वर्तमान में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 तथा निशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 के द्वारा यह स्पष्ट है कि समस्त शिक्षण क्रियाओं में 'विद्यार्थी' केंद्र में है। हमारी सिखाने की प्रक्रिया इस प्रकार हो कि विद्यार्थी स्वयं अपने अनुभवों के आधार पर समझ कर ज्ञान का निर्माण करे।
कहा यह जा रहा है कि विद्यार्थी शिक्षण प्रक्रिया के केंद्र में होना चाहिए और वह स्वयं ज्ञान का निर्माण करे। इसका अर्थ क्या होता है? क्या इसका अर्थ यह लगाया जाए कि विद्यार्थियों को पाठ्यपुस्तकों में दिए गए पाठों को अध्यापक के निर्देशन, मार्गदर्शन में पढ़ना है और उसी ज्ञान का निर्माण करना है जो हर पाठ के अंत में 'हमने क्या सीखा' या 'आपने क्या सीखा' शीर्षक के अंतर्गत बताया गया है? विद्यार्थी ज्ञान का निर्माण करेंगे या नहीं करेंगे और क्या निर्माणवादी शिक्षण विधि उपयुक्त है या नहीं, यह विवाद का विषय है। किंतु प्राक्कथन में निर्माणवाद की दुहाई देने और फिर 'खाली घड़ा' प्रणाली को शिद्दत से आगे बढ़ाने के बीच तो स्पष्ट अंतर्विरोध है ।
मैंने राजस्थान की पर्यावरण अध्ययन की सारी पाठ्यपुस्तकें सरसरी तौर पर ही देखी हैं, मगर मैंने पाया कि हरेक में पाठ के अंत में बिंदुवार बता दिया गया है कि विद्यार्थी को क्या सीखना है। कक्षा 4 की 'अपना परिवेश' मैंने थोड़े ध्यान से देखी । तो चलिए इसके पाठों पर एक नजर डालते हैं। वैसे किसी एक पुस्तक पर अलग से नजर डालना इन पुस्तकों के साथ थोड़ा अन्याय है क्योंकि पुस्तक के शुरू में 'शिक्षकों के लिए' शीर्षक के तहत कहा गया है कि “यदि कक्षा 3 में पर्यावरणीय घटक हमारा परिवेश एवं संस्कृति से संबंधित सामग्री पहले ली है तो उसी को क्रमबद्धता के साथ कक्षा 4 व 5 में उसे संवर्धित किया गया है।" बहरहाल, मैं अपनी मेहनत को नहीं बढ़ाऊंगा और कक्षा 4 की किताब को ही आधार बनाऊंगा।
इस पुस्तक का पहला पाठ है 'बचपन की यादें' पढ़ने पर पहली बात यह समझ में आती है कि मांएं अचार बनाती हैं और अचार बनाना अपनी बेटियों को सिखाती हैं। इसके बाद सीखना है कि विभिन्न रिश्तों के नाम क्या हैं। यह भी सीखना है कि जमाई को मनुहार करके मिठाई खिलाई जाती है और उन्हें 'जमाई सा' कहते हैं। इसमें 'हमने सीखा में एक बिंदु है कि ननिहाल के रिश्तों नानाजी, नानीजी, मामाजी आदि को समझा। मुझे समझ नहीं आया कि इसमें समझने को क्या था, रिश्तों के नाम ही तो पढ़ने थे । ध्यान देने की बात यह भी है कि चौथी कक्षा का बच्चा करीब 9-10 साल का होता है। उसे रिश्तों के नाम सिखाना थोड़ा बचकाना सा लगता है। ये नाम तो वह घर पर सीख ही लेगा तो स्कूल की पाठ्यचर्या में इसके लिए एक पूरे पाठ की क्या जरूरत है?
'कैसे जानूं मैं' नाम का अध्याय रोचक होने के साथ-साथ गड्डमड्ड भी है। एक दृष्टि बाधित व्यक्ति के माध्यम से शेष इन्द्रियों के कार्यों को उजागर करना अच्छा आइडिया है। मगर एक बार फिर यही कहना होगा कि इसमें प्रस्तुत 'ज्ञान' बहुत trivial (मामूली) है। यह बताना क्या बहुत महत्वपूर्ण नया ज्ञान माना जाएगा कि दृष्टि बाधित व्यक्ति सुनकर, सूंघकर अपने आसपास के बारे में जानकारी हासिल करते हैं। और पूरे विवरण से ऐसा लग हैं कि मात्र 'विशेष योग्यजन' ही ऐसा करते हैं। और पूरे मामले को चंद नसीहतों से जोड़ना ही पाठ का उद्देश्य बन जाता है। ये उद्देश्य भी इतने व्यापक हो जाते हैं कि फोकस पूरी तरह गुम हो जाता है। जैसे सिर्फ इन्द्रियों की बात करते हुए हमें सीखना है कि इन्द्रियों की साफ-सफाई कैसे करें, कैसे न करें, क्यों करें, साबुन से हाथ धोएं, यदि किसी का स्पर्श अच्छा न लगे तो क्या करें, विशेष योग्यजनों की मदद करें वगैरह। साबुन से हाथ धोना तो एक लक्ष्य है जो इन पुस्तकों में सर्वत्र पैर पसारे है। यह लक्ष्य अच्छा है मगर हर दूसरी पंक्ति में इसे दोहराने से लगता है कि अपने परिवेश को जानने का सबसे बड़ा हिस्सा अपने हाथ और साबुन हैं।
जहां एक ओर निर्माणवादी (Constructivist ) शिक्षण की बातें कही जा रही हों, वहां इस तरह की उपदेशात्मक नसीहतें और व्यवहारगत परिणामों की उम्मीद निराश करती है। और यह सिर्फ एक पाठ या एक कक्षा की बात नहीं है सारी - किताबों के सारे पाठ इस तरह के उपदेश बिखेरते चलते हैं।
खेल का पाठ
यह पाठ तो अति कर देता है। विद्यार्थियों को खेलने का मौका न देकर यह उन्हें खेल प्रबंधक या अंपायर रेफरी बनाना चाहता है। उन्हें खो-खो, कबड्डी के नियम बताए जाते हैं, पूर्व तैयारी के बारे में बताया जाता है मगर एक बार भी यह नहीं कहा जाता कि चलो खेलें। बहुत वर्ष पहले किसी ने मुझसे कहा था कि यदि पतंग उड़ाने को पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया जाए, निश्चित रूप से बच्चे पतंग उड़ाना बंद कर देंगे। मैंने और आपने शायद ही कभी कोई खेल यह सोचकर खेला हो कि ऐसा करके हम स्वस्थ रहेंगे, हममें सहयोग की भावना पैदा होगी, हम मिल-जुलकर काम करना सीखेंगे मगर हमारे 'अध्यापन व्यवसाय' ने मान लिया है कि विद्यार्थियों को पता होना चाहिए कि खेल खेलना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है। मेरे ख्याल में यह खेलकूद के खिलाफ एक साजिश है।
यही हाल भोजन का भी है। सामूहिक भोज की बात की गई है। मगर यह बताने का अवसर बिलकुल भी नहीं गंवाया गया है कि इनका जीवन में क्या महत्व है। "ये नई पीढ़ी को हमारी संस्कृति से परिचित करवाते हैं। लोगों में मिलकर काम करने की भावना का विकास करते हैं। सामाजिक सद्भावना उत्पन्न होती है और साथ में खाने-पीने का आनंद और मनोरंजन भी होता है।" हालांकि यह सही है कि कुछ ऐसे सवाल पूछे गए हैं, जिनके आधार पर काफी कुछ उभर सकता है मगर पूरी किताब के मिजाज को देखते हुए लगता नहीं कि उन सवालों के जवाब से कोई नई बात उभरने वाली है। जैसे यह सवाल काफी संभावनाओं से भरा है कि "इस तरह के सामूहिक भोज में खर्चा कौन करता है?" मगर इसका अपेक्षित उत्तर तो यही लगता है कि सब मिल-जुलकर खर्च करते हैं। सामूहिक भोज के साथ जुड़े शक्ति संबंधों को सिर उठाने की इजाजत शायद ही मिले। और फिर अचानक हम "अच्छा खाना और खराब खाना " संबंधी नसीहतों में उलझ जाते हैं। इस तरह से इस पाठ का उद्देश्य बिखर जाता है।
ये पाठ संभवतः एकीकृत विषयवस्तु के नजरिए के आधार पर तैयार किए गए हैं। मगर एकीकरण करते हुए सुसंगति तारतम्य का ख्याल तो रखना ही होता है। विषयों की सीमाओं से परे जाना भी उपयुक्त बात है। यह भी सही है कि पाठ्यक्रम का उद्देश्य (सिर्फ प्राथमिक स्तर पर ही नहीं बल्कि उच्चतर शिक्षा के स्तर पर भी छात्रों के मन में ज्ञान के विस्तृत ताने-बाने को विकसित करना होना चाहिए। कोशिश यह होनी चाहिए कि विद्यार्थी ज्ञान को अलग-अलग टुकड़ों में बांटकर देखने की बजाय उनके बीच के परस्पर संबंधों को समझते हुए आगे बढ़ें। इसे हम ज्ञान की पारिस्थितिकी या इकॉलॉजी कहते हैं। मगर इसका मतलब यह नहीं होता कि हर बार हाथ का नाम किसी भी संदर्भ में आने पर हाथों को साबुन से धोने का महत्व बताकर ही दम लिया जाए। यह कई बार असंगत होता है।
फूल वाला पाठ एक उल्लेखनीय अपवाद है इसमें एक बार भी विद्यार्थियों को फूल न तोड़ने की नसीहत नहीं दी - गई हैं। लेकिन गलत जानकारियों, अधूरी जानकारियों की भरमार है और यदि बात पर्यावरण को समझने की हो रही है तो सुनी-सुनाई बातों पर मन में बसी पूर्व धारणाओं के आधार पर जानकारी देने से बचना जरूरी होता है। उदाहरण के लिए सूरजमुखी के बारे में यह एक आम सोच है कि उसका मुंह सूरज के साथ-साथ मुड़ता रहता है। यदि किसी ने सूरजमुखी के खेत देखें हैं, तो उसे पता होगा कि ऐसा कुछ नहीं है। मगर यह पाठ्य पुस्तक इस गलतफहमी की पुष्टि अत्यंत सहज भाव से करती है।
दूसरी ज्यादा बड़ी गलतफहमी कीटों और फूलों को लेकर है। अध्याय में एक जगह पूछा गया है कि “यदि फूल न होते तो कीट पतंगों के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है ऐसा अधूरा सवाल पूछकर कीटों और फूलों के संबंध को एकतरफा बना दिया गया है। पूरा सवाल एक अत्यंत महत्वपूर्ण पारिस्थितिक सम्बंध को उजागर कर सकता था। दरअसल, यह समस्या पर्यावरण को लेकर एक ज्यादा बड़ी समस्या से संबंधित है। पर्यावरणीय विमर्श में सदैव यह प्रस्तुत होता आया है कि पेड़ पौधे वनस्पति पर्यावरण के बेहतर हिस्से हैं और जंतु इन पौधों पर आश्रित हैं और पर्यावरण को बिगाड़ते रहते हैं। इन बिगाड़ करने वालों में मनुष्य का स्थान सर्वोपरि बताया जाता है। पर्यावरण की हर बातचीत आजकल या तो पेड़ लगाने पर या प्लास्टिक का उपयोग न करने पर संपन्न होती है। पर्यावरण अध्ययन का मकसद मात्र इतने पर समाप्त हो जाए, तो इसका शिक्षा की दृष्टि से कोई खास महत्व नहीं रह जाता क्योंकि ये बातें तो नारों में हर नुक्कड़ पर लिख दी गई हैं।
पर्यावरण की बातें करते समय (खास तौर से प्रारंभिक कक्षाओं में) कई बातों का ध्यान रखना जरूरी है। इसके साथ ही बच्चों की पूर्व धारणाओं का ख्याल रखना भी जरूरी है। पेड़-पौधे वाले अध्याय में तने का परिचय देते हुए कहा गया है कि "भूमि के बाहर पेड़-पौधों का मुख्य भाग तना होता है।" फिर पर्यावरण को दैनिक जीवन से जोड़ने की बात याद आई तो लगा कि कुछ ऐसे तनों के बारे में बताते चलें जिन्हें खाया जाता है। ऐसे तीन तनों के चित्र दिए गए हैं - गन्ना, आलू और अदरक गौरतलब है कि आलू और अदरक भूमिगत तने हैं ।
कान खोले राज में कविता तो अच्छी है मगर वह इसलिए नहीं है कि विद्यार्थी कविता का आनंद उठा सकें बल्कि इसलिए है कि उन्हें यह पता चल जाए कि सबसे बड़े कान किस जीव के होते हैं। उसके बाद अनावश्यक रूप से एक महात्मा का प्रवेश होता है जो कुछ रहस्यमय तरीके से ज्ञान बांटते हैं। यहां महात्मा का पात्र न सिर्फ अनावश्यक है बल्कि थोड़ा भ्रमित करने वाला भी है क्योंकि यदि सूर्यास्त में थोड़ा समय और होता तो महात्मा निश्चित रूप से स्वेदज जीवों की बात करते। प्रकृति के बारे में जानकारी तो प्रत्यक्ष है, उसके लिए किसी विचार-विमर्श या साधना की नहीं बल्कि प्रत्यक्ष अवलोकन की जरूरत है और इस बात को उभारा जाना चाहिए। चूंकि बात महात्मा के मुंह से कहलवाई गई है, लेखकों को जरूरी लगा कि ये बात को सही रखने के लिए 'अपवादों को छोड़कर' शब्द का पुछल्ला जोड़ दें और शिक्षकों को बताया गया है कि पक्षियों के शरीर पर फर पाए जाते हैं जो बाल नहीं हैं। जहां तक मुझे पता है फर बालों से ही बना होता है। और यह जोड़ देना जरूरी है कि पक्षियों के शरीर पर फर नहीं पाए जाते।
दो-तीन जीवनियां दी गई हैं चरक, सुश्रुत, वीर सावरकर और सरदार वल्लभ भाई पटेल। इनका चयन जिस भी आधार पर किया गया हो मगर ये इनके बारे में प्रचलित दंतकथाओं से आगे नहीं गई हैं। जैसे यह तक नहीं बताया गया है कि इनमें से प्रत्येक व्यक्ति किस काल का है।
चरक के बार में कहा गया है कि "हमारा देश बहुत प्राचीन है। हमारे यहां बहुत से चिकित्सक व वैज्ञानिक हुए हैं।" सुश्रुत का परिचय यह कहकर शुरू होता है कि "हमारे देश में प्राचीन काल से शल्य क्रिया विकसित थी।" और किताब यह बताने से नहीं चूकती कि सुश्रुत ने "प्लास्टिक सर्जरी का उल्लेख सैकड़ों वर्ष पूर्व कर दिया था।" इसे क्या मानें यह तो एक ऐसा वक्तव्य है जो किसी राजनीतिज्ञ को ही शोभा देता है। पाठ्यपुस्तकें क्यों हमें ऐसे राजनैतिक वक्तव्य पढ़ाना चाहती हैं?
यह जो प्राचीनता है इसका कोई तो पैमाना होगा। हर बार जब हम भारत की प्राचीनता' की बात करें, 'अपने पूर्वजों' की बात करें तो ऐसा लगता है कि एक युग था जिसे प्राचीन कहते हैं। जरा-सा भी आभास नहीं दिया जाता कि यह प्राचीन युग कई खंडों में बंटा था जिनमें से कुछ तो काफी हाल ही के हैं। प्राचीनता के साथ एक और समस्या है जिस पर ध्यान देने की जरूरत है। एक विशेष ऐतिहासिक विमर्श में प्राचीन काल एक अलग-थलग टुकड़े के रूप में प्रस्तुत किया जाता है जिसका आगा-पीछा कुछ नहीं है। जैसे प्लास्टिक सर्जरी को ही लें। निसंदेह सुश्रुत ने किसी प्रकार की प्लास्टिक सर्जरी का उल्लेख किया था और यह भी माना जा सकता है कि उन्होंने इस तरह की रीजनरेटिव शल्य क्रिया के कुछ प्रयोग उपयोग भी किए होंगे। मगर इस तरह से बात को प्रस्तुत कर देना कि उन्होंने ऐसा 'सैकड़ों वर्ष पहले ही कर दिया था' के दो निहितार्थ हो सकते हैं। पहला यह कि उसके बाद इस विषय में हम कहीं आगे नहीं बढ़े हैं- यह बात सुश्रुत को इतिहास में उनके उचित स्थान व योगदान से वंचित करती है। इसका दूसरा निहितार्थ यह हो सकता है कि हमारे देश में वह सारा ज्ञान सदियों पहले मौजूद था जिसे अब दुनिया भर के वैज्ञानिक खोजने का दावा कर रहे हैं। यह बात एकदम निराधार है और मात्र मुगालता- आत्ममोह वगैरह पैदा कर सकती है। सुश्रुत संभवतः ईसा पूर्व तीसरी से चौथी सदी में हुए थे। तो क्या हमें यह मानना होगा कि हम (यानी भारत और पूरी दुनिया) तीसरी सदी में अटके हुए हैं?
एक जीवनी रानी दुर्गावती की है। हमें बताया नहीं गया है कि वे किस काल में हुई थीं। मगर उनके जीवन की एकमात्र घटना यह है कि वे उन्होंने अकबर के मुगल सैनिकों को गाजर-मूली की तरह काटा था और अंत में आत्महत्या कर ली थी। मतलब वे अकबर के समकालीन थीं और गढ़ा राज्य की शासक थीं।
- वीर सावरकर की जीवनी गलत जानकारियों से सराबोर है। ऐसा लगेगा कि वे अकेले "ब्रिटिश साम्राज्य की बेड़ियों में जकड़ी भारतमाता की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते रहे।"
- अजेंडा जो भी हो, उसे अंजाम देने का काम गंभीरता से किया जाना चाहिए।
- इसी प्रकार से सरदार बल्लभ भाई पटेल की जीवनी की शुरुआत इस विचित्र कथन से होती है: "भारत की स्वतंत्रता के समय अंग्रेजों ने 562 देसी रियासतों को यह अधिकार दिया था वे चाहें तो स्वतंत्र रहें, चाहें तो भारत के साथ मिलें, चाहें तो पाकिस्तान के साथ मिलें।" सरदार के योगदान को मात्र रियासतों के विलीनीकरण तक सीमित करके हम क्या हासिल करना चाहते हैं?
नसीहतों ने कबाड़ा किया
वैसे पर्यावरण अध्ययन के पार्टी को ठीक से करवाया जाए, तो बच्चों को काफी कुछ पता करना और सोचना पड़ेगा। इसलिए यह पता लगाना आवश्यक होगा कि स्कूलों में इस किताब का अध्यापन किस तरह से किया जाता है। क्या शिक्षक उन सारे सवालों पर खुली चर्चा करते हैं जो अध्यायों में बीच-बीच में दिए गए हैं या उन्हें सिर्फ पढ़कर काम चला लिया जाता है।
इस पुस्तक के अध्यायों की एक और उल्लेखनीय विशेषता है अध्याय के अंत में यह अध्याय के खंडों के बाद दिए गए सवालों के जवाब पाठ की इबारत में मिल जाएंगे यह जरूरी नहीं है। आम तौर पर पाठ्यपुस्तकों में यह प्रवृत्ति रहती है कि अध्यापन के अंत में छात्रों से उतना ही पूछा जाए, जो उन्हें सीधे-सीधे पाठ में मिल जाए। इन पुस्तकों में ऐसा न होना काफी आश्चर्यजनक और सुखद है। इसलिए और भी वह जानने की इच्छा है कि इन पुस्तकों के अध्यापन को लेकर शिक्षकों की क्या व कैसी तैयारी करवाई गई है और शिक्षक इन्हें किस तरह पढ़ाते हैं।
किंतु पर्यावरण अध्ययन के माध्यम से नसीहतें देने के लोभ से ये किताबें बच नहीं पाई हैं। वास्तव में पर्यावरण का अधिकांश विमर्श (शिक्षा के क्षेत्र में या अन्यथा) ले देकर कुछ उपदेशों पर समाप्त होता है। इन नसीहतों /उपदेशों को प्रायः संदेश कहा जाता है। इस पुस्तक में तो हर अध्याय के अंत में विशेष साज-सज्जा के साथ ऐसे उपदेश नारों की तुकबंदी के रूप में लिख दिए गए हैं।
पर्यावरण विमर्श की एक और समस्या रही है (हालांकि कुछ लोगों ने जरूर इसे तोड़ने की कोशिश की है) कि मनुष्यों को एक सर्व समावेशी 'हम' कहकर संबोधित किया जाए। जैसे हमें आसपास पेड़-पौधे लगाकर उनकी देखभाल करनी चाहिए या हमें जानवरों को परेशान नहीं करना चाहिए और उनकी मदद करनी चाहिए या हमें पानी व्यर्थ नहीं बहाना चाहिए या हमें जल स्रोतों को साफ रखना चाहिए वगैरह। इन सब कथनों में जो 'हम' है उसे इस तरह प्रस्तुत किया जाता है जैसे वह कोई एकरूप इकाई है। कुछ हद तक तो ठीक है मगर जल्दी ही 'हम' की एकरूपता टूटने लगती है। इस हम में अलग-अलग हित और स्वार्थ उभरने लगते हैं। सारे पर्यावरण आंदोलन इन्हीं विविध (और प्रायः परस्पर विरोधी) हितों के टकराव के परिणाम हैं। यह सोचने वाली बात है कि बच्चों के सामने कब तक इस खंडित यथार्थ को उजागर नहीं किया जाएगा। हो सकता है कि कक्षा 4 इसके लिए उपयुक्त स्तर न हो, मगर पर्यावरण सम्बंधी संपूर्ण आख्यान में यह दिक्कत झलकती है।
हमें यह बात तब थोड़ी आसानी से समझ में आती है जब देशों के बीच टकराव होते हैं। जैसे ग्लोबल वार्मिंग को लेकर विकसित और विकासशील देशों के बीच के टकराव यह देखा जा सकता है कि काफी समय तक विकसित देश इस बात पर अड़े रहे कि यह सब मानवीय क्रियाकलापों की वजह से हो रहा है और 'हम' इसके लिए जवाबदेह हैं। वह तो विकासशील देशों के चंद पर्यावरणविदों के काम का नतीजा है कि इस 'हम' की एकरूपता को तोड़ा गया और अलग-अलग देशों का अलग-अलग अर्थ व्यवस्थाओं का योगदान चिन्हित किया गया। मगर आज भी विकासशील देश अपने आपको एक शिलाखंड बताकर इन बहसों में हिस्सा ले रहे हैं जबकि इन देशों में अंदरूनी तौर भी जिम्मेदारियों के विभाजन की जरूरत है। किसी न किसी स्तर पर यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि समाज में अलग-अलग वर्ग, अलग-अलग क्षेत्र, अलग-अलग समुदाय पानी की बरबादी अलग-अलग स्तर पर करते हैं। 'हम' सब इसमें बराबर के भागीदार नहीं हैं। पर्यावरण अध्ययन को 'हम' आधारित इस सोच से उभारना होगा।
पर्यावरण अध्ययन की कक्षा 4 की पुस्तक में एक और विशेषता है कई स्थानों पर बात को सिर्फ समझने की कोशिश की गई है, उसे किसी व्यवहारगत परिणाम से जोड़कर देखने की कोशिश नहीं हुई है। ऐसा प्रयास पुस्तक में बहुत कम स्थानों पर देखने को मिलता है मगर जितना भी है स्वागत योग्य है। पर्यावरण के विभिन्न घटकों और उनके अंतरसंबंधों के बारे में समझ विकसित करना ही पर्यावरण के अध्ययन का उद्देश्य होना चाहिए इसके आधार पर विभिन्न लोग क्या व्यावहारिक निर्णय लेते हैं, यह उन पर छोड़ देना उचित होगा। जाहिर है, वे ऐसे निर्णय समाज में अपने स्थान, अपनी आजीविका के साधनों वगैरह के मद्देनजर लगे। ये निर्णय कई मर्तबा परस्पर सहयोगी होंगे तो कई मर्तबा परस्पर विरोधी भी होंगे। ऐसा भी हो सकता है कि ऐसे निर्णय प्रकृति के हित में न हों या इंसानों के तात्कालिक हित में हों मगर दीर्घकालिक हितों के साथ समझौता करते हों। ऐसे मुद्दों को भी पर्यावरण अध्ययन का हिस्सा बनाया जाना चाहिए।
लेखक परिचय : एकलव्य संस्था के साथ लम्बे समय से जुड़े हुए हैं। विज्ञान शिक्षण के प्रति प्रतिबद्धता उनके लेखन एवं शिक्षणशास्त्रीय पद्धतियों में दिखाई देती है। होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के साथ जुड़कर भी विज्ञान शिक्षण के क्षेत्र में काफी काम किया है। इस कार्यक्रम में किए गए काम को संदर्भ पुस्तिका 'मिडिल स्कूल रसायन' एवं शिक्षण अनुभवों को 'जश्ने तालीम' किताब में प्रकाशित कर सबके साथ साझा किया है।
स्रोत -शिक्षा विमर्श जनवरी-फरवरी, 2017
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