इंजीनियर बनना हो तो स्कूल जाना होगा। वहां भी सिर्फ अपनी मेहनत, अपनी योग्यता काम नहीं आएगी। ट्यूशन तो पुराना पड़ गया शब्द है, उससे काम नहीं चलेगा। सब तो यही बताएंगे कि इंजीनियर बनाना है तो कोचिंग का इंतजाम भी करना पड़ेगा। इस सबमें जो खर्च आएगा, वह भी हर घर तो जुटा नहीं पाता। तो कुछ बच्चे चाह कर भी, योग्य होते हुए भी इस दौड़ में पीछे रह जाते हैं।
जो इस मोड़ से आगे बढ़ गए, उन्हें अभी पांच साल और बिताने हैं। तब वे इंजीनियर बन पाएंगे। तो जरा जोड़कर तो देखो भला कितने साल हो गए? तीन-चार बरस की उमर में पहले किसी स्कूल में एकाध साल नर्सरी में। फिर किसी या उसी स्कूल में पहली से बारहवीं यानी और बाहर साल। चौदह-पंद्रह साल तो यही हो गए। अब उसमें पांच और। कुल-मिलाकर उन्नीस-बीस साल लग जाते हैं। बचपन में पहने, नहीं पहने निक्कर, कमीज, जूते-चप्पल, अपनी भाषा तक सब कुछ पीछे छूट जाता है।
ये जूते-चप्पल की बात, निक्कर की बात इंजीनियर के साथ कहां से आ गई? पानी, तालाब का कुछ काम समझते हुए एक बार हम लोग अलवर जिले के किसी गांव में एक पाल पर खड़े थे। पाल सीधी न होकर थोड़ी आड़ी-तिरछी थी। वहीं खड़ा था एक बच्चा। नंगे पैर, शरीर पर अपनी उमर से बड़ी बस एक कमीज पहने। इसलिए आई है जूते-चप्पल की बात। यह इंजीनियर बन रहा है। आज नहीं तो कल यह पूरा इंजीनियर बन जाएगा।
कुछ भी पीछे नहीं छूटा है। ज्यादा कुछ है भी नहीं इसके पास। बहुत-से लोग बताएंगे कि इसकी उमर तो अभी स्कूल जाने लायक है। पर कई जगह स्कूल ही नहीं हैं। स्कूल हैं तो पढ़ाने वाले नहीं हैं। कहीं स्कूल है पर छत नहीं है, दीवार नहीं है। कई स्कूलों में ब्लैक बोर्ड तक नहीं थे।
जब इस तरह की शर्मनाक जानकारी किसी सर्वे से निकल कर आई तो सरकार को ‘आॅपरेशन ब्लैक बोर्ड’ जैसी योजना तक चलानी पड़ी थी। वापस अपने ‘इंजीनियर’ पर लौटें।
सन् 1847 में। वह भी इसलिए कि इस गांव के लोगों ने तब ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए अकाल से निपटने के लिए कोई 200 किलोमीटर लंबी एक शानदार नहर बनाई थी। उस जमाने में कहीं भी बिजली नहीं थी। इसलिए चूना पत्थर को बारीक पीस कर बनाई जाने वाली सीमेंट भी नहीं थी। यह नहर बहुत लंबी-चौड़ी तो थी ही, इसे एक बड़ी नदी को भी पार कराना था। तब अंग्रेज अधिकारियों को लगा था कि बस इसी बात पर नहर बनाने का काम ठप्प हो जाएगा। पर रुड़की के गांव वालों ने, अनपढ़ माने गए इंजीनियरों ने इसे न सिर्फ पूरा कर दिखाया, बल्कि ऐसा किया कि आज कोई 200 साल बाद भी सोनाली नदी के ऊपर से निकली यह नहर टूट कर गिरी नहीं है।
यह अपने मां-पिता के साथ इसी उमर से तालाब बनाने के काम में जुट गया है। अभी यह तालाब सूखा दिख रहा है। एक आड़ी-तिरछी पाल पर खड़ा हमारा यह इंजीनियर हमें क्या बता रहा है। वह हमें अपने बाएं हाथ की कोहनी दिखा रहा है क्यों? मैंने उससे पूछा था कि तुम्हारे मां-पिता ने यह पाल सीधी क्यों नहीं बनाई है? मां-पिता तब वहां थे नहीं।इसने उनकी तरफ से नहीं, अपनी तरफ से पूरे भरोसे के साथ उत्तर दिया था कि अरे आपको पता होना चाहिए कि पाल के दाहिनी तरफ एक बड़ा नाला है। वह सामने वाली पहाड़ी से उतरता है। अभी सूखा दिखता है। पर बरसात में यह नाला इतना बौखला जाता है कि पूछो मत। वह खूब सारा पानी लेकर हमारे इस तालाब में आएगा। अगर यह पाल हमने सीधी बना दी होती तो वह इसे तोड़ कर अपने साथ बहा ले जाएगा। इसलिए नाले के पानी की ताकत को तोड़ने के लिए हमारे पिताजी ने पाल में कोहनी दी है।
भरने के बाद मैं इस तालाब पर दुबारा तो नहीं जा पाया, पर वहां से खबर लगती रही। हर साल वह तालाब पूरा भरता रहा। कभी टूटा नहीं। यानी हमारे छोटे इंजीनियर की कोहनी बड़े काम आती रही है।
अंग्रेज जब यहां आए हैं तब हमारे यहां सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई सिखाने वाला कोई भी कॉलेज नहीं था। कुछ दूसरे तरह के विषय सिखाने वाले कॉलेज भी नहीं थे। इंजीनियरिंग की पढ़ाई नहीं थी, इंजीनियर नहीं थे। लेकिन इंजीनियरिंग का काम सब जगह होता था। पहला ऐसा कॉलेज हरिद्वार के पास रुड़की नाम के एक छोटे-से गांव में खुला था।
सन् 1847 में। वह भी इसलिए कि इस गांव के लोगों ने तब ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए अकाल से निपटने के लिए कोई 200 किलोमीटर लंबी एक शानदार नहर बनाई थी। उस जमाने में कहीं भी बिजली नहीं थी। इसलिए चूना पत्थर को बारीक पीस कर बनाई जाने वाली सीमेंट भी नहीं थी।
यह नहर बहुत लंबी-चौड़ी तो थी ही, इसे एक बड़ी नदी को भी पार कराना था। तब अंग्रेज अधिकारियों को लगा था कि बस इसी बात पर नहर बनाने का काम ठप्प हो जाएगा। पर रुड़की के गांव वालों ने, अनपढ़ माने गए इंजीनियरों ने इसे न सिर्फ पूरा कर दिखाया, बल्कि ऐसा किया कि आज कोई 200 साल बाद भी सोनाली नदी के ऊपर से निकली यह नहर टूट कर गिरी नहीं है। आज भी यह ठाठ से बहती है और अनगिनत खेतों की सिंचाई करती है।
तो इस कोहनी की कहानी हमें क्या बताती है? पढ़ना-लिखना अच्छी बात है पर सीखना हो तो जरूरी नहीं कि स्कूल ही जाना होगा। एक कदंब का पेड़ यदि यमुना तीरे मिल जाए तो उस पर बैठ कर दो पैसे वाली बांसुरी बजाते-बजाते कन्हैया तक बना जा सकता है। इंजीनियर तो मामूली-सी बात है न!
इस नहर को जिन अनेक गुमनाम और अनपढ़ माने गए लोगों ने बनाया था, उन्हीं के कारण फिर हमारे देश का पहला इंजीनियरिंग कॉलेज सन् 1847 में इसी छोटे-से गांव रुड़की में खोला गया था। तब यह हमारे देश का ही नहीं, एशिया का भी पहला ऐसा कॉलेज था। अमेरिका में भी कोई नहीं था ऐसा कॉलेज। चीन, जापान, आज के कोरिया आदि देशों में भी नहीं। खुद इंग्लैंड में इस दर्जे का कोई कॉलेज नहीं था। इस कॉलेज का इतिहास बताता है कि एक बार इंग्लैंड से भी छात्रों का एक दल रुड़की के इस कॉलेज में पढ़ने के लिए आया था!तो इस कोहनी की कहानी हमें क्या बताती है? पढ़ना-लिखना अच्छी बात है पर सीखना हो तो जरूरी नहीं कि स्कूल ही जाना होगा। एक कदंब का पेड़ यदि यमुना तीरे मिल जाए तो उस पर बैठ कर दो पैसे वाली बांसुरी बजाते-बजाते कन्हैया तक बना जा सकता है। इंजीनियर तो मामूली-सी बात है न!
बाल विज्ञान पत्रिका ‘चकमक’ के लिए लिखी कुछ सामग्री से साभार
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