अनुपम मिश्र
ਨੀਂਹ ਤੋਂ ਸਿਖ਼ਰ ਤੱਕ
Posted on 10 Jan, 2016 12:35 PM
ਅੱਜ ਅਣ-ਪੁੱਛੀ ਗਿਆਰਸ ਹੈ, ਦੇਵਤੇ ਉੱਠ ਗਏ ਹਨ, ਹੁਣ ਚੰਗੇ-ਚੰਗੇ ਕੰਮ ਕਰਨ ਲਈ ਕਿਸੇ ਤੋਂ ਪੁੱਛਣ ਦੀ, ਮਹੂਰਤ ਕਢਵਾਉਣ ਦੀ ਲੋੜ ਨਹੀਂ। ਫੇਰ ਵੀ ਸਭ ਲੋਕ ਇਕੱਠੇ ਹੋ ਕੇ ਆਪਸ ਵਿੱਚ ਸਲਾਹ ਮਸ਼ਵਰਾ ਕਰ ਰਹੇ ਹਨ। ਨਵਾਂ ਤਾਲਾਬ ਜੁ ਬਣਾਉਣਾ ਹੋਇਆ।
ਵੱਟ ਦੇ ਕੰਢੇ ਰੱਖਿਆ ਇਤਿਹਾਸ
Posted on 10 Jan, 2016 12:08 PMਇਹ ਕਹਾਣੀ ਸੱਚੀ ਹੈ ਜਾਂ ਇਤਿਹਾਸਕ ਹੈ-ਪਤਾ ਨਹੀਂ। ਪਰ ਆਪਣੇ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਮੱਧ-ਭਾਗ ਦੇ ਇੱਕ ਬਹੁਤ ਵੱਡੇ ਹਿੱਸੇ
ਪੰਜ ਨਦੀਆਂ ਦੇ ਵਾਰਿਸ ਹੁਣ ਬੀਆਬਾਨਾਂ ਦੇ ਸ਼ਾਹ
Posted on 10 Jan, 2016 11:04 AMਪੰਜਾਬ ਦੇ ਪਾਣੀ ਦੇ ਨਾਲ ਸਾਡੇ ਲੋਕ ਜੀਵਨ ਦੇ ਕਿੰਨੇ ਨਿੱਤਨੇਮ ਜੁੜੇ ਸਨ, ਖੂਹ, ਤਾਲਾਬ, ਸਰੋਵਰ, ਬਾਓਲੀਆਂ ਕ
बाढ़, सूखा और नदी
Posted on 22 May, 2015 09:38 AMबाढ़ और सूखा कोई नई बात नहीं है। सदियों से हमारा समाज इनके साथ रहना सीख चुका था और इनसे निपटने के लिए उसने अपनी देसी तकनीक भी तैयार कर ली थी जो प्रकृति और नदियों को साथ लेकर चलती थी। लेकिन दिक्कत तब हुई जब हमने प्रकृति और नदियों की उपेक्षा शुरू की, उन्हें बाँधना शुरू किया। इसके बाद से ही बाढ़ और सूखे ने विभीषिका का रूप लेना शुरू कर दिया।
अकाल और बाढ़ अकेले नहींं आते। इनसे बहुत पहले अच्छे विचारों का भी अकाल पड़ने लगता है। इसी तरह बाढ़ से पहले बुरे विचारों की बाढ़ आ जाती है। ये केवल विचार तक सीमित नहींं रहते, ये काम में भी बदल जाते हैं। बुरे काम होने लगते हैं और बुरे काम अकाल और बाढ़ दोनों की तैयारी को बढ़ावा देने लगते हैं।
हमारा जल प्रबन्धन, दृष्टिकोण
Posted on 17 Feb, 2015 01:41 PMजल प्रबन्धन को लेकर नदियों को जोड़ना और मोक्षदायिनी गंगा की सफाई मोदी सरकार अपने साथ चुनाव प्रचार से ही लेती आई है। इसे लेकर चाहे केन्द्र सरकार और कुछ राजनैतिक दलों में उत्साह हो, लेकिन कई मानते हैं कि यह न तो व्यवहारिक और न ही सम्भव- दोनों नदियों को जोड़ना और गंगा की सफाई! इन दोनों ही मुद्दों पर प्रख्यात जल विशेषज्ञ अनुपम मिश्र से नीतिश द्वारा बातचीत पर आधारित लेख।
वर्तमान में भारत को किस प्रकार के जल प्रबन्धन की जरूरत आप महसूस कर रहे हैं?
हम सभी लोग जानते हैं कि हमारे देश में एक तरह की जलवायु नहीं है। हर साल मौसम बदलता रहता है, जिससे बारिश कहीं ज्यादा तो कहीं कम होती है। हमारे यहाँ मोटे तौर पर जैसलमेर में न्यूनतम वार्षिक औसत 15 सेमी से लेकर मेघालय, जिसका नाम ही मेघों पर है, वहाँ पानी मीटरों में गिरता है। सेंटीमीटर में नहीं! इसमें छत्तीसगढ़ भी आता है, जहाँ 200 से 400 सेमी तक बरसात होती है। ऐसी जगहों पर जल-प्रबन्धन न कोई एक दिन में बन सकने वाली व्यवस्था नहीं है।
मत पियो या कम पियो?
Posted on 17 Jan, 2015 03:37 PMएक समय स्वीडन के लोग अन्य देशों की तुलना में ज्यादा शराब नहीं पीते थे। लेकिन अब यहां प्रति व्यक
कोहनी का पाठ
Posted on 16 Jan, 2015 04:52 PMक्या बिना पढ़े, बिना स्कूल गए कोई इंजीनियर बन सकता है? आज तो यही जवाब मिलेगा कि ऐसा नहीं हो सकता।इंजीनियर बनना हो तो स्कूल जाना होगा। वहां भी सिर्फ अपनी मेहनत, अपनी योग्यता काम नहीं आएगी। ट्यूशन तो पुराना पड़ गया शब्द है, उससे काम नहीं चलेगा। सब तो यही बताएंगे कि इंजीनियर बनाना है तो कोचिंग का इंतजाम भी करना पड़ेगा। इस सबमें जो खर्च आएगा, वह भी हर घर तो जुटा नहीं पाता। तो कुछ बच्चे चाह कर भी, योग्य होते हुए भी इस दौड़ में पीछे रह जाते हैं।
जो इस मोड़ से आगे बढ़ गए, उन्हें अभी पांच साल और बिताने हैं। तब वे इंजीनियर बन पाएंगे। तो जरा जोड़कर तो देखो भला कितने साल हो गए?
'बनाजी' का गांव
Posted on 24 Nov, 2014 11:46 AMतालाबों के नामकरण की परंपरा को सबसे पहले जीवित किया गया। तीनो तालाबों के गुण और स्वभाव को देखते हुए एक सादे और भव्य समारोह में इनका नामकरण किया गया। पहले तालाब का नाम रखा गया देवसागर, दूसरे का नाम फूलसागर और तीसरे का नाम अन्नसागर। पहले दो तालाबों से समाज के लिए पानी न लेने का नियम बनाया गया। फूलसागर के आस-पास अच्छे पेड़-पौधे जैसे- सफेद आकड़ा, बेलपत्र के पौधे और बगीची आदि लगाई गई। देवसागर की पाल पर छतरी, पनघट, पक्षियों के लिए चुगने का स्थान और धर्मशाला आदि स्थापित की गई।
सन 2004: जयपुर जिले के एक छोटे से गाँव लापोड़िया के लिये इस तारीख, इस सन का मतलब है 4 और 2 यानी 6 साल का अकाल। आस-पास के बहुत सारे गाँव इस लंबे अकाल में टूट चुके हैं, लेकिन लापोड़िया आज भी अपना सिर, माथा उठाए मज़बूती से खड़ा हुआ है। लापोड़िया का माथा घमंड के बदले विनम्र दिखता है। उसने 6 साल के अकाल से लड़ने के बदले उसके साथ जीने का तरीका खोजने का प्रयत्न किया है। इस लंबी यात्रा ने लापोड़िया गाँव को लापोड़िया की ज़मीन में छिपी जड़ों ने ऊपर के अकाल को भूलकर ज़मीन के भीतर छिपे पानी को पहचानने का मेहनती काम किया है। इस मेहनत ने आज 6 साल के अकाल के बाद भी लापोडि़या को अपने पसीने से सींच कर हरा-भरा बनाया है।कोई भी अच्छा काम सूख चुके समाज में आशा की थोड़ी नमी बिखेरता है और फिर नई जड़ें जमती हैं, नई कोंपलें फूटती हैं। राजस्थान के ग्राम विकास नवयुवक मंडल, लापोड़िया के प्रयासों से गोचर को सुधारने का यह काम अब धीरे-धीरे आस-पास के गांवों में भी फैल चला है। गागरडू, डोरिया, सीतापुर, नगर, सहल सागर, महत्त गांव, गणेशपुरा आदि गांवों में आज चौका पद्धति से गोचर को सुधारने का काम बढ़ रहा है। इनमें से कोई पन्द्रह गांवों में यह काफी आगे जा सका है। लापोड़िया के इस सफल प्रयोग ने कुछ और बातों की तरफ भी ध्यान खींचा है।