Posted on 17 Aug, 2013 11:26 AMगलित ताम्र भव : भृकुटि मात्र रवि रहा क्षितिज से देख, गंगा के नभ नील निकष पर पड़ी स्वर्ण की रेख! आर-पार फैले जल में घुलकर कोमल आलोक, कोमलतम बन निखर रहा, लगता जग अखिल अशोक!
नव किरणों ने विश्वप्राण में किया पुलक संचार, ज्योति जड़ित बालुका पुलिन हो उठा सजीव अपार!
Posted on 17 Aug, 2013 11:11 AMअभी गिरा रवि, ताम्र कलश-सा, गंगा के उस पार, क्लांत पांथ, जिह्वा विलोल जल में रक्ताभ प्रसार; भूरे जलदों से धूमिल नभ, विहग छंदों – से बिखरे – धेनु त्वचा – से सिहर रहे जल में रोओं – से छितरे!
दूर, क्षितिज में चित्रित – सी उस तरु माला के ऊपर उड़ती काली विहग पांति रेखा – सी लहरा सुंदर! उड़ी आ रही हलकी खेवा दो आरोही लेकर,
Posted on 16 Aug, 2013 02:40 PMप्रिय, जीवन-नद अपार, विशद पाट, तीव्र धार, गहर भंवर, दूर पार,- प्रिय, जीवन-नद अपार।
(1) इस तट पर ना जाने कब से रम रहे प्राण, ना जाने कितने युग बीत चुके शून्य मान, पर, अब की उस तट से आई है वेणु-तान, खींच रही प्राणों को बरबस ही बार-बार? प्रिय, जीवन-नद अपार।