करने की पूरी सम्भावना है। लेकिन बीपीएल सूची को बेहद अविश्वसनीय माना जाता है और इस सीमा की वजह से अनेक निर्धन परिवार कार्यक्रम का लाभ पाने से वंचित रह जाएँगे। इससे ग्रामीण परिवारों को आर्थिक असुरक्षा से बचाने का रोजगार गारण्टी का मुख्य प्रयोजन परास्त हो जाएगा। इसके अलावा इस दृष्टिकोण से गरीबी रेखा से नीचे तथा उसके ऊपर जीवनयापन करने वाले परिवारों के बीच घातक सामाजिक विभाजन और बढ़ेगा।
विधेयक में न्यूनतम मजदूरी को हटा दिया गया है। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के प्रारूप में मजदूरों को सम्बद्ध राज्य में खेतीहर मजदूरों के लिए निर्धारित संवैधानिक न्यूनतम मजदूरी का हक दिया गया था। लेकिन संसद में प्रस्तुत विधेयक के अनुसार इसे एक केन्द्रीय मानक के द्वारा विस्थापित किया जा सकता है (केन्द्र सरकार अधिसूचना जारी कर इस अधिनियम के लिए मजदूरी की दर निर्दिष्ट कर सकती है)। संवैधानिक न्यूनतम मजदूरी से कम भुगतान करने के सन्दिग्ध कानूनी तथा नैतिक तर्क के अतिरिक्त इससे केन्द्र सरकार को, यदि वह चाहे तो अपने कदम वापस खींचने का एक और अवसर मिल जाता है। मजदूरी की दर मनमर्जी कम करके काम की माँग को कम किया जा सकता है।
इस विधेयक के अन्य कई पहलुओं में भी अधिनियम को सरकार के लिए सुरक्षित बनाने की प्रवृत्ति देखी जा सकती है। उदाहरण के लिए, पारदर्शिता प्रावधानों को काफी कम कर दिया गया है। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के प्रारूप में नामों की पंजी तथा अन्य दस्तावेजों को जनता को निःशुल्क अथवा लागत मूल्य का भुगतान कर निरीक्षण के लिए उपलब्ध कराए जाने का प्रावधान था। इसके विपरीत, विधेयक कहता है कि ‘कार्यक्रम में निर्दिष्ट शुल्क का भुगतान करने पर’ ये दस्तावेज उपलब्ध होंगे। इस तरह अपमानजनक दस्तावेजों को जनता की निगाहों से दूर रखने को कोई नहीं रोक सकता।
इसी प्रकार राज्य सरकारों द्वारा आरम्भ किए जाने वाले रोजगार गारण्टी कार्यक्रमों की मूल विशेषताओं तथा इन कार्यक्रमों के तहत श्रमिकों के अधिकारों को अधिनियम के मुख्य भाग से हटाकर संलग्न दो अनुसूचियों में ले जाया गया है। इन अनुसूचियों को अधिनियम को संशोधित किए बगैर केन्द्र सरकार की अधिसूचना के द्वारा संशोधित किया जा सकता है। इससे केन्द्र सरकार को कार्यक्रमों को पटरी से उतारने अथवा श्रमिकों के अधिकारों को कम करने का व्यापक अधिकार मिल जाता है।
निष्कर्ष यह है कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी विधेयक, 2004 श्रमिकों को राज्य की सदाशयता के भरोसे छोड़ देता है। निश्चित रूप से कोई हितैषी सरकार इस विधायिका का सदुपयोग ग्रामीण गरीबों को बड़े पैमाने पर काम के अवसर प्रदान करने के लिए कर सकती है। साथ ही, इस अधिनियम के अन्तर्गत सरकार किसी भी समय अपने स्वैच्छिक अधिकारों का प्रयोग इस पूरी परियोजना को समाप्त करने के लिए कर सकती है। इस सन्दर्भ में सरकार की सदाशयता पर यकीन करना अनुभव पर उम्मीद की जीत होगी।
कहने का अभिप्राय यह नहीं है कि प्रभावशाली रोजगार गारण्टी अधिनियम के लिए संघर्ष को छोड़ देना चाहिए। सिद्धान्ततः इस विधेयक में अब भी संशोधन किया जा सकता है और संसद के बजट सत्र में इसे पारित किया जा सकता है। लेकिन सम्पूर्ण रोजगार गारण्टी अधिनियम की लोकप्रिय माँग की पुरजोर अभिव्यक्ति के बगैर ऐसा होने की सम्भावना नहीं है। श्रमिक आन्दोलन तथा काम के अधिकार के लिए समर्पित सभी संगठनों के सम्मुख यह एक रोचक चुनौती है।
(लेखक दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के अर्थशास्त्र विभाग में मानद प्रोफेसर हैं)
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Post By: birendrakrgupta