बाढ़ और सूखा कोई नई बात नहीं है। सदियों से हमारा समाज इनके साथ रहना सीख चुका था और इनसे निपटने के लिए उसने अपनी देसी तकनीक भी तैयार कर ली थी जो प्रकृति और नदियों को साथ लेकर चलती थी। लेकिन दिक्कत तब हुई जब हमने प्रकृति और नदियों की उपेक्षा शुरू की, उन्हें बाँधना शुरू किया। इसके बाद से ही बाढ़ और सूखे ने विभीषिका का रूप लेना शुरू कर दिया।
अकाल और बाढ़ अकेले नहींं आते। इनसे बहुत पहले अच्छे विचारों का भी अकाल पड़ने लगता है। इसी तरह बाढ़ से पहले बुरे विचारों की बाढ़ आ जाती है। ये केवल विचार तक सीमित नहींं रहते, ये काम में भी बदल जाते हैं। बुरे काम होने लगते हैं और बुरे काम अकाल और बाढ़ दोनों की तैयारी को बढ़ावा देने लगते हैं।
ऐसा नहींं है कि अकाल और बाढ़ पहले कभी नहींं आते थे, लेकिन यदि हम अपने देश का इतिहास देखें तो बहुत सारी ऐसी चीजें होती रही हैं जिनके साथ समाज ने जीना सीख लिया था। अकाल के साथ भी जीना सीखना पड़ा और बाढ़ के साथ भी जीना सीखना पड़ा। कुछ जगह तो लोगों ने इसको एक अनुशासन की तरह ले लिया था। ऐसे तरीके बना लिए थे कि अकाल में हम अकेले न पड़ें और बाढ़ में हम बह न जाएँ। समाज का संगठन कुछ इस तरह से बनाया गया होगा उस समय, कि ये दोनों आते तो थे, पर इनकी मारक क्षमता कम हो जाती थी। कुल मिलाकर 15वीं, 16वीं, 17वीं शताब्दी तक चीजें अपनी गति से चलती रही होंगी। हालाँकि आजाद देश को लम्बी गुलामी झेलनी पड़ी, पर उसकी सारी कड़वाहट के बाद भी बहुत भीतर तक उसका प्रवेश नहींं हुआ था। गुलामी में मोटे तौर पर राजस्व में पैसा लूटना वगैरह जरूर शामिल रहा होगा, लेकिन नीतियाँ बहुत नीचे तक नहींं बदल पाई थीं।
लेकिन, अंग्रेजों के आने के बाद से कई मिले-जुले कारणों के चलते (एक उनकी भूख भी रही होगी) राजस्व के साथ बहुत बड़ें पैमाने पर छेड़खानी की गई। असल में उन्हें बहुत सारा पैसा कमाकर ले जाना था अपने देश। अब अगर हम एक मोटा उदाहरण देखें जैसा कि मैंने शुरू में कहा है कि अच्छे कामों का, अच्छे विचारों का अकाल पड़ता है और बुरे काम, विचार बाढ़ की तरह आते हैं तो उड़ीसा के महानदी का इलाका आज हम याद कर सकते हैं। वहाँ एक-एक किसान की प्रायः तीन तरह की जमीनें होती थीं। इसे हम चक के रूप में भी मोटे तौर पर जान सकते हैं। किस कारण चकबन्दी हुई, इसके बारे में हमारे अच्छे-से-अच्छे किसान नेता भी ठीक से सोच नहीं पाते। सामाजिक कार्यकर्ता भी इस प्रश्न पर ध्यान नहीं देते।
किसान क्यों तीन तरह के खेत रखता था, बिना इसे समझे हम अचानक कैसे निर्णय लेकर कह सकते हैं कि हम चकबन्दी शुरू कर देंगे। आजादी के बाद जो भी चकबन्दी शुरू हुई उसके मुकदमे, उसके असन्तोष अभी तक जिन्दा हैं। हर परिवार की यह कहानी है। इस छोटी-सी घटना को उड़ीसा की बाढ़ से और अकाल से जोड़कर देख सकते हैं। महानदी के किनारे हर परिवार के दो-तीन तरह के खेत होते थे। एक खेत थोड़ा नदी के किनारे होता था, एक थोड़ा उससे ऊपर होता था, एक और उससे भी ऊपर होता था। एक ही परिवार के खेत तीन जगह होते थे। यानी कि एक ऊपर है एक बीच में है और एक नीचे है। ये तीन बनाए जाते थे नदी के स्वभाव को और बाढ़ व अकाल को देखकर। मतलब यह कि बाढ़ आई तो नीचे का खेत डूब गया पर ऊपर के खेत में मध्यम ऊँचाई पर लगी हुई फसल बच गई। और भी बाढ़ आई तो कम-से-कम तीसरे की तो बचेगी। इस तरह से एक परिवार को टिकने का सहारा मिलता था। अकाल में भी यही होता था। बस क्रम बदल जाता था। ऊपर पानी नहींं मिला, बीच वाले को नहींं मिला तो कम-से-कम नीचे वाले को तो मिल ही जाएगा। इस तरह से समाज अपनी व्यवस्था तक चलाया करता था, जबकि तब न तो फसलों के लिए बीमा योजना हुआ करती थी और न ही इतना केन्द्रीकरण था।
आज जिस तरह से अकाल और बाढ़ के आते ही समाज को दयनीय हालत में खड़ा कर दिया जाता है, मुआवजा बँटने लगता है, वैसी हालात तब नहींं थी। आज झगड़ा इस बात का होता है कि कम क्यों दिया, ज्यादा मिलना चाहिए था। अभी हाल ही में जिस दौर से हम निकले हैं उस पर ध्यान दें तो अचानक आई हुई बरसात की वजह से भी देश के बहुत बड़े हिस्से में किसान और सरकार के बीच में यह एक नया प्रश्न आ खड़ा हुआ है। इन सब चीजों को देखें तो उड़ीसा में लम्बे दौर तक पुराने इन सब नियमों का पालन हुआ। भले ही किसी ने भी वहाँ के राज को बदला और खुद शासन पर बैठा, लेकिन नीतियाँ उसने नहींं बदलीं, उन्हें जारी रखा। तब के शासकों ने कहा कि मोटे तौर पर नदियों के किनारे जो ये परम्परा है खेती करने की, उसे जारी रखना है।
इन नदियों में बड़े बाँध नहींं बनाए जाते थे। बाँध तकनीक के कारण बाद में आए, ऐसा भी कह सकते हैं और ये भी कह सकते हैं कि हमारी समझ में भी कुछ कमी आई होगी और समझ में आई गिरावट के कारण हमने तकनीक को प्रकृति बर्बाद करने का मौका दिया होगा। जितने भी बाँध बने हैं आजादी के पहले और बाद में, सबके बनाने वालों ने कहा, कि “बाँध अकाल और बाढ़ को नियन्त्रित करेगा।” लेकिन अगर कोई स्वतन्त्र मूल्यांकन हो इन सब चीजों को, तो पता चलेगा कि ऐसे बाँधों से ये जो दोनों तरह के दावे और वादे किए जाते रहे हैं, वे कभी पूरे नहींं हो पाए हैं। अभी हर साल, कम-से-कम उड़ीसा में तो बहुत बड़े पैमाने पर महानदी में बाढ़ आती है, तो उसके पीछे उस पर बना हुआ एक बाँध ही जिम्मेदार माना जाता है। इस पर बहुत से लोगों ने बड़ी मेहनत से काम किया है। जानकारियों का बिल्कुल अभाव नहीं है।
उड़ीसा में राजनीति की कृपा से लगभग हर विचारधारा का शासन रह चुका है, लेकिन उनमें से किसी के भी मन में इतनी समझदारी, इतनी उदारता नहींं आ पाई कि वह इन बाँधों के नफे-नुकसान पर सोचता। बहरहाल, बाँध एक घड़े की तरह भर जाता है और उसे पटक कर फोड़ दिया जाता है। सारे गेट खोलने पड़ते हैं बाढ़ रोकने के लिए। थोड़ा पहले लौटें सात-आठ साल पहले, तो सूरत में बाढ़ आई थी। यह हीरों का शहर है और उसकी हीरे-जैसी मजबूती मानी जाती है, सम्पन्नता मानी जाती है। लेकिन जिस तापी नदी के किनारे वह बसा है, उस पर आजादी के तुुरन्त बाद कभी उकाई नाम का एक बाँध बना था। नर्मदा, भाखड़ा- जैसे नाम तो हम नई-पुरानी दो-चार पीढ़ी के लोग अखबारों वगैरह के माध्यम से पढ़-सुन रहे हैं, लेकिन उकाई के बाँध के बारे में किसी को शायद याद भी नहींं है। उस समय बहुत सारे लोगों को डुबोकर वह बना था।
आजादी के बाद का दौर था तो लोगों ने तो सहर्ष डूबना स्वीकार किया, यह सोचकर कि देश का विकास होता है तो चलो हम कहीं भी चले जाएँगे मुआवजा दो या न दो। तमाम सामाजिक संगठनों ने, यहाँ तक कि ‘सर्वोदय’ तक ने, जाकर गाँव से कहा कि, ‘रूकावट मत बनो, खाली करो,’ क्योंकि इससे राज्य का विकास होगा। खैर, उससे जो कुछ विकास होना था वह तो हुआ नहींं, पर जो बाढ़ नियन्त्रण उसकी एक बड़ी जिम्मेदारी मानी गई थी, उसका भी नतीजा बेमानी रहा। पिछले 7-8 साल पहले पूरा सूरत डूबा। बाढ़ ने पहली बार न सिर्फ पहली मंजिल को पार किया, बल्कि दूसरी मंजिल को भी छुआ। सामान्यतः बाढ़ पहले घुटने तक आती है, फिर गले तक आती है। लोग पहली मंजिल की छत पर खड़े हो जाते हैं। लेकिन यहाँ तो उसने पहली मंजिल को भी नहींं छोड़ा।
ये सारे दौर जो कुछ बतलाते हैं, उसमें धीरे-धीरे नई-नई चीजें जुड़ती गई हैं। अंग्रेजों के समय में पहली बार इस देश में रेल आई। सड़क तो फिर भी जमीन से कुछ ऊपर न भी हो या जमीन के बराबर भी हो तो चल सकती है, लेकिन रेल की पटरी बनाने के लिए प्रायः एक अच्छी ऊँचाई माँगी जाती है। जितनी बड़ी-बड़ी पटरियाँ मैदान में बनाई गई, वे अचछी ऊँचाई पर बनीं। उस समय शुरू में ढार, कलकत्ता, बंगाल के हिस्से में बनीं। कुछ मुम्बई वगैरह में बनीं, लेकिन इन सबको पन्द्रह-बीस फुट तक ऊँचा उठाया जाता था, इसलिए कि कहीं ये पटरियाँ डूब न जाएँ, क्योंकि ये सब पानी के इलाके हैं, बाढ़ के इलाके हैं। तो, इस तरह से ये अदृश्य बँध से बन गए। तटबँध बन गए। इन्होंने आस-पास आसानी से बहने वाले पानी को छेंक लिया। ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं कि बाढ़ के दौरान गाँव के लोगों ने कुदाल-फावड़ा लेकर रेलवे लाइन तोड़कर गाँव बचाने के लिए कमर कसी। उनको पुलिस ने अंग्रेजों के समय में गोलियाँ भी मारीं। हाईवे, बड़ी सड़कें और बड़ी रेल की पटरियाँ - इन्हें जिस ऊँचाई पर पिछले डेढ़-दो सौ सालों में डाला गया, उसने भी पूरे देश के ड्रेनेज को बदला है। यानी पानी के बहने के जो स्वाभाविक रास्ते हैं, वे बदले और बिगड़े हैं।
पाँच-सात साल पीछे पलटकर देखें तो हमें अचरज होगा कि देश में बाढ़ की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं। पहले बम्बई डूबा, फिर दिल्ली में भी भयानक बाढ़ आई। चेन्नई, बंगलौर, विशाखापट्टनम-जैसे शहरों के अलावा रेगिस्तान के बाड़मेर - जैसे हिस्सों में भी भयानक बाढ़ आई। जयपुर तो इस बीच में दो-चार बार डूबा है।
इन सब नए और पुराने शहरों में आ रहे बाढ़ के कारणों में एक बड़ा कारण नया विकास और उसी के साथ-साथ पुराने तालाबों को नष्ट करना भी जुड़ा है। जो वर्षा का पानी बड़े शहरों में उपलब्ध कई बड़े तालाबों में जमा होता था, वहाँ के भूजल का संवर्धन करता था, दरअसल अब तालाबों के नष्ट हो जाने के कारण वह इन्हीं तालाबों को तोड़कर बनाए गए मोहल्लों में घूमता-फिरता है। सन् 2010 में बहुप्रचारित और बहुुविवादित काॅमनवेल्थ खेलों के समय दिल्ली में टी-3 नाम का हवाई अड्डा बनाया गया था। उसको बने अभी पाँच साल ही हुए है, लेकिन अब तक वह तीन बार बाढ़ में डूब चुका है। इसका एक ही कारण है कि इस इलाके में दस बड़े तालाब हुआ करते थे, उनको ही समतल करके यह हवाई अड्डा बना है। इसीलिए इस जगह पर गिरने वाला पानी कहीं और जाना पसन्द नहींं करता है।
इन्द्र के पर्यायवाचियों में एक नाम मिलता है- पुरन्दर। इसका अर्थ है - किलों को या नगरों को तोड़ने वाला। थोड़ा और पीछे लौटें तो गोवर्धन का किस्सा भी याद आ जाएगा। इन्द्र के वर्षा रूपी वज्र से उस इलाके को बचाने के लिए भगवान कृष्ण जैसे बड़े आदमी को खड़ा होना पड़ा था। अभी हमारे इन शहरों में कोई बड़ा आदमी नहींं बचा है, इसलिए ये शहर इन्द्र के कोप में डूबते रहेंगे।
अभी 50-60 सालों में इन सब चीजों के साथ एक और नया विचार आया है कि बाढ़ और अकाल से बचने के लिए नदियों को जोड़ा जाना चाहिए। यह नेहरू जी के समय में भी सोचा गया, उसके बाद भी विचार हुआ। लेकिन पता नहींं क्या कारण है कि अब तक नहींं हुआ। फिर एनडीए के समय में विरोधी दल की नेता कांग्रेस की सोनिया गाँधी, कवि हृदय प्रधानमन्त्री अटलबिहारी वाजपेयी, कलाम साहब - जैसे वैज्ञानिक राष्ट्रपति, और देश की सबसे बड़ी अदालत- इन सबकी मिली-जुली मन की एक इच्छा थी कि नदियाँ जुड़ जाए तो बाढ़ और अकाल में देश को मुक्ति मिल जाएगी। कुछ फुसफुसाहटों के तौर पर हल्का-फुल्का विरोध भले हुआ हो, पर पक्ष-विपक्ष, अदालत सब साथ थे तो सवाल ज़रूर उठता है कि फिर इन सबका हाथ किसने पकड़ा था। जो ‘नदी जोड़ो अभियान’ अभी तक परवान नहींं चढ़ सका और फिर, उसके बाद कांग्रेस आई तो उसने भी इसको ठण्डे बस्ते में तो डाला, पर इसका विरोध नहींं किया।
यूपीए-एक और यूपीए-दो में ऐसा ही रहा। इसके बाद फिर एनडीए की सरकार बनी है। अटल जी ने तो एक मन्त्री को विशेष तौर पर इसका काम सौंप दिया था, जिन्होंने अपने अनुभव से इसे निखारने की बहुत कोशिश की थी। अध्ययन वगैरह भी शुरू करवा दिए थे। लेकिन आज वे मन्त्री रेलें चलवा रहे हैं, नदी नहींं जोड़ रहे हैं। इसका ये मतलब है कि इस योजना में कुछ बुनियादी कमियाँ उनको भी दिखीं जो इसको करना चाहते थे। असल में कुछ यों हुआ कि जब नारा लगा दिया तो पीछे कैसे हटें? फिर यह तो वही बात हुई कि इसे चलने दो जितना चल रहा है। मन्त्रालय भी बन गया है। ध्यान दिया जा रहा है। सब कुछ है, लेकिन मसला वहीं का वहीं है।
आप एक के बाद एक राज्य गिन लीजिए। दक्षिण में कर्नाटक, तिमलनाडु। हमारे दिल्ली और हरियाणा पीने के पानी की एक-एक बूँद के लिए लड़ते हैं। दोनों जगह यदि एक ही पार्टी की सरकार हो तो भी यह मसला हल नहींं होता। एक समय में हरियाणा में भी कांग्रेस थी, दिल्ली में भी कांग्रेस थी और केन्द्र में भी कांग्रेस थी, लेकिन एक नदी का विवाद, यमुना और उसकी नहर का, हल नहीं हो सका। पंजाब और हरियाणा के बीच पानी को लेकर झगड़ा है। किस जगह झगड़ा नहींं है! दो जिलों तक में पानी को लेकर झगड़ा है। एक ही घर में मकान मालिक और किराएदार के बीच में नल को और मशीन को लेकर झगड़ा है। कहने का मतलब यह कि पानी का मसला इतना सरल नहींं है कि हम उसको यहाँ से वहाँ आसानी से भेज देंगे। वास्तव में इस पर एक बार फिर से सोचने का अब समय आ गया है।
अकसर यह कहा जाता है कि पानी तो हमारे यहाँ चार ही महीने गिरता है, बाकी तो लम्बा दौर बिना पानी का है। सच यह है कि यह तो कृपा है माॅनसून की हमारे ऊपर। अगर वह पूरे बारह महीने पानी गिराता तो किसी फसल का हो पाना सम्भव ही न होता। जब अनाज पैदा होता है तो उसको थोड़ी-सी सिंचाई चाहिए। कुछ पानी अंकुर के बाद बढ़ने के लिए चाहिए। फिर उसको थोड़ी धूप चाहिए, थोड़ी गर्मी चाहिए, थोड़ी मेहनत, थोड़ा पसीना चाहिए और फिर एक बार और थोड़ा पानी चाहिए।
याद रखिए कि गर्मी में जाकर अनाज में दाना पड़ता है। बादल के समय और ठण्डे दिनों में नहींं पड़ता इसीलिए ठण्ड की लगाई फसल गर्मी में जाकर पकती है। यह सब सोच-समझकर प्रकृति ने हजारों साल में कोई खेल रचा है। हमको उसके मंच पर सज और धजकर अपना जीवन चलाना है। इसमें इस तरह की शिकायतें कोई मतलब नहींं रखतीं कि चार महीने ही बरसात आती है और फिर कुछ नहींं होता। उन चार महीनों में पानी को रोकने के लिए देशभर में छोटे-बड़े तालाब बनते थे। उनसे भूजल संवर्धित होता था। आज वे तालाब जमीन के लालच में नष्ट कर दिए गए हैं। जमीन का दाम आसमान छू रहा है, लेकिन जिस दिन पानी कम होगा उस दिन वह जमीन की कीमत मिट्टी-मोल बता देगा। आज तो राजनीति नीचे गिरी है कि जलस्तर नीचे गिरा है, इसमें होड़ लगी है। इस होड़ को हम नागरिक, हम सामाजिक लोग, हम राजनीतिक लोग, हम अखबार वाले, साधारण किसान और गृहस्थ कितने दिन देखेंगे, यह बड़ा अचरज का विषय है।
(लेखक प्रसिद्ध पर्यावरणविद हैं)
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