मरुदम में प्रकृति से सीखना :  एक शिक्षक का अनुभव 

मरुदम में प्रकृति से सीखना
मरुदम में प्रकृति से सीखना

मरुदम, द फॉरेस्ट वे ट्रस्ट द्वारा संचालित एक स्कूल है जो तमिलनाडु में तिरुवन्नामलई की सीमा पर स्थि एक गाँव कान्यामपोन्दी में स्थित है। फॉरेस्ट वे ने करीब 16 साल पहले तिरुवन्नामलई की उजाड़ धरती वनरोपण के लिए काम करना शुरू किया और जैसे-जैसे इस काम में शामिल लोगों का समुदाय बढ़ता  गया  वैसे ही यह इरादा भी जोर पकड़ता गया कि यहाँ पर एक शैक्षिक संस्थान शुरू किया जाए। शिक्षा के लिए  ऐसी जगह की संकल्पना थी जहाँ हमारे बच्चे एक अलग, अधिक सार्थक शिक्षा प्राप्त कर सकें। मरु की शुरुआत करने वाले लोगों का समूह काफी विविधतापूर्ण था जिनके पास भारत में और दुनिया भर शिक्षा पर हो रहे काम का विविध अनुभव था। समूह इस बात पर सहमत था कि हमारे अधिकांश बच्चे जिस मौजूदा स्कूल प्रणाली का हिस्सा हैं, वह शिक्षा-व्यवस्था उन्हें प्रकृति से, और कई मायनों में खुद दूर कर देती है। से

हम शिक्षा की किसी एक विशेष रूपरेखा का पालन नहीं करते हैं- हम 'वाल्डोर्फ स्कूल नहीं हैं, और न 'मोंटेसरी' स्कूल हैं- इसकी बजाय हम वही तरीके और दृष्टिकोण अपनाते हैं और चुनते हैं जो हमें बेह लगते हैं, और इनका फैसला करते समय हमेशा दो चीजें केंद्र में रहती हैं- बच्चों की भलाई और पृथ्वी पर रहने वाले मानव के रूप में हमारी भूमिका इसलिए, जब हमें गाँव में खेतों के बीच स्कूल के लिए एक उपयुक्त स्थान मिला, तो हमारे लिए यह बिलकुल स्वाभाविक था कि हमारे स्कूल और खेत एक-दूसरे के साथ सामंजस्यमें रहकर काम करें। यह स्वाभाविक था कि खेत में काम करने के लिए हम जैविक दृष्टिकोण अपनाएंगे अ भूमि का दोहन करने की बजाय ज़मीन के साथ जुड़ाव बनाकर काम करने की कोशिश की जाएगी। हम स जिस तरह स्कूल परिसर की साफ-सफाई और रखरखाव के कामों में भाग लेते हैं, उसी तरह खेत में काम करना भी हमारे और बच्चों के दिन का अहम हिस्सा होगा। किसी जगह की देखभाल करना सीखना और  उस जगह में विकसित होना दोनों साथ-साथ चलते हैं।

प्रकृति पर मानव के अभूतपूर्व प्रभाव वाले इस समय में, हम जानते हैं कि मानव व्यवहार को बदलने की आवश्यकता है। इस बदलाव का एक अनिवार्य हिस्सा हमारे बच्चों के लिए यह समझना है कि हम प्रकृति से अलग नहीं बल्कि उसका हिस्सा हैं, साथ ही जिस दुनिया में हम रहते हैं उसमें अपना सार्थक योगदान किस तरह से दे सकते हैं। हमें स्वयं इस बात पर विश्वास है, और कार्य के दौरान भी हमें इसका प्रमाण मिला कि बच्चे अपने आस-पास के परिवेश के साथ खुद को जोड़कर ही सबसे अच्छे तरीके से सीख पाते हैं। इसलिए बागवानी और खेती उस व्यापक उद्देश्य (प्रकृति के साथ जुड़ाव और उसके साथ सामंजस्य में रहने) को समझने के तरीके हैं- छात्रों के प्रत्येक समूह के पास बगीचे का अपना एक टुकड़ा होता है जिस पर वे काम करते हैं। फसल रोपाई करने और फसल काटने के समय बच्चे अपनी ज़रूरत और रुचि के अनुसार वयस्कों के साथ मिलकर खेतों में काम करते हैं।

हम जितना संभव हो उतना अधिक समय जंगल में भी बिताते हैं- हमारे लिए हर हफ्ते का एक दिन अपने पास की पहाड़ी पर चढ़ने, जंगल में भ्रमण करने, कभी घूमने, कभी पक्षी देखने, कभी पेड़ों के बारे में सीखने या कभी-कभी सिर्फ उस जगह पर होने और अवलोकन करने के लिए समर्पित होता है। आवश्यकता पड़ने पर उस स्थान में रहने वाले बच्चे और वयस्क भी वनरोपण के लिए काम कर रहे समूह के साथ काम करते हैं या अगर बच्चों की अधिक रुचि होती है तो वे खासकर मानसून आने से पहले गड्ढे तैयार करने और पेड़ लगाने के साथ-साथ बीज संग्रहण (जो सीखने का एक जबरदस्त अनुभव होता है), खरपतवार को हटाने, पानी देने जैसे सभी कामों में भागीदारी करते हैं। इस सब के साथ-साथ हम अपने परिवेश के तात्कालिक अनुभव से इतर, बाहर की दुनिया के बारे में और अधिक जानने के लिए विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों और जैव क्षेत्रों (बायोम) की यात्राएं भी करते हैं।

हमने पाया है कि इन अनुभवों के माध्यम से, और कुछ समय इन अनुभवों पर चिंतन करने में लगाने से बच्चे किताबों की तुलना में कहीं अधिक सीखते हैं (ऐसा नहीं है कि किताबें सीखने का हिस्सा नहीं हैं, लेकिन वे केवल एक हिस्सा हैं) और अक्सर हम उन्हें जितना सिखाना चाहते थे या जहाँ से हम शुरुआत करना चाहते थे उससे कहीं अधिक सीख पाते हैं। वे ऐसी बातों को देख पाते हैं जो हमारी नज़रों से चूक जाती हैं, उन पैटर्न को देखते हैं जिन्हें हमने पहले नहीं देखा था, और लगातार अभ्यास के द्वारा पौधों और जानवरों की देखभाल करना सीखते हैं। यह सब केवल ज्ञानार्जन करने में ही योगदान नहीं देते, बल्कि अक्सर इन अनुभवों के द्वारा बच्चे सहानुभूति, संवेदनशीलता, सहयोग जैसे मानवीय गुणों को आत्मसात कर रहे होते हैं।

जहाँ तक संभव होता है हम इन अनुभवों को अपनी परंपरागत शिक्षा से जोड़ने का प्रयास करते हैं- जैसे अपनी पहाड़ी यात्राओं के अनुभवों को हम विज्ञान की कक्षाओं में काम में लेते हैं, और खेतों के अपने अनुभवों का उपयोग भाषा और गणित की कक्षाओं के हिस्से के रूप में करते हैं। हालांकि बच्चे जैसे-जैसे बड़ी कक्षाओं में पहुँचते हैं तब उनके परिवेश के अनुभवों को उनकी पाठ्यपुस्तकों के साथ  सीधे तौर पर जोड़ना कठिन होता जाता है, लेकिन ऐसा ना हो पाने पर भी अनुभव से सीखने व में कम नहीं हो जाता, बल्कि बढ़ता ही है। हम यह नहीं कहना चाह रहे हैं कि सीखने की प्रति कोई महत्व नहीं है, या इसकी कोई रूपरेखा नहीं होनी चाहिए बल्कि हमने देखा है कि जिस तरह से  सीखने-सिखाने का अपना एक महत्व है, वैसे ही मुक्त और अनिर्देशित अवलोकन की अपनी एक उपयोगिता है।  

हमारे सीखने-सिखाने की पद्धति की सीमाओं से हम परिचित हैं, और हमने अपने आप पर काम करते हुए सचेत रूप से कुछ तरीकों का चुनाव किया है। हमारे कई छात्र अपने परिवार की शिक्षा प्राप्त करने वाली पहली पीढ़ी से आते हैं और परीक्षाओं की कठिनाई से जूझना उनके स्कूली शिक्षा को पूर्ण करने के मार्ग में बाधा पैदा करता है  शिक्षा को समग्रता में देखने के हमारे प्रयास का अर्थ यही है कि हम परीक्षा की ज़रूरत के हिसाब से किसी विशिष्ट पुस्तक को काम में लेने पर ज़ोर नहीं देते हैं, इसलिए यह संभावना नहीं है कि हमारे छात्र कभी 'टॉपर्स' की श्रेणी में आ पायेगें।  10 वर्षों तक मरुदम को स्कूल के रूप में संचालित करने के हमारे अनुभव के द्वारा, यह बात अधिक स्पष्ट हुई है कि 'करना' सीखने का एक अनिवार्य अंग है। किसी भी चीज़ को क्यों सीखा जा रहा है इसे तभी समझा जा सकता है जब आपने उससे संबंधित ज्ञान का इस्तेमाल करने या कार्य को करके देखने की कोशिश की हो। इसके अलावा, यह आवश्यक है कि विद्यार्थी अपने परिवेश से जुड़े रहें- प्रयोगशाला के प्रयोग एक हद तक महत्वपूर्ण हैं, लेकिन हमारे अपने परिवेश में काम करके सीखने का स्थान नहीं ले सकते जैसे आसपास के कचरे से खाद बनाना और उसका उपयोग करना, जिस भूमि पर हम रहते हैं उस पर काम करना, अपने आसपास के जीवों  व प्राणियों को समझना और उनकी देखभाल करना। ये सभी पाठ्येतर गतिविधियाँ नहीं हैं,बल्कि यह पाठयक्रम का ही हिस्सा हैं।


लेखक ध्रुव पिछले आठ-दस साल से शिक्षा और शिक्षण कार्य से जुड़े हुए हैं। कई विद्यालयों में पढ़ाने के बाद, जैसे ही वह मरुदम पहुँचे उन्हें लगा कि अपना घर मिल गया है। वे ज्यादातर बच्चों के साथ फुटबॉल और फ्रिसबी खेलते हैं, और कभी-कभी पहाड़ चढ़ने जाते हैं।

भाषान्तर: मधुलिका झा

संपर्क : dhruva.desai@gmail.com

स्रोत - शिक्षा विमर्श मार्च-अप्रैल, 2021

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Post By: Shivendra
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