खाद्य सुरक्षा बनाम असुरक्षित किसान

प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम अंततः संसद में प्रस्तुत कर दिया गया है। अधूरे मन से तैयार यह कानून किसान और कृषि के मुद्दे पर कमोवेश निर्लिप्त है। आवश्यकता इस बात की है कि खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराने वाले किसान को सबसे पहले सुरक्षित किया जाए। इसी के समानांतर हमें यह भी देखना होगा कि सिर्फ खाद्यान्नों की आपूर्ति से समस्या का निराकरण नहीं हो पाएगा। खाद्यान्न उत्पादन संबंधी जटिलताओं को उजागर करता आलेख। का.सइन दिनों प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून बहुत चर्चा में रहा है। जहां सरकार ने इसके लाभ बताने में कोई कसर नहीं उठा रखी है, वहां कई विपक्षी दलों के साथ-साथ अनेक सामाजिक संगठनों ने भी इसकी आलोचना करते हुए कहा है कि लाभार्थियों की संख्या व सस्ते अनाज की मात्रा और अधिक होनी चाहिए थी व अनाज के साथ दालें, तेल आदि भी रियायती दर पर मिलने चाहिए।

दूसरी ओर इस संदर्भ में एक अति महत्त्वपूर्ण मुद्दे की ओर बहुत कम ध्यान दिया गया कि खाद्य कानून के अंतर्गत वितरित होने वाले अनाज या अन्य खाद्यों की पर्याप्त उपलब्धि कैसे सुनिश्चित होगी। सामान्य समझ की बात है कि अनाज तभी वितरित हो सकेगा जब उपलब्ध होगा। फिर भी इसकी उपलब्धि पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया।

इसकी वजह संभवतः यह है कि इस समय देश में दो प्रमुख अनाजों में गेंहू और चावल के पर्याप्त अतिरिक्त भंडार मौजूद हैं। यह भंडार अनाज भंडारण की सामान्य आवश्यकता से अधिक बताए जाते हैं अतः अधिकांश लोग यह समझते हैं कि जहां तक अनाज की उपलब्धि का सवाल है तो इसकी कोई चिंता करने की जरूरत अभी नहीं है। पर इस सोच में बड़ी कमी यह है कि यह मात्र वर्तमान स्थिति पर आधारित है, जबकि खाद्य सुरक्षा का कानून भविष्य के वर्षों के लिए भी बना है।

अतः सवाल केवल यह नहीं है कि इस समय देश में कितना अनाज उपलब्ध है, बल्कि इससे कहीं महत्त्वपूर्ण सवाल तो यह है कि टिकाऊ तौर पर अनाज की उपलब्धि सुनिश्चित होने की क्या स्थिति है। यदि आने वाले वर्षों की भी चिंता करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि खेती-किसानी की निरंतर चिंताजनक होती जा रही स्थिति पर भी विचार करना होगा।

इतना तो स्पष्ट है कि खेती का कुल क्षेत्रफल सिमटा है और किसानों की संख्या तेजी से कम हो रही है। आज नहीं तो कल इस प्रवृत्ति का प्रतिकूल असर खाद्यान्न उत्पादन पर भी पड़ेगा। इसके अतिरिक्त कृषि की जो अनुचित तकनीकें अपनाई गई हैं तथा रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं, खरपतवारनाशक दवाओं का जो अंधाधुंध उपयोग हुआ है, उससे मिट्टी के प्राकृतिक उपजाऊपन पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ा है। अनेक स्थानों पर भूजल के अत्यधिक दोहन से भूजल स्तर बहुत नीचे चला गया है। इन विभिन्न कारणों से प्रति एकड़ उत्पादकता पर भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है।

इसके साथ भविष्य में कृषि व खाद्यान्न उत्पादकता के लिए जिस तरह के तौर-तरीके अपनाने की बात आज सरकारी स्तर पर व अन्य स्तरों पर की जा रही है उससे तो भविष्य में अपने देश की कृषि के बारे में और भी आशंकाएं उत्पन्न होती हैं। भविष्य में कृषि के उत्पादन बढ़ाने के लिए सरकारी स्तर पर और कॉरपोरेट स्तर पर तथाकथित दूसरी हरित क्रान्ति की जो बात की जा रही है उससे खेती-किसानी के लिए कई नए संकट उत्पन्न हो सकते हैं।

एक ओर तो इसमें जीएम (जेनेटिकली मोडीफाईड) फसलों को बढ़ावा देने की तैयारी हो रही है जिसके अति गंभीर पर्यावरण व स्वास्थ्य के खतरों के बारे में प्रतिष्ठित वैज्ञानिक बार-बार चेतावनी दे चुके हैं। वास्तव में जीएम तकनीक से खेती का कुछ भला नहीं होना है इससे तो केवल चंद बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खेती व खाद्य व्यवस्था पर अपना नियंत्रण बढ़ाने में मदद मिलेगी।

दूसरी ओर इन्हीं कंपनियों को ठेका खेती या कांट्रेक्ट फार्मिंग के माध्यम से या अन्य तौर-तरीकों से खेती-किसानी में वर्तमान से कहीं अधिक भूमिका देने की तैयारी भी चल रही है। जैसा कि पहले के अनुभवों से स्पष्ट हो गया है, इस तरह की कॉरपोरेट खेती के प्रसार से निरंतर किसानों की आत्म-निर्भरता व स्वतंत्रता कम होती जाती है जो आगे चलकर उनके आर्थिक संकट को और बढ़ाती है।

यदि किसानों पर संकट बढ़ रहा है, तो खाद्य सुरक्षा कैसे सुनिश्चित हो सकती है। देश की खेती-किसानी व किसानों की सुरक्षा के बिना खाद्य सुरक्षा असंभव व अर्थहीन है। यदि हमंख वास्तविक व टिकाऊ खाद्य-सुरक्षा प्राप्त करनी है तो इसके लिए टिकाऊ खेती-किसानी की मजबूत बुनियाद तैयार करनी होगी। ऐसी खेती किसानी की जो किसान को संतोषजनक आजीविका दे तथा साथ ही पर्यावरण की रक्षा के भी अनुकूल हो।

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