अनुपम मिश्र

अनुपम मिश्र
अनपढ़, असभ्य और अप्रशिक्षित
Posted on 04 Nov, 2011 11:06 AM

केवल पाईप बिछाने और नल की टोंटी लगा देने से पानी नहीं आता। उस समय तो शायद नहीं लेकिन आजादी के बाद यह बात समझ में आने लगी। तब तक कई शहरों के तालाब उपेक्षा की गाद से पट चुके थे और वहां नये मोहल्ले, बाजार, स्टेडियम खड़े हो गये थे। पर पानी अपना रास्ता नहीं भूलता। तालाब हथिया कर बनाए गये मोहल्लों में वर्षा के दिनों में पानी भर जाता है और वर्षा बीती नहीं कि शहरों में जल संकट छाने लगता है। शहरों को पानी चाहिए पर पानी दे सकने वाले तालाब नहीं चाहिए।

गांव में तकनीकी भी बसती है यह बात सुनकर समझ पाना उन लोगों के लिए थोड़ा मुश्किल होता है जो तकनीकी को महज मशीन तक सीमित मानते हैं लेकिन तकनीकी क्या वास्तव में सिर्फ मशीन तक सीमित है? यह बड़ा सवाल है जिसके फेर में हमारी बुद्धि फेर दी गई है। मशीन, कल पुर्जे, औजार से भी आगे अच्छी सोच सच्ची तकनीकी होती है। अच्छी सोच से सृष्टिहित का जो लिखित और अलिखित शास्त्र विकसित किया जाता है उसके विस्तार के लिए जो कुछ इस्तेमाल होता है वह तकनीकी होती है। इस तकनीकी को समझने के लिए कलपुर्जे के शहरों से आगे गांवों की ओर जाना होता है। भारत के गांवों में वह शास्त्र और तकनीकी दोनों ही लंबे समय से विद्यमान थे, लेकिन कलपुर्जों की कालिख ने उस सोच को दकियानूसी घोषित कर दिया और ऐसी तकनीकों का इस्तेमाल करने वाले लोग अनपढ़, असभ्य और अप्रशिक्षित घोषित कर दिये गये।

traditional water system
હજુ સુધી તળાવ છે
Posted on 03 Nov, 2011 01:14 PM

તળાવ ઉપર હજુ પણ છે (ગુજરાતી)તેમના પુસ્તક 'તળાવ ઉપર હજુ પણ છે' ભારત તરફ, શ્રી અનુપમ જી તળાવો, પાણી - પાક સિસ્ટમો, પાણી - ઘણા ભવ્ય પરંપરા ની સમજણ વ્યવસ્થા તળાવો, અને પાણી, તત્વજ્ઞાન અને સંશોધન દસ્તાવેજીકૃત છે.

ભારત પરંપરાગત જળાશયોમાં, આજે ગામો અને નગરો હજારો જીવાદોરી સમાન છે. આ અનન્ય જીવંત ક્રિયા છે, જે સમગ્ર દેશમાં ફેલાય શેડો જેવા ગંભીર જળ કટોકટી સાથે વ્યવહાર કરવામાં આવે છે અને સમસ્યાને 'માર્ગદર્શન' કામ કરે છે સમજો. અનન્ય વસવાટ કરો છો પર્યાવરણ અને પાણી - વર્ષ માટે વ્યવસ્થાપન ક્ષેત્રમાં કામ કર્યું છે અને હાલમાં ગાંધી પીસ ફાઉન્ડેશન, નવી દિલ્હી સાથે કામ કરે છે.

તળાવ ઉપર હજુ પણ છે (ગુજરાતી)
آج آج بھی کھرے ہیں تالاب आज भी खरे हैं तालाब उर्दू
Posted on 04 Oct, 2011 12:00 PM

آج بھی کھرے ہیں تالابآج بھی کھرے ہیں تالاباپنی کتاب 'آج بھی کھرے ہیں تالاب' میں جناب انوپم مشر صاحب نےپورے ہندوستان کے تالابوں، ماضی میںپانی محفوظ کرینےکےطریقوں،پانی کے بیہترانتظام،جھیلوں،تالابوں اورپانی کی کئی شاندار روایات کی سمجھ ، فلسفہ اور تحقیق کواس کتاب میں انتہاءی سلیقے اور آسان زبان میں تحقیق کے ساتھ درج کیا ہے۔

ہندوستان میں پانی کی حفاظت کے یہ روایتی طریقے،آج بھی ہزاروں گاؤں اور قصبوں کے لئے لایف لاین کے مساوی ہیں.انوپم جی کا یہ کام ، ملک بھر میں سیاہ سایہ کی طرح پھیل رہی پانی کی شدید قلت سے نمٹنے اور مسائل کو اچھی طرح سمجھنے میں ایک 'گائیڈ' کا کام کرتا ہے.انوپم جی نے ماحولیات اورواٹر منیجمینٹ کے میدان میں برسوں تک کام کیا ہے، فی الحال وہ گاندھی امن فاؤنڈیشن ، نئی دہلی کے ساتھ کام کر رہے ہیں. ان کی کتابیں ، خاص طور پر 'آج بھی کھرے ہیں تالاب' اور 'راجستھان کی نقرئی بوندیں' ، پانی کے موضوع پر شائع کتابوں میں میل کے پتھر کی مانند ہیں ، آج بھی ان کتابوں کے مندرجات سماجی کارکُنوں، واٹر هاروےسٹنگ میں دلچسپی

urdu cover aaj bhi khare hain talab
ਅੱਜ ਵੀ ਖਰੇ ਹਨ ਤਾਲਾਬ
Posted on 02 Oct, 2011 01:47 PM


आज भी खरे हैं तालाब (पंजाबी)

ਅੱਜ ਵੀ ਖਰੇ ਹਨ ਤਾਲਾਬਆਪਣੀ ਕਿਤਾਬ “ਅੱਜ ਵੀ ਖਰੇ ਹਨ ਤਾਲਾਬ” ਵਿੱਚ ਸ਼੍ਰੀ ਅਨੁਪਮ ਜੀ ਨੇ ਸਮੁੱਚੇ ਭਾਰਤ ਦੇ ਤਾਲਾਬੋਂ , ਪਾਣੀ - ਇਕੱਤਰੀਕਰਨ ਪੱਧਤੀਯੋਂ , ਪਾਣੀ - ਪ੍ਰਬੰਧਨ , ਝੀਲਾਂ ਅਤੇ ਪਾਣੀ ਦੀ ਅਨੇਕ ਸ਼ਾਨਦਾਰ ਪਰੰਪਰਾਵਾਂ ਦੀ ਸੱਮਝ , ਦਰਸ਼ਨ ਅਤੇ ਜਾਂਚ ਨੂੰ ਲਿਪਿਬੱਧ ਕੀਤਾ ਹੈ ।

ਭਾਰਤ ਦੀ ਇਹ ਹਿਕਾਇਤੀ ਪਾਣੀ ਸੰਰਚਨਾਵਾਂ , ਅੱਜ ਵੀ ਹਜਾਰਾਂ ਪਿੰਡਾਂ ਅਤੇ ਕਸਬੀਆਂ ਲਈ ਜੀਵਨਰੇਖਾ ਦੇ ਸਮਾਨ ਹਨ । ਅਨੁਪਮ ਜੀ ਦਾ ਇਹ ਕਾਰਜ , ਦੇਸ਼ ਭਰ ਵਿੱਚ ਕਾਲੀ ਛਾਇਆ ਦੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਫੈਲ ਰਹੇ ਭੀਸ਼ਨ ਜਲਸੰਕਟ ਵਲੋਂ ਨਿੱਬੜਨ ਅਤੇ ਸਮੱਸਿਆ ਨੂੰ ਚੰਗੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਸੱਮਝਣ ਵਿੱਚ ਇੱਕ “ਗਾਇਡ” ਦਾ ਕੰਮ ਕਰਦਾ ਹੈ । ਅਨੁਪਮ ਜੀ ਨੇ ਪਰਿਆਵਰਣ ਅਤੇ ਪਾਣੀ - ਪ੍ਰਬੰਧਨ ਦੇ ਖੇਤਰ ਵਿੱਚ ਸਾਲਾਂ ਤੱਕ ਕੰਮ ਕੀਤਾ ਹੈ ਅਤੇ ਵਰਤਮਾਨ ਵਿੱਚ ਉਹ ਗਾਂਧੀ ਸ਼ਾਂਤੀ ਪ੍ਰਤੀਸ਼ਠਾਨ , ਨਵੀਂ ਦਿੱਲੀ ਦੇ ਨਾਲ ਕਾਰਜ ਕਰ ਰਹੇ ਹਨ । ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਕਿਤਾਬਾਂ , ਖਾਸਕਰ “ਅੱਜ ਵੀ ਖਰੇ ਹਨ ਤਾਲਾਬ” ਅਤੇ “ਰਾਜਸਥਾਨ ਦੀ ਰਜਤ ਬੂੰਦਾਂ” , ਪਾਣੀ ਦੇ ਵਿਸ਼ਾ ਉੱਤੇ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਿਤ ਕਿਤਾਬਾਂ ਵਿੱਚ ਮੀਲ ਦੇ ਪੱਥਰ ਦੇ ਸਮਾਨ ਹੈ ,

आज भी खरे हैं तालाब (पंजाबी)
ठंडो पाणी मेरा पहाड़ मा, न जा स्वामी परदेसा
Posted on 26 Sep, 2011 06:59 PM

दूधातोली में जब से पानी का, चाल और खाल का काम प्रारंभ हुआ है, तब से यहाँ के वन आग से सुरक्षित हो चले हैं। सभी ग्राम वनों में बनी चालों के कारण उनमें गर्मी के तपते मौसम में भी नमी और इस कारण हरियाली बनी रहती है, आग नहीं लग पाती। कहीं आग लग भी जाए तो यह लाचारी नहीं होती कि अब इसे कैसे बुझाया जाए। भरनों गाँव के अपने पाले वन में, मई 1998 में आग जरूर लगी थी पर चालों की उपस्थिति के कारण वह जल्दी ही नियंत्रण में आ गई थी।

ढौण्ड गाँव (पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड) के पंचायत भवन में छोटी-छोटी लड़कियाँ नाच रहीं थीं। उनके गीत के ये बोल सामने बैठे पूरे गाँव को बरसात की झड़ी में भी बांधे हुए थे। भीगते दर्शकों में ऐसी कई युवा और अधेड़ महिलाएँ थीं, जिनके पति और बेटे अपने जीवन के कई बसंत ‘परदेस’ में ही बिता रहे हैं, ऐसे वृद्ध भी इस कार्यक्रम को देख रहे थे, जिनने अपने जीवन का बड़ा भाग ‘परदेस’ की सेवा में लगाया है और भीगी दरी पर वे छोटे-बच्चे-बच्चियां भी थीं, जिन्हें शायद कल परदेस चले जाना है।

एक गीत पहाडों के इन गाँवों से लोगों का पलायन भला कैसे रोक पाएगा?

लेकिन गीत गाने वाली टुकड़ी गीत गाती जाती है। आज ढौण्ड गाँव में है तो कल डुलमोट गाँव में फिर जन्दिया में, भरनों में, उफरैंखाल में। यह केवल सांस्कृतिक आयोजन नहीं है। इसमें कुछ गायक हैं, नर्तक है, एक हारमोनियम, ढोलक है तो सैकड़ों कुदाल-फावड़े भी हैं जो हर गाँव में कुछ ऐसा काम कर रहे हैं कि वहां बरसकर तेजी से बह जाने वाला पानी
sachidanand bharti
संस्कारित सजगता के संकल्प का दिन
Posted on 06 Jun, 2011 12:24 PM

जो जितना ताकतवर है वह दूसरे के हिस्से का पर्यावरण उतनी ही तेजी से निगलता है। दिल्ली यमुना का पानी तो पीती है लेकिन कम पड़ जाए तो गंगा को भी निचोड़ लाती है। इंदौर पहले अपनी छोटी सी खान नदी को मार देता है फिर पानी के लिए नर्मदा पर कब्जा जमाकर बैठ जाता है। भोपाल पहले अपने विशाल ताल को कचरे से भर देता है फिर 80 किलोमीटर दूर बह रही नर्मदा से पीने के पानी की योजना बनाने लगता है।

सरकारी कैलेंडर में देखें तो पर्यावरण पर बातचीत 1972 में हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के स्टॉकहोम सम्मेलन से शुरू होती है। पश्चिम के देश चिंतित थे कि विकास का कुल्हाड़ी उनके जंगल काट रहा है, विकास की पताकानुमा उद्योग की ऊंची चिमनियां, संपन्नता के वाहन, मोटर-गाड़ियां आदि उनके शहरों का वातावरण खराब कर रही हैं, देवता सरीखे उद्योगों का निकल रहा चरणामृत वास्तव में ऐसा गंदा और जहरीला पानी है जिसने उनकी सुंदर नदियों, नीली झीलों को काला-पीला बना दिया। यह बहस हर साल 5 जून को चरम पर पहुंच जाती है, क्योंकि यह दिन पर्यावरण के समारोहों के समापन और शुरुआत दोनों का होता है।जो देश थोड़ा अपने आपको पिछड़ा मान रहे थे उन्होंने इस बहस में अपने को शामिल करते हुए कहा कि ठीक है
Anupam Mishra
इस नदी में जंग लगेगी
Posted on 09 May, 2011 01:56 PM

लेकिन यह नदी या कहें विशाल नद बहुत ही विचित्र है। इसके किनारे पर आप बैठकर इसे निहार नहीं सक

river
अब 2जी स्पेक्ट्रम की तरह बंटेगा पानी
Posted on 02 May, 2011 04:50 PM

अब पानी या तो सरकार के हाथ में है या धीरे-धीरे सरकार उसे अपनी पसंद की कंपनियों को 2जी स्पेक्ट्

water
स्वस्ति
Posted on 01 Apr, 2011 12:30 PM

दो अक्षर का छोटा-सा शीर्षक ‘पानी’ और कोई 30-32 पन्नों की छोटी-सी पुस्तिका। लेकिन यह अपने में पूरा संसार समेट लेती है। पानी की तरलता और सरलता की तरह ही पंकज शुक्ला इन 30-32 पन्नों में बिल्कुल सहज ढंग से हमें पानी की गहरी से गहरी बातों में उतारते जाते हैं, उसमें डुबोते नहीं, तैराते ले जाते हैं। इसमें पानी का ज्ञान है, पानी का विज्ञान भी है। वे हमें बताते हैं कि किस तरह पानी दो छोर जोड़ सकता है तो

water
विकास’ और हमारा पिछड़ापन
Posted on 15 Mar, 2011 01:47 PM

जैसलमेर जैसे रेगिस्तानी हिस्से में औसत वर्षा 16 सेन्टीमीटर है, लेकिन यहां के समाज ने प्रकृति से मिलने वाले इतने कम पानी को शिकायत की तरह नहीं लिया बल्कि सांई ने जितना दिया है उतने में अपना कुटुंब समाकर दिखाया है।

हमारे जीवन में, राजनीति में और समाज के कामों में भी एक नया शब्द इस दौर में आया है। हमने उसे बिना ज्यादा सोचे-समझे बहुत बड़ी जगह देने की एक गलती की है। हम सब साथियों को यह जानकर अचरज होगा कि यह शब्द और कोई नहीं बल्कि ‘विकास’ शब्द ही है।

आज के इस दौर से सौ साल पहले का साहित्य या पचास साल पहले का साहित्य विकास जैसे शब्दों का उपयोग नहीं करता था। कुछ राजनैतिक कारणों से हमने अपनी किसी लड़ाई में इस शब्द का किसी ढाल की तरह इस्तेमाल करना चाहा था और अब हम सब पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, राजनैतिक कार्यकर्ता, साहित्यकार, कवि आदि भी अपना काम बिना विकास या प्रगति जैसे शब्दों के चला नहीं पा रहे हैं।

इसकी गहराई में जाना चाहिये, ऐसा अनुरोध मैं पूरी विनम्रता के साथ करना चाहता हूं।
development
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