विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर चमोली स्थित उर्गम घाटी में विगत 24 वर्षों से चिपको नेत्री गौरा देवी के नाम पर पर्यावरण एवं प्रकृति-पर्यटन मेले का आयोजन किया जाता है। इस वर्ष यह मेला 25 वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। गौरतलब है कि विश्वप्रसिद्ध चिपको आन्दोलन की शुरुआत करने वाली गौरा देवी का जन्म 1925 में और निधन 4 जुलाई 1991 को हो गया था.
हिमालय एक भूकंप-प्रवण क्षेत्र है। यहां तक कि कम क्रम वाला भूकंप भी इस क्षेत्र के कई हिस्सों में भीषण आपदा को जन्म दे सकता है। भारत, नेपाल और भूटान में हिमालय की 273 जलविद्युत परियोजनाओं में से लगभग एक चौथाई में भूकंप और भूस्खलन से गंभीर क्षति होने की आशंका है। सड़क चौड़ीकरण और जल विद्युत परियोजनाओं के बेलगाम विकास से हिमालय के संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र को बचाना होगा। पर्यावरणीय नियमों का पालन न करने से बड़े पैमाने पर नुकसान हो सकता है, जिससे लाखों लोगों की जिंदगी पलक झपकते ही ख़तम हो सकती है।
विकास के नाम पर सरकार और सरकारी मशीनरी के संरक्षण में देश के पूंजीपति देश की पर्यावरण संपदा के लुटेरे बन गये हैं। तथाकथित विकास का यह विध्वंसक रथ जिधर भी जाता है, प्रकृति और पर्यावरण का विनाश करता जाता है। विकास के नाम पर विनाश का ताजातरीन उदाहरण उत्तराखंड का ऐतिहासिक नगर जोशीमठ, इसी विकास की चपेट में कराह रहा है। क्या किया जा सकता था और क्या किया जाना चाहिए, पढ़ें चिपको आंदोलन के संस्थापकों में से एक चंडी प्रसाद भट्ट का यह विशेष लेख
पर्यावरण मंत्री गोपाल राय ने केंद्र को कहा कि दिल्ली के प्रदूषण के लिए आंतरिक और बाहरी स्रोतों का अनुपात 31:69 है, जैसा कि सरकार को पत्र में बताया है। उन्होंने कहा है कि सर्दी के मौसम में वायु प्रदूषण का स्तर बहुत ऊंचा हो जाता है, जिसके लिए दिल्ली सरकार ने 15 बिंदुओं का विंटर एक्शन प्लान तैयार किया है।
यमुना के बाड़ क्षेत्र में दोमट नामक मिट्टी पाई जाती है। इस मिट्टी में रेत और चिकनी मिट्टी का अनुपात होता है। यह मिट्टी उपजाऊ होती है और इससे मूर्तिकारी और कुम्हारी का काम किया जाता है। परंतु, दिल्ली के प्रदूषण और बाड़ क्षेत्र पर अवैध कब्जे के कारण, इस मिट्टी का स्वरूप बिगड़ गया है।
अंग्रेजों ने गंगा के साथ वही सलूक किया, जो यहां के लोगों के साथ किया। गंगा के साथ सरकार का अंग्रेजों वाला ही रिश्ता आज भी है। आजाद होने के बाद गंगा को तो पता ही नहीं चला कि यह सब इतना चुपके चुपके कैसे और कब हो गया। गंगोत्री से हरिद्वार तक की यात्रा में गंगा बस गंगनानी के ऊपर ही दिखती है, इसके बाद गंगा का दर्शन तो बस झील दर्शन है। केदार नाथ और बद्रीनाथ के रास्तों पर भी बांधों के ही दर्शन होते हैं। गंगा का संकट जल के चरित्र का संकट है। आने वाले समय में यह जल संकट भयानक रूप लेने वाला है। इससे बचने का एक ही रास्ता है कि अगर नदी और लोगों के बीच से सरकार हट जाय, तो गंगा ही नहीं, देश की सारी नदियां वापस अपने रूप में आ सकती हैं और हमारा जल चक्र ठीक हो सकता है।
जल और जाति का गठजोड़ आज़ादी के 75 साल बाद भी अनसुलझा है और यह सरकार की नीतियों की एक महत्वपूर्ण खामी है। सरकार को दलितों तक पानी की सुरक्षित पहुंच बनाने के लिए अलग प्रावधानों की पेशकश करनी चाहिए। इन प्रावधानों के बिना कोई भी नीति दलितों से अछूती ही रहेगी।
मैं दरिद्र हूं, दु:खी हूं, मेरे पास जो चीज है, वह काफी नहीं हैं, पर ऐसे भी लोग हैं, जो मुझसे भी दरिद्र हैं, दु:खी हैं। इनकी तरफ ध्यान देने से हमारा जीवन उन्नत बनता है। यही भूदान यज्ञ का रहस्य है।
भारत-चीन सीमा के निकट देश का अंतिम शहर जोशीमठ तबाही के कगार पर है। कुछ समय से जोशीमठ के अलकनन्दा नदी की ओर फिसलने की गति अचानक तेज हो गयी है। अभी भी सरकारों की प्राथमिकता जोशीमठ को बचाने की नहीं, बल्कि कॉमन सिविल कोड और धर्मान्तरण कानून बनाने की दिखाई पड़ती है।
राजेन्द्र सिंह, जिन्हें जलपुरुष और पानी बाबा के रूप में सम्मानित किया जाता है, 1 जनवरी को बनारस में पहुंचे। उनका उद्देश्य था कि वे काशी विश्वनाथ कॉरीडोर के नाम पर हो रही राजनीतिक हंगामे की सच्चाई को सामने लाएं और गंगा के किनारे हो रहे विकास कार्यों का मूल्यांकन करें। बनारस को सुंदरता से सजाने के लिए सोशल मीडिया पर प्रसारित किए गए फोटो और वीडियो से लोगों को मुग्ध करने का प्रयत्न हुआ है। लोग समझते हैं कि बनारस में समृद्धि का संकेत है, और गंगा में प्रकृति से मेल है। परंतु, हमने मणिकर्णिका और ललिता घाट पर पहुंचकर, समस्या की हकीकत से मुकाबला किया। नए-नए खिड़किया घाट की प्रतीक्षा में हम पहुंचे, पर हमें मिला तो सिर्फ निराशा ही निराशा। राजेन्द्र सिंह क्रोध से लाल-पीले हो कर कहते हैं, कि गंगा को जान-बूझकर मारा जा रहा है।
हिमालय में भूकंप और भूस्खलन का खतरा हमेशा बना रहता है। इन प्राकृतिक आपदाओं से हिमालय के जलविद्युत परियोजनाओं को नुकसान पहुंच सकता है। हिमालय में 273 जलविद्युत परियोजनाओं में से 67 परियोजनाओं को भूकंप के प्रभाव से बचाने की जरूरत है। हिमालय की समृद्ध प्रकृति को सुरक्षित रखने के लिए, सड़कों का विस्तार और जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण सतर्कता से किया जाना चाहिए। पर्यावरणीय नियमों का पालन करने से हम हिमालय की सुंदरता को बरकरार रख सकते हैं
एक मूल्यांकन के अनुसार बुजुर्गों को भोजन छोड़ना पड़ रहा है, आधे से अधिक बुजुर्ग प्रतिदिन केवल एक समय भोजन खा रहे हैं और 82 प्रतिशत प्रति सप्ताह कम से कम एक रात भूखे सो रहे हैं। 2 में से केवल 1 बुजुर्ग के पास पीने का सुरक्षित पानी है।
बोतलबंद पानी का सेवन स्वास्थ्य के लिए उतना ही खतरनाक है, जितना कि नल का पानी, क्योंकि बोतलबंद पानी में भी अनेक प्रकार के जीवाणु मौजूद होते हैं, जो सेण्टर फॉर एनवायरमेन्ट और विश्व के कई देशों में की गई शोध-प्रक्रिया से पता चलता है। भारत में बोतलबंद पानी के मार्केट में तेजी से वृद्धि होने से, पानी के संसाधनों पर कॉरपोरेट का हस्तक्षेप भी बढ़ता जा रहा है, जिससे पानी की समस्या और भी गहराई में पहुंच सकती है। इसलिए, हमें बोतलबंद पानी का सेवन कम से कम करना चाहिए, और साथ ही पानी के संरक्षण में सहयोग करना चाहिए।
जलग्रहण क्षेत्र से तालाब में पानी के प्रवाह पर असर पड़ने की संभावना है और इसके क्षेत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि नगर निगम, झांसी के आयुक्त को लक्ष्मी ताल के बफर जोन के आसपास एलिवेटेड बाउंड्री वॉल और एक मार्ग बनाने के साथ तालाब पर इसके प्रतिकूल प्रभाव या इससे संभावित लाभ के बारे में फिर से रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए कहा गया है
अपनी एक रिपोर्ट में नीति आयोग के द्वारा कहा गया है कि वर्ष 2030 तक देश के 40% लोगों की पहुंच पीने के पानी तक नहीं होगी. पिछले 10 सालों में देश की करीब 30 फीसदी नदियां सूख चुकी हैं। वहीं पिछले 70 सालों में 30 लाख में से 20 लाख तालाब, कुएं, पोखर, झील आदि पूरी तरह खत्म हो चुके हैं। ग्राउंड वाटर (भूजल) की स्थिति भी बेहद खराब है। देश के कई राज्यों में पर तो ग्राउंड वाटर का लेवल करीब 40 मीटर तक नीचे जा चुका है।वही भारत का दक्षिण का राज्य चेन्नई में धरती के 2000 फीट नीचे भी पानी नहीं मिला है।
लीथियम खनन के कारण अर्जेंटीना के अपने क्षेत्र का पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ रहा है, इसका विरोध हाइड्रोलॉजिस्ट और संरक्षणवादी कर रहे हैं। उच्च एंडीज में रहने वाले मूल निवासियों का कहना है कि लीथियम बैटरी से चलने वाली हरित क्रांति के लिए उनका पानी, जो उनके परिवार, पशुपालन, और चरागाहों के लिए महत्वपूर्ण है, समाप्त होता जा रहा है
यह एक संस्कृति की परिवर्तन की कथा है। हम वरुणा, नदी के देवता, के घावों को ठीक करने का प्रयास करते हैं, पर हमारा परिश्रम उस पार के मलबे में और पॉलीथीनों के ढलानों में, जो वरुणा-जल को गंदा करते हैं, डूब जाता है। आज वह अपनी वेदना पर सिसक रही है, पर उसके पास रोने का पानी भी नहीं है। उसके किनारों से विकास का शोर सुनाई पड़ता है। बीच में आते हैं किला कोहना के जंगल। जब वह राजघाट की इन सुनसान घाटियों में पहुंचती है, तो कारखानों के ज़हर से मिलकर, वरुणा फ़ेन-फ़ेन होकर समुद्र में मिलती है। अपना बचा-खुचा मन और संवरा चुके पानी की एक क्षीण-सी नाली, गंगा को सौंप कर वरुणा अपना मुंह जंगलों की ओर फेरकर लजाती है, तो संगम की चटखदार दुपहरिया भी काली पड़ जाती है।
गंगा का निर्मलता, अधिकार और अविरलता तीनों ही महत्वपूर्ण हैं। विकास के नाम पर गंगा के प्रवाह को रोकने वाले 900 से ज्यादा बांध और बैराज गंगा की जीवन-शक्ति को कम करते हैं। गंगा को स्वस्थ और सुरक्षित रखने के लिए, हमें प्रवाह में सुधार करने की आवश्यकता है