दिल्ली

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अदृश्य नदी
Posted on 26 Aug, 2013 11:32 AM तुम्हारी आंखों में उमड़ आई
इन दो नदियों ने
मुझे ऐसे डुबो लिया है
जैसे गर्मियों की तपती दोपहरी में
मेरे नगर की नदियां
अपने संगम में मुझे डुबो लेती हैं।

गंगा-जमुना ही नहीं, मेरे नगर में-
लोग कहते हैं-तीसरी नदी भी है-सरस्वती
जो कभी दिखाई नहीं देती

जो कभी दिखाई नहीं देती, वह व्यथा है-
जो दिल-ब-दिल बहती है,
ओ नदी!
Posted on 26 Aug, 2013 11:27 AM ओ नदी!
सूखे किनारों के कटीले बाहुओं से डर गई तू।
किंतु, दाई कौन?
तू होती अगर,
यह रेत, ये पत्थर, सभी रसपूर्ण होते।
कौंधती रशना कमर में मछलियों की।

नागफनियों के न उगते झाड़,
तट पर दूब होती, फूल होते।
देखतीं निज रूप जल में नारियां।
पांव मल-मल घाट पर लक्तक बहाकर
तैरती तुझमें उतर सुकुमारियां।

किलकते फिरते तटों पर फूल-से बच्चे।
रोमांच को करें कैमरे में कैद : वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफी
Posted on 25 Aug, 2013 03:09 PM वाइल्डलाइफ फोटोग्राफी में करियरकहा जाता है कि एक फोटो दस हजार शब्दों के बराबर होती है। फोटोग्राफी एक कला है जिसमें विजुअल कमांड के साथ-साथ टेक्निकल नॉलेज भी
उनकी गंदगी और हमारी ज़मीन...
Posted on 25 Aug, 2013 02:59 PM विकास की राह पर तकनीक और मानव, हाथ में हाथ लिए चल रहे हैं। विकसित देशों में कम्प्यूटर और इलेक्ट्रानिक्स जीवन का अटूट अंग हैं, पर खराब इलेक्ट्रानिक कचरे का रूप ले चुके ये इलेक्ट्रानिक्स गैजेट्स जा कहाँ रहे हैं? कहीं भारत इनका रीसाइकल बिन तो नहीं?
नदी और पीपल
Posted on 25 Aug, 2013 12:07 PM मैं वहीं हूँ,तुम जहाँ पहुँचा गए थे।

खँडहरों के पास जो स्रोतस्विनी थी,
अब नहीं वह शेष, केवल रेत भर है।
दोपहर को रोज लू के साथ उड़कर बालुका यह
व्याप्त हो जाती हवा-सी फैलकर सारे भवन में।
खिड़कियों पर, फर्श पर, मसिपात्र, पोथी, लेखनी में
रेत की कचकच;
कलक की नोंक से फिर वर्ण कोई भी न उगता है।
कल्पना मल-मल दृगों को लाल कर लेती।
नदी और पेड़
Posted on 25 Aug, 2013 12:06 PM (पेड़ की उक्ति)
क्या हुआ उस दिन?
तुम्हें मैंने छुआ था
मात्र सेवा-भाव से, करुणा, दया से।
स्पर्श में, लेकिन, कहीं कोई सुधा की रागिनी है।
और त्वचा के भी श्रणव हैं।
स्पर्श का झंकारमय यह गीत सुनते ही
त्वचा की नींद उड़ जाती,
लहू की धार में किरणें कनक की झिलमिलाती हैं।

रोम-कूपों से उठी संगीत की झंकार,
नाव-सी कोई लगा खेने रुधिर में।
कोई पार नदी के गाता
Posted on 25 Aug, 2013 12:04 PM कोई पार नदी के गाता।

भंग निशा की नीरवता कर,
इस देहाती गाने का स्वर,
ककड़ी के खेतों से उठकर, आता जमुना पर लहराता।
कोई पार नदी के गाता।

होंगे भाई-बंधु निकट ही,
कभी सोचते होंगे यह भी,
इस तट पर भी बैठा कोई, उसकी तानों से सुख पाता।
कोई पार नदी के गाता।

आज न जाने क्यों होता मन
सुनकर यह एकाकी गायन,
सोन मछरी
Posted on 25 Aug, 2013 12:02 PM संत्यज्य मत्स्यरूपं सा दिव्यं रूपमवाप्य च- महाभारत 1 ।63।66
(स्त्री-पुरुषों के दो दल बनाकर सहगान के लिए : उत्तर प्रदेश की एक लोकधुन पर आधारित। इसे ढिंढिया कहते हैं।)


स्त्री
जाओ,लाओ,पिया, नदिया से सोन मछरी।
पिया, सोन मछरी; पिया सोन मछरी।
जाओ, लाओ, पिया नदिया से सोन मछरी।

उसकी है नीलम की आँखें,
हीरे-पन्ने की हैं पाँखें,
पगला मल्लाह
Posted on 24 Aug, 2013 03:33 PM (उत्तर प्रदेश की एक लोकधुन पर आधारित)

डोंगा डोले,
नित गंग-जमुन के तीर,
डोंगा डोले।

आया डोला,
उड़न खटोला,
एक परी परदे से निकली पहने पंचरंग चीर।
डोंगा डोले,
नित गंग-जमुन के तीर,
डोंगा डोले।

आँखें टक-टक,
छाती धक-धक,
कभी अचानक ही मिल जाता दिल का दामनगीर।
डोंगा डोले,
नित गंग-जमुन के तीर,
जीडी : संकल्प सम्मानित, पर चुनौती अभी बाकी है
Posted on 24 Aug, 2013 02:16 PM यह आदेश प्रशासन के झूठ का सच प्रमाणित करता है और स्वामी सानंद उर्
swami gyanswaroop sanand
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