भारत में पानी के प्रबंधन का अभाव है बहुत कम एजेंसियां इसके लिए काम करती हैं। यहाँ पर आबादी का घनत्व ज्यादा है, खेती के तरीके असंवेदनशील हैं और औद्योगीकरण बड़े स्तर पर हो रहा है। जल स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है वर्षा का बहुत बड़ा हिस्सा आज भी नालों के जरिए नदी और नदियों के जरिए समुद्र में समाहित हो जाता है
अपनी जल दैनिक आवश्यकता का मात्र 40 प्रतिशत भाग ही प्राप्त कर पा रहे हैं। किसी तरह खीच-तान के काम चलाना पड़ रहा है। जल उपभोग तेजी से बढ़ रहा है। इसी बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन के हिसाब से लगभग 60 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। औद्योगीकरण के कारण कहीं कहीं यह मात्रा घटकर मात्र 10 से 15 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन रह गई है।
वायुमंडल का जल वाष्प और कार्बन डाइऑक्साइड एक प्रकार का तापक्रम बफर (ग्रीन हाउस प्रभाव ) पैदा करते हैं जो पृथ्वी के तापमान को सापेक्षतया स्थिर बनाने में मदद करते हैं। अगर पृथ्वी और छोटी होती तो पतले वायुमंडल के कारण भीषण परिस्थितियाँ पैदा होती तथा इससे पानी का ठहराव केवल ध्रुवीय आईस कैंपों में हो पाता पृथ्वी में परिवर्तनीय सौर विकिरण के विभिन्न स्तर पहुँचने के बावजूद इसकी सतह का तापमान भूगर्भीय समय के अनुसार स्थिर रहा है
पानी के कुछ विशेष गुण वैज्ञानिकों के सतत् प्रयासों के बाद आज भी समझ से परे हैं। उदाहरण के तौर पर पानी का घनत्व 4°C से ऊपर तथा नीचे कम होना शुरू हो जाता है तथा पानी का ठोस रूप में आयतन बढ़ जाता है। इसके अतिरिक्त पानी की विशिष्ट ऊष्मा समान तरह के द्रव्यों में सबसे अधिक होती है
भूमिगत जलस्त्रोतों में आर्सेनिक, लेड, पारा, कैडमियम और फ्लोराइड जैसे सूक्ष्म तत्वों की मात्रा बढ़ रही है, जो कि हानिकारक हो सकती है। ये तत्व जब शरीर में जमा होने लगते हैं तो तरह-तरह की बीमारियां पैदा करते हैं। आर्सेनिक के कारण कैंसर की आशंका बढ़ जाती है, खासतौर पर गुर्दे, यकृत, आंत और त्वचा कैंसर की। इसी प्रकार फ्लोराइड की अधिकता से हड्डियां कमजोर होने लगती है तथा जोड़ों में दर्द की शिकायत हो सकती है।
नदियों का पारिस्थितिक तंत्र पर पड़ने वाला कुप्रभाव क्षेत्र के आर्थिक एवं सामाजिक विकास को प्रभावित करता है। जैसा कि सर्वविदित है कि किसी क्षेत्र के आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए यह आवश्यक है कि क्षेत्र में प्रवाहित होने वाली नदियों में न्यूनतम जल उपलब्धता पूरे वर्ष बनी रहे। जिसका प्रभाव क्षेत्र में निवास करने वाले जलजीवों, वनों, वनस्पतियों पर पड़ता है। इसके अतिरिक्त नदियों से अनियंत्रित जल निकासी में वृद्धि नदियों के पारिस्थितिक तंत्र के लिए हानिकारक है।
तालाबों के किनारे प्रायः पेड़ लगाने की परम्परा है। यह अच्छी परम्परा है। लेकिन तालाब किनारे पेड़ लगाते समय पूरब या पश्चिम दिशा खुली छोड़ देनी चाहिये; ताकि तालाब के पानी को धूप मिल सके। तालाब का घेरान करना भी आवश्यक है। घेरान से बाहरी कचरा हवा के साथ उड़ कर उसके अंदर नहीं आता है और अचानक दौड़ कर आने वाले जानवरों या आदमी के लिये भी वह खतरनाक साबित होने से बच जाता है। कुएं या तालाब के जल के शुद्धीकरण के लिये उसमें मछली पालना आवश्यक है।
हमारे वर्तमान तथा भविष्य के लिए भूगर्भ जल का घटना तथा संचय का अपेक्षित रूप से न भरपाना चिंता का विषय है। पानी अगर जरूरत 'भर बचाया जा सका तो उसका संचयन ही जीवन और धरा के लिए अमृत बनेगा।
हम जलवायु परिवर्तन के दंश को महसूस करने वाली पहली पीढ़ी हैं, और हम निश्चित रूप से आखिरी पीढ़ी हैं जो अब इसके बारे में कुछ कर सकते हैं। हमें ग्रह की रक्षा करने और उसे अगली पीढ़ी को सौंपने कोमिशन के रूप में लेना चाहिए।
प्राकृतिक कोप के कारण सूखे के हालात बने रहते हैं। कम वर्षा के कारण जल संचय और जल के सदुपयोग हेतु सुध लेने की पहल इस वाक्य के साथ ही गयी जहां चाह वहां राह इस मूल मंत्र को समझकर ललितपुर के सहरिया आदिवासियों वनवासियों की जीवन रेखा बंडई नदी के सूख जाने पर मातम मनाते चेहरों के आंसू पोंछ कर उनके जीवन में खुशियां लौटाने की सौगात दी गई।
जलवायु परिवर्तन के कारण मिट्टी, जल और जैव विविधता बुरी तरह से प्रभावित हुई है। विश्व बैंक के आंकड़ों से विदित होता है कि हर 9 में से एक व्यक्ति भूखा रहता है। विकासशील देशों में 12.9 प्रतिशत जनसंख्या अल्पपोषित है। साथ में यह भी पूर्वानुमान लगाया गया है कि सन् 2050 तक 9 अरब जनसंख्या का पेट भरने के लिए लगभग 70 प्रतिशत अधिक फसल उगानी होगी।
पर्यावरण के प्रति जागरूकता होगी. दुनिया भर समेत भारत में भी पर्यावरण और जैव विविधता की रक्षा के लिए कई कार्य किए जा रहे हैं. इसे संविधान के मौलिक कर्तव्य (भाग lVA अनुच्छेद 51A) में भी दर्ज किया गया है, जिसके तहत वनों, झीलों और नदियों और वन्यजीवों सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और सुधार करना और जीवित प्राणियों के लिए दया करना शामिल है
वर्तमान में फोन और इंटरनेट का प्रयोग इतना अधिक हो गया है जो न सिर्फ हमारी जीवन शैली, स्वास्थ्य, पारिवारिक रिश्ते, सामुदायिक सामंजस्यता और संस्कारों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। बल्कि हमारे प्राकृतिक संसाधनों जैसे, जल, जमीन व पर्यावरण पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है।
पृथ्वी हमारा पर है, हमारी माँ है, हमारे जीवन का स्रोत है। यह हमें वह सब कुछ प्रदान करती है जिसकी हमें जरूरत है हवा, पानी, भोजन, आश्रय, सुंदरता, विविधता और बहुत कुछ लेकिन हम इन उपहारों के लिए आभारी नहीं हैं, बल्कि हम लालची, स्वार्थी और फिजूलखर्च हैं